Read this essay in Hindi to learn about the establishment of Pala dynasty in India during the medieval period.

पाल साम्राज्य की स्थापना संभवत: 750 ई॰ में गोपाल ने की थी जब उस क्षेत्र में व्याप्त अराजकता को समाप्त करने के लिए क्षेत्र के अग्रणी व्यक्तियों ने उसे राजा चुन लिया । शाही परिवार तो दूर गोपाल किसी ऊँचे परिवार में भी नहीं जन्मा था और उसके पिता संभवत: एक सैनिक थे ।

गोपाल ने अपने नियंत्रण में बंगाल का एकीकरण किया और मगध (बिहार) तक को अपने अधीन ले आया । 770 ई॰ में गोपाल का पुत्र धर्मपाल राजा बना जिसने 810 ई॰ तक शासन किया । कन्नौज और उत्तर भारत पर नियंत्रण के लिए पालों प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों का त्रिपक्षीय संघर्ष उसके शासनकाल का मुख्य तत्व था ।

प्रतिहार राजा गौड़ (बंगाल) पर चढ़ आया लेकिन कोई निर्णय हो सके, इसके पहले ही प्रतिहार राजा को राष्ट्रकूट राजा ध्रुव ने हरा दिया और वह राजस्थान के रेगिस्तान में शरण लेने के लिए बाध्य हो गया । फिर ध्रुव दकन लौट गया । इसके कारण धर्मपाल के लिए मैदान खाली हो गया ।

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उसने कन्नौज पर कब्जा कर लिया और एक शानदार दरबार लगाया जिसमें पंजाब पूर्वी राजस्थान आदि के अधीनस्थ शासकों ने भाग लिया । कहा जाता है कि धर्मपाल का शासन भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा की आखिरी हद तक फैला हुआ था और संभवत: मालवा और बरार भी उसमें शामिल थे । स्पष्ट रूप से इसका मतलब यह है कि इन क्षेत्रों के शासकों ने धर्मपाल की अधिराजी स्वीकार कर ली थी ।

धर्मपाल का विजयकाल 790 और 800 ई॰ के बीच माना जा सकता है । लेकिन धर्मपाल उत्तर भारत में अपनी सत्ता को स्थायी नहीं बना सका । नागभट्‌ट द्वितीय के काल में प्रतिहारों की शक्ति का पुनरूत्थान हुआ । धर्मपाल पीछे हटा मगर मुंगेर के पास हरा दिया गया । बिहार और आज का पूर्वी उत्तर प्रदेश पालों और प्रतिहारों के बीच टकराव का कारण रहा हालाकि बंगाल के अलावा बिहार भी अधिकतर पालों के ही नियंत्रण में रहा ।

उत्तर में मिली असफलता ने पाल शासकों को दूसरी दिशाओं में प्रयास करने के लिए बाध्य कर दिया । धर्मपाल का बेटा देवपाल 810 ई॰ में गद्‌दी पर बैठा और उसने चालीस वर्षों तक शासन किया । उसने अपना नियंत्रण प्रागज्योतिषपुर (असम) और उड़ीसा के कुछ भागों पर भी स्थापित किया । संभवत: आधुनिक नेपाल का एक भाग भी पालों के अधीन आ चुका था ।

इस तरह आठवीं सदी के मध्य से लेकर नवीं सदी के मध्य तक लगभग सौ वर्षो तक पूर्वी भारत पर पाल राजाओं का वर्चस्व रहा । कुछ समय तक उनका नियंत्रण बनारस तक फैला रहा । उनकी शक्ति की गवाही सुलेमान नाम के एक अरब सौदागर ने दी है जो नवीं सदी के मध्य में भारत आया था और उसने यहाँ का वृत्तांत लिखा है ।

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वह पाल राज्य को रुहमा या धर्मा (धर्मपाल का संक्षेप) कहता है । इसके अनुसार पाल राजा का अपने पड़ोसी प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों से युद्ध चलता रहता था पर उसकी सेना उसके विरोधियों की सेनाओं से अधिक थी । वह हमें बतलाता है कि 50,000 हाथियों की सेना लेकर चलना पाल राजा का कायदा था और उसकी सेना में 10,000-15,000 व्यक्ति ‘कपड़ों की सफाई और धुलाई में’ लगे रहते थे ।

अगर इन कड़ी में अतिशयोक्ति हो तो भी हम मान सकते हैं कि पालों के पास एक बड़ी सेना थी । लेकिन हमें यह नहीं पता कि उनकी एक विशाल स्थायी सेना थी या उनकी सेना अधिकतर सामंतों पर आधारित होती थी । पालों के बारे में तिब्बती वृत्तांत भी हमें सूचनाएँ देते हैं हालाँकि ये सत्रहवीं सदी में लिखे गए थे । इनके अनुसार पाल शासक बौद्ध ज्ञान-विज्ञान और धर्म के महान संरक्षक थे ।

पूरे पूर्वी जगत में प्रसिद्ध रह चुके नालंदा विश्वविद्यालय का धर्मपाल ने पुनरूत्थान किया और उसका खर्च पूरा करने के लिए उसने 200 गाँव अलग कर दिए थे । उसने विक्रमशिला विश्वविद्यालय भी स्थापित किया जिसकी प्रसिद्धि नालंदा से कुछ ही कम थी । यह मगध में गंगा के किनारे मनमोहक वातावरण के बीच, एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित था । पालों ने अनेक विहार बनवाए जिनमें बौद्ध भिक्षुओं की बड़ी संख्या रहती थी ।

तिब्बत से भी पाल शासकों के गहरे सांस्कृतिक संबंध थे । प्रसिद्ध बौद्ध विद्वानों शांतरक्षित और दीपांकर (उर्फ अतिस) को तिब्बत निमंत्रित किया गया और उन्होंने वहाँ बौद्ध धर्म के एक नए रूप को प्रचलित किया । फलस्वरूप अनेक तिब्बती बौद्ध अध्ययन के लिए नालंदा और विक्रमशिला आए । यूँ तो पाल शासक बौद्ध मत के संरक्षक थे पर शैव और वैष्णव मतों को भी उन्होंने संरक्षण दिया ।

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उन्होंने उत्तर भारतीय ब्राह्मणों की एक बड़ी संख्या को जो भागकर बंगाल पहुँचे थे दान दिए । उनकी आबादी के कारण पश्चिम बंगाल में कृषि का प्रसार हुआ तथा अनेक पशुपालक और खाद्य-संग्राहक समुदाय स्थायी रूप से बसकर खेती करने लगे । बंगाल की बढ़ती समृद्धि दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों अर्थात बर्मा, मलाया, जावा, सुमात्रा आदि के साथ व्यापारिक और सांस्कृतिक संपर्क बनाने में भी सहायक हुई ।

दक्षिण-पूर्व एशिया और चीन के साथ व्यापार बहुत लाभदायक था जिससे पाल साम्राज्य की समृद्धि में बढ़ोतरी हुई । इन देशों के साथ व्यापार के कारण बंगाल में सोना और चाँदी का भंडार भी बढ़ा । शैलेंद्र शासक जो बौद्ध थे तथा मलाया, जावा, सुमात्रा और पड़ोसी द्वीपों पर राज्य करते थे उन्होंने पालों के दरबार में अनेक राजदूत भेजे ।

उन्होंने नालंदा में एक मठ बनाने की अनुमति भी माँगी तथा उसके रखरखाव के लिए पाल राजा देवपाल से पाँच गाँव देने की प्रार्थना भी की । यह प्रार्थना मान ली गई । इसे दोनों के बीच घनिष्ठ संबंध का पक्का सबूत माना जा सकता है । इस काल में फारस की खाड़ी क्षेत्र के साथ भी व्यापार बढ़ा ।

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