Read this essay in Hindi to learn about the revolt of eighteen fifty-seven in India.

ई॰स॰ १८५७ में भारत में अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए बहुत बड़ा विद्रोह हुआ परंतु यह विद्रोह अचानक नहीं हुआ । इसके पूर्व भी भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध कई विद्रोह हुए थे ।

ई॰स॰ १८५७ के पूर्व विद्रोह:

भारत में जहाँ-जहाँ अंग्रेजों का शासन स्थापित हुआ, वहाँ के लोगों को अंग्रेजी शासन के दुष्परिणाम भोगने पड़े । अत: उन्होंने अंग्रेजों के विरोध में विद्रोह किए । ये विद्रोह किसानों, कारीगरों, आदिवासियों, भिक्षुओं, सैनिकों जैसे विभिन्न वर्गो द्‌वारा किए गए ।

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कंपनी सरकार के शासन काल में किसानों का शोषण होने के कारण किसानों में असंतोष व्याप्त हुआ । ई॰स॰ १७६३ से १८५७ के बीच बंगाल में सर्वप्रथम संन्यासियों और उसके पश्चात साधुओं के नेतृत्व में किसानों ने विद्रोह किए । ऐसे ही विद्रोह गुजरात, राजस्थान और दक्षिण भारत में भी हुए ।

भारत के आदिवासियों और वन्य जनजातियों ने भी अंग्रेजी शासन को चुनौती दी । अंग्रेजों के कानूनों के कारण उनके उन अधिकारों पर संकट आया था जो वन संपदा पर आजीविका चलाने के लिए उन्हें प्राप्त थे । छोटा नागपुर क्षेत्र की कोलाम, उड़ीसा की गोंड, महाराष्ट्र की कोली, भील और पिंडारी जनजातियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किए ।

बिहार में संथालों द्‌वारा किया गया विद्रोह इतना जबर्दस्त था कि इस विद्रोह के। कुचलने के लिए अंग्रेजों को कई वर्षों तक सैनिक अभियान चलाना पड़ा । महाराष्ट्र में उमाजी नाईक द्‌वारा किए गए विद्रोह में भी ऐसी ही प्रखरता थी ।

उमाजी नाईक ने पिंडारियों को संगठित कर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया । उन्होंने एक घोषणापत्र जारी किया । इसके दवारा उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने और अंग्रेजी सत्ता को ठुकराने का आह्वान किया । ई॰स॰ १८३२ में उन्हें फाँसी दी गई । अंग्रेजों के विरोध में कोल्हापुर क्षेत्र के गड़करियों और कोकण में फोंड-सावंतों ने विद्रोह किए ।

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अंग्रेजों की दमन नीति के विरुद्ध ई॰स॰ १८५७ के पूर्व देश के विभिन्न भागों में कुछ जमींदारों और राजे-रजवाड़ों ने भी विद्रोह किए । अंग्रेजों की भारतीय सैनिकों ने भी समय-समय पर अपने अधिकारियों के विरोध में विद्रोह किए थे । इन विद्रोहों में ई॰स॰ १८०६ में वेल्लोर में तथा ई॰स॰ १८२४ में बराकपुर में हुए विद्रोहों का स्वरूप अधिक उग्र था ।

यह सच है कि अंग्रेजों के विरोध में हुए इन सभी विद्रोहों का स्वरूप स्थानीय और एकाकी था और इसी कारण अंग्रेज इन विद्रोहों को विफल कर सके परंतु इससे लोगों में व्याप्त असंतोष को केवल दबा दिया गया था; वह असंतोष नष्ट नहीं हुआ था ।

यही कारण है कि जनता के असंतोष की यह दावाग्नि ई॰स॰ १८५७ के विद्रोह के रूप में धधक उठी । जिस प्रकार गोला बारूद के गोदाम पर एक चिनगारी गिरने पर स्फोट होता है उसी प्रकार ई॰स॰ १८५७ में घटित हुआ । भारत के विभिन्न वर्गों में अंग्रेजों के विरुद्ध अब तक संचित असंतोष का विस्फोट अभूतपूर्व सशस्त्र विद्रोह के रूप में हुआ ।

१८५७ के विद्रोह के कारण:

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अंग्रेजों के आने से पूर्व भारत में कई सत्ताएँ आईं और चली गईं परंतु यहाँ की व्यवस्था पूर्ववत चलती रही लेकिन अंग्रेजों ने इस व्यवस्था को समाप्त कर नई व्यवस्था को प्रचलित किया । फलस्वरूप भारतीयों के मन में अस्थिरता एवं असुरक्षा का भाव उत्पन्न हुआ ।

आर्थिक कारण:

अंग्रेजों द्‌वारा प्रारंभ की गई भू राजस्व की नई पद्धति के कारण किसानों की आर्थिक स्थिति विकट हो गई । अंग्रेजों की व्यापारिक नीतियों के फलस्वरूप भारतीय उद्‌योग-धंधे ठप्प हो गए । इससे असंख्य कारीगर बेरोजगार हुए । उनके मन में अंग्रेज विरोधी भावना बलवती होती गई । अंग्रेजों ने जिन रियासतों को अपने अधिकार में कर लिया था; उन रियासतों के सैनिक बेरोजगार हो गए थे । वे भी अंग्रेजों के विरोधी हो गए ।

सामाजिक कारण:

भारतीय समाज में प्रचलित कई परंपराओं, रीति-रिवाजों और मान्यताओं में अंग्रेज शासकों ने हस्तक्षेप किया था । उन्होंने सती प्रथा कानून, विधवा विवाह कानून बनाए थे । लोगों को लगा कि इस प्रकार के कानून बनाकर अंग्रेजी शासन हमारी जीवन पद्धति को समाप्त करना चाहता है । फलस्वरूप लोगों में असंतोष उत्पन्न हुआ ।

राजनीतिक कारण:

ई॰स॰ १७५७ तक अंग्रेजों ने कई भारतीय रियासतों पर अधिकार कर उन्हें समाप्त किया था । ई॰स॰ १८४८  से १८५६ के बीच लार्ड डलहौजी ने विलय नीति का अनुसरण करके अनेक रियासतें हड़प ली थी । उसने अव्यवस्था का कारण बताकर अवध के नवाब को पदक्षत किया और उसकी रियासत को अपने अधिकार में कर लिया था ।

सातारा, झाँसी, नागपुर आदि रियासतदारों के राजाओं के दत्तक पुत्र उत्तराधिकार को अस्वीकृत कर उनकी रियासतों को अपनी सत्ता में मिला लिया था । कुछ पदच्युत राजाओं के उत्तराधिकारियों के वेतन रद्‌द कर दिए थे । फलस्वरूप उनमें भी तीव्र असंतोष व्याप्त था ।

भारतीय सैनिकों में व्याप्त असंतोष:

अंग्रेज़ अधिकरी भारतीय सैनिकों के साथ अपमान का व्यवहार अते थे । सेना में सूबेदार से ऊपर के पद अंग्रेज अधिकारियों को दिए जाते थे । भारतीय सैनिकों को अंग्रेज सैनिकों की तुलना में कम वेतन मिलता था । प्रारंभ से दिए जानेवाले भत्ते क्रमश: कम कर दिए गए थे । ऐसे अनेक करणों से भारतीय सैनिकों में असंतोष संचित होता गया ।

तात्कालिक कारण:

ई॰स॰ १८५६ में अंग्रेजों ने भारतीय सैनिकों को दूर तक मार क्तनेवाली एनफ्लिड बंदूकें तथा नए कारतूस दिए थे । इन कारतूसों के आवरणों को दाँतों से काटकर खोलना पड़ता था । सैनिकों में यह बात फैल गई कि कारतूसों के आवरणों पर गाय और वराह (सूअर) की चरबी लगाई जाती है । इससे हिंदू और मुस्लिमों की धार्मिक भावनाएं आहत हुई और सैनिकों में असंतोष व्याप्त हुआ ।

विद्रोह की दावाग्नि धधक उठी:

२९ मार्च १८५७ को बैरकपुर की छावनी में सैनिक विद्रोह की पहली लपट धधक उठी । कारतूसों का उपयोग करने हेतु कड़ाई बरतनेवाले अंग्रेज अधिकारी पर मंगल पांडे ने गोली चलाई । उन्हें बंदी बनाकर फाँसी पर चढ़ाया गया । यह समाचार देश की अन्य सैनिक छावनियों में जंगल की आग की भांति फैल गया । १० मई १८५७ को मेरठ छावनी के भारतीय सैनिकों की पूरी पलटन ने विद्रोह का झंडा उठाया और उन्होंने दिल्ली की ओर कूच किया ।

रास्ते में हजारों सामान्य लोग इनसे आकर मिल गए । दिल्ली पहुँचते ही वहाँ अंग्रेजों की सैनिक छावनी के भारतीय सैनिक उनसे आ मिलें । उन्होंने मुगल शासक बहादुर शाह जफर को इस विद्रोह का नेतृत्व प्रदान किया और भारत के शासक के रूप में उसके नाम की घोषणा कर दी ।

विद्रोह का विस्तार:

देखते-हीं-देखते यह विद्रोह संपूर्ण उत्तर भारत में फैल गया । बिहार से लेकर राजस्थान तक अंग्रेजों की छावनियों के भारतीय सैनिकों ने विद्रोह का झंडा बुलंद किया । असंख्य लोग भी आकर उनसे जुड़ गए । मई महीने में विद्रोह के प्रारंभ होने के उपरांत तीन-चार महीनों के भीतर इस विद्रोह की दावाग्नि पूर्वी पंजाब, दिल्ली का क्षेत्र, रुहेलखंड, बुंदेलखंड, इलाहाबाद, अवध, पश्चिमी बिहार में फैल गई ।

इस विद्रोह की लपटें दक्षिण में भी पहुँच गईं । नागपुर, सातारा, कोल्हापुर, नरगुंद आदि स्थानों पर विद्रोह हुए । ई॰स॰ १८५७ में हुए इस विद्रोह में स्त्रियाँ भी सम्मिलित हुई थीं । ई॰स॰ १८५७ में खानदेश में कजार सिंह के नेतृत्व में हुए भीलों के और सतपुड़ा क्षेत्र में शंकर शाह के नेतृत्व में हुए विद्रोहों का अंग्रेजों ने दमन किया । खानदेश में हुए विद्रोह में लगभग ४०० भील स्त्रियाँ सम्मिलित हुई थीं ।

विद्रोह का नेतृत्व:

यद्‌यपि ई॰स॰ १८५७ में विद्रोह की बागडोर मुगल शासक के हाथ में थी फिर भी प्रत्यक्ष रूप से यह नेतृत्व नानासाहेब पेशवा, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, बेगम हजरत महल, मौलवी अहमदउल्ला, कुँवर सिंह और मुगल सेनापति बख्त खान ने किया । दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, झाँसी और पश्चिमी बिहार के क्षेत्र में हुए विद्रोह प्रखर स्वरूप के थे ।

दिल्ली की रक्षा का दायित्व बख्त खान ने स्वयं पर ले लिया । दिल्ली को अपने अधिकार में कर लेने के लिए अंग्रेजों ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी । ई॰स॰ सितंबर १८५७ में अंग्रेजों ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया । उन्होंने बहादुर शाह को बंदी बनाया और उनके बेटों की हत्या कर दी ।

कानपुर क्षेत्र में हुए विद्रोह का नेतृत्व नानासाहेब पेशवा और तात्या टोपे ने किया । रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की स्वतंत्रता की घोषणा करके अंग्रेजों के विरुद्ध रणभेरी बजा दी । पश्चिम बिहार में जगदीशपुर के जमींदार कुँवर सिंह इस विद्रोह में उतरे । रुहेलखंड में मौलवी अहमदउल्ला ने लोगों को अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की प्रेरणा दी ।

विद्रोह का दमन:

विद्रोही एवं उनके नेता प्राणों की परवाह किए बिना अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े परंतु आकस्मिक रूप से आरंभ हुए विद्रोह के पहले आघात में से अंग्रेजों ने स्वयं को संभाला और आगामी छह महीनों में ही विद्रोह का स्वरूप बदल गया ।

अंग्रेजों ने अपने खोए हुए सभी महत्वपूर्ण केंद्र पुन: अपने अधिकार में कर लिए । झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, कुँवर सिंह, अहमदउल्ला ने वीरगति पाईं । बहादुर शाह रंगून के कारावास में भेजे गए । नानासाहेब पेशवा और बेगम हजरत महल ने नेपाल में शरण ली ।

तात्या टोपे लगभग दस महीनों तक अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करते रहे परंतु विश्वासघात के शिकार होकर वे अंग्रेजों के हाथ लगे । अंग्रेजों ने उन्हें फाँसी पर चढ़ाया । इस तरह ई॰स॰ १८५८ के अंत तक अंग्रेजों ने इस विद्रोह का बड़ी निर्दयता से दमन किया ।

विद्रोह का स्वरूप:

ई॰स॰ १८५७ के विद्रोह का प्रारंभ भारतीय सैनिकों में असंतोष के विस्फोट का परिणाम था । आगे चलकर इसमें किसान, कारीगर जैसे सामान्य लोग भी सम्मिलित हुए । इसी भांति इस विद्रोह में कुछ जमींदार एवं राजे-रजवाड़े भी शामिल हुए थे ।

भारतीयों द्‌वारा किया गया यह सशस्त्र संघर्ष अंग्रेजों के अन्यायपूर्ण वर्चस्व से मुक्त होने के लिए था । इस संघर्ष में हिंदू-मुस्लिम, विभिन्न जाति-जनजातियाँ, धनवान तथा सामान्य जनता का समावेश था । भारत से अंग्रेजों को खदेड़ना ही सभी का एकमात्र लक्ष्य था । फलस्वरूप इस विद्रोह को राष्ट्रीय स्वरूप प्राप्त हुआ ।

विफल क्यों हुए?

१८५७ कें विद्रोह का स्वरूप व्यापक होते हुए भी अंग्रेजी सत्ता नष्ट नहीं हुई क्योंकि इस विद्रोह में एकसूत्रता नहीं थी । विद्रोह का नेतृत्व किसी एक के पास नहीं था । विद्रोहियों के पास पर्याप्त शस्त्र नहीं थे । सुशिक्षित भारतीय तथा बहुसंख्य रियासतदार इस विद्रोह से अलग रहे । इसके विपरीत अंग्रेजों के पास केंद्रीय नेतृत्व था ।

उनके सैनिक अनुशासनबद्ध थे और उनके पास आधुनिक शस्त्र थे । उनके सेनानी अनुभवी थे तथा संचार व्यवस्था पर उनका अधिकार था । फलस्वरूप अंग्रेजों के सम्मुख भारतीय अपना प्रभाव जमा नहीं पाए । यद्‌यपि ई॰स॰ १८५७ का विद्रोह विफल हुआ तथापि विद्रोहियों का बलिदान व्यर्थ नहीं गया क्योंकि इसी विद्रोह ने कालांतर में हुए स्वतंत्रता युद्ध को प्रेरणा दी । इस युद्ध से अंग्रेजी सत्ता काँप उठी थी ।

विद्रोह के परिणाम:

ई॰स॰ १८५७ में हुए इस विद्रोह के बहुत ही दूरगामी परिणाम हुए । इंग्लैंड के शासकों को यह बोध हुआ कि इस विद्रोह का कारण अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध भारतीयों का असंतोष है । उनकी दृढ़ धारणा बनी कि कंपनी के हाथ में भारत की अंग्रेजी सत्ता सुरक्षित नहीं रह गई है ।

अत: इंग्लैंड की संसद ने ई॰स॰ १८५८ में एक कानून पारित कर भारत में कंपनी की सत्ता को समाप्त किया और इंग्लैंड की पार्लियामेंट ने भारत का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया ।

रानी विक्टोरिया का घोषणापत्र:

इंग्लैंड की रानी विक्टोरिया ने भारतीयों संबोधित कर नवंबर १८५८ में एक घोषणापत्र जारी किया । रानी ने इसमें घोषणा की कि सभी भारतीय हमारे प्रजाजन हैं । प्रजाजनों में वंश, धर्म, जाति, अथवा जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा । सरकारी नौकरियों में गुणवत्ता को प्राथमिकता दी जाएगी ।

साथ ही यह आश्वासन भी दिया गया कि भारतीयों के धार्मिक मुआमलों में सरकार हस्तक्षेप नहीं करेगी । भारतीय रियासतदारों के साथ अंग्रेजों द्‌वारा किए गए अनुबंधों का पालन किया जाएगा । भविष्य में किसी भी रियासत का अंग्रेजी साम्राज्य में विलय नहीं होगा ।

सेना का पुनर्रचना:

भारत में अंग्रेजी सेना की पुनर्रचना की गई । यूरोपीय सैनिक एवं अधिकारियों की संख्या में वृद्धि की गई । जाति के अनुसार भारतीय पलटनें बनाई गई । तोपखाना पूर्णत: अंग्रेज अधिकारियों के नियंत्रण में लाया गया । ऐसा करने में अंग्रेजों का यह उद्देश्य था कि भारतीय सैनिक संगठित होकर पुन: इस प्रकार का विद्रोह न करें ।

नीतिगत परिवर्तन:

ई॰स॰ १८५७ के पश्चात अंग्रेजों ने अपनी आंतरिक नीतियों में भी परिवर्तन किए । उन्होंने यह नीति अपनाई कि वे भारत के सामाजिक मुआमलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे । साथ ही उनका यह भी प्रयास रहा कि भारतीय समाज एकजुट न बने । उन्होंने ‘फूट डालो और राज्य करो’ इस नीति का अनुसरण करते हुए भारत में अपने साम्राज्य को अधिकाधिक दृढ़ करने पर बल दिया ।

इस विद्रोह का भारतीयों पर भी गहरा प्रभाव पड़ा । प्रादेशिक आत्मीयता के स्थान पर राष्ट्रीय भावना उत्पन्न होने लगी । अंग्रेजों से संघर्ष करने के सभी मार्ग व्यर्थ हो जाने से नए उपाय ढूँढ़ने की आवश्यकता को भारतीय अनुभव करने लगे ।

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