खिलाफत और असहयोग आंदोलन | Read this article in Hindi to learn about the khilafat and non-cooperation movement that occurred during the freedom struggle in India . 

रौलट ऐक्ट विरोधी आंदोलन की असफलता ने गांधी को कांग्रेस जैसे एक अवैयक्तिक राजनीतिक संगठन की आवश्यकता का अनुभव दिया । उनका अगला कदम कांग्रेस का नेतृत्व अपने हाथ में लेने का था ।

रौलट विरोधी सत्याग्रह के वापस लिए जाने के बाद गांधी खिलाफ़त आंदोलन से जुड़ गए, जिसमें उनको अंग्रेजों के विरुद्ध साझे संघर्ष में हिंदुओं और मुसलमानों को एकजुट करने का एक सुनहरा अवसर नजर    आया ।

बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो में एक नया मुस्लिम नेतृत्व सामने आ चुका था, जो सर सैयद अहमद खाँ की वफ़ादारी की राजनीति और पुरानी अलीगढ़ी पीढ़ी के कुलीनवाद से दूर होकर पूरे समुदाय का समर्थन पाने के प्रयास कर रहा था । ये युवा नेता मुसलमानों के आत्माभिमान और भारतीय राष्ट्रवाद के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं समझते थे ।

उस समय तक कुछ नए प्रश्न भी सामने आ चुके थे, जिन्होंने अंग्रेजों के संरक्षण में उनकी आस्था को झकझोर दिया था । 1910 के बाद मुस्लिम विश्वविद्यालय की जो मुहिम नए सिरे से शुरू हुई थी उसे उस समय एक झटका लगा, जब सरकार ने कठोर रुख अपनाते हुए सख्त सरकारी नियंत्रण पर बल दिया और उसे एक संबद्धतादायक (affiliating) संस्था बनाने के विचार को   रद्द कर दिया ।

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बंगाल का विभाजन 1911 में रद्द कर दिया गया और मुस्लिम लीग ने 1912 में अपने कलकत्ता सत्र में इस पर दुख व्यक्त किया । 1911-12 में ट्राईपोलिटन और बॉल्कन युद्धों को दुनिया की मुस्लिम शक्तियों में अंतिम शक्ति उस्मानी साम्राज्य को कमजोर करने का यूरोपीय षड्‌यंत्र समझा जा रहा था ।

एक तुर्की राहत कोष बनाया गया और मार्च, 1912 में तुर्की के लिए एक रेड क्रेसेंट मेडिकल मिशन भेजा गया । अंग्रेजी और उर्दू, दोनों भाषाओं में कॉमरेड, हमदर्द, ज़मींदार और अल हिलाल जैसी मुस्लिम पत्र-पत्रिकाएँ आरंभ हुई और शिक्षित भारतीय मुसलमानों की इन चिंताओं को प्रतिबिंबित करने लगीं ।

एक नए शिक्षित मध्यवर्गीय नेतृत्व के साथ-साथ उल्मा भी एक नई राजनीतिक शक्ति के रूप में, या उससे भी अहम बात यह है कि भारत के विभिन्न मुस्लिम समूहों के बीच ”एक अहम कड़ी” के रूप में उभर रहे थे । उनके उदय में दो संस्थाओं का हाथ रहा: देवबंद के दारुल-उलूम का और लखनऊ के फ़िरंगी महल का ।

देवबंदियों ने 1910 में जमीयतुल-अंसार यानी भूतपूर्व छात्र सभा का और 1913 में दिल्ली में एक कुरान मदरसे का आरंभ व्यापक मुस्लिम समुदाय तक उस समय पहुँचने के लिए किया जब वह बाल्कन युद्धों के कारण भावनात्मक और राजनीतिक दोनो अर्थो में बुरी तरह प्रभावित था ।

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लखनऊ में फिरंगी महल के उल्मा जो अठारहवीं सदी में  इस्लामी ज्ञान-विज्ञान के एक बुद्धिवादी संप्रदाय का प्रतिनिधित्व करते थे, 1870 के दशक  से ही इस्लामी जगत में अधिकाधिक रुचि लेते आ रहे थे । उनमें एक थे अब्दुल बारी जो अली भाइयों-मुहम्मद अली और शौकत अली-से मिलकर पवित्र मुस्लिम स्थानों की रक्षा वेन लिए सभी भारतवासियों को एकजुट करने के उद्देश्य से कुल-हिंद अंजुमने-खुद्दामे-काबा (अखिल भारतीय काबा-सेवक सभा) की स्थापना की ।

इस तरह  उल्मा से जो दूरी बनाए रखने को सर सैयद प्राथमिकता देते थे, उसे इन युवा मुस्लिम नेताओं ने पाट दिया, क्योंकि सर सैयद के कौम (साझी वंशावली वाले समुदाय) के विचार के विपरीत वे सहधर्मियों का एक समुदाय (उम्मत) तैयार करने के बारे में अधिक चिंतित थे ।

इस बीच नेतृत्व में मुहम्मद अली, वजीर हसन और अबुल कलाम आजाद जैसे नवयुवकों के शामिल होने के बाद मुस्लिम लीग का भी कांग्रेस विरोधी और सरकार समर्थक रुख बदल रहा था । मुहम्मद अली जिन्ना भी शामिल किए गए तथा वे लीग और कांग्रेस के बीच एक पुल बन गए ।

ब्रिटिश राज ने जब  नवम्बर, 1914 में तुर्की के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की, तब ये प्रवृत्तियाँ और भी प्रबल हो उठी । मुसलमानों ने इस धर्म से इतर एक युद्ध मानने से मना कर दिया क्योंकि तुर्की से सहानुभूति रखनेवाले अली भाइयो जैसे नेताओं को जल्द ही जेल  में  डाल दिया गया ।

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1916 में लखनऊ समझौते ने संवैधानिक सुधारों के बारे में लीग और कांग्रेस की एक संयुक्त योजना सामने रखी जिसमे भारत के लिए प्रातिनिधिक शासन और डोमिनियन स्टेटस की माँग की गई थी । अलग निर्वाचकमंडली का  सिद्धांत स्वीकार किया गया तथा साम्राज्यिक और प्रांतीय, दोनों विधायिकाओं में आनुपातिक प्रतिनिधित्व पर सहमति हो गई ।

एनी बेसेंट के शुरू किए हुए होमरूल आंदोलन का 1917 में मुस्लिम लीग ने समर्थन किया । इस भरत मिलाप के बाद शीघ्र ही बिहार , संयुक्त प्रांत और बंगाल   में  हुए दंगों ने जनता और उसके नेताओं के बीच अभी भी मौजूद खाई को उजागर कर दिया ।

संवैधानिक राजनीति में नेताओं की बची-खुची आस्था को एक और झटका तब लगा जब 1919 के मांटेग्यू-चेम्सफ्रोर्ड सुधारों ने लखनऊ समझौते की उपेक्षा की और सितंबर, 1920 में पारित मुस्लिम विश्वविद्यालय विधेयक ने कठोर सरकारी  नियंत्रण वाले एक असंबद्धतादायक विश्वविद्यालय का प्रावधान किया ।

तुर्की की हार ने “‘इस्लाम खतरे में” का हौवा खड़ा कर दिया इस मुद्दे का उपयोग जन-समर्थन जुटाने के लिए किया जाने लगा । इन विकासक्रमों का परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम लीग का नेतृत्व नरमपंथी संविधानवादिया के हाथों से निकलकर उनके हाथों में चला गया जो इस्लामी धार्मिक आत्मगौरव में और व्यापक आधार वाले जन- आंदोलन में विश्वास रखते थे ।

दिसंबर 1918 में लीग के दिल्ली सत्र ने उल्मा को आमंत्रित किया और उनको सार्वजनिक रूप से महत्त्व दिया; इस तरह उनको पहली बार सीधे-सीधे राजनीति के केंद्र  में  खींचा गया । इसी तरह उस खिलाफत आंदोलन के आरंभ के लिए जमीन तैयार हुई, जो भारत के विभाजित मुस्लिम समुदाय में राजनीतिक एकता लाने के लिए चलाया गया पहला जन-आंदोलन था ।

जिस उस्मानी सुल्लान (Ottoman Emperor) को अभी भी खलीफ़ा यानी मुस्लिम जगत का आध्यात्मिक प्रमुख माना जाता था, उसके ऊपर एक कठोर शांति समझौता लादे जाने संबंधी अफवाहें भी खिलाफत आंदोलन के पीछे थीं ।

बंबई  में मार्च, 1919 मैं गठित एक खिलाफत समिति द्वारा शुरू किए हुए इस आंदोलन की तीन प्रमुख माँग थीं: पवित्र मुस्लिम स्थलों पर खलीफ़ा का नियंत्रण होना चाहिए, उसके युद्ध से पहले के इलाकों उसी के पास रहने दिया जाए ताकि वह इस्लामी जगत के प्रमुख के रूप में अपनी स्थिति को बनाए रख सके, और जजीर तुल अरब (अरब, सीरिया, इराक और फिलिस्तीन) गैर-मुस्लिम प्रभुसत्ता के अधीन नहीं होना       चाहिए ।

इस तरह यह आंदोलन हर रंग  में  एक अखिल-इस्लामी आंदोलन था, क्योंकि इसके ध्येय का भारत से कुछ लेना-देना नहीं था । लेकिन जैसा कि गेल मिनॉल्ट ने दिखाया है, खिलाफ़त का उपयोग प्रतीक रूप में अधिक किया जा रहा था । नेताओं को मध्य-पूर्व की राजनीतिक वास्तविकताओं को बदलने की कम ही चिंता थी ।

उसे एक ऐसा प्रतीक समझा गया जो अनेक आधारों पर जैसे क्षेत्रीय, भाषायी, वर्गीय और पंथगत आधारों  पर बँट भारतीय मुस्लिम समुदाय को एकजुट कर सकता था । मिनॉल्ट के शब्दो में, ”एक अखिल-इस्लामी प्रतीक ने अखिल भारतीय इस्लामिक राजनीतिक लामबंदी का मार्ग प्रशस्त किया ।”

यह अंग्रेज विरोधी था जिसने गांधी को इस ध्येय के समर्थन के लिए प्रेरित किया, ताकि मुसलमानों को भारतीय राजनीति की मुख्यधारा   में  लाया जा सके । आरंभ में खिलाफत आंदोलन में मोटे तौर पर दो प्रवृत्तियाँ थी; बंबई के  व्यापारियों के नेतृत्व मे एक नरमपंथी प्रवृत्ति तथा मुहम्मद अली, शौकत अली, मौलाना आजाद जैसे नौजवान मुस्लिम नेताओ के ओर उल्मा के नेतृत्व  में  एक गरमपंथी प्रवृत्ति ।

पहला (नरमपंथी प्रवृत्ति वाला) दल जाने-पहचाने संवैधानिक रास्ते पर ही चलना चाहता था, जैसे वायसरॉय के पास एक शिष्टमंडल भेजना या पेरिस शांति सम्मेलन में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित       कराना ।

दूसरी ओर, दूसरा (गरमपंथी प्रवृत्ति वाला) दल हिंदुओ के साथ एकता के आधार पर अंग्रेजों के विरुद्ध एक जन-आंदोलन चलाना चाहता था । गांधी ने खिलाफ़त के ध्येय को अपनाया और आरंभ में नरमपंथियों और गरमपंथिययों के बीच मध्यस्थता का काम किया ।

नरमपंथियों के पाँवों तले से जमीन तब खिसकने लगी, जब डॉ॰ अंसारी के नेतृत्व वाला प्रतिनिधिमंडल जिसमे स्वयं मुहम्मद अली शामिल थे, वायसरॉय से और फिर प्रधानमंत्री लॉयड जॉर्ज से मिला और फिर पेरिस गया, मगर खाली हाथ लौटा ।

तब गरमपंथियों ने आंदोलन को अपने हाथों में ले लिया, क्योंकि मई 1920 में तुर्की के साथ सेव्रीज़ (Sevres) की संधि की शर्तो के प्रकाशन कें बाद भावनाओं में उबाल आ गया । उसी महीने हंटर आयोग की बहुमत की रिपोर्ट प्रकाशित हुई और लगा कि उसमें जलियाँवाला बाग हत्याकांड में जनरल डायर की भूमिका की कड़ी निंदा नहीं की गई है ।

इलाहाबाद में 1-2 जून 1920 को केंद्रीय खिलाफत समिति की बैठक ने एक चार चरणों वाला असहयोग आंदोलन चलाने का निर्णय किया; इसमें पदवियों, सिविल सेवाओं, पुलिस और सेना की नौकरी का बहिष्कार और अंत में करों की अदायगी पर रोक का निर्णय किया गया ।

पूरे आंदोलन का आरंभ 1 अगस्त को एक हड़ताल के साथ होना था । असहयोग पर मुसलमानो की राय अभी भी विभाजित थी और 1920 की पूरी गर्मी में गांधी और शौकत अली ने इस कार्यक्रम के लिए जन-समर्थन जुटाने हेतु व्यापक यात्राएँ की । हड़ताल को शानदार सफलता मिली, क्योंकि तिलक का निधन भी इसी बीच हुआ और तब से असहयोग के लिए समर्थन बढ़ता ही गया ।

गांधी ने अब कांग्रेस पर तीन मुद्दों के लिए अभियान की ऐसी ही एक योजना अपनाने का दबाव डाला; ये तीन मुद्दे थे पंजाब के अत्याचार, खिलाफ़त सबंधी अन्याय और स्वराज । यंग इंडिया में एक लेख में उन्होंने घोषणा की कि इस आंदोलन के द्वारा वे एक साल में स्वराज दिलाएंगे । तो भी उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि स्वराज से वास्तव में उनका क्या अभिप्राय था ।

कांग्रेस के जमे-जमाए नेताओं को एक असहयोग आंदोलन के विषय में अभी भी शंकाएँ थीं । चूंकि उनको जन-आंदोलनों का कोई अनुभव नहीं था, इसलिए यह उन्हें अँधेरे में छलाँग लगाने जैसा लगता था । आशंका थी कि इससे हिंसा फैलेगी, जिससे नए संविधान सुधारों के लागू होने में देरी होगी, क्योंकि सुधार के बाद की काउंसिलों के चुनाव नवंबर 1920 में होने वाले थे ।

दूसरी ओर, असहयोग आंदोलन के बारे में गांधी के प्रस्ताव को समर्थन राजनीतिक पिछड़ेपन के शिकार प्रांतों और समूहों से मिला, जो अभी तक कांग्रेस की राजनीति में शामिल नहीं थे । सितंबर और दिसंबर 1920 के बीच कांग्रेस में इन दोनों समूहों के बीच रस्साकशी हुई, पर कोई भी पक्ष विभाजन नहीं चाहता था और दोनों एकमत चाहते थे ।

4-9 सितंबर 1920 को कलकत्ता में कांग्रेस का एक विशेष सत्र बुलाया गया जिसमें असहयोग के कार्यक्रम पर गांधी के प्रस्ताव को बंगाल के विपिनचंद्र पाल के एक निरूपक संशोधन (qualifying amendment) के साथ और चितरंजन दास, जिन्ना या पाल जैसे पुराने नेताओं के कठोर विरोध के बावजूद स्वीकार कर लिया गया ।

इस कार्यक्रम में सरकारी उपाधियों के त्याग, स्कूलों, अदालतों और काउंसिलों के बहिष्कार, विदेशी कपड़ों के बहिष्कार राष्ट्रीय स्कूलों की स्थापना पंचायती अदालतों की स्थापना और खादी को अपनाने की बात कही गई थी । फिर दिसंबर 1920 में नागपुर में कांग्रेस के नियमित अधिवेशन में इस कार्यक्रम को अनुमोदित किया गया ।

यहाँ भी चितरंजनदास ने विरोध किया, जो और भी गरमपंथी कार्यक्रम सामने रखकर गांधी को उन्हीं के हथियार से मात देना चाहते थे । लेकिन अंतत: एक समझौता हो गया और दास गांधी के पक्ष में हो गए । इस प्रस्ताव ने असहयोग आंदोलन के सभी पक्षों को स्वीकार किया, पर तय हुआ कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी के निर्देशानुसार उसे चरणों में लागू किया जाएगा ।

गांधी ने भरोसा दिलाया कि इस आंदोलन से एक साल में स्वराज मिल जाएगा । अगर ऐसा नहीं हुआ या अगर सरकार ने दमन का सहारा लिया, तो एक सविनय अवज्ञा अभियान शुरू किया जाएगा, जिसमें करों की अदायगी रोक दी जाएगी ।

पार्टी में कांग्रेस के एक अतिवादी पुनर्गठन की बात भी कही गई थी कि जिला और गाँव स्तर की इकाइयाँ गठित करके पार्टी को एक सच्चा जन संगठन बनाया जाएगा । कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने गांधी और उनके जन-आंदोलन के प्रस्ताव को क्यों स्वीकार किया, यह अटकल और विवाद का विषय है ।

ज्यूडिथ ब्राउन का मानना है कि नागपुर का प्रस्ताव गांधी की जीत था, क्योंकि उन्होंने ”सिद्धांत से कोई समझौता नहीं किया”, जबकि रिचर्ड गॉर्डम और रजत रे की सोच यह है कि गांधी ही दास  के आगे झुके और उनके अनेक प्रस्तावों को स्वीकार किया । इन अतिवादी विचारों को परे करके हम संभवत: यह भी कह सकते हैं कि कांग्रेस के अंदर एक बदलते शक्ति संतुलन के संदर्भ में दोनों को एक-दूसरे की आवश्यकता थी ।

एक राजनीतिक संगठनकर्ता के रूप में गांधी की क्षमता स्थापित हो चुकी थी और राजनीतिक समर्थन के नए-नए क्षेत्रों तक उनकी पहुँच थी, जो पहले के कांग्रेसी नेताओं की पहुँच से बाहर थे । गांधी को मुसलमान खिलाफत-समर्थकों से, पिछड़े क्षेत्रों से और पिछड़े वर्गो से समर्थन मिल रहा था ।

भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जनता का उभार देखा जा रहा था, जो कभी-कभी सहस्त्राब्दिक आशाओं से प्रेरित होता था और अकसर कांग्रेस के दायरे से बाहर होता था । बंगाल के मेदिनीपुर जिले, उत्तरी बिहार के कुछ भागों, संयुक्त  प्रांत में अवध के जिलों और गुजरात के खेड़ा जिले में स्वतंत्र किसान आंदोलन फूट पड़े थे ।

यह मजदूर असंतोष और ट्रेड यूनियनों का काल भी था, जब बंबई के कपड़ा उद्योग में जनवरी 1919 में एक बड़ी हड़ताल हुई, अप्रैल 1918 में मद्रास लेबर यूनियन का जन्म हुआ, लगभग 125 नई ट्रेड यूनियनें बनीं और अंत में बंबई में नवंबर 1920 में अखिल भारतीय  ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) का जन्म हुआ ।

यही संदर्भ था जब कांग्रेस के नागपुर सत्र में (14, 582 प्रतिनिधियों की) असाधारण उपस्थिति देखने को मिली और इन नए प्रतिनिधियों में से अधिकांश गांधी के समर्थक थे । इस विशाल जन-समर्थन से स्थापित नेता विचलित हो गए और उन्होंने गांधी के रास्ते को स्वीकार कर लिया, हालांकि काफी हिचक के बाद किया और प्रतिरोध के बिना तो नहीं ही किया ।

दूसरी ओर, गांधी को भी कांग्रेस के नेताओं की आवश्यकता थी, जिनके बिना वे एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाने की आशा नहीं ही कर सकते थे रौलट सत्याग्रह के हाल के अनुभव ने स्पष्ट रूप से यह बात साबित कर दी थी ।

उनका उद्देश्य विभिन्न वर्गों और समुदायों का एक महागठबंधन तैयार करना था और इस अर्थ में कांग्रेस का नागपुर सत्र राजनीतिक भारत के एक बहुलतावादी ढाँचे में एक केंद्रवादी नेतृत्व के उदय का सूचक था । असहयोग आंदोलन का आरंभ जनवरी 1921 में हुआ और शुरू में बल मध्यवर्ग की भागीदारी पर दिया गया जैसे यह कि छात्र स्कूल-कॉलेज छोड़ दें और वकील अपना वकालत का पेशा छोड़ दें ।

साथ ही, राष्ट्रीय स्कूलों और पंचायती अदालतों की स्थापना, एक करोड़ रुपए का तिलक स्वराज कोष जमा करने और उतने ही सत्याग्रही भरती करने के प्रयास किए गए । धीरे-धीरे विदेशी कपड़ों के बहिष्कार और सार्वजनिक दहन के साथ आंदोलन और भी उग्र बनता गया ।

17 नवंबर को प्रिंस ऑफ्र वेल्स के सरकारी दौरे पर भारत आने के दिन देशव्यापी हड़ताल हुई । उस दिन आंदोलन के काल का पहला हिंसक कृत्य बंबई ने देखा, जब नगर के यूरोपवासियों, एंग्लो-इंडियन और पारसी लोगो को निशाना बनाया गया ।

गांधी आगबबूला हो गए, संविनय अवज्ञा या करबंदी का अभियान स्थगित कर दिया गया, और तय हुआ कि फरवरी 1922 में बारदोली (गुजरात) में प्रयोग के तौर पर मालगुजारी की गैर-अदायगी का एक अभियान शुरू किया जाएगा ।

जगह का चुनाव सावधानी से किया गया, क्योंकि यह रैयतवारी का इलाका था, जहाँ कोई जमींदार नहीं था और इसलिए यह खतरा नहीं था कि मालगुजारी की गैर-अदायगी का अभियान बढ्‌कर लगान की गैर-अदायगी का अभियान न बन जाए और वर्गो के नाजुक गठबंधन को भंग न कर दे । पर ऐसा कभी हुआ नहीं; ऐसा होने से पहले ही असहयोग आंदोलन वापस ले लिया गया ।

असहयोग आंदोलन की सफलता के पैमाने से गांधी को पूरा संतोष तो निश्चित ही नहीं मिलने वाला था । स्कूलों, कॉलेजों और अदालतों के बहिष्कार के आँकड़ों को देखें, तो मध्यवर्ग की भागीदारी कुछ खास नहीं थी, बल्कि किसानों और मजदूरों की भागीदारी अधिक प्रभावशाली थी ।

मद्रास को छोड़ दें तो काउंसिल चुनावों का बहिष्कार कमोबेश सफल रहा और मतदान का औसत 5 से 8 प्रतिशत तक रहा । आर्थिक बहिष्कार अधिक तीखा और सफल रहा, आयातित विदेशी कपड़ों का मूल्य 1920-21 के 102 करोड़ रुपए से गिरकर 1921-22 में 57 करोड़ रुपए रह गया । ब्रिटिश राज के तैयार सूती कपड़ों का आयात भी इस काल में 129.2 करोड़ गज़ से गिरकर 95.5 करोड़ गज़ रह गया ।

इस सफलता के लिए अंशत: व्यापारियों की भागीदारी जिम्मेदार थी, क्योंकि उद्योगपतियों ने एक विशेष अवधि तक विदेशी कपड़े न रखने का वादा किया । 1918-22 के दौरान जब बड़े उद्योगपति असहयोग के विरोधी और सरकार के समर्थक थे, विनिमय दरों में गिरावट और सरकार की कर-वसूली की नीति से दुखी मारवाड़ी और गुजराती सौदागर ”काफ़ी सुसंगत राष्ट्रवादी” बने रहे । पर यह भी हो सकता है कि विदेशी कपड़ों के आयात से उनके इनकार के पीछे रुपए और स्टर्लिंग की विनिमय दरों में एकाएक आई गिरावट रही हो, जिसके कारण आयात बेहद नुकसान का सौदा बन गया ।

दूसरी ओर हथकरघों का उत्पादन भी बढ़ा, हालांकि इस बारे में सुनिश्चित कड़े उपलब्ध नहीं हैं । असहयोग के साथ गांधी के कुछ दूसरे सामाजिक आंदोलन भी जुड़े हुए थे; कुछ सफलता उनको भी मिली । संयम या शराब विरोधी अभियान के कारण पंजाब, मद्रास, बिहार और उड़ीसा में आबकारी की आमदनी में काफ़ी बड़ी गिरावट आई ।

मलाबार क्षेत्र को छोड़ दें तो इस पूरे काल में हिंदू-मुस्लिम गठबंधन अटूट बना रहा । लेकिन छुआछूत विरोधी अभियान कांग्रेसियों के लिए एक गौण सरोकार ही रहा, हालांकि गांधी ने पहली बार इस प्रश्न को राष्ट्रवादी राजनीति की अगली कतार में ला खड़ा किया था ।

1920 के ऐतिहासिक प्रस्ताव में उन्होंने ”छुआछूत के कलंक से हिंदू धर्म को मुक्त कराने” की एक अपील भी जोड़ी थी । आंदोलन का जोर हमेशा एकता बढ़ानेवाले मुद्दों पर रहा तथा वर्गो और समुदायों की खाई को पाटने या उनके बीच तालमेल पैदा करने के प्रयासों पर रहा ।

भौगोलिक प्रसार और व्यापक क्षेत्रीय अंतर असहयोग आंदोलन के सबसे अहम पहलू थे । उसकी पहली विशेषता तो उन क्षेत्रों और वर्गों की भागीदारी थी, जिन्होंने अतीत  में  कांग्रेस के शुरू किए हुए किसी भी आंदोलन में भाग नहीं लिया था ।

राजस्थान, सिंध, गुजरात, अवध, असम और महाराष्ट्र में किसानों की महत्त्वपूर्ण भागीदारी रही, हालाकिं कुछ मामलों में किसानों के आंदोलन कांग्रेस के किसी सांगठनिक हस्तक्षेप से स्वतंत्र थे । दक्षिण भारत के चार भाषायी क्षेत्रों में तीन की इस आंदोलन में प्रभावी भागीदारी रही जबकि कर्नाटक अप्रभावित रहा ।

मद्रास और महाराष्ट्र में कुछ गैर-ब्राह्मण निचली जातियों की भागीदारी रही, आंध्र के डेल्टा क्षेत्र और बंगाल में वन सत्याग्रहों के रूप में शक्तिशाली आदिवासी आंदोलन उठे; मद्रास, बंगाल और असम में श्रमिकों में असंतोष रहा तथा बंबई और बंगाल में व्यापारियों ने इसमें भाग लिया । लेकिन दूसरी ओर अकसर जनता ने अहिंसा के गांधीवादी पंथ की सीमाओं को तोड़ा । उच्छृंखल भीड़ की स्वयं गांधी ने निंदा की, मगर उसे नियंत्रित करने में असफल रहे ।

यदि वे एक पूर्ण सविनय अवज्ञा आंदोलन या मालगुजारी न देने का अभियान शुरू करने से झिझकते रहे, तो इसका मुख्य कारण यही था । आखिरी हद उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में 4 फरवरी, 1922 के चौरीचौरा कांड से टूटी, जब गाँववालों ने स्थानीय थाने में 22 पुलिसवालों को जिंदा जला दिया ।

यहाँ स्थानीय स्वयंसेवक पुलिस दमन के तथा कुछ वस्तुओं की बिक्री और भारी कीमतों के विरुद्ध प्रतिरोध के लिए जमा हुए । पुलिस ने आरंभ में हवा में गोली चलाकर उन्हें हतोत्साहित करना चाहा । लेकिन भीड़ ने इसे भय की निशानी करार दिया, क्योंकि ”गांधीजी की महिमा से” गोलियाँ तो पानी बनती जा रही थीं ।

फिर भीड़ बाजार की ओर बड़ी, पुलिसवालों पर उसने ईंटें फेंकीं और पुलिसवालों ने जब सचमुच गोली चलाई, तो उनका पीछा थाने तक किया गया और थाने को फिर आग लगा दी गई । गांधी के स्वयंसेवकों की समझ में थाने का ध्वंस गांधी राज के आने का ही सूचक था ।

लेकिन गांधी की राय में यह अहिंसा के लिए एक उपयुक्त वातावरण के अभाव की पुष्टि करता था; सितंबर 1921 में प्रिंस ऑफ वेल्स के बंबई आगमन पर वहाँ हुए दंगों के बारे में उन्होंने कहा था कि उनकी बदबू से उनके नथुने सड़ने लगे हैं और उन दंगों की याद अभी भी उन्हें थी ।

इसलिए 11 फरवरी, 1922 को असहयोग आंदोलन वापस ले लिया गया और फिर बारदोली का प्रस्ताव पारित हुआ, जिसने कोई राजनीतिक आंदोलन शुरू करने से पहले रचनात्मक कामों की जरूरत पर बल दिया । आंदोलन के शिखर पर पहुँचने से पहले ही उसे वापस ले लिए जाने पर गांधी की आलोचना उनके अपने कांग्रेसियों विशेष रूप से युवा तत्त्वों ने की ।

पर वे अहिंसा में अपनी आस्था पर कायम रहे और झुकने से इनकार करते रहे । 10 मार्च, 1922 को उन्हें गिरफ्तार करके 6 साल की जेल की सजा सुनाई गई । कांग्रेसी नेतृत्व वाले असहयोग आंदोलन को आधिकारिक स्तर पर तो वापस ले लिया गया, पर विभिन्न क्षेत्रों में इसके बावजूद भी यह जारी रहा ।

खिलाफ़त आंदोलन भी धीरे-धीरे समाप्त हो गया । यह गांधी के लिए एक और समस्या सिद्ध हुआ था, क्योंकि खिलाफ़त नेताओं के रवैये से अधिकाधिक स्पष्ट होता चला गया कि गांधी के अहिंसा के सिद्धांत को आस्था के रूप में स्वीकार करने की बजाय उन्होंने अपनी सुविधा के लिए गांधी के करिश्माई आकर्षण का लाभ उठाने के लिए स्वीकार किया था ।

उल्मा को शामिल करके और खुले तौर पर एक धार्मिक प्रतीक का उपयोग करके इस आंदोलन ने मुस्लिम जनता की धार्मिक भावनाओं को भड़काया था । खिलाफ़त आंदोलन में शीघ्र ही हिंसक प्रवृत्तियाँ उभरने लगीं, क्योंकि जनता ने आत्मानुशासन खो दिया और नेतागण उसे नियंत्रित करने में असफल रहे ।

सबसे भयानक दृश्य मलाबार के मोपला विद्रोह का था; वहाँ खिलाफ़त की भावना से हिम्मत पाकर गरीब मोपला किसान हिंदू जमींदारों और राजसत्ता के विरुद्ध खड़े हो गए । खिलाफ़त समिति में गुटबाजी भी थी, क्योंकि अहिंसा की सीमाओं से आगे जाने के इच्छुक गरमपंथी नेताओं और उनसे जुड़े उल्मा के तथा गांधी के साथ रहने के इच्छुक नरमपंथियों के बीच दरार बढ़ने लगी ।

धार्मिक शब्दावली के बढ़ते उपयोग को लेकर एक ओर गांधी तथा दूसरी ओर अली भाइयों और अब्दुल बारी के बीच मतभेद भी थे । 1921 के अंत तक, मलाबार में मोपला विद्रोह के आरंभ के साथ तथा 1922-23 में उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में हुए दूसरे सांप्रदायिक दंगा के कारण हिंदू-मुस्लिम एकता में स्पष्ट दरार पड़ी ।

मुस्लिम जनता को जिस प्रतीक के आधार पर लामबंद किया गया था, वह स्वयं ही उस समय तब महत्त्वहीन हो गया जब तुर्की में एक राष्ट्रवादी क्रांति (1924) ने राजतंत्र या खिलाफ़त का ही उन्मुलन कर दिया । उसके बाद भारत में खिलाफत आंदोलन तो मर गया, पर जिन धार्मिक भावनाओं को उसने वाणी दी थी वे जारी रहीं और उतना ही उग्र एक हिंदू गरमपंथ उसके मुकाबले में खड़ा हो गया । असहयोग-खिलाफत आंदोलन ने गांधीवादी कांग्रेस के नेतृत्व में भारत में जन-आंदोलन की प्रकृति पर अनेक सवाल खड़े किए ।

जैसा कि हमने देखा, भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में इस आंदोलन के अलग-अलग रूप रहे । सभी क्षेत्रों में आंदोलन आरंभ में शहरों और कस्बों तक सीमित रहा और वहाँ यह मुख्यत: मध्यवर्ग की भागीदारी पर निर्भर था जो धीरे-धीरे कम हो गई ।

लगभग हर जगह काउंसिल चुनावों में भागीदारी कम रही; अपवाद था मद्रास, जहाँ वास्तव में बहुत कम उम्मीदवारों ने नामांकन वापस लिए और जस्टिस पार्टी को विधायिका में बहुमत मिला । मद्रास में आरंभ से ही ब्राह्मणों और गैर-ब्राह्मणों में टकराव देखा जाता रहा, क्योंकि ‘ब्राह्मण’ कांग्रेस और उसके असहयोग आंदोलन के खिलाफ़त जस्टिस पार्टी ने एक सक्रिय अभियान शुरू कर दिया तथा वह मांटेग्यू-चेम्सफ्रोर्ड सुधारों के पक्ष में खड़ी रही ।

इस प्रतिरोध के कारण भारत के बाकी प्रांतों की अपेक्षा तमिल क्षेत्रों में विदेशी कपड़ों का बहिष्कार भी बहुत सीमित रहा । न ही राष्ट्रीय स्कूलों, पंचायती, अदालतों और खादी के विचार को हर जगह सफलता      मिली । उदाहरण के लिए, नागपुर कमिश्नरी में राष्ट्रीय स्कूलों की अपर्याप्तता से विवश होकर छात्र सरकारी शिक्षा संस्थाओं में वापस चले गए ।

पंचायती अदालतें ठप हो गई, तो वकील अपने पेशे में फिर लग    गए । अधिकांश क्षेत्रों में खादी मिल के कपड़े से 30-40 प्रतिशत अधिक महँगी होती थी, जिसके कारण यह गरीब जनता में अलोकप्रिय हो गई । अनेक मामलों में, जैसे गुजरात के कस्बों में, लामबंदी मंदिरों की राजनीति, नगरपालिकाओं या शिक्षा संस्थाओं पर नियंत्रण जैसे स्थानीय मुद्दों पर निर्भर रही या दक्षिण भारत के कस्बों में बढ़ते नगरीय करों या बढ़ते आयकर जैसी शिकायतों पर निर्भर रही ।

तमिलनाडु में संयम आंदोलन (temperance movement) की सफलता विभिन्न सामाजिक प्रेरणाओं पर निर्भर रही जैसे ऊपर की ओर गतिशील जातियों में संस्कृतीकरण की प्रवृत्तियों पर तथा स्थानीय गुटबाजी पर । कुछ दूसरे क्षेत्रों में लामबंदी एक सीमा तक स्थानीय नेताओं, जैसे बंगाल में चितरंजन दास के निजी प्रभाव पर निर्भर रही, पर जिनके निजी बलिदान ने, जैसे चलती हुई वकालत के त्याग ने, नई पीढ़ी को प्रेरित किया ।

दूसरी ओर, पंजाब के अकाली आंदोलन को रिचर्ड फॉक्स ने ”गांधीवादी सत्याग्रह कार्यक्रम या अहिंसक प्रतिरोध के सबसे बड़े  और सबसे लंबे व्यवहार” का सूचक कहा है । लेकिन इस आंदोलन को अगर हम गहराई से देखें, तो पाएँगे कि असहयोग आंदोलन के लिए इसकी प्रत्यक्ष प्रासंगिकता बहुत ही कम थी ।

उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो के कहीं अधिक व्यापक, सुधारवादी सिंहसभा आंदोलन को अपना स्रोत बतलाने वाले इस विशेष अभियान का आरंभ  अक्तुबर 1920 में हुआ, जब एक शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी का गठन हुआ । उसका उद्देश्य सिख गुरुद्वारों में सुधार लाना तथा सिख गुरुद्वारों का नियंत्रण उन सरकारी इशारों पर चलनेवाली समितियों से छीनना था जिनमें गैर-सिख भी शामिल थे ।

दिसंबर में, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के सहायक के तौर पर गुरुद्वारों का नियंत्रण छीनने के लिए प्रयासरत जत्थों का समन्वय करने के लिए अकाली दल का गठन हुआ; शब्द अकाली (“अकाल पुरुष के सेवक”) की व्यूत्पत्ति योद्धा-शहीदों के उस छोटे-से दल से हुई, जो रणजीत सिंह के समय में पंथ की रक्षा के लिए गठित किया गया था ।

मार्शल लॉ प्रशासन और जलियाँवाला बाग हत्याकांड से पहले ही आगबबूला अकालियों का सरकार से तब सीधा टकराव हुआ जब उसने 1921 के शुरू में स्वर्ण मंदिर, अमृतसर की चाबियाँ लेकर एक नया प्रबंधक नियुक्त कर दिया । अकालियों ने जब प्रतिरोध किया तो सरकार ने एक बार फिर दमन का राज कायम कर दिया और अकालियों ने सत्याग्रह से उसका जवाब दिया ।

गांधी और कांग्रेस ने इस अभियान का समर्थन किया, जिसने अंतत: सरकार को मंदिर की चाबियाँ और प्रशासन अकालियों को सौंपने पर विवश कर दिया । लेकिन मध्यवर्गीय सिख नेतृत्व ने असहयोग आंदोलन को चुनिंदा ढंग से ही अपनाया था और जब उनका सीमित लक्ष्य पूरा हो गया, तो उन्होंने अपने विशिष्ट धार्मिक संघर्ष को पूरी तरह कांग्रेस के आंदोलन में जुड़ने नहीं दिया ।

पूरे भारत में शहरी मध्यवर्ग का उत्साह शीघ्र ही जब ठंडा पड़ गया, तो व्यापारिक घराने भी डगमगाने लगे । जहाँ अधिक बड़े भारतीय पूँजीपति आरंभ से ही असहयोग आंदोलन का विरोध करते आ रहे थे, वहीं छोटे व्यापारी और सौदागर हड़ताल को बढ़ावा देने के लिए अपने संबंधसूत्रों का प्रयोग करते रहे और तिलक स्वराज कोष में उन्होंने खुलकर दान दिए ।

लेकिन विदेशी वस्तुओं के पूर्ण बहिष्कार का विरोध उन्होंने भी किया । मजदूर वर्ग को आंदोलन में खींचने के प्रयासों में भी समस्याएँ आई । उदाहरण के लिए, असम में चाय बागान के मजदूरों को शामिल करने के प्रयोग के बाद चाँदपुर में एक परेशानी खड़ी हुई, जिसकी गांधी ने तीखी निंदा की ।

पूँजीपतियों पर निर्भरता ने नेताओं को मजदूर वर्ग को लामबंद करने से रोका, क्योंकि गांधी लगातार जोर दे रहे थे कि आंदोलन में पूँजी-श्रम संबंध में समन्वय बने रहना चाहिए । नागपुर और बरार में गांधीवादियों का मजदूर वर्ग पर थोड़ा-सा प्रभाव पड़ा, पर इस पूरे क्षेत्र में असहयोग आंदोलन की समग्र तीव्रता पर इसका कोई सार्थक प्रभाव शायद ही पड़ा हो ।

मद्रास की तरह, जहाँ भी मजदूरों के असंतोष ने हिंसक रूप लिया, वहाँ स्थानीय नेताओं ने तुरंत अपने हाथ धो लिए और हड़ताली मजदूरों को अधिकारियों के सामने झुकने पर मजबूर कर दिया । इससे मजदूर इतने हताश हुए कि 1922 में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने उन्हें फिर से लामबंद करने की कोशिश की तो शायद ही उसका कोई जवाब मिला ।

शहरी क्षेत्रों में घटती दिलचस्पी के कारण आंदोलन का केंद्र जल्द ही गाँवों की ओर खिसक गया । कृषक समाजों के ढाँचों के आधार पर आंदोलन की रूपरेखा में भारी विविधताएँ यहीं आई । असहयोग आंदोलन वहाँ सबसे प्रभावशाली रहा जहाँ किसान पहले से संगठित हो चुके थे ।

अवध (संयुक्त प्रांत) के जिलों में दमनकर्ता ताल्लुकदारों के विरुद्ध 1918-19  से ही एक उग्र किसान आंदोलन चल रहा था । आधारभूत (grassroots) स्तर पर स्थानीय नेता बाबा रामचंद्र के नेतृत्व वाले इस किसान जुझारूपन को आगे चलकर, फरवरी 1918 में इलाहाबाद में गठित संयुक्त  प्रांत किसान सभा ने एक दिशा दी ।

जून, 1919 तक किसान सभा को 450 शाखाएँ थीं और संयुक्त प्रांत में कांग्रेस ने इस आंदोलन को असहयोग आंदोलन से जोड़कर किसानों के जुझारूपन का इस्तेमाल करने का प्रयास किया । उत्तरी बिहार में भी कांग्रेस का आंदोलन उन्हीं क्षेत्रों में सबसे अधिक शक्तिशाली था, जहाँ पहले निलहे विरोधी आंदोलन स्वामी विश्वानंद का अभियान और किसान सभा के कार्यकलाप चल चुके थे ।

बंगाल के मेदिनीपुर जिले में महिष्य किसान स्थानीय नेता बी. एन. ससमाल द्वारा 1919 में यूनियन बोर्ड के करों के विरुद्ध संगठित किए गए थे । बाद में यह आंदोलन भी असहयोग आंदोलन में मिल गया । उड़ीसा के कुछ क्षेत्रों में, जैसे कणिका में, किसान ‘मेलियों’ अर्थात् सामंत विरोधी प्रदर्शनों की परंपरा उन्नीसवीं सदी से ही चलती आ रही थी; आगे चलकर इसे भी असहयोग आंदोलन में शामिल कर लिया गया ।

गुजरात के खेड़ा जिले  में पाटीदार किसान 1918 में ही एक सफल मालगुजारी रोको अभियान चला चुके थे और हलचल के एक दूसरे दौर के लिए फिर से तैयार हो रहे थे इसलिए स्पष्ट कारणों से यह जिला असहयोग आंदोलन का सबसे शक्तिशाली गढ़ बन गया ।

दक्षिण भारत में आंध्र डेल्टा के गोदावरी, कृष्णा और गुंटूर जिलों में दिसंबर 1921 और फरवरी, 1922 के बीच एक ”संक्षिप्त और स्फूर्त” मालगुजारी रोको अभियान चला । यहाँ गाँव के उन अधिकारियों ने त्यागपत्र दे दिए जिनके माध्यम से मालगुजारी की वसूल होती थी और सरकार के पतन की आशा में किसानों ने मालगुजारी देनी  बंद  कर दी ।

लेकिन सरकार ने जब शिकायतों के बारे  में एक समिति गठित कर दी और सही राह पर न आनेवाले नेताओं को गिरफ्तार करने की धमकी दी तो आंदोलन कुछ सप्ताहों में समाप्त हो गया । इन दोनों मामलों में कुछ समय से, कम से कम 1918-19 से ही, आंदोलन धीरे-धीरे जोर पकड़ते आ रहे थे और फिर उनको असहयोग आंदोलन से एकाकार कर दिया गया ।

दूसरे क्षेत्रों में, जहाँ किसानों की लामबंदी का कोई इतिहास न था, गाँवों की प्रतिक्रिया अपेक्षाकृत मद्धिम रही । इससे पता चलता है कि अभी तक निष्क्रिय पड़े किसानों को कांग्रेस एक संगठित राष्ट्रवादी आंदोलन में लामबंद करे, इसकी बजाय क्षेत्रों के अपने आंतरिक गतिशास्त्र ही असहयोग आंदोलन की सफलता के आधार बने ।

असहयोग आंदोलन वहाँ पर कांग्रेसी नेताओं के नियंत्रण में अधिक रहा, जहाँ वे एकजुट थे और वहाँ निचली जातियों के खेत मजदूरों पर प्रभुत्वशाली किसान समुदायों का प्रभुत्व था, जैसे बंगाल की महिष्य खेतिहर जाति का या गुजरात की पाटीदार किसान जाति का ।

यहाँ जातिगत संगठनों तथा समुदाय और नातेदारी के दूसरे सूत्रों के माध्यम से स्थानीय नेताओं का नियंत्रण अधिक था । यहाँ भी किसानों ने अपनी ओर से अच्छी-खासी पहल का परिचय दिया: पाटीदार किसान कांग्रेस के औपचारिक अनुमोदन के बिना ही एक मालगुजारी रोको आंदोलन शुरू कर चुके थे ।

फिर आंदोलन को वापस लेने के निर्णय ने उनको इतना हताश किया कि जब उनके नेताओं ने उन्हें 1922 में दोबारा लामबंद करने की कोशिश की, तो उन्होंने उसका जवाब ही नहीं दिया । ऐसी पहल वहाँ अधिक स्पष्ट देखी गई जहाँ समरस किसान समूह नहीं पाए जाते थे ।

जैसे उड़ीसा के कुछ भागों में अपने स्थानीय किसान नेताओं की इच्छा के विरुद्ध जाकर लगान और जंगल करों की अदायगी रोक दी और कांग्रेस द्वारा आंदोलन की औपचारिक समाप्ति के बाद भी अपनी हलचल जारी रखी ।

दूसरी जगहों पर, जैसे अवध में, जहाँ अंतर्जातीय लामबंदी अधिक रही, वहाँ किसान भी अधिक अनियंत्रित रहे । उन्होंने गांधी की व्याख्या अपने-अपने ढंगों से की और अपने ताल्लुकदारों के दमन विरोधी संघर्ष से राष्ट्रवादी आंदोलन के समन्वय का प्रयास किया ।

1921-22 की सर्दियों में ताल्लुकदारों की संपत्तियों पर हमले बड़े और उनको रोकना कांग्रेस के लिए कठिन हो गया । गांधी ने संयुक्त प्रांत का दौरा किया और हिंसा के लिए किसानों की आलोचना की, पर कोई विशेष परिणाम नहीं निकला ।

इसलिए कांग्रेस ने उससे नाता तोड़ने का निर्णय किया; बाबा रामचंद्र गिरफ्तार कर लिए गए और आंदोलन का सख्ती से दमन किया गया, पर कांग्रेस ने उँगली तक नहीं हिलाई । उदाहरण के लिए, गोरखपुर के किसानों की नजरों में गांधी रोजमर्रा के दमन से मुक्ति के प्रतीक थे ।

चारों ओर फैली खबरों से लगता था कि किसानों के लिए स्वराज का अर्थ एक स्वर्गलोक था, जहाँ कोई लगान, कोई मालगुजारी, कर्जो की अदायगी, जमींदार और ताल्लुकदार नहीं होंगे । यह ऐसी स्थिति थी जिनकी किसान अपनी कल्पना में हमेशा कामना करते थे ।

इसलिए गांधी ने उनके दिल को छू लिया और उनको कार्रवाई में झोंक दिया । दूसरी ओर पंजाब में, अकाली अभियान अमृतसर विजय के बाद गाँवो की ओर बढ़ गया और  नवम्बर, 1922 में,  अर्थात असहयोग आंदोलन की औपचारिक वापसी के काफी बाद, उसने गुरु का बाग गुरुद्वार का नियंत्रण छीना ।

जनवरी, 1923 तक वे लोग लगभग सौ गुरुद्वारों का नियंत्रण छीन चुक थे । उसके बाद सितंबर में, जब सरकार ने रजवाड़ा नाभा के राजा को उसकी अकालियों से कथित हमदर्दी के कारण तख्त से उतार दिया, तो अकालियों ने उसकी बहाली के लिए जैतों में एक उग्र उपनिवेशवाद विरोधी अभियान शुरू कर दिया ।

अपने ग्रामीण चरण में अकाली आंदोलन ने अनेक स्थानों पर अहिंसक आंदोलन की सीमारेखा का अतिक्रमण किया और किसानों ने अंग्रेजी राज की सत्ता को खुलकर चुनौती दी । इस मुद्दे पर गांधो ने अपना समर्थन वापस ले लिया क्योंकि वे नाभा के सत्ताचूत राजा की बहाली के आंदोलन का अनुमोदन नहीं करते थे ।

सरकार ने अब अकालियों पर जोरदार हमला किया पर इससे सिख सैनिकों की वफ़ादारी के प्रभावित होने के डर से अंतत: एक समझौता कर लिया । 1925 के गुरुद्वारा सुधार कानून ने गुरुद्वारों का प्रबंध सिख प्रबंधकों को सौंप दिया । पर चूंकि आंदोलन वापस ले लिया, गया ग्रामीण सत्याग्रही अपने को ठगा-सा महसूस करने लगे ।

गांधी ने भारतीय आदिवासी जनता को भी सहस्त्राब्दिक (millennial) सपने दिखाए, जो अपनी शर्त पर ही सही देश की व्यापकतर राजनीति में अधिकाधिक शामिल होते गए । आदिवासी क्षेत्रों में विरोध की वर्तमान परंपराओं के आधार पर स्थानीय नेताओं ने विभिन्न स्थानीय कष्टों के विरुद्ध आंदोलन चलाए ।

गांधी में आस्था को हम अलग कर दें तो इस अर्थ में इन आंदोलनों और गांधीवादी आंदोलनों के उद्देश्यों और रूपों में निश्चित ही कुछ खास साझापन नहीं था । जैसे संयुक्त प्रांत की कुमायूँ और गढ़वाल पहाड़ियों में राजा के विरुद्ध परंपरागत प्रतिरोध अर्थात् ढंडक की परंपरा को जारी रखते हुए, अल्मोड़ा के बद्रीदत्त पांडे ने उतार (बेगार) और जंगल कानूनों के विरुद्ध एक जुझारू आंदोलन चलाया ।

पांडे का तर्क था कि अंग्रेजों के बनिया राज पर अंकुश लगाने के लिए भगवान ने एक और बनिया (अर्थात् गांधी) के रूप में एक रक्षक भेजा है । हालांकि रिचर्ड टकर (1983) का तर्क है कि यह तो पहाड़ों में पहली बार आधुनिक राजनीतिक टकराव का पहुँचना था, लेकिन आंदोलन ने जो विशिष्ट रूप, ग्रहण किए जैसे जंगलों को आग लगाने या भड़कावे के दूसरे काम करने के रूप वे दिखाते हैं कि कांग्रेस के आंदोलन के औपचारिक ढाँचों से इसका कोई खास संबंध नहीं था ।

इसी तरह बंगाल के मेदिनीपुर जिले में जहाँ जंगल कानूनों और यूरोपीय स्वामित्व वाली मेदिनीपुर जमींदारी कंपनी के विरुद्ध संथालों की शिकायतों की आग 1918 में भड़क उठी थी, शैलजानंद सेन जैसे स्थानीय नेताओं ने यूरोपीय जमींदारों और उपनिवेशी राजसत्ता के विरुद्ध उनको 1921 में दोबारा, अपेक्षाकृत सरलता से संगठित किया ।

लेकिन यह आंदोलन जब उग्र हो उठा तो कांग्रेस का समर्थन लड़खड़ाने लगा मगर तब तक आदिवासियों का आंदोलन स्वयं की एक गति पा चुका था । आंध्र की गुडेम पहाड़ियों में गांधी से प्रभावित एक और स्थानीय नेता अल्लूरी सीताराम राजू ने अपने पर्वतवासियों के बीच उनके संयम और खादी के संदेश का प्रचार किया, पर उनका विश्वास था कि भारत की मुक्ति केवल बलप्रयोग से संभव है ।

फ़ितूरी की परंपरा को आधार बनाकर उन्होंने जनवरी 1922 में छापामार युद्ध का आरंभ किया, पर पहले की परंपरा के विपरीत वे अपनी लड़ाई को गुडेम के आदिवासी क्षेत्र से परे ले जाना चाहते थे । उनकी कोशिश असफल रही, क्योंकि मई, 1924 में वे फाँसी पर चढ़ा दिए गए ।

लेकिन ऐसे हिंसक उभारों के प्रति कांग्रेस की शत्रुता के बावजूद उनके असफल प्रयास ने दिखाया कि भारत की आदिवासी जनता अपनी क्षेत्रीय जड़ों से जुड़े रहकर भी ऐसी चेतना विकसित कर रही थी, जो उनको व्यापकतर उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष से जोड़े ।

कुमायूँ के पर्वतवासियों ने जब गांधी की प्रशंसा में और ”स्वतंत्र भारत” के नारे लगाए तब उन्होंने ऐसी चेतना का परिचय दिया जो उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में लक्षित चेतना से स्पष्ट रूप से अधिक व्यापक थी । मगर इस चेतना या उसकी राजनीतिक अभिव्यक्ति से स्वयं कांग्रेस का कुछ खास लेना-देना नहीं था ।

शाहिद अमीन लिखते हैं: “अपने गँवार भक्तों के महात्मा वैसे नहीं थे जैसे वे सचमुच थे, बल्कि वैसे थे जैसी उन्होंने कल्पना की थी । उनकी कल्पना में वास्तविक गांधी और उनका अहिंसक असहयोग कार्यक्रम अकसर खो जाते थे ।

कल्पनाओं के गांधी असाधारण रहस्यमय शक्तियों से लैस थे: किसान उनको ऐसा संत समझते थे जो रोगों को दूर कर सकता था, अपना अनुकरण करनेबालों को पुरस्कार देता था और अपनी सत्ता की अवज्ञा करनेवाले अविश्वासियों को दंड देता था ।

बंगाल के आदिवासियों में प्रचलित अफवाहों से गांधी की सुरक्षादायक शक्ति में उनकी परम आस्था का पता चलता था: वे समझते थे कि अगर वे गांधी टोपी पहनेंगे या गांधी का नाम लेंगे तो पुलिस की गोलियाँ उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगी । इससे उनके भय की दीवार ढह गई और उनकी ऊर्जा अभूतपूर्व जन-कार्रवाइयों के रूप में फूट पड़ी ।

गांधी का नाम जपते हुए किसानों ने उन कार्रवाइयों में भाग लिया, जो आसानी से गांधीवादी आदर्शों की दहलीज के पार चली जाती थीं । बंगाल के आदिवासी किसानों ने बाजार और मछलियों के तालाब लूटे, और जंगल कानूनों को तोड़ा कैदियों ने जेल के दरवाजे तोड़ दिए ।

उत्तरी बिहार में निचली जातियों के गरीब किसान सबसे जुझारू लोग थे; उनकी सहस्त्राब्दिक आशाओं ने बाजार लूटने की अनेक घटनाओं को जन्म दिया, उपनिवेशी सत्ता को इससे अभूतपूर्व चुनौती मिली और पुलिस की कार्रवाई का साहस से सामना किया गया ।

इसलिए चौरीचौरा (गोरखपुर) के किसानों ने जब स्थानीय थाने पर हमला करके 22 पुलिसवालों को जिंदा जला दिया, तब गांधी के पास आंदोलन को वापस लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था, क्योंकि यह तब तक स्पष्ट रूप से उनके नियंत्रण से बाहर जा चुका था ।

गांधीवादी आंदोलन के विषय में अपनी प्रामाणिक प्रस्तुति (authentic version) से इन भटकावों को स्थानीय कांग्रेसी नेताओं ने कभी मान्यता नहीं दी । सामाजिक सामंजस्य को नुकसान पहुँचाए बिना अंग्रेजों को विस्थापित करना इस प्रस्तुति का भाव था । पर घटनाओं पर उनका कोई खास नियंत्रण था ही नहीं ।

जनता से गांधी की सहानुभूति थी और उन्होंने माना कि ”वे अकसर स्थितियों को अपने दिल से उस तरह समझते हैं कि हम अपने दिमाग से उस तरह समझने में असफल रहते हैं।”  पर उसकी अनुशासनहीनता उन्हें पसंद न थी और वे “इस स्वाभाविक अनुशासनहीनता से ही अनुशासन पैदा करना चाहते थे ।”

फिर जब वे असफल रहे तो जनता के इस जोश को उन्होंने ”भीड़ राज” कहकर उसकी निंदा की । इसलिए आंदोलन की आधिकारिक वापसी के बाद भी वह बंगाल, बिहार और उड़ीसा के कुछ भागों में जारी रहा । खेड़ा के अनेक गाँव में मालगुजारी रोको आंदोलन जारी रहा, जबकि संयुक्त प्रांत में आदिवासी (पासी) किसानों के नेतृत्व में एका आंदोलन के रूप में किसानों का एक और जुझारू आंदोलन खड़ा हो गया ।

गांधी ने कांग्रेस संगठन का उपयोग ऐसा आंदोलन शुरू करने के लिए किया था जो उपनिवेशी शासन के विरुद्ध नि:संदेह पहला राष्ट्रव्यापी जन-आंदोलन था । उसमें किसान, कुछ मजदूर, आदिवासी और कुछ क्षेत्रों में तो अछूत भी शामिल हुए, पर उन्होंने कांग्रेस के पंथ को कहाँ तक स्वीकार किया या गांधी की विचारधारा को कितना आत्मसात किया, यह बात संदिग्ध है ।

गांधी प्रांतीय नेतृत्व पर निर्भर थे, जिसमें संयुक्त प्रांत में युवा जवाहरलाल, बंगाल में चितरंजन दास, गुजरात में वल्लभभाई पटेल, बिहार में राजेंद्र प्रसाद और मद्रास में सी. राजगोपालाचारी शामिल थे । फिर ये प्रांतीय नेतागण भी निर्भर थे स्थानीय नेताओं पर, जैसे अवध में बाबा रामचंद्र, मेदिनीपुर में बी. एन. ससमाल और बारदोली में कुँवरजी मेहता पर ।

नेतृत्व के इसी ढाँचे के माध्यम से गांधी का संदेश जनता तक फैला, पर फिर उसकी कल्पना में यह रूपांतरित और परिवर्तित हुआ, क्योंकि जनता ने राष्ट्रवादी आंदोलन में विभिन्न अर्थो का समावेश किया । इन अर्थो के विकास ने जो समुदाय के विशिष्ट ढाँचों स्थानीय स्थितियों और मौजूदा संगठन की स्थिति पर निर्भर होते थे, जनता के जुझारूपन की सीमा का निर्धारण किया, जिसे नेताओं ने नियंत्रित करने की कोशिश तो की पर असफल रहे ।

दूसरे शब्दों में, यहाँ जिस बात पर जोर देने की आवश्यकता है, वह यह है कि जो चीज गांधीवादी जन-आंदोलन के नाम से जानी गई उसमें वास्तव में चेतना के विभिन्न स्तर शामिल थे, जिनमें स्वतंत्रता के   भिन्न-भिन्न अर्थ पाए जाते थे ।

इस आंदोलन के द्वारा कांग्रेस ने अगर राष्ट्रवाद का एक विशेष कार्यक्रमबद्ध अर्थ सामने रखने की कोशिश की, तो यह बात भी सही है कि उस अर्थ को आंदोलन के अंदर से ही बराबर चुनौनी मिलती रही । यह एक ऐसी विशेषता थी जो कांग्रेस के बाद वाले जन-आंदोलनों की भी पहचान थी ।

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