चेडी राज्य: इतिहास और उपलब्धियां | Chedi Kingdom: History and Achievements. Read this article in Hindi to learn about:- 1. चेदि राजवंश का परिचय (Introduction to Chedi Dynasty) 2. चेदि राजवंश का प्रारम्भिक जीवन (Early Life of Chedi Dynasty) 3. उपलब्धियां (Achievements) and Other Details.

Contents:

  1. चेदि राजवंश का परिचय (Introduction to Chedi Dynasty)
  2. चेदि राजवंश का प्रारम्भिक जीवन (Early Life of Chedi Dynasty)
  3. चेदि राजवंश की उपलब्धियां (Achievements of Chedi Dynasty)
  4. चेदि राजवंश के धर्म तथा धार्मिक नीति (Religion and Religious Policy of Chedi Dynasty)
  5. चेदि राजवंश के निर्माण-कार्य (Construction Work of Chedi Dynasty)
  6. चेदि राजवंश के मूल्यांकन (Evaluation of Chedi Dynasty)


1. चेदि राजवंश का परिचय (Introduction to Chedi Dynasty):

मौर्य सम्राट अशोक ने भीषण युद्ध के पश्चात् कलिंग को जीतकर अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था । ऐसा प्रतीत होता है कि अशोक के निर्बल उत्तराधिकारी कलिंग पर अपना अधिकार नहीं रख सके तथा उसकी मृत्यु के पश्चात् कलिंग का राज्य पुन: स्वतन्त्र हो गया ।

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प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व में कलिंग भारत का एक अत्यन्त शक्तिशाली राज्य बन गया । इस समय हम यहाँ चेदि वंश के महामेघवाहन कुल को शासन करता हुआ पाते हैं । ‘चेदि’ भारत की एक अत्यन्त प्राचीन जाति थी ।

छठी शताब्दी ईसा पूर्व में चेदि महाजनपद विद्यमान था जिसमें संभवतः आधुनिक बुन्देलखण्ड तथा उसके समीपवर्ती प्रदेश सम्मिलित थे । चेतिय जातक में इसकी राजधानी सोत्थिवती बताई गयी है । महाभारत में इसी को शुक्तिमती (शक्तिमती) कहा गया है । लगता है कि इसी चेदि वंश की एक शाखा कलिंग गयी तथा उसने वहाँ एक स्वतन्त्र राजवंश की स्थापना की ।

महाराज खारवेल:

सम्भवत: कलिंग के चेदि राजवंश का संस्थापक महामेघवाहन नामक व्यक्ति था । अत: इस वंश का नाम महामेघवाहन वंश भी पड़ गया । इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा खारवेल हुआ । खारवेल प्राचीन भारतीय इतिहास के महानतम सम्राटों में से एक है ।

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उड़ीसा प्रान्त के भुवनेश्वर (पुरी जिला) से तीन मील की दूरी पर स्थित उदयगिरि पहाड़ों की ‘हाथीगुम्फा’ से उसका एक बिना तिथि का अभिलेख प्राप्त हुआ है । इसमें खारवेल के बचपन, शिक्षा, राज्याभिषेक तथा राजा होने के बाद से तेरह वर्षों तक के शासन-काल की घटनाओं का क्रमबद्ध विवरण दिया हुआ है । हाथीगुम्फा अभिलेख खारवेल के राज्यकाल का इतिहास जानने का एकमात्र स्रोत है । यहाँ उसी के आधार पर खारवेल के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का विवरण प्रस्तुत किया जायेगा ।


2. चेदि राजवंश का प्रारम्भिक जीवन (Early Life of Chedi Dynasty):

हाथीगुम्फा अभिलेख खारवेल की उत्पत्ति तथा वंश परम्परा पर कोई प्रकाश नहीं डालता । उसे कलिंग का तीसरा शासक बताया गया है । महामेघवाहन उसका पितामह था । मंचपुरी गुफा के एक लेख में वक्रदेव नामक महामेघवाहन शासक का उल्लेख हुआ है ।

डॉ. सी. सरकार तथा ए. के. मजूमदार जैसे विद्वान इसे ही कलिंग के चेदि वंश का दूसरा शासक तथा खारवेल का पिता बताते हैं । किन्तु यह पूर्णतया अनुमानपरक है तथा इस संबन्ध में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते ।

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हाथीगुम्फा अभिलेख से पता चलता है कि जन्म से लेकर 15 वर्ष की अवस्था तक उसे युवा राजकुमारों के अनुसार विविध प्रकार की क्रीड़ाओं तथा विद्याओं की शिक्षा-दीक्षा मिली । उसका शरीर स्वस्थ्य तथा वर्ण गौर था । उसे लेख, मुद्रा, गणना, व्यवहार, विधि तथा दूसरी विद्याओं की शिक्षा मिली थी तथा वह सभी विद्याओं में पारंगत हो गया ।

15 वर्ष की अवस्था में वह युवराज बनाया गया तथा युवराज के रूप में 9 वर्षों तक प्रशासनिक कार्यों में भाग लिया । 24 वर्ष की आयु में उसका राज्याभिषेक किया गया तथा वह राजा बना । उसका विवाह ललक हत्थिसिंह नामक एक राजा की कन्या से हुआ था जो उसकी प्रधान महिषी बन गयी ।


3. चेदि राजवंश की उपलब्धियां (Achievements of Chedi Dynasty):

राजा होने के पश्चात् प्रथम वर्ष उसने अपनी राजधानी कलिंग नगर में निर्माण कार्य करवाया । उसने तोरणों तथा प्राचीरों की मरम्मत करवाई जो तूफान में ध्वस्त हो गये थे । उसने शीतल जल से युक्त तड़ागों का भी निर्माण करवाया । इन कार्यों में उसने पाँच लाख मुद्रायें व्यय कर दीं ।

इस प्रकार उसने अपनी प्रजा में व्यापक लोकप्रियता प्राप्त कर ली तथा राजा के रूप में उसकी स्थिति अत्यन्त सुदृढ़ हो गयी । तत्पश्चात् उसने दिग्विजय के निमित्त एक व्यापक योजना तैयार की । अपने शासनकाल के दूसरे वर्ष खारवेल ने शातकर्णि की शक्ति की उपेक्षा करते हुए एक विशाल सेना, जिसमें अश्व, गज, रथ एवं पैदल सैनिक सभी सम्मिलित थे, पश्चिम की ओर भेजी ।

यह सेना कण्वेणा नदी तक आगे बढ़ी तथा इसने मुसिकनगर में आतंक फैला दिया । कण्वेणा नदी तथा मुसिकनगर दोनों के समीकरण के विषय में पर्याप्त मतभेद है । रैप्सन तथा बरुआ कण्णवेणा की पहचान वेनगंगा (महाराष्ट्र की एक छोटी नदी) तथा उसकी सहायक नदी कन्हन के साथ करते हैं । उन्होंने मुसिकनगर को गोदावरी घाटी में स्थित अस्सिक (अश्मक) की राजधानी बताया है ।

काशी प्रसाद जायसवाल कण्वेणा को आधुनिक कृष्णा नदी तथा मुसिकनगर को कृष्णा तथा मुसी के संगम पर स्थित मानते हैं । शातकर्णि की पहचान सातवाहन नरेश शातकर्णि प्रथम से की जाती है । यह निश्चित नहीं है कि खारवेल तथा शातकर्णि की सेनाओं में कोई प्रत्यक्ष संघर्ष हुआ या नहीं । अश्मक शातकर्णि के प्रभाव में था ।

अत: वह खारवेल के आक्रमण की उपेक्षा नहीं कर सकता था । लगता है यह खारवेल का धावा मात्र था जिसे शातकर्णि सफलतापूर्वक टालने में समर्थ रहा । अपनी इसी सफलता के उपलक्ष्य में शातकर्णि ने अश्वमेध यज्ञ किया ।

इस प्रकार खारवेल को प्रथम सैन्य अभियान में कोई विशेष सफलता नहीं प्राप्त हुई । राज्यारोहण के तीसरे वर्ष खारवेल ने अपनी राजधानी में संगीत, वाद्य, नृत्य, नाटक आदि के अभिनय द्वारा भारी उत्सव मनाया । राज्याभिषेक के चौथे वर्ष खारवेल ने बरार के भोजकों तथा पूर्वी खानदेश और अहमदनगर के रीठकों के विरुद्ध सैनिक अभियान किया । वे परास्त किये गये तथा उसकी सेवा करने के लिये बाध्य किये गये ।

इसी विजय के प्रसंग में विद्याधर नामक जैनियों की एक शाखा के निवास-स्थान का उल्लेख हुआ है तथा बताया गया है कि खारवेल ने वहाँ निवास किया था । इसकी स्थापना कलिंग के पूर्ववर्ती राजाओं द्वारा की गयी थी । ऐसा प्रतीत होता है कि यह जैनियों का एक पवित्र तीर्थस्थान समझा जाता था तथा इसकी रक्षा करना खारवेल का परम कर्त्तव्य था ।

रठिकों तथा भोजकों ने वहाँ अपना अधिकार कर लिया होगा । संभव है इसी कारण वह भोजकों तथा रठिकों के विरुद्ध युद्ध में गया हो । खारवेल ने उन्हें पराजित कर उनके रत्न एवं धन को छीन लिया । पश्चिमी भारत में उनका एक शक्तिशाली राज्य था ।

रठिकों तथा भोजकों का उल्लेख अशोक के लेखों में भी मिलता है । वे मौर्यों की अधीनता स्वीकार करते थे । सातवाहन वंशी शासकों के साथ उनके मैत्री संबन्ध थे । शातकर्णि प्रथम की पत्नी नागनिका महारठी वंशीय कन्या थी ।

इस प्रकार खारवेल द्वारा उन्हें पराजित किया जाना निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी । अपने शासन-काल के पाँचवें वर्ष वह तनसुलि से एक नहर के जल को अपनी राजधानी ले आया । इस नहर का निर्माण तीन सौ वर्ष पूर्व नन्द राजा द्वारा किया गया था ।

यह स्पष्ट नहीं है कि यह नन्द राजा मगध का प्रसिद्ध शासक महापदमनन्द था अथवा कलिंग का कोई स्थानीय शासक था । छठे वर्ष में एक लाख मुद्रा व्यय करके खारवेल ने अपनी प्रजा को सुखी रखने के लिये अनेक प्रयास किये । उसने ग्रामीण तथा शहरी जनता के कर माफ कर दिये । उसके राज्यारोहण के सातवें वर्ष का विवरण संदिग्ध है ।

अपने अभिषेक के आठवें वर्ष में खारवेल ने उत्तर भारत में सैनिक अभियान किया । उसकी सेना ने गोरथगिरि (बराबर की पहाड़ियों) को पार करते हुये तथा मार्ग में दुर्गों को ध्वस्त करते हुये घेरा डाला । उसकी सेना के डर से यवनराज दिमिति की सेना आतंकित हो गयी और वह मथुरा भागा ।

इस यवन शासक की पहचान सुनिश्चित नहीं है । स्टेनकोनो नामक विद्वान् ने इसका समीकरण डेमेट्रियस प्रथम अथवा द्वितीय से स्थापित किया है । कुछ अन्य विद्वान् इसे कोई हिन्द यवन अथवा शक शासक मानने के पक्ष में हैं । किन्तु इस सम्बन्ध में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते ।

नवें वर्ष उसने अपनी उत्तर भारत की विजय के उपलक्ष्य में प्राची नगर के दोनों किनारों पर ‘महाविजय प्रासाद’ बनवाये । उसने ब्राह्मणों को दानादि दिये तथा आगे भी विजय के लिये सैनिक तैयारियाँ कीं । दसवें वर्ष उसने पुन: भारतवर्ष यानी गंगा-घाटी पर आक्रमण किया, परन्तु कोई विशेष सफलता नहीं मिली ।

ग्यारहवें वर्ष में खारवेल ने दक्षिण भारत की ओर ध्यान दिया । उसकी सेना ने पिथुन्ड नगर (मद्रास के निकट) को ध्वस्त किया तथा और आगे दक्षिण की ओर जाकर तमिल संघ का भेदन किया (भिदति त्रमिर-दह-संघात) । ऐसा प्रतीत होता है कि उसका सामना करने के लिये सुदूर दक्षिण के तमिल राजाओं ने कोई संघ बना लिया जिसे खारवेल ने नष्ट कर दिया ।

लेख के अनुसार खारवेल ने पिथुण्ड नगर में गदहों का हल चलवाया था । इस नगर की पहचान मसूलीपट्टम् के निकट स्थित पिटुण्ड्र नामक स्थान से की जाती है जिसका उल्लेख टालमी ने किया है । सुदूर दक्षिण में विजय करते हुए खारवेल पाण्ड्य राज्य तक जा पहुँचा ।

बारहवें वर्ष खारवेल ने दो सैन्य अभियान किये-एक उत्तर भारत तथा दूसरा दक्षिण भारत में । सर्वप्रथम उसने अपनी सेना को उत्तर भारत के मैदानों में भेजा तथा उसने अपने अश्वों एवं हाथियों को गंगा नदी में स्नान करवाया ।

मगध नरेश, जिसका नाम डॉ. जायसवाल तथा डॉ. बरुआ ने ‘बहसतिमित्र’ (बृहस्पतिमित्र) पढ़ा है, पराजित हुआ तथा उसने खारवेल की अधीनता स्वीकार कर ली । इस प्रकार यह अभियान सफल रहा तथा खारवेल अपार लूट की सम्पत्ति तथा कलिंग की जिन-प्रतिमा, जिसे तीन शताब्दियों पूर्व नन्दशासक द्वारा मगध ले जाया गया था, को लेकर अपनी राजधानी वापस लौटा ।

इस धन की सहायता से उसने सुन्दर टावरों से सुसज्जित एक भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया । डॉ. बरुआ के अनुसार यह मन्दिर भुवनेश्वर में बनवाया गया था । ब्रह्माण्ड पुराण की उड़िया पांडुलिपि के एक संदर्भ से इसकी पुष्टि होती है, जिसमें खारवेल को भुवनेश्वर में एक मन्दिर बनवाने का श्रेय दिया गया है ।

उत्तरी अभियान से निवृत्त होने के उपरान्त खारवेल ने बारहवें वर्ष ही दक्षिण की ओर पुन: एक अभियान किया । वह सुदूर दक्षिण में स्थित पाण्ड्य राज्य तक जा पहुँचा । बताया गया है कि उसने जल तथा थल दोनों ही मार्गों से पाण्ड्यों की राजधानी पर धावा बोला । यह अभियान पूर्णरूपेण सफल रहा ।

पाण्ड्य नरेश ने उसकी अधीनता स्वीकार की तथा उसके लिये मुक्तामणियों का उपहार दिया । यह खारवेल का अन्तिम सैन्य अभियान था । वह अपने साथ सम्पत्ति लेकर अपनी राजधानी वापस लौट आया । अपने शासन के तेरहवें वर्ष में खारवेल ने कुमारीपहाड़ी पर जैन भिक्षुओं के निवास के निमित्त गुहाविहारों का निर्माण करवाया था । कुमारीपहाड़ी से तात्पर्य उदयगिरि-खंडगिरि की पहाड़ियों से है ।


4. चेदि राजवंश के धर्म तथा धार्मिक नीति (Religion and Religious Policy of Chedi Dynasty):

सातवाहन नरेशों के विपरीत खारवेल जैन धर्म का अनुयायी था । उसने जैन साधुओं को संरक्षण प्रदान किया, उनके निर्वाह के लिये प्रभूत दान दिये तथा उनके रहने के लिये आरामदायक निवास स्थान बनवाये । हाथीगुम्फा लेख का उद्देश्य उदयगिरि पहाड़ी पर बनवाये गये ऐसे ही भिक्षु आवासों का विवरण सुरक्षित रखना था ।

परन्तु स्वयं जैन होते हुए भी वह अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु था । हाथीगुम्फा के लेख से पता चलता है कि उसने सभी देवताओं के मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया था तथा वह अशोक के समान सभी सम्प्रदायों का समान रूप से आदर करता था ।


5. चेदि राजवंश के निर्माण-कार्य (Construction Work of Chedi Dynasty):

खारवेल एक महान् निर्माता भी था । उसने राजा होते ही अपनी राजधानी को प्राचीरों तथा तोरणों से अलंकृत करवाया । अपने राज्याभिषेक के तेरहवें वर्ष उसने भुवनेश्वर के पास उदयगिरि तथा खण्डगिरि की पहाड़ियों को कटवा कर जैन भिक्षुओं के आवास के लिये गुहा-विहार बनवाये थे । उदयगिरि में 19 तथा खण्डगिरि में 16 गुहा विहारों का निर्माण हुआ था ।

उदयगिरि में रानीगुम्फा तथा खण्डगिरि में अनन्तगुम्फा की गुफाओं में उत्कीर्ण रिलीफ चित्रकला की दृष्टि से उच्चकोटि के हैं । इन चित्रों में तत्कालीन समाज के जनजीवन की मनोरम झांकी सुरक्षित है । उसके द्वारा बनवाया गया ‘महाविजय प्रसाद’ भी एक अत्यन्त भव्य भवन था ।


6. चेदि राजवंश के मूल्यांकन (Evaluation of Chedi Dynasty):

खारवेल के जीवन एवं कृतियों का जो विवरण हमें प्राप्त है उससे यह स्पष्ट है कि वह एक महान् विजेता, लोकोपकारी शासक, महान् निर्माता तथा धर्म-सहिष्णु सम्राट था । यह स्वयं विद्वान तथा विद्वानों का आश्रयदाता था । अभिलेख में उसे ‘राजर्षि’ कहा गया है ।

इसके अतिरिक्त लेमराज, वृद्धराज, भिक्षुराज, धर्मराज तथा महाविजयराज जैसे विशेषणों का प्रयोग भी उसके लिये मिलता है । इनसे सूचित होता है कि खारवेल में एक ही साथ राजविजयी एवं धर्मावजयी शासक के गुणों का समन्वय था ।

वस्तुतः वह हमारे समक्ष एक उल्का की भाँति उपस्थित होता है । उसकी उपलब्धियाँ हमें उस विद्युत प्रकाश के समान चकाचौंध करती हैं जो क्षण मात्र के लिये चमक कर तिरोहित हो जाता है । संभव है हाथीगुम्फा अभिलेख का विवरण अतिश्योक्तिपूर्ण हो, परन्तु फिर भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि वह एक असाधारण योग्यता वाला सेनानायक था और उसके समय में कलिंग का राज्य अपने गौरव की पराकाष्ठा पर पहुँच गया जिसे वह उसकी मृत्यु के शताब्दियों बाद भी पुन: नहीं प्राप्त कर सका ।

उनकी रानी के लेख में उसे चक्रवर्ती शासक कहा गया है । उसका अन्त किन परिस्थितियों में हुआ, यह हमें ज्ञात नहीं है । वस्तुतः जितनी तेजी से उसका उत्थान हुआ, उतनी ही तेजी से पतन भी हो गया । उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका शक्तिशाली साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया ।

खारवेल ने कुल 13 वर्षों तक राज्य किया । उसकी तिथि के विषय में विवाद है । हाथीगुम्फा अभिलेख की लिपि प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व के आस-पास की है । अत: हम खारवेल को ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में रख सकते हैं । अभिलेख के अन्त:साक्ष्य से भी इसी तिथि की पुष्टि होती है । इसकी छठीं पंक्ति में कहा गया है कि खारवेल ने तनसुलि से एक नहर का विस्तार अपनी राजधानी तक किया था ।

इस नहर का निर्माण उसके 300 वर्षों पूर्व मगध के नन्द राजा ने करवाया था । यह नन्द राजा महापदमनन्द ही है जिसकी तिथि ईसा पूर्व 344 मानी जाती है । अत: खारवेल का समय 344 – 300 = 44 ईसा पूर्व में निश्चित होता है ।

हाथीगुम्फा लेख:

उड़ीसा प्रान्त के पुरी जिले में भुवनेश्वर मन्दिर से तीन मील पश्चिम की ओर उदयगिरि-खण्डगिरि की पहाड़ियाँ स्थित है जिनमें प्राचीन जैन गुफायें खोदी गयी है । इन्हीं में से एक का नाम हाथीगुम्फा है । यही सत्रह पंक्तियों में ब्राह्मी लिपि में यह लेख खुदा हुआ है । भाषा प्राकृत है जो पालि से मिलती-जुलती है । इस लेख में कोई तिथि नहीं दी गयी है । लिपिशास्त्र के आधार पर इसे ईसा पूर्व पहली शताब्दी का माना जाता है । इसके रचयिता का नाम भी अज्ञात है ।

सर्वप्रथम 1825 ई. में इस लेख की खोज बिशप स्टर्लिंग ने की थी । इसके बाद प्रिंसेप ने इसका वाचन किया, लेकिन वह शुद्ध नहीं था । 1880 ई. में राजेन्द्र लाल मित्र ने इसका दूसरा पाठ और अर्थ प्रकाशित किया लेकिन वह भी अपूर्ण ही रहा । 1877 ई. में जनरल कनिंघम तथा 1885 में भगवान लाल इन्द्र जी द्वारा इसका शुद्ध पाठ प्रस्तुत किया गया जिनमें राजा का नाम ‘खारवेल’ सही ढंग से पढ़ा गया ।

पहली बार डा. के. पी. जायसवाल ने 1917 ई. में इसका छायाचित्र जर्नल ऑफ विहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी में प्रकाशित करवाया । तत्पश्चात् आर. डी. बनर्जी, ब्यूलर, फ्लीट, टामस, बी. एम. बरूआ, स्टेनकोनो, डी. सी. सरकार, शशिकान्त आदि अनेक विद्वानों ने इस लेख पर महत्वपूर्ण शोधकार्य किये ।

हाथीगुम्फा लेख एक प्रशास्ति के रूप में है जिसका मुख्य उद्देश्य खारवेल के जीवन तथा उपलब्धियों का विवरण सुरक्षित रखना है । जायसवाल का अनुमान है कि इसका लेखक कोई वरिष्ठ पदाधिकारी था जिसने खारवेल को बचपन से देखा होगा ।

हाथीगुम्फा लेख का हिन्दी भाषान्तर:

अर्हन्तों को नमस्कार । सभी सिद्धों को नमस्कार । आर्य महाराज, महामेघवाहन, चेदिराजवंशवर्धन, प्रशस्त एवं शुभ लक्षणों से युक्त, चारों दिशाओं में व्याप्त गुणों वाले, कलिंग के राजा श्री खारवेल द्वारा पन्द्रह वर्ष तक गौर वर्ण वाले शरीर से कुमार क्रीड़ायें की गयीं ।

तत्पश्चात् लेख, रूप, गणना, कानून तथा व्यवहार में प्रवीण, समस्त विद्याओं में विशारद उसके द्वारा युवराज पद नौ वर्ष तक विद्यमान रहा गया । चौबीस वर्ष पूर्ण हो जाने पर (वह), जो बचपन से ही वर्धमान तथा विजय में वेन पुत्र (पृथु) तुल्य था, कलिंग राजवंश तीसरे पुरुषयुग में महाराज अभिषेक को प्राप्त हुआ ।

अभिषेक के बाद प्रथम वर्ष में कलिंग नगरी में तूफान से नष्ट हुए गोपुरों, प्राचीरों तथा भवनों की (उसने) मरम्मत करवायी तथा नगर का प्रति संस्कार करवाया । शीतल तथा सोपान युक्त तालाबों एवं उद्यानों का निर्माण करवाया । पैंतीस लाख मुद्रा खर्च कर प्रजा का मनोरंजन किया ।

दूसरे वर्ष में सातकर्णि की उपेक्षा करते हुए उसने अश्व, गज, पैदल तथा रथों की विशाल सेना पश्चिम की ओर भेजी । उस सेना ने कण्णवेणा नदी तक जाकर असिक नगर में आतंक फैलाया । तीसरे वर्ष में गन्धर्व विद्या प्रवीण ने नृत्य, गीत, वाद्य, उत्सव तथा समाज का आयोजन कर नागरिकों का मनोरंजन किया ।

चौथे वर्ष विद्याघरों की बस्ती को जिस पर पहले कभी आक्रमण नहीं हुआ था में निवास किया ।… सब राष्ट्रिकों और भोजकों से, जो अपने रत्नों और सम्पत्ति से विहीन कर दिये गये थे (उसने) अपने चरणों की वन्दना करवायी । पाँचवें वर्ष में नन्दराज द्वारा तीन सौ वर्ष पहले खुदवायी गयी नहर को तनसुलि मार्ग से नगर (राजधानी) में ले आया ।

छठे वर्ष उसने राजैश्वर्य प्रदर्शित करते हुए गाँवों तथा नगरों के निवासियों पर अनेक अनुग्रह किया । सब प्रकार के लाखों कर माफ किये । सातवें वर्ष में वाजिरघर……. आठवें वर्ष गोरथगिरि पर विशाल सेना लेकर आक्रमण कर घेरा डाला ।

उसके आतंक से यवनराज दिमिति मथुरा भागा । नवें वर्ष में फल एवं पल्लवों से परिपूर्ण कल्पवृक्ष के समान अश्व गज, रथ, भवन तथा शालायें दान में दिया । इन सबको ग्रहण कराने के लिये ब्राह्मणों को जय परिहार (विजय प्राप्ति के उपलक्ष में कर मुक्त जागीरें) दिये ।…..

अड़तीस लाख व्यय करके महाविजयप्रासाद बनवाया । दसवें वर्ष दण्ड सन्धि तथा सामनीति के ज्ञात ने (खारवेल ने) पृथ्वी विजय हेतु भारत को प्रस्थान किया…, ग्यारहवें वर्ष में पराजितों से मणि और रत्न प्राप्त किया । एक पूर्व राजा द्वारा स्थापित पिथुण्ड नगर को ध्वस्त कर गधों का हल चलवा दिया, जनपद के कल्याण के लिये तेरह सौ वर्षों से स्थापित तमिलसंघ को छिन्न-भिन्न कर दिया ।

बारहवें वर्ष उत्तरापथ के राजाओं को भयभीत किया……. मगध के लोगों में विपुल भय उत्पन्न करके हाथियों तथा घोड़ों को गंगा का जल पिलाया, मगध नरेश बहसति मित्र से अपने चरणों की पूजा करवायी । नन्द राज द्वारा कलिंग से ले जायी गयी ‘जिन’ की प्रतिमा को वापस लाने के साथ-साथ अंग तथा मगध की सम्पदा भी ले आया ।

शतविंशक (मुद्रायें) व्यय करके दृढ़ और सुन्दर तोरण द्वार और शिखर बनवाये । अद्भुत तथा आश्चर्यजनक हस्ति निवास का अपहरण किया । पाण्डच्य राजा से अश्व, रथ, रत्न माणिक्य तथा बहुमूल्य मणिमुक्ताओं का हार प्राप्त किया जो लाखों की संख्या में थे ।

तेरहवें वर्ष विजय चक्र के प्रवर्त्तन के साथ आश्रयहीन धर्मोपदेशक अर्हतों के विश्राम के लिये खारवेल ने कुमारी पर्वत पर विश्रामस्थल के रूप में आरामदायक गुफायें उत्कीर्ण करवायीं तथा व्रत का अनुष्ठान पूर्ण कर चुके जैनियों को रेशमी वस्त्र प्रदान किये ।

श्रमणों का सत्कार करने वाले श्री खारवेल ने सब दिशाओं से आने वाले ज्ञानियों, तपस्वियों, ऋषियों और संधियों का अर्हतों के विश्रामाश्रय के पास पर्वत पृष्ठ पर कई योजन से लाई गयी, भली भाँति स्थापित की गयी शिलाओं से गर्भगृह में लाखों मुद्रायें खर्च करके वैदूर्य युक्त चार स्तम्भ स्थापित करवाये ।

मुख्य कलाओं से युक्त चौंसठ प्रकार के वाद्यों से समन्वित शन्तिपूर्ण वाद्यध्वनि उत्पन्न कराई । क्षेमराज, वृद्धराज, भिक्षुराज, धर्मराज कलाओं को देखते, सुनते तथा अनुभव करते हुए…….. विशेष गुणों में कुशल, सभी सम्प्रदाओं का उपासक, सभी देवमन्दिरों का उद्धारक, अपराजित राज्य और सेना से बलवान, सुप्रतिष्ठित राजचक्रवाला, राजमण्डल द्वारा सुरक्षित और अनुलंघित शासन वाला (वह राजा था) ।


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