Read this article in Hindi to learn about the biographical method that is used to observe human behaviour.

बालमनोविज्ञान सम्बन्धी समस्याओं के अध्ययन में इस विधि का सर्वाधिक प्रयोग बीसवीं शताब्दी के आरम्भ तक हुआ और यह अत्यधिक लोकप्रिय विधि कही जाने लगी । प्रेयर ने अपने ही बालक का जैवकीय ब्यौरा (Biography) तैयार किया । यह चरित्र लेखन जनम से तीन वर्ष तक की अवस्था तक का किया गया था ।

प्रेयर ने चरित्र लेखन से यह ज्ञात करने का प्रयास किया कि जन्म के समय कौन-कौन सी सहज क्रियाएँ पाई जाती हैं ? ध्वनि एवं प्रकाश के प्रति बालक कितनी बार अनुक्रियाएँ करता है, तथा उसकी प्रथम बार बारम्बारता क्या होती है? और उसकी ज्ञानेन्द्रियों का विकास किस प्रकार होता है आदि? इसलिए इस विधि से बालक के जीवन एवं व्यवहार की अनेक विशेषताओं का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता था ।

इस विधि के द्वारा अध्ययनकर्त्ता बालक के व्यवहार का प्रतिदिन निरीक्षण करता है, और उस निरीक्षण के आधार पर व्यवहार की विशेषताओं से सम्बन्धित एक ब्यौरा (चार्ट) तैयार करता है, और उसके द्वारा एक रिकार्ड तैयार हो जाता है । यह रिकार्ड चरित्र लेखक (Biography) कहलाता है ।

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इस रिकार्ड का विश्लेषण करने के पश्चात् बालक के क्रमिक विकास का अध्ययन सम्भव हो जाता है । इस विधि के द्वारा बालक के शारीरिक एवं मानसिक विकास के परिवर्तनों का ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त हो जाता है । सही ज्ञान भी तब ही प्राप्त हो सकता है, जबकि रिकार्ड में वैज्ञानिक तरीका अपनाया गया हो ।

इस विधि की एक विशेषता यह भी है, कि बालक के व्यवहार का निरीक्षण स्वतन्त्र वातावरण में किया जाता है । अत: प्रयोगशील व्यवहार की भाति बालक के व्यवहार में क्रत्रिमता नहीं होती । हरलॉक ने चरित्र-लेखों के परिणामों का उपयोग प्रयोगशाला के परिणामों से तुलना करने में भी किया है । इस विधि में जहां एक ओर कुछ विशेषताएँ हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ इसकी सीमाएँ भी हैं ।

जो कि निम्नवत् हैं:

(i) चूंकि इस विधि में बालक के व्यवहार का अध्ययन प्रतिदिन होता है । अत: इसका उपयोग उस अवस्था में ही ठीक हो सकता है । जब अध्ययनकर्त्ता बालक के साथ ही रहे, यह एक कठिन कार्य भी है ।

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(ii) चूंकि अध्ययनकर्त्ता बालक के निकट और सम्पर्क में रहता है, अत: वह बालक के मधुर भावों एवं क्रियाओं से प्रभावित हो सकता है ।

(iii) इस अवस्था में एकत्रित रिकार्ड पक्षपातपूर्ण होने की सम्भावना बनी रहती है ।

(iv) बालकों के प्रति स्नेह भाव के कारण प्राय: अध्ययनकर्त्ता बालक के गुणों का अति-अंकन (Over Estimation) करता है ।

(v) इस विधि द्वारा अध्ययनकर्त्ता का समय अधिक व्यतीत होता है ।

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(vi) इस विधि का कोई मानक (स्टैण्डर्ड) नहीं होने के कारण विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने इसके समान पदों का अनुसरण नहीं किया है ।

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