Read this essay in Hindi to learn about the two main caste systems followed in India during eighth to twelfth century (Medieval Period).

Essay # 1. ब्राह्मण और राजपूत:

जातिप्रथा जो इस काल से बहुत पहले जन्म ले चुकी थी, समाज का आधार थी । मगर जातिप्रथा में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन आए । उदाहरण के लिए, ब्राह्मणों की स्थिति काफ़ी मजबूत हुई । जैसा कि हमने देखा, सिंध के राजा ने, जो खुद एक ब्राह्मण था, तथा बंगाल और दक्षिण भारत के राजाओं ने ब्राह्मणों की बड़े पैमाने पर राजस्वमुक्त जमीनें देकर बसने के लिए आमंत्रित किया ।

इन ब्राह्मणों ने न सिर्फ कृषि का प्रसार किया बल्कि स्थानीय राजस्व अधिकारियों, मंत्रियों, खातादारों आदि के काम भी किए । उनमें से कुछ ने तो सैनिक मामलों में भी सक्रिय भूमिक निभाई । शिक्षा और साहित्य का सृजन उनके कार्यकलापों का एक अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्र था ।

इस काल के स्मृति-लेखक ब्राह्मणों की उच्च स्थिति का गुणगान करके उनके बढ़ते महत्त्व को प्रतिबिंबित करते दिखाई देते हैं । उनमें से कुछ ने तो यह तर्क भी दिया है कि प्राचीन क्षत्रिय जाति तो रही नहीं और वैश्य पतित होकर शूद्र की स्थिति को पहुँच गए हैं इसलिए अब समाज में एकमात्र द्विज वर्ण ब्राह्मणों का है ।

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लेकिन शास्त्रों का चिंतन आवश्यक नहीं कि सामाजिक यथार्थ को प्रतिबिंबित करे । इस संदर्भ में हम राजपूत नामक एक नई श्रेणी का उदय भी देखते हैं । इस काल में रजवाड़ों की एक बहुत बड़ी सख्या पर राजपूतों का राज था । ये राजपूत उन वंशों के मुखिया समझे जाते थे जिनका बड़े-बड़े इलाकों पर वर्चस्व था और जो सशस्त्र बलों की रीढ़ थे । इनमें से अधिकांश का राजा के साथ खून का संबंध होता था और वे अपने को राज्य के शासन में हिस्सेदार मानते थे ।

राजपूतों के उद्‌भव को लेकर विद्वानों में भारी विवाद है । कुछ विद्वान इनको मिश्रित मूल का मानते हैं जिनमें से कुछ शक, हूण आदि विदेशियों के, देसी कबीलों के और कुछ दृष्टांतों में ब्राह्मणों के वंशज थे ।

दूसरी ओर अनेक राजपूत वंश परंपरा जिनकी संख्या 36 बतलाती है, अपनी वंशावली उन सूर्यवंशी और चंद्रवंशी क्षत्रियों से जोड़ते थे जिनका महाभारत में उल्लेख है । आधुनिक अनुसंधान उस प्रक्रिया पर बल देता है जिसमें विभिन्न सामाजिक समूहों के व्यक्ति अपने को क्षत्रिय बतलाकर अपनी नई-नई मिली शक्ति और स्थिति को वैधता प्रदान करने का प्रयास करते थे ।

कभी-कभी एक ब्राह्‌मण माँ की संतान होने का दावा करके एक मिश्रित ब्राह्मण-क्षत्रिय स्थिति पाने की कोशिश की जाती थी । विद्वान जन इसे सामाजिक वृद्धि की एक जटिल प्रक्रिया का अंग मानते हैं । उदाहरण के लिए राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में आदिवासी इलाकों में ब्राह्मण व्यापारी और सैनिक बस गए ।

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अनेक क्षेत्रों में इसी के साथ कुँओं बाँधों आदि से सिंचाई और बेहतर फसलों की खेती पर आधारित एक श्रेष्ठतर अर्थव्यवस्था का आरंभ हुआ । इस प्रक्रिया में कुछ कृषकों ने राजपूत का दर्जा हासिल कर लिया जबकि कुछ शूद्र ही रहे । इस तरह जिसे ‘राजपूतीकरण’ कहते हैं उसके साथ खेतिहर अर्थव्यवस्था की बढ़ोतरी हुई और विभिन्न वर्गों ने राजनीतिक सत्ता भी अर्जित कर ली ।

इस प्रक्रिया में ब्राह्मणों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । उदाहरण के लिए, अग्निकुल की कथा में, जिसे ग्यारहवीं सदी का बताया जाता है, ऋषि वशिष्ठ ने पवित्र अग्नि से चार राजपूत वंशों को पैदा किया-प्रतिहार, सोलंकी या चालुक्य, परमार या पवार तथा चहमान या चौहान ।

इस काल में ब्राह्मणों ने शासक परिवारों को प्राचीन क्षत्रिय परिवारों से जोड़ते हुए अनेक-वंशावलियाँ लिखीं । उदाहरण के लिए गुर्जर-प्रतिहारों को गुर्जर मूल से उत्पन्न जाना जाता है पर उनको लक्ष्मण से जोड़ दिया गया जिन्होंने राम के द्वारपाल (प्रतिहार) का काम किया था ।

इस ब्राह्मण-राजपूत गँठजोड़ के अनेक राजनीतिक और सांस्कृातिक परिणाम निकले । विस्तारवादी हो रहे हिंदू धर्म के रक्षकों का काम करते हुए राजपूतों ने शानदार मंदिर बनवाकर तथा उन्हें और ब्राह्मण पुरोहितों को बड़े-बड़े भूमिदान उपहार, धर्मादे आदि देकर अपनी शक्ति का परिचय दिया ।

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जाति उतनी बेलोच नहीं थी जितनी समझी जाती है । वर्ण-व्यवस्था में व्यक्ति और समूह ऊपर उठ सकते थे और नीचे भी गिर सकते थे । कभी-कभी नई जातियों का वर्ण-व्यवस्था में स्थान निर्धारण कठिन हो जाता था । इसका एक उदाहरण कायस्थ जाति है जिसका उल्लेख इस काल से विशेष रूप से होने लगता है ।

लगता है आरंभ में ब्राह्मण और शूद्रों समेत विभिन्न जातियों के उन लोगों को जो राजकीय प्रतिष्ठानों में काम करते थे कायस्थ कहा जाता था । कालांतर में वे एक अलग जाति के रूप में सामने आए । इस काल में हिंदू धर्म का तेजी से प्रसार हो रहा था । उसने बड़ी संख्या मे बौद्धों और जैनियों समेत अनेक देसी कबीलों को भी हिंदू बना लिया ।

हूणों जैसे विदेशियों का भी हिंदूकरण हुआ । ये नए समूह नई जातियाँ और उपजातियाँ बन गए । लेकिन कबीलों ने अपनी प्रथाओं विवाह-संस्कारों यहाँ तक कि अपने कबीलाई देवी-देवताओं को भी बचाकर रखा । इन देवी-देवताओं को प्राय हिंदू देवी-देवताओं के अधीन बना दिया जाता था । इस तरह समाज व धर्म अधिकाधिक जटिल होते गए ।

Essay # 2. शूद्र, दलित एवं दास:

विधिशास्त्री याज्ञवल्क्य के अनुसार एक ब्राह्मण अपने किसान, नाई, ग्वाला और परिवारिक मित्रों के साथ भोजन कर सकता है । एक आधुनिक इतिहासकार डी सी सरकार के अनुसार इस काल में ‘शूद्रों की स्थिति में क्रमिक उन्नति’ जातिप्रथा की एक विशेषता थी । हालाँकि उनको वेदों के अध्ययन का अधिकार नहीं था पर वे जन्म मृत्यु नामकरण आदि स्मार्थ सकारों के अधिकारी बन गए ।

कृषि का प्रसार हुआ तो अनेक जनजातीय लोग इस श्रेणी में शामिल हो गए । जाट जो सिंध के घुमक्कड़ पशुपालक जनजाति थे, धीरे-धीरे पंजाब में आ गए तथा कृषक-सैनिक बन गए । हालांकि वर्ण व्यवस्था में उनको शूद्रों की हैसियत से शामिल किया गया, पर उनमें एक उच्चतर श्रेणी का उदय भी हुआ जो अपने आपको राजपूतों के बराबर जनता था ।

उच्च जातियों और शूद्रों के विवाह पर लोग नाक-भौं चढ़ाते थे, पर ऐसे विवाह होते थे । इस बात का पता इससे चलता है कि एक निचली जाति की स्त्री से ऊँची जाति के पुरुष के विवाह को अनुलोम (विधि सम्मत) और एक ऊँची जाति की स्त्री से निचली जाति के पुरुष के विवाह को प्रतिलोम (विधि विरुद्ध) कहा जाता था । नई जातियों के उदय को जिनमें अकसर कुम्हार बुनकर नाई आदि पेशेवर समूह या फिर जनजातीय लोग शामिल थे ऐसे ही मिश्रित विवाहों का परिणाम माना गया ।

शूद्रों की तुलना में दलितों की स्थिति और बिगड़ी । दलितों में वे लोग आते थे जो मेहतरगीरी, मृत पशुओं की खाल उतारना, जूते बनाना, शिकार आदि पेशे करते थे । इन लोगों को अंत्यज अर्थात अछूत कहा गया और ये चातुर्वर्ण व्यवस्था से बाहर एक पाँचवी सामाजिक श्रेणी के थे ।

अकसर उनसे द्विज व्यक्तियों के निवासक्षेत्रों से दूर रहने की अपेक्षा की जाती थी । स्मृतियों में इस बात की चर्चा भी मिलती है कि एक अंत्यज की छाया व्यक्ति को दूषित करती है या नहीं । देश के कुछ भागों में चांडालों के लिए एक डंडी से एक लकड़ी की तख्ती बजाते चलना अनिवार्य था ताकि द्विज व्यक्तियों का उनसे संपर्क न हो ।

देश के अधिकांश भागों में ये लोग कृषि की जमीनों के स्वामी नहीं बन सकते थे । इस काल में दास प्रथा भी अस्तित्व में थी । युद्धबंदियों या ऋण चुकाने में असमर्थ व्यक्तियों को दास रूप में बेचा जा सकता था । अकाल के दिनों में अनेक किसान स्वयं को या अपनी पत्नी या बच्चों को अनाज के बदले बेच देते थे ।

घरेलू कामों के लिए या संगत के लिए स्त्रियाँ भी खरीदी जाती थीं । लेकिन दासों के लिए योजनाबद्ध धावे नहीं बोले जाते थे जैसा कि तुर्कों के बीच प्रचलन था । आम तौर पर अंत्यज या घूणित जातियों की अपेक्षा दासों के साथ बेहतर व्यवहार किया जाता था ।

युद्ध के लिए दासों का उपयोग नहीं किया जाता था । तो भी वे लड़ सकते थे क्योंकि कहा गया है कि एक दास अगर अपने स्वामी का जीवन बचाता है तो वह स्वतंत्र हो जाता है तथा अपने स्वामी की संपत्ति का एक भाग पाने का अधिकारी हो जाता है । अपने मालिक की संतान जननेवाली दासी भी स्वतंत्र कर दी जाती थी । आम तौर पर एक दासी को मुक्त करना सुकर्म समझा जाता था तथा इसके लिए नियम निर्धारित किए गए थे ।

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