Read this essay in Hindi to learn about the period of renaissance in India.

उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में पुनर्जागरण काल प्रारंभ हुआ । भारत को मध्यकाल से आधुनिक काल की ओर ले जानेवाला यह एक व्यापक पुनर्जागरण आंदोलन था । यह आंदोलन सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों में हुआ ।

Essay # 1. भारत में पुनर्जागरण:

तत्कालीन सुशिक्षित भारतीयों को यह बोध होने लगा था कि समाज में व्याप्त अंधश्रद्धा, कर्मकांड का प्रभाव, रूढ़ियों के प्रति दुराग्रह, जातिभेद, ऊँच-नीच का भेदभाव, वैज्ञानिक मानसिकता का अभाव जैसी बातों के कारण भारतीय समाज की उन्नति अवरुद्ध हो गई है ।

उनके ध्यान में यह बात भी आ गई कि समाज के पिछड़ जाने से देश की स्वतंत्रता नष्ट हो गई है । भारतीय समाज में व्याप्त दोषों और अनिष्टकारक प्रवृत्तियों को किस प्रकार दूर किया जा सकता है जो देश की उन्नति में बाधक बने हुए हैं; इस पर वे विचार करने लगे और समाज व देश की प्रगति के मार्ग ढूँढने लगे । भारत को आधुनिक बनाने के संबंध में विचार प्रस्तुत किए जाने लगे ।

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तत्कालीन भारत में प्रारंभ हुई इस वैचारिक जागृति को ‘भारतीय पुनर्जागरण’ कहते हैं । यह वैचारिक परिवर्तन सबसे पहले पश्चिमी शिक्षा प्राप्त मध्य वर्ग में हुआ । इस वर्ग ने पश्चिमी ज्ञान से प्राप्त होनेवाले नए विचारों और नए मूल्यों को आत्मसात किया ।

Essay # 2. स्त्री विषयक सुधार:

उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में स्त्रियों की स्थिति बहुत दयनीय थी । उनके साथ समानता का व्यवहार नहीं किया जाता था । उन्हें शिक्षा से वंचित किया गया था । स्त्रियों को आर्थिक और सामाजिक अधिकार प्राप्त नहीं थे ।

वे बालिका हत्या, बालविवाह, अनमेल विवाह, दहेज प्रथा, सती प्रथा, केशवपन विधवा विवाह प्रतिबंध जैसी दूषित प्रथाओं का शिकार बनी हुई थीं । स्त्री विषयक सुधार आंदोलनों ने इन समस्याओं को उठाया । नृशंस सती प्रथा के विरुद्ध राजा राममोहन राय द्‌वारा किए गए आंदोलन के फलस्वरूप सती प्रतिबंध कानून पारित हुआ ।

गोपाल हरि देशमुख (लोकहितवादी) ने हिंदू सामाजिक व्यवस्था में स्त्री संबंधित कुप्रथाओं की कड़ी आलोचना की । उन्होंने, “ईश्वर ने स्त्री और पुरुष को समान रूप से उत्पन्न किया । अत: समान वकार प्राप्त ।” कहकर स्त्री-पुरुष समानता का समर्थन किया ।

ई॰स॰ १८४८ में महात्मा जोतीराव फुले ने पुणे में लड़कियों का पहला विद्‌यालय खोला । समाज का क्रोध झेलकर भी उनकी पत्नी सावित्रीबाई इस विद्‌यालय में लड़कियों को पढ़ाती थीं । जगन्नाथ शंकरशेट, ईश्वरचंद्र विद्‌यासागर, पंडिता रमाबाई आदि समाज सुधारकों ने स्त्री शिक्षा के कार्य में अपना बहुमूल्य योगदान दिया ।

महात्मा फुले ने अपने घर में बालहत्या प्रतिबंधक गृह प्रारंभ किया था । केशवपन की प्रथा समाप्त कर दी जाए; इसके लिए उन्होंने मुंबई में केशकर्तनकारों की हड़ताल करवाई । स्त्रियों से संबंधित समस्याओं का समाधान निकालने तक ही महात्मा फुले के प्रयास सीमित नहीं थे बल्कि स्त्रियों को दोयम समझने की पुरुषों की मानसिकता को बदलने के लिए वे प्रयासरत थे ।

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ताराबाई शिंदे द्‌वारा लिखित ‘स्त्री-पुरुष तुलना’ (इ॰स॰ १८८२) नामक ग्रंथ महात्मा के प्रयासों का परिणाम है । बुलढाणा क्षेत्र की एक मराठा परिवार की इस स्त्री ने प्रस्तुत ग्रंथ में अत्यंत तीखी भाषा में स्त्रियों के अधिकारों का समर्थन किया ।

ईश्वरचंद्र विद्‌यासागर, विष्णुशास्त्री पंडित और वीरेशलिंगम पंतलू ने विधवाओं के पुनर्विवाह को मान्यता दिलवाने के लिए विशेष प्रयास किए । स्त्री को चूल्हा और बच्चा तक सीमित रखने की मानसिकता का गोपाल गणेश आगरकर ने कड़ा विरोध जताया ।

उनका मानना था कि लड़के लड़कियों को समान रूप से शिक्षा प्रदान करनी चाहिए । सार्वजनिक क्षेत्रों में स्त्री भी पुरुष के साथ समान रूप से कार्य कर सकती है, इस विचार को उन्होंने स्पष्ट रूप से प्रकट किया ।

महर्षि धोंडो केशव कर्वे ने विधवाओं की शिक्षा हेतु अनाथ बालिकाश्रम की स्थापना की । उनके प्रयासों के फलस्वरूप बीसवीं शताब्दी में प्रथम महिला विश्वविद्‌यालय का निर्माण हुआ है । महर्षि विठ्ठल रामजी शिंदे ने बहुजन वर्ग की स्त्रियों के सुधार हेतु आंदोलन प्रारंभ किया ।

मुंबई में उन्होंने देवदासी प्रथा के विरोध में परिषद का आयोजन करवाया । पेरियार रामस्वामी नायक्त ने दक्षिण भारत में प्रचलित देवदासी प्रथा का कड़ा विरोध किया तथा स्त्री को दोयम समझक्त उसके विवाह पर अधिक व्यय करने की मानसिकता को धिक्कारा ।

डा॰ बाबासाहेब आंबेडकर ने अपने लेखन के माध्यम से पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था में स्त्रियों पर होनेवाले अत्याचारों को व्यक्त किया । उनके द्‌वारा चलाए गए आंदोलन में असंख्य स्त्रियाँ सम्मिलित होने

लगीं । इस आंदोलन के कारण स्त्री सुधार कार्य समाज के सामान्य लोगों तक पहुँचने लगा ।

स्त्री सुधार आंदोलन के फलस्वरूप कई अनिष्ट और अन्यायकारी प्रथाएँ समाप्त हुईं । यह दृष्टिकोण विकसित होने लगा कि स्त्रियों के साथ समानता का व्यवहार किया जाना चाहिए । जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में स्त्रियाँ अपना योगदान देने लगीं ।

Essay # 3. जाति भेद उन्मूलन आंदोलन:

भारतीय समाज में जाति व्यवस्था प्रचलित थी । यह जाति व्यवस्था विषमता, शोषण और अन्याय पर आधारित थी । समाज सुधारक भली-भांति जानते थे कि यदि भारत की उन्नति करनी है तो जाति भेद के अवरोध को दूर करना होगा । लोकहितवादी, महात्मा फुले, गोपाल गणेश आगरकर, स्वामी दयानंद सरस्वती, नारायण गुरु वीरेशलिंगम पंतलू जैसे सुधारकों ने जाति व्यवस्था के दोषों पर कड़ी चोट की ।

महात्मा फुले ने दलितों के लिए विद्‌यालय खोले । उन्होंने अपने लेखन द्‌वारा दलितों में जागृति लाने का प्रयास किया । उनका विचार था कि शिक्षा के अवसर मात्र उच्च वर्ग के लोगों तक सीमित नहीं रहने चाहिए बल्कि शिक्षा के अवसर दलित वर्गो और स्त्रियों को भी प्राप्त होने चाहिए । उन्होंने ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की ।

अपने आंदोलन द्‌वारा सामाजिक समता और न्याय जैसे मूल्यों को दृढ़ करने का प्रयास किया । केरल में नारायण गुरु ने सामाजिक विषमता को दूर करने हेतु सुधार आंदोलन प्रारंभ किया । उन्होंने जातिभेद नष्ट करने के लिए अंतर्जातीय विवाह की आवश्यकता जताई ।

Essay # 4. धर्म सुधार आंदोलन:

भारत में कतिपय सुधार संस्थाओं की स्थापना हुई । उन्होंने समाज और धर्म में सुधार करने को प्रोत्साहन दिया । बंगाल में राजा राममोहन राय ने ‘ब्रह्मो समाज’ की स्थापना की । ब्रह्मो समाज के मतावलंबी मानते थे कि ईश्वर एक ही है ।

दादोबा पांडुरंग तर्खडकर ने ‘परमहंस सभा’ की स्थापना की । जाति संस्था के प्रति विरोध यह इस संस्था की विशेषता थी । आत्माराम पांडुरंग तर्खडक्व ने मुंबई में ‘प्रार्थना समाज ‘ की स्थापना की । न्याय-मूर्ति म॰गो॰ रानडे, डा॰रा॰गो॰ भांडारकर और न्यायमूर्ति कृ॰त्र्यं तेलंग प्रार्थना समाज के नेता थे ।

प्रार्थना समाज ने वारकरी संप्रदाय की सीख को आधार बनाया । ईश्वर पूजा के लिए उन्होंने कर्मकांड के स्थान पर भजन और प्रार्थना का मार्ग अपनाने को कहा । स्वामी दयानंद सरस्वती ने मुंबई में ‘आर्य समाज’ की स्थापना की । स्वामी विवेकानंद ने ‘रामकृष्ण मिशन ‘ की स्थापना की । इस मिशन की सीख है कि मानव की सेवा करना ही सच्चा धर्म है ।

इन संस्थाओं ने समाज में व्याप्त अंधश्रद्धा, जाति व्यवस्था जैसे दोषों की कड़ी आलोचना की । इन संस्थाओं ने यही सीख दी कि धर्मग्रंथों पर विश्वास करने के बदले अपने विवेक के प्रति विश्वास करो । ‘रामकृष्ण मिशन’, ‘आर्य समाज’ और ‘थियोसोफिकल सोसाईटी’ ने विश्व को भारतीय संस्कृति की महानता से परिचित कराया ।

सिखों में धर्म सुधार हेतु अमृतसर में ‘सिंह सभा’ की स्थापना की गई । इस संस्था ने सिख समाज में शिक्षा प्रसार और आधुनिकीकरण का कार्य किया । कालांतर में ‘अकाली आंदोलन’ ने भी धर्म सुधार के कार्यो को जारी रखा ।

अब्दुल लतीफ ने मुस्लिम समाज में समाज सुधार का कार्य प्रारंभ किया । उन्होंने बंगाल में ‘द मुहमदीन लिटरेरी सोसाईटी’ की स्थापना की । सर सैयद अहमद खान ने ‘मुहमदीन एंग्लो – ओरिएंटल कालेज’ की स्थापना की । आगे चलकर इसी संस्था का रूपांतरण अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्‌यालय में हुआ ।

उन्होंने मुस्लिम समाज में व्याप्त अज्ञान, अंधशश्रद्धा और अनिष्ट रूढ़ियों के प्रति विरोध जताया । उनका दृढ़ मत था कि जब तक मुस्लिम समाज पश्चिमी शिक्षा और विज्ञान का अंगीकार नहीं करेगा तब तक उसकी उन्नति नहीं होगी ।

Essay # 5. अन्य क्षेत्रों में पुनर्जागरण:

इन सुधार आंदोलनों की भांति पुनर्जागरण काल में साहित्य, कला, विज्ञान जैसे क्षेत्रों में भी महत्वपूर्ण प्रगति हुई । साहित्य के क्षेत्र में गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर तथा विज्ञान के क्षेत्र में सी॰वी॰ रामन को नोबल पुरस्कार प्राप्त हुए । इससे भारत की प्रगति की कल्पना की जा सकती है । इस प्रगति के परिणामस्वरूप आधुनिक भारत की निर्मिति हुई है ।

इस कालखंड में साहित्य एवं कला के क्षेत्र में बहुत बड़े परिवर्तन हुए । साहित्य की नई विधा उपन्यास का जन्म हुआ । साहित्य में सामान्य मनुष्य के जीवन का चित्रण किया जाने लगा । विचारों को प्रेरित करने वाले निबंध लिखे जाने लगे । प्रादेशिक भाषाओं में प्राकृतिक सौंदर्य, राष्ट्रप्रेम मानवीय भावनाओं की अभिव्यक्ति होने लगी । कहानियों-उपन्यासों के माध्यम रो लोगों को स्वतंत्रता की प्रेरणा प्राप्त होने लगी । समाज सुधार के विचार भी प्रकट होने लगे ।

इस कालखंड में स्त्रियों ने लेखन करना प्रारंभ किया । इस लेखन द्‌वारा स्त्री मन प्रभावी ढंग रो व्यक्त होने लगा । नए समाचारपत्र और पत्रिकाएँ समाज सुधार और राजनीतिक जागृति के माध्यम सिद्ध हुए । इस कालावधि में साहित्य के क्षेत्र की भांति कला के क्षेत्र में भी प्रगति हुई । संगीत अधिकाधिक लोगों तक पहुंचने लगा । राष्ट्रीय आंदोलन में भी संगीन कला का उपयोग किया गया । मराठी में संगीत नाटक को प्रस्तुत किया जाने लगा ।

नई चित्रकला का प्रारंभ हुआ; जिसमें भारतीय शैली और पश्चिमी तकनीकों के बीच समन्वय स्थापित किया गया था । इस कालखंड में अजंता शैली, मुगल और पहाड़ी लघुचित्र शैली का पुनर्जन्म हुआ । हमारी स्थापत्य शैली पश्चिमी शैली से प्रभावित हुई । फलत: एक नई मिश्रित शैली का उदय हुआ ।

विज्ञान से संबंधित असंख्य ग्रंथ लिखे जाने लगे । भारत की प्रगति के लिए आवश्यक प्रयोगशीलता और वैज्ञानिक दृष्टि का महत्व लोगों के ध्यान में आने लगा । आधुनिक भारत के इतिहास में पुनर्जागरण की यह अभिव्यक्ति महत्वपूर्ण है । स्वतंत्रता, समता, राष्ट्रवाद जैसी संकल्पनाओं से अभिभूत सुधारकों ने राजनीतिक क्षेत्र में राष्ट्रव्यापी आंदोलन को निर्मित किया ।

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