Read this essay in Hindi to learn about the climax to the revolt of freedom in India.

यद्‌यपि भारत स्वतंत्र हुआ फिर भी स्वतंत्रता का संग्राम समाप्त नहीं हुआ था । भारत में अनेक रियासतें थीं । रियासतों को यह अधिकार दिया गया था कि वे चाहें तो भारत में अपनी रियासत का विलय करें अथवा स्वतंत्र रहें ।

रियासतों के स्वतंत्र रहने से भारत कई टुकड़ों में बँट सकता था और राष्ट्रीय कांग्रेस का अखंड भारत का स्वप्न पूरा नहीं हो सकता था । अब तक पुर्तगाली और फ्रांसीसी शासकों ने भारत के कुछ क्षेत्रों में अपनी सत्ता को छोड़ा नहीं था परंतु भारत ने बड़ी सफलतापूर्वक इन समस्याओं का समाधान ढूंढा ।

भारत में रियासतों का विलय:

भारत में छोटी-बड़ी मिलाकर छह सौ से अधिक रियासतें थीं । अस हयोग आंदोलन के फलस्वरूप रियासतदारों में राजनीतिक जागृति उत्पन्न होने लगी थी । रियासतों में प्रजामंडलों की स्थापना होने लगी थी । रियासतों में प्रजा कल्याण एवं उन्हें राजनीतिक अधिकार प्राप्त करवाने के लिए कार्य करनेवाले जनसंगठन को प्रजामंडल कहते थे ।

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ई॰स॰ १९२७ में इन प्रजामंडलों को एकत्र कर अखिल भारतीय प्रजा परिषद की स्थापना की गई । परिणामस्वरूप रियासतों में हुए आंदोलन को प्रोत्साहन मिला । भारत स्वतंत्र होने के पश्चात भारत के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने इन रियासतों के विलय की समस्या का हल बड़ी झालता और सूझबूझ से निकाला ।

उन्होंने सभी रियासतदारों को विश्वास दिलाते हुए एक ‘विलयपत्र’ बनाया; जो सभी को स्वीकार हो सकता था । इस विलयपत्र के अनुसार रियासतदारों को यह आश्वासन दिया गया कि भारत सरकार के साथ समझौता करने के बाद भारत सरकार के पास केवल विदेश संपर्क, संचार और रक्षा मंत्रालय रहेंगे तथा अन्य सभी विभागों पर रियासतदारों का अधिकार रहेगा ।

सरदार वल्लभभाई पटेल रियासतदारों को यह समझाने में भी सफल रहे कि भारत में सम्मिलित होना रियासतदारों के लिए किस प्रकार हितकारी है । उनके द्‌वारा किए गए आह्वान को रियासतदारों ने बहुत अच्छा समर्थन दिया । जूनागढ, हैदराबाद और कश्मीर रियासतों को छोड़कर सभी रियासतों का भारत में विलय हुआ । सरदार पटेल ने इन तीन रियासतों के विलय की समस्या का हल निकालने के लिए दृढ़ भूमिका निभाई ।

जूनागढ़ का विलय:

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सौराष्ट्र में जूनागढ़ रियासत थी । वहां की जनता भारत में सम्मिलित होना चाहती थी परंतु जूनागढ़ के नवाब की इच्छा पाकिस्तान में सम्मिलित होने की थी । वहाँ की जनता ने जूनागढ़ के नवाब के निर्णय का विरोध किया । अत: नवाब पाकिस्तान चला गया । इसके बाद फरवरी, १९४८ में जूनागढ़ का भारत में विलय हुआ ।

हैदराबाद का मुक्ति संघर्ष:

हैदराबाद भारत की सबसे बड़ी रियासत थी । इसमें तेलुगु, कन्नड और मराठी भाषी प्रांत थे । हैदराबाद पर निजाम का एकछत्र शासन था । यहाँ नागरी और राजनीतिक अधिकारों का अभाव था । अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए हैदराबाद रियासत की जनता ने तेलंगण क्षेत्र में आंध्र परिषद, मराठवाड़ा के क्षेत्र में महाराष्ट्र परिषद और कर्नाटक क्षेत्र में कर्नाटक परिषद की स्थापना की ।

ई॰स॰ १९३८ में स्वामी रामानंद तीर्थ ने हैदराबाद स्टेट कांग्रेस की स्थापना की । उन्हें नारायण रेड्‌डी, सिराज-उल-हसन तिरमिजी का सहयोग प्राप्त हुआ । निजाम ने इस संगठन पर प्रतिबंध लगाया । हैदराबाद स्टेट कांग्रेस को मान्यता दिलवाने तथा जनतांत्रिक अधिकारों को प्राप्त करने हेतु संघर्ष प्रारंभ हुआ । जुझारू नेता स्वामी रामानंद तीर्थ ने इस संघर्ष का नेतृत्व किया ।

जुलाई १९४७ में हैदराबाद स्टेट कांग्रेस ने यह प्रस्ताव पारित किया कि हैदराबाद रियासत का भारत में विलय हो परंतु निजाम ने भारत विरोधी नीति अपनाई । उसने हैदराबाद रियासत का पाकिस्तान में विलय करने की दृष्टि से गतिविधियाँ प्रारंभ की परंतु रियासत की जनता ने भारत में विलय होने की माँग की ।

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इस माँग को कुचलने के लिए कासिम रिजवी ने निजाम के समर्थन से ‘रजाकार’ नामक संगम की स्थापना की । कासिम रिजवी और उसके साथियों ने न केवल हिंदुओं पर अपितु जनतांत्रिक आंदोलन को समर्थन देनेवाले मुस्लिमों पर भी अत्याचार

किए । फलस्वरूप सभी ओर लोगों में आक्रोश व्याप्त हुआ । भारत सरकार निजाम के साथ ‘सामंजस्यपूर्ण बातचीत कर रही थी परंतु निजाम इस बातचीत को स्वीकार नहीं क्त रहा था । अंतत: १३ सितंबर १९४८ को भारत सरकार ने निजाम के विरूध पुलिस कार्यवाही की । १७ सितंबर १९४८ को निजाम ने आत्मसमर्पण किया । हैदराबाद रियासत क भारत में विलय हुआ । रियासत की जनता के संघर्ष की विजय हुई ।

हैदराबाद मुक्ति संघर्ष में मराठवाड़ा का योगदान:

इस संघर्ष में स्वामी रामानंद तीर्थ, गोविंदभाई श्राफ, बाबासाहेब परांजपे, दिगंबर राव बिंदु, आ॰कृ॰ वाघमारे, नारायणराव चव्हाण, अनंत भालेराव, स॰ कृ॰ वैशंपायन, पुरुषोत्तम चपलगाँवकर, रामलिंग स्वामी, देवी सिंह चौहान, शामराव बोधनकर, मुकुंदराव पेडगाँवकर, श्रीनिवासराव बोरीकर, राघवेंद्र दिवाण, फुलचंद गांधी आदि का उल्लेखनीय योगदान रहा ।

हैदराबाद मुक्ति संघर्ष में आशाताई वाघमारे, दगडाबाई शेलके, करुणाबेन चौधरी, पानकुंवर कोटेचा, गीताबाई चारठाणकर, सुशीलाबाई दिवाण, कावेरीबाई बोधनकर आदि महिलाओं का सक्रिय प्रतिभाग रहा । छात्र ‘वंदे मातरम’ आंदोलन द्‌वारा हैदराबाद मुक्ति संघर्ष में सम्मिलित हुए ।

इस ऐतिहासिक संघर्ष में वेद प्रकाश, श्यामलाल, गोविंद पानसरे, बहिर्जी शिंदे, श्रीधर वर्तक, जनार्दन मामा आदि ने अपना बलिदान दिया । उनका बलिदान भारतीयों के लिए प्रेरणादायी सिद्ध हुआ । इससे ध्यान में आता है कि हैदराबाद मुक्ति संघर्ष में मराठवाड़ा के नेताओं और वहाँ की जनता का बहुत बड़ा योगदान रहा ।

मराठवाड़ा में हैदराबाद मुक्ति संघर्ष का १७ सितंबर यह दिन ‘मराठवाड़ा मुक्ति दिवस’ के रूप में बनाया जाता है । हैदराबाद रियासत में मराठावाड़ा के औरंगाबाद, बीड, उस्मानाबाद, परभणी और नांदेड़ जिलों का समावेश था ।

ई॰ के पश्चात मराठावाड़ा में तीन नए जिलों – जालना, लातूर और हिंगोली का समावेश किया गया है । १५ अगस्त १९४७ ई॰ को स्वतंत्र भारत में मराठवाड़ा का समावेश नहीं था । १९४८ ई॰ में जनता द्‌वारा हुए स्फूर्तिदायी संघर्ष के पश्चात इस प्रदेश को स्वतंत्र भारत में समाविष्ट किया गया । यह अभूतपूर्व संघर्ष देश की जनता को प्रेरणा देता है ।

कश्मीर की समस्या:

कश्मीर रियासत का नरेश राजा हीर सिंह स्वतंत्र रहना चाहता था । कश्मीर को पाकिस्तान में मिला लेना पाकिस्तान की महत्वाकांक्षा थी । अत: पाकिस्तान हीर सिंह पर दबाव डालने लगा अक्तूबर १९४७ में पाकिस्तान के उकसाने पर सशस्त्र घुसपैठियों ने कश्मीर पर आक्रमण किया । उस समय हीर सिंह ने भारत में विलय होने के समझौते पर हस्ताक्षर किए ।

इस प्रकार कश्मीर का भारत में विलय होने पर भारतीय सेना को कश्मीर की रक्षा हेतु भेजा गया । सेना ने कश्मीर का विशाल क्षेत्र घुसपैठियों के नियंत्रण से निकालकर अपने अधिकार में कर लिया परंतु कश्मीर का कुछ क्षेत्र पाकिस्तान के अधिकार में रह गया ।

फ्रांसीसी उपनिवेशों का विलय:

भारत स्वतंत्र हुआ । फिर भी चंद्रनगर, पुदुच्चेरी, कारिकल, माहे और याणम प्रदेशों पर फ्रांस का अधिकार था । वहाँ के भारतीय निवासी भारत में सम्मिलित होने को उत्सुक थे । भारत सरकार ने माँग की कि वे प्रदेशा भारत के घटक है । अत: वे भारत को सौंपि जाएँ । ई॰स॰ १९४९ में फ्रांस ने चंद्रनगर में सार्वमत लिया । वहाँ की जनता ने अपना मत भारत के पक्ष में डाला । चंद्रनगर भारत को सौंपा गया । इसके पश्चात फ्रांस ने अन्य प्रदेश भी भारत के स्वाधीन किए ।

गोआ मुक्ति संघर्ष:

पुर्तगालियों ने अपने अधिकार का प्रदेश भारत को स्वाधीन करने से इनकार किया । इस प्रदेश को पाने के लिए भारतीयों को संघर्ष करना पड़ा । इस संघर्ष में डा॰ टी॰ बी॰ कुन्हा अग्रसर थे । उन्होंने पुर्तगाली सरकार के विरोध में जनजागृति उत्पन्न करने का कार्य किया । उन्होंने पुर्तगालियों के विरोध में संघर्ष प्रारंभ करने के उद्देश्य से ‘गोआ कांग्रेस समिति’ की स्थापना की ।

आगे चलकर ई॰स॰ १९४५ में डा॰ कुन्हा ने मुंबई में ‘गोआ यूथ लीग’ नामक संगठन स्थापित किया । ई॰स॰ १९४६ में वे गोआ गए और वहाँ उन्होंने भाषण पर लगे प्रतिबंध कानून को भंग किया । अत: डा॰ कुन्हा को आठ वर्ष कारावास का दंड दिया गया । ई॰स॰ १९४६ में ही डा॰ राममनोहर लोहिया ने गोआ मुक्ति के लिए सत्याग्रह प्रारंभ किया । उन्होंने प्रतिबंध कानून को भंग कर गोआ में भाषण किया । इसके लिए पुर्तगाली सरकार ने उन्हें गोआ से निष्कासित किया ।

गुजरात में दादरा और नगर हवेली में पुर्तगालियों के उपनिवेश थे । इन उपनिवेशों को मुक्त करने हेतु लगभग इसी समय ‘आजाद गोमांतक’ दल की स्थापना की गई । २ अगस्त १९५४ को इस दल के सशस्त्र युवाओं ने आक्रमण कर पुर्तगाली सत्ता से दादरा और नगर हवेली को मुक्त किया ।

इस आक्रमण में विश्वनाथ लवंदे, राजाभाऊ लवंदे, राजाभाऊ वाकणकर, सुधीर फड़के, नानासाहेब काजरेकर आदि ने हिस्सा लिया । ई॰स॰ १९५४ में गोआ मुक्ति समिति की स्थापना की गई । इस समिति ने महाराष्ट्र से सत्याग्रहियों के असंख्य जत्थे गोआ भेजे । इनमें ना॰ ग॰ गोरे, सुधीर फड़के, सेनापति बापट, पीटर अल्वारिस, महादेवशास्त्री जोशी और उनकी पत्नी सुधाताई आदि का समावेश था । मोहन रानडे गोआ मुक्ति आंदोलन के जुझारू नेता थे । पुर्तगाली सत्ता ने इन सत्याग्रहियों पर असीम अत्याचार किए ।

कुछ सत्याग्रहियों ने पुर्तगालियों की कुरता के सम्मुख अपना बलिदान दिया । फलस्वरूप भारत का जनमत प्रक्षुब्ध हो गया । अब गोआ के मुक्ति संघर्ष ने उग्र रूप धारण किया । भारत सरकार पुर्तगाली सत्ताधारियों के साथ सामंजस्य पूर्ण बातचीत कर रही थी परंतु भारत सरकार को पुर्तगाली सत्ता से उचित समर्थन नहीं मिल रहा था ।

अंतत: विवश होकर भारत सरकार ने सैनिकी बल का उपयोग करने का निर्णय किया । दिसंबर १९६१ में भारतीय सेना ने गोआ में प्रवेश किया । अल्पावधि में ही पुर्तगाली सेना ने आत्मसमर्पण किया । १९ दिसंबर, १९६१ में गोआ पुर्तगालियों के आधिपत्य से मुक्त हुआ । भारत की भूमि से साम्राज्यवाद का आलूलाग्र उन्मूलन हो गया और भारत के स्वतंत्र आंदोलन की सही अर्थ में परिपूर्ति हुई ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात निर्धनता, बेरोजगारी, निरक्षरता, विषमता आदि अनेक बिकट समस्याओं का सामना करते हुए भारत विकास की दिशा में आगे बढ़ा है । जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रगति को गति प्राप्त हुई है । भारत विश्व में सबसे सफल जनतांत्रिक देश सिद्ध हुआ है । आज इक्कीसवीं शताब्दी में भारत विश्व की एक महासत्ता बनने की दिशा में अग्रसर हो रहा है ।

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