केंद्र-राज्य संबंध | भारतीय संविधान | Centre-State Relationship | Indian Constitution in Hindi Language!

भारतीय संविधान का सबसे विवादास्पद लक्षण उसका संघात्मक स्वरूप है । ऐसा संविधान के प्रथम अनुच्छेदके से ही विदित हो जाता है, जिसमें भारत को ‘राज्यों का संघ’ (Union of States) कहा गया है । कुछ न्यायविद् व राजनीति सिद्धान्त शास्त्री व टिप्पणीकार इसे संघात्मक (Federal), कुछ इसे एकात्मक (Unitary) तथा कुछ विचारक मध्यमार्ग का अनुसरण करते हुए अर्द्ध-संघात्मक (Quasi federal) कहते हैं ।

यह इस कारण है कि संविधान के पहले भाग में भारतीय संघ और उसके प्रदेश के बारे में प्रावधान हैं, ग्यारहवें भाग में केन्द्र व राज्यों के विधायी व प्रशासकीय सम्बन्धों तथा बारहवें भाग में केन्द्र व राज्यों के वित्तीय सम्बन्धों का वर्णन है ।

सातर्वी अनुसूची में केन्द्र व राज्यों के बीच शक्तियों के वितरण की तीन सूचियां हैं । इसके अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय है, जो समय–समय पर संविधान की व्याख्या करता है तथा केन्द्र व राज्यों के बीच संवैधानिक विवादों का निपटारा करता है । संघीय व्यवस्था से सम्बन्धित प्रावधानों में संशोधन के लिए केन्द्र व राज्यों की भागीदारी सुनिश्चित की गयी है ।

संघवाद का अर्थ :

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केन्द्रीय व प्रान्तीय सरकारों के बीच शक्तियों के वितरण या उनके एकत्रण के सन्दर्भ में विश्व की राजनीतिक व्यवस्थाओं को मुख्यत: दो भागों में बांटा जाता है : एकात्मक और संघात्मक । एकात्मक व्यवस्था में एक प्रत्यक्ष सम्प्रभु शक्ति के हाथों में राज्य की सत्ता केन्द्रीकृत होती है, संघात्मक व्यवस्था में संविधान द्वारा स्थापित तथा नियन्त्रित विभिन्न इकाइयों के बीच शक्तियों का वितरण होता है ।

गार्नर ने संघात्मक शासन की शास्त्रीय परिभाषा देते हुए कहा है : “एकात्मक शासन के विपरीत संघात्मक शासन एक ऐसी पद्धति है, जहा राष्ट्रीय संविधान या संसद के सावयवी कानूनों द्वारा शासन की सम्पूर्ण सत्ता का वितरण किया जाता है ।

इस प्रकार केन्द्रीय सरकार और प्रान्तीय सरकारों या क्षेत्रीय उपविभागों में शक्तियों का वितरण किया जाता है, जिनसे संघ का गठन होता है ।” अत: संघात्मक शासन द्वैध शासन पद्धति है, जिसमें केन्द्रीय व क्षेत्रीय सरकारों के बीच शक्तियां बंटी होती हैं, जो अपने क्षेत्रों में सवायत्तशासी तथा एक-दूसरे की सहभागी होती हैं ।

अत: संघात्मक राज्य : ”विभिन्न राज्यों का अपने सामान्य हित के लिए एक राज्य में सम्मिलित होना है, जिसमें राज्य की विभिन्न इकाईयां अन्य मामलों में अपने क्षेत्र में स्वायत्तता का उपभोग करती हैं ।” संघटक राज्य संघीय राज्य के मात्र प्रतिनिधि या अभिकर्त्ता नहीं होते वरन् दोनों सरकारें (संघ व राज्य) अपनी सत्ता एक स्रोत-देश के संविधान से प्राप्त करती हैं व उससे नियन्त्रित होती हैं ।

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संघीय व्यवस्था के तीन प्रमुख लक्षण हैं :

1. राज्य का संविधान देश की सर्वोच्च विधि होता है, जो सविस्तार लिखित होता है, ताकि केन्द्र व प्रान्तों के अधिकार-क्षेत्रों को स्पष्ट कर दिया जाये । साथ ही यह संविधान कठोर होता है । इसकी संशोधन प्रणाली को कठिन बनाया जाता है ।

2. केन्द्र व इकाईयों के बीच शक्तियों का वितरण होता है । बड़े या राष्ट्रीय महत्त्व के विषय केन्द्र को दिये जाते हैं, जबकि छोटे या स्थानीय महत्त्व के विषय प्रान्तीय सरकारों के पास होते है । दोनों सरकारें अपने-अपने क्षेत्रों में सवायत्तशासी होती है ।

3. स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका होती है, जिसे कई देशों में सर्वोच्च न्यायालय कहते हैं । यह यथा आवश्यकता संविधान के नियमों की व्याख्या करती है तथा केन्द्र व प्रान्तों के बीच संवैधानिक विवादों का निपटारा करती है । इसका निर्णय अन्तिम होता है ।

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यदि यह पूछा जाये कि एकात्मक व संघात्मक व्यवस्थाओं में कौन बेहतर है, तो उसका सही उत्तर यही होगा कि छोटे देशों में एकात्मक व्यवस्था उपयुक्त होती है । जैसे-ब्रिटेन फ्रांस श्रीलंका बांगलादेश इत्यादि । यह व्यवस्था उन देशों के लिए भी उपयुक्त होती है, जहां एक ही धर्म नस्ल, सभ्यता संस्कृति आदि के लोग होते हैं । जैसे-जापान या इजरायल । संघात्मक व्यवस्था उन देशों के लिए उपयुक्त है, जो बहुत विशाल हैं, जैसे-रूसी संघ, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, दक्षिणी अफ्रीका, भारत इत्यादि ।

यह व्यवस्था उन देशों के लिए अनिवार्य है, जहां सभ्यता, संस्कृति, भाषा, धर्म, जीवनशैली आदि की दृष्टि से लोगों के जीवन में विविधता पायी जाती है । यही कारण है कि भारतीय संविधान-निर्माताओं ने संघात्मक व्यवस्था को अपनाया ।

संघ और परिसंघ (Confederation) के बीच अन्तर समझना आवश्यक है । परिसंघ को अनेक प्रभुतासम्पन्न राज्यों का शिथिल संघ कहा जाता है । इसके सदस्य स्वतन्त्र व प्रमुसत्ताधारी राज्य होते हैं । हर राज्य अपनी विदेश नीति बनाता है, सेना व मुद्रा रखता है, विदेशों से सम्बन्ध बनाये रखता है, युद्ध व शान्ति के मामलों में स्वतन्त्रता से कार्य करता है तथा किसी समय परिसंघ को छोड़ सकता है ।

सामान्यत: अपनी सुरक्षा की खातिर ऐसा परिसंघ बनाया जाता है । 1991 में, सोवियत संघ का विघटन हुआ । भूतपूर्व प्रान्त स्वतन्त्र राज्य बन गये लेकिन रूसी संघ के राष्ट्रपति एल्टसीन ने ऐसे 12 राज्यों का परिसंघ बनाया जिसे स्वतन्त्र राज्यों का राष्ट्रकुल (Common Wealth of Independent States) कहते हैं ।

इसके विपरीत, सघ शासन में प्रान्त होते हैं, जिन्हें अपने क्षेत्र में स्वायत्तता प्राप्त होती है । प्रान्तों को अपने विदेश सम्बन्ध बनाये रखने या अपनी सेनाओं व मुद्रा का प्रबन्धन करने या अपनी इच्छा से संघ छोड़ने का अधिकार नहीं होता ।

एफ॰जी॰ विलसन के शब्दों में : ”परिसंघ कोई एक राज्य नहीं है । यह स्वतन्त्र प्रभुसत्ताधारी निकायों का संग्रह है, जो कुछ निश्चित ध्येयों की खातिर अपनी स्पष्ट शर्त्तों पर एक-दूसरे से जुड़े होते हैं ।”

कुछ महत्त्वपूर्ण वक्तव्य :

(i)स्टीफन लीकाक:

परिसंघ से भिन्न संघीय राज्य एक राज्य है । सघ बनने से पूर्व उसके घटक प्रान्त यद्यपि आवश्यक रूप में नहीं प्रभुतासम्पन्न रह चुके हों किन्तु संघ बनने के बाद वे उस तरह नहीं रह सकते ।

 

(ii) डेनियल जे॰ इलाजारा:

संघीय व्यवस्था ऐसा तन्त्र बनाती है, जो विभिन्न व्यवस्थाओं को एक सर्वोपरि राजनीतिक व्यवस्था में जोड़ती है, ताकि प्रत्येक अपनी मौलिक राजनीतिक अखण्डता को बनाये रख सके ।

(iii) एफ॰जी॰ विल्सन:

संघीय व्यवस्था में मिलने वाले घटक अपने स्वतन्त्र तरीके से कार्य करने के लिए अधिकार को ऐसे मामलों में एक-दूसरे के प्रति स्थायी तौर से समर्पित कर देते हैं जो उनके सा, हित को प्रभावित करते हैं । परिणामत: इन घटकों का ऐसे मामलों में एक राज्य के रूप में विलय हो जाता है ।

 

ए॰वी॰ डायसी:

संघ शासन अपनी इकाईयों का विलय (Unity) नहीं, बल्कि संघ (Union) की कामना करता है ।

भारत की संघीय व्यवस्था की विशेषताएं :

विश्व के अनेक देशों में संघीय व्यवस्था प्रचलित है, किन्तु हर देश की व्यवस्था की अपनी विचित्रताएं होती हैं । यह नहीं हो सकता कि कोई देश किसी अन्य देश की संघीय व्यवस्था का अन्धानुकरण करे । यही कारण है कि हमारे संविधान-निर्माताओं ने देश की आवश्यकताओं व परिस्थितियों को देखते हुए ऐसी संघीय व्यवस्था अपनायी जिसमें प्रान्तों की अपेक्षा केन्द्र बहुत शक्तिशाली है, जैसा- कनाडा के प्रतिमान में देखा जा सकता है ।

सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक स्थितियों में होने वाले परिवर्तनों से संघवाद के पुराने अर्थों में कायाकल्प हुआ । केन्द्रीय सरकारों की शक्तियों में अधिक अभिवृद्धि हो रहीं है, जिसे इकाईयों की शक्तियों का पतन होता जा रहा है ।

इससे विश्व की प्रत्येक संघात्मक प्रणाली में कैन्द्रवाद (Centralism) की निश्चित प्रवृत्ति उभरने लगी है । परिणामस्वरूप राष्ट्रीय व क्षेत्रीय सरकारें यद्यपि काफी हद तक स्वायत्तशासी व सहभागी होती हैं, अब इसी कारण आधुनिक संघात्मक शासन एकात्मक शासन तथा प्रभुतासम्पन्न राज्य के शिथिल संघ के बीच कहीं स्थित है ।

यह परिसंघ (Confederation) नमूने से मूलत: भिन्न है, किन्तु एकात्मक शासन से कुछ मात्रा में भिन्न है । अत: आधुनिक संघात्मक शासन के विकास के परिर्प्रका में भारतीय संघीय शासन के गतिशील अर्थों और विशिष्ट लक्षणों की विवेचना उपयोगी होगी ।

1. संविधान के उपबन्धों द्वारा औपचारिक रूप में स्थापित भारतीय संघीय व्यवस्था का स्वरूप प्रादेशिक (Terrtorial) है, अर्थात् यहां दोहरे शासन की व्यवस्था है । केन्द्र पर संघ व परिधि पर राज्यों की सरकारें हैं और उन्हें अपने-अपने क्षेत्र में संविधान द्वारा प्रदत्त सम्प्रभु शक्तियों के प्रयोग करने का अधिकार है ।

1973 के मौलिक अधिकारों वाले या केशवानन्द भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार ससद संविधान की आधारभूत सरचना नहीं बदल सकती, जिसका एक तत्त्व सघात्मक व्यवस्था है ।

2. भारतीय संघवाद क्षैतिज है, जिसका एक सशक्त केन्द्र के प्रति झुकाव है । यद्यपि केन्द्रीय और क्षेत्रीय सरकारों के मध्य शक्तियों का वितरण किया गया है, किन्तु यदि हम विश्व की अन्य संघात्मक प्रणालियों से अपने संघ की तुलना करें तो केन्द्र की स्थिति नि सन्देह शक्तिशाली और शायद सूदृढ़तम है ।

हमारे राष्ट्रीय हितों को विकसित करने के लिए ऐसा किया गया है, न कि किसी संघात्मक व्यवस्था को शास्त्रीय धारणा के प्रति निष्ठा व्यक्त करने के लिए । हमारे संविधान के जनकों ने इतिहास से यह महत्त्वपूर्ण सबक सीखा : ”जब भी केन्द्र कमजोर हुआ हम तबाह हुए ।” यही कारण है कि केन्द्र का राज्यों पर अधिकार नियन्त्रण इस बात को प्रमाणित करता है कि हमारे यहां शक्ति वितरण की मुख्य प्रवृति केन्द्रोमुखी (Centripetal) है ।

3. भारतीय संघ इस रूप में लचीला है कि वह विशेषतय: संकटकाल में एकात्मक स्वरूप में सहजता से बदला जा सकता है । इसके लिए किसी संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता नहीं है । राष्ट्रपति की घोषणा मात्र ही देश की स्वतन्त्रता व प्रदेश की अखण्डता को आसन्न खतरे से बचाने के लिए संविधान की संरचना को बदल सकती है ।

संकटकाल के हटते ही संघात्मक व्यवस्था पुन: स्थापित हो जाती है ।  साथ ही संवैधानिक संशोधन की योजना इस प्रकार बनायी गयी है कि राज्यों की पुष्टि वाली भूमिका केवल संघीय संरचना सम्बन्धित विषयों तक सीमित है ।

4. भारत की संघीय व्यवस्था इस अर्थ में सहकारी (Co-operateve) है कि वह सामान्य हितों के मामले में केन्द्र व राज्यों से सहयोग की अपेक्षा करती है । उदाहरण के लिए यहां राज्यों के राज्यपालों व मुख्यमन्त्रिर्यो के नयी दिल्ली मैं होने वाले वार्षिक सम्मेलन, वित्त आयोग, क्षेत्रीय परिषदों, अन्तर्राज्य परिषद् की व्यवस्था और राष्ट्रीय विकास परिषद की स्थापना को उद्धृत किया जा सकता है ।

5. कभी-कभी केन्द्र पर एक दल के आधिपत्य के कारण सघ का स्वरूप एकात्मक हो जाता है । केन्द्र पर एक विशेष दल का शासन और उसके साथ राज्यों में उस दल द्वारा संचालित सरकारों के साथ उसका सम्बन्ध औपचारिक दृष्टि से संविधान की व्यवस्था के अनुरूप न होकर उच्च कमान के नेतृत्व के अधीन उसकी भूमिका से निर्धारित होता है ।

इस दल की सर्वोत्तम कमान ही राज्यों में मन्त्रिपरिषदों के बनाने या बदलने, राज्यपालों की नियुक्ति या निष्कासन करने अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत आपातकाल लागू करने या उसे रह करने, राज्य की व्यवस्थापिका के द्वितीय सदन को बनाने या उसका उन्मूलन करने या किसी राज्य के क्षेत्र को किसी अन्य राज्य या विदेश राज्य को हस्तान्तरित करने आदि के बारे में निर्णय लेता है ।

भारतीय संघात्मक व्यवस्था के ये विशिष्ट लक्षण इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि यद्यपि भारतीय संविधान में कहीं भी संघ-राज्य (federation) शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया है, उसके स्थान पर राज्यों का संघ (Union of states) शब्दों का प्रयोग किया गया है, फिर भी हमारी संवैधानिक व्यवस्था में संघीय संस्थाओं के महत्त्व की पूर्वकल्पना की गयी है व उनसे यह अपेक्षा की गयी है कि वह ‘राजनीतिक पर्यावरण’ के अनुरूप होगी ।

अन्य देशों की तरह औपचारिक तौर से संघीय संरचना स्थापित करने के अपेक्षा हमारे यहां केन्द्र व राज्यों के बीच सौदेबाजी की अपेक्षा की गयी है, ताकि प्रतिस्पर्द्धा संघर्ष और दबाव के स्थान पर अनुभव सहकारिता और अनुग्रह का अनुपालन हो ।

हमारी संघीय व्यवस्था केन्द्र व राज्यों के बीच सहयोग पर टिकी है, इसलिए ग्रनवायल आस्टिन ने इसे सहयोगी संघवाद कहा है, लेकिन मोरिस जोन्स ने इसे लेन-देन युक्त संघवाद कहा । आस्टिन ने विश्वासपूर्वक यह टिप्पणी की है कि केन्द्र का सबल होना राज्यों की सरकारों को निर्बल नहीं बनायेगा बल्कि केन्द्रीय नीतियों के हेतु उन्हें विशाल प्रान्तीय अभिकरणों का रूप प्रदान करेगा ।

संघीय व्यवस्था का रूप :

संघीय प्रणाली की तीन प्रमुख विशेषाताएं हैं और वै सभी भारतीय संविधान की व्यवस्थाओं में पायी जाती हैं । प्रथम संघीय राज्य अपने अस्तित्व के लिए मूल रूप में संविधान का ऋणी होता है । केन्द्रीय व राज्यों की सरकारों की शक्तियां संविधान की उपज व उसी के नियन्त्रण में होती हैं ।

संविधान की स्पष्ट व विस्तृत व्यवस्था के कारण दोनों सरकारों में टकराव की यथासम्भव सम्भावनाएं भी कम हो जायें और साथ ही संविधान को कठोर और दृढ़ भी होना चाहिए ताकि वह सरलतापूर्वक या मनचाहे तरीके से संशोधित न किया जा सके; क्योंकि इससे केन्द्र व राज्यों के बीच शक्ति विभाजन की गरिमा को ठेस लगती है, जिससे सन्तुलन बिगड़ सकता है ।

हमारा संविधान संघात्मक प्रणाली की प्रथम विशेषता को पूरा करता है । यह देश का सर्वोच्च कानून है । उसके उपबन्ध सभी सरकारों को बाध्यकारी हैं । संविधान के इन प्रावधानों के विरुद्ध किसी प्रकार के कानून का निर्माण या आदेश का क्रियान्वयन सम्भव नहीं है ।

संघीय प्रणाली की द्वितीय विशेषता हें: केन्द्र व प्रान्तों के बीच शक्तियों का विभाजन । इस विशेषता के महत्व के कारण के॰सी॰ हेयर इसे ‘संघीय सिद्धान्त’ कहते हैं, अर्थात् शक्तियों के विभाजन की ऐसी पद्धति जिसे केन्द्र व प्रान्तों की सरकारें अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र व सहकारी बनी रहें ।

संघीय प्रणाली में केन्द्र व राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन इस प्रकार किया जाता है कि दोनों सरकार में विवाद या संघर्ष की कम-से-कम सम्भावना रहे । फिर भी संविधान में जिन शक्तियों का उल्लेख नहीं किया गया है (जिन्हें-अवशिष्ट शक्तियां कहते हैं) उन्हें सामान्यत: इकाईयों को प्रदान किया जाता है ।

शक्ति विभाजन के सिद्धान्त के अनुसार यह अपेक्षा की जाती है कि राष्ट्रीय महत्त्व के विषय केन्द्रीय सरकार को तथा स्थानीय महत्त्व के विषय इकाईयों को सौंपे जाने चाहिए । भारत में संघ और राज्यों के बीच विस्तृत शक्ति विभाजन की व्यवस्था की गयी है । संघ सूची (Union List) में 97 विषय, राज्य सूची (State List) में 66 विषय (संशोधनों द्वारा इसके पांच विषय कम कर दिये गये हैं) तथा समवर्ती सूची (Concurrent List) में 47 विषय हैं ।

समवर्ती सूची के विषयों पर संघ व राज्यों को विधायन की शक्ति प्राप्त है, लेकिन संघर्ष होने पर संघीय सरकार के कानून या आदेश की ऊपरी स्थिति होगी । संघीय प्रणाली की अन्तिम व महत्वपूर्ण विशेषता एक स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका है, जो संविधान की संरक्षिता के रूप में कार्य करती है । सामान्यत: इसे सर्वोच्च न्यायालय कहते हैं ।

इसका कार्य संविधान के शब्दों की व्याख्या करना और संवैधानिक महत्त्व के विषयों पर राष्ट्रीय व प्रान्तीय सरकारों के मध्य विवाद होने पर एक निर्णायक के रूप में कार्य करना है । इसका निर्णय अन्तिम है । इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गयी है ।

उपर्युक्त विशेषताओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत की संघीय व्यवस्था संघात्मक शासन की तीनों विशेषताओं को पूरा करती है, अत: इसे एकात्मक नहीं कहा जा सकता । यद्यपि हमारे यहां कई ऐसे तत्त्व हैं, जिनसे केन्द्रीय सरकार की स्थिति और वह भी प्रान्तीय स्वायत्ता की कीमत पर बहुत शक्तिशाली हो गयी है, फिर भी इंग्लैण्ड या फ्रांस की भांति हमारे संविधान के स्वरूप को एकात्मक नहीं कहा जा सकता ।

राज्य पुनर्गठन आयोग रिपोर्ट (1955) में यह स्पष्ट शब्दों में कहा गया है : ”यद्यपि शक्तियों के केन्द्रीकरण की ओर सामान्य प्रवृत्ति है, लेकिन भारत के मामले में इसकी विशेष आवश्यकता है कि हर समय इसका विरोध करने हेतु सचेत व प्रयोजनयुक्त प्रयास किये जायें ।

इस वक्तव्य में काफी सत्य है कि अत्यधिक सकेन्द्रण केन्द्र का रक्तचाप बढ़ाता है तथा राज्यों का रक्तचाप घटाता है । अपरिहार्य परिणाम है-उदासीनता व अकुशलता । वास्तव में केन्द्रीकरण लोगों की समस्याओं को बढ़ाता है, उनका समाधान नहीं करता है ।”

सातवीं अनुसूची में दी गयी सूचियों के प्रमुख विषय :

संघ सूची:

भारत की सुरक्षा व सेनाएं अणु शक्ति व अन्तरिक्ष विदेश सम्बन्ध युद्ध व शान्ति भारतीय नागरिकता, रेलवे, जहाजरानी, बन्दरगाह, वायुमार्ग, डाक व तार टेलीफोन मुद्रा व सिक्के, आयात व निर्यात देश की सुरक्षा हेतु निवारक निरोध भारत का रिजर्व बैंक र्बैंकिंग बीमा अन्तर्राज्य व्यापार अन्तर्राज्य नदियों के जल का प्रबन्धन सिनेमा व फिल्में जनगणना संघ लोकसेवा आयोग सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों का गठन व उनका अधिकार-क्षेत्र, भारत का चुनाव आयोग आदि ।

राज्य सूची: 

शान्ति व्यवस्था, पुलिस, जेलखाने, स्थानीय स्वशासन, लोक निर्माण, सार्वजनिक स्वास्थ्य व सफाई कृषि व सिंचाई, पशुपालन, भूमि व भू-राजस्व, मस्थ्य, जिला-स्तर तक के न्यायालय, राज्य के भीतर व्यापार नाटक व थियेटर सार्वजनिक निर्माण राज्य की लोक सेवाएं पर्यटन सहकारिता आदि ।

समवर्ती सूची:

 दीवानी व फौजदारी का कानून एवं प्रक्रिया, राज्य की सुरक्षा हेतु निवारक निरोध, विवाह व तलाक, सम्पत्ति का लेन-देन, वन, पर्यावरण की सुरक्षा, आर्थिक व सामाजिक नियोजन, श्रम संघ व श्रम विवाद, शिक्षा, विद्युत्, कारखाने, समाचार-पत्र व पुस्तकें आदि ।

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