संस्कृतकरण पर निबंध | Essay on Sanskritization in Hindi.
Contents:
- संस्कृतीकरण की परिभाषा
- संस्कृतीकरण के आदर्श
- प्रभु जाति
- जनजातियों में संस्कृतिकरण
- पंजाब में संस्कृतीकरण
- संस्कृतीकरण में राजनीतिक तत्व
- संस्कृतीकरण के आर्थिक कारण
1. संस्कृतीकरण की परिभाषा:
संस्कृतीकरण की परिभाषा करते हुए डॉ॰ एम. एन. श्रीनिवास ने अपनी पुस्तक ‘Social Change in Modern India’ में लिखा है, ”संस्कृतीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई ‘निम्न’ हिन्दू जाति या कोई जनजाति अथवा अन्य समूह, किसी उच्च और प्रायः द्विज जाति की दिशा में अपने रीति-रिवाज, कर्मकाण्ड, विचारधारा और जीवन-पद्धति को बदलना हैं ।”
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संस्कृतीकरण की इस परिभाषा में इस प्रक्रिया की निम्नलिखित विशेषताओं पर जोर दिया गया है:
(I) संस्कृतीकरण के द्वारा कोई भी जाति, जनजाति या समूह उतार चढ़ाव के सामाजिक क्रम में वर्तमान से ऊँचा स्थान प्राप्त करने का प्रयास करता है ।
(II) संस्कृतीकरण की प्रक्रिया निम्न जाति के उच्च जाति का अनुकरण करने से चलती है ।
(III) संस्कृतीकरण की प्रक्रिया केवल जाति में ही नहीं बल्कि जनजाति अथवा अन्य सूमह में भी देखी जा सकती है ।
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(IV) संस्कृतीकरण में केवल ब्राह्मणों का ही अनुकरण नहीं किया जाता बल्कि क्षत्रियों या वैश्यों का भी अनुकरण किया जा सकता है, किन्तु प्रत्येक स्थिति में नीची जाति ऊँची जाति का अनुकरण करती है ।
(V) संस्कृतीकरण की प्रक्रिया में जाति अथवा समूह के रीति-रिवाज, कर्मकाण्ड, विचारधारा और जीवन-पद्धति किसी द्विज जाति के अनुरूप परिवर्तित हो जाते हैं ।
2. संस्कृतीकरण के आदर्श:
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इस प्रकार संस्कृतीकरण के द्वारा सामाजिक संरचना में ऊँचे पद पर दावा किया जाता है और बहुधा इसका परिणाम ऊर्ध्वोन्मुख गतिशीलता के रूप में देखा जाता है किन्तु संस्कृतीकरण से सम्बद्ध गतिशीलता के परिणामस्वरूप व्यवस्था में केवल पदमूलक परिवर्तन ही होते हैं, कोई संरचना मूलक परिवर्तन नहीं होते ।
भारतवर्ष में जातियों के अतिरिक्त जनजातियों जैसे राजस्थान के भीलों में मध्यभारत के गोण्डों और ओरांवों में तथा हिमालय की पहाड़ी जनजातियों में भी संस्कृतीकरण दिखलाई पड़ता है । संस्कृतीकरण के परिणामस्वरूप जनजाति हिन्दू जाति होने का दावा करती है ।
सम्बन्धी पुस्तक में डॉ. श्रीनिवास ने संस्कृतीकरण में ब्राह्मण आदर्श पर अनावश्यक बल दिया था । आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन पर अपनी पुस्तक ‘Social Change in Modern India’ में उन्होंने यहमाना है कि ब्राह्मण आदर्श के अतिरिक्त क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदर्श भी संस्कृतीकरण के आदर्श हो सकते है । डॉ. एफ. कोकाक ने ब्राह्मण आदर्श के साथ-साथ क्षत्रिय आदर्श की उपस्थिति का भी संकेत किया है ।
i. वर्ण आदर्शों में संघर्ष:
भारत में संस्कृतीकरण के आदर्श एक नहीं बल्कि तीन-चार रहे हैं और भारतीय इतिहास के प्रारम्भिक रूप में विभिन्न आदर्शों के बीच प्रतिस्पर्द्धा दिखलाई पड़ती है । उदाहरण के लिए परवर्ती वैदिक अन्यों में ब्राह्मणों और क्षत्रियों में संघर्ष का उल्लेख मिलता है ।
यह संघर्ष जैन और बौद्ध धर्मों में देखा जा सकता है । जैन और बौद्ध धर्मों में अधिकतर वे ही व्यापारी लोग सम्मिलित हुए जो ब्राह्मणों की प्रभुता से क्षुब्ध थे और जाति-व्यवस्था द्वारा उन पर थोपी गई अक्षमताओं को दूर करने का कोई मार्ग चाहते थे । यह मार्ग उन्हें जैन और बौद्ध धर्मों के रूप में मिला ।
जाति-सोपान के वर्ण आदर्श में प्रत्येक वर्ण की स्थिति निश्चित थी किन्तु वैदिक युग में ब्राह्मण जीवन-पद्धति से महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए । ये परिवर्तन इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि अन्य जातियाँ इसी ब्राह्मण आदर्श का अनुसरण करती रही हैं ।
वैदिक युग के अन्त के दिनों में ब्राह्मण वर्ण के सदस्यों को संन्यासी श्रेणियों में भर्ती करने के चिन्ह प्रकट होने लगे थे । वैदिकोत्तर ब्राह्मणों में जैन और बौद्ध धर्मों के प्रभाव से परिवर्तन हुए । ‘भक्ति आन्दोलन’ के प्रसार से निम्न जातियों के कुछ व्यक्ति भी धार्मिक नेता बन सके । इनमें हरिजन जातियों के भी लोग थे ।
अनेक भक्त महिलायें भी सन्तों की कोटि में गिनी जाने लगीं । इस प्रकार भक्त आन्दोलन ने निम्न जातियों के उच्च जातियों से समानता प्राप्ति के लिए अवसर प्रदान किया है और उच्च जातियों को व्यापक आक्रमण के लिए तैयार किया । भक्ति आन्दोलन ने संस्कृतीय हिन्दू धर्म को प्रादेशिक भाषाओं में विशाल और अनपढ़ जनता तक पहुँचाया ।
ii. शुद्धतावादी आदर्श का महत्व:
संस्कृतीकरण के ब्राह्मणीय और शुद्धतावादी आदर्श को सबसे अधिक प्रधानता प्राप्त होती रही है और मदिरा सेवन तथा माँसाहारी क्षत्रिय व अन्य समूह भी इस आदर्श की श्रेष्ठता को स्वीकार करते रहे हैं । अधिकतर क्षेत्रों में मांसाहार और मदिरा सेवन निम्न जातियों के चिन्ह माने जाते रहे हैं ।
दिल्ली, पंजाब में केवल पुरुष ही माँस खाते हैं; स्त्रियाँ शाकाहारी होती है । जहाँ स्त्री-पुरुष दोनों ही मांसाहारी हैं वहाँ भी पुरोहित शाकाहारी होते हैं । इस प्रकार शाकाहारी और मदिरा त्याग के शुद्धतावादी आदर्श को जाति-व्यवस्था में सदैव ही अन्य आदर्शों से ऊँचा माना जाता रहा है ।
iii. ब्राह्मणों द्वारा वैधीकरण:
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पारम्परिक भारतीय समाज में जाति व्यवस्था का वर्ण-मूलक आदर्श किस प्रकार विकृत चित्र उपस्थित करता है । डॉ॰ श्रीनिवास के अनुसार जाति-व्यवस्था की परम्परागत रचना में भी कुछ गतिशीलता की गुंजायश थी ।
सबसे पहले तो संस्कृतीकरण की प्रक्रिया ही गतिशीलता उत्पन्न करती रही है । मध्ययुगीन भारत के अध्येता बर्टन स्टीन ने लिखा है कि- ”दक्षिणी भारत में विजयनगर राज्य के शक्तिशाली शासकों को भी ब्राह्मणों की वैधतादायी क्षमता को मानना और उसका मूल्य चुकाना पड़ता था ।”
यदि किसी भी जाति का कोई व्यक्ति राजा बनने के बाद अपने को उच्च जाति का घोषित करना चाहता था तो यह तभी सम्भव था जबकि कोई ब्राह्मण किसी संस्कार के द्वारा उसके दावे को वैधता प्रदान करें । भारतीय इतिहास में इस प्रकार के बहुत से उदाहरण मिलते हैं ।
जबकि निम्न जाति के किसी व्यक्ति ने अपनी सैनिक शक्ति के आधार पर सत्ता की स्थापना की और ब्राह्मणों ने उसका राज्याभिषेक संस्कार करके उसे क्षत्रिय जाति का घोषित किया । चारण जातियाँ उच्च जातियों से उसका सम्पर्क जोड़ने और उसका उद्गम ऊँची जातियों से दिखाने का काम करती थीं ।
जो भी अपने-आपको राजपूत कहना चाहता था उसे किसी-न-किसी प्राचीन राजपूत वंश से सम्बन्ध दिखलाना होता था और यह कार्य चारण जातियां ही कर सकती थी । चारणों ने केवल राजपूतों के लिए ही नहीं बल्कि जनजातीय कोलियों सहित दूसरी जातियों के लिए भी वैधीकरण का यह कार्य किया है ।
iv. अनुलोमगमन:
साधारणतया प्रत्येक जाति समूह अन्तर्गामी होता है परन्तु कभी-कभी अन्तर्गमन और अनुलोमगमन एक साथ पाये जाते हैं । अनुलोमगमन एक अन्य प्रकार से भी गतिशीलता का महत्वपूर्ण आधार है । कोई जाति अथवा जाति की शाखा अपनी जीवन-पद्धति का संस्कृतीकरण करके जाति के ढाँचे में अपने आसपास की जातियों से श्रेष्ठ होने का दावा करती है ।
इस प्रकार जाति के इतिहास में संस्कृतीकरण के द्वारा मूल समूह के विखण्डन के परिणामस्वरूप निरन्तर नई जातियों का उदय होता रहा है; ये परिवर्तन केवल पदमूलक परिवर्तन थे, इससे परम्परागत जाति-व्यवस्था के ढाँचे में कोई परिवर्तन नहीं हुआ अर्थात् अलग-अलग जातियाँ तो ऊपर उठी या नीचे गिरीं परन्तु सम्पूर्ण ढांचा वैसा का वैसा ही बना रहा । प्राचीन और मध्य युग में जाति-व्यवस्था के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जिनसे जातियों में सामाजिक गतिशीलता दिखलाई पड़ती है ।
वर्ण-व्यवस्था क्रमशः वैदिक काल में विकसित हुई । वैदिक काल के अन्त तक ब्राह्मण की स्थिति अजेय हो चुकी थी । जैन और बौद्ध धर्मों ने क्षत्रियों की स्थिति को फिर से ऊँचा उठाया । इससे ब्राह्मणों में फिर से असन्तोष उत्पन्न हुआ और उन्होंने वैदिक संस्कृति को फिर से स्थापित करने का प्रयत्न किया । वैदिक काल में वैश्य को जाति के सोपान में बहुत नीचा स्थान प्राप्त था । बौद्ध और जैन धर्म ग्रहण कर लेने से उसकी स्थिति ब्राह्मणों और क्षत्रियों के समान हो गई ।
v. उदग्र और क्षैतिज एकीकरण:
वर्ण-व्यवस्था में पहले तीन वर्षों को द्विज कहते हैं क्योंकि उपनयन संस्कार के समय, जिसे दूसरा जन्म माना जाता है, केवल उन्हें ही यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार है । ब्राह्मण वर्ण में भी विभिन्न जातियों में विविधता देखी जाती है ।
एक ही क्षेत्र में रहने के कारण विभिन्न जातियाँ एक ही भाषा बोलने लगती हैं, समान त्यौहार मनाती हैं और कुछ स्थानीय देवताओं और मान्यताओं को स्वीकार । डॉ. श्रीनिवास ने उसको उदग्र एकीकरण कहा है और यह क्षैतिज एकीकरण से भिन्न है जो एक ही जाति या वर्ण के लोगों में पाया जाता है ।
फिर भी कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ब्राह्मणों की अपेक्षा क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों की संस्कृति में स्थानीय संस्कृति के तत्व अधिक मिलते हैं । देश के विभिन्न भागों में क्षत्रिय और वैश्य होने का दावा करने वाली जातियों में परस्पर गहरी भिन्नतायें मौजूद है ।
वर्ण आदर्श और वर्तमान स्थानीय सोपान के बीच सहमति का अभाव शूद्रों के विषय में और भी स्पष्ट दिखाई पड़ता है । शूद्रों की व्यापक श्रेणी में कुछ जातियों की जीवन-शैली का अत्यधिक संस्कृतीकरण हुआ है और कुछ का केवल अल्पतम संस्कृतीकरण हुआ है किन्तु अधिकतर किसान प्रभु जातियाँ ही अनुकरण के स्थानीय आदर्श उपस्थित करती हैं ।
3. प्रभु जाति:
भारत के विभिन्न भागों में देहाती जीवन की विशेषता प्रभुतासम्पन्न भूस्वामी जातियों की उपस्थिति है ।
प्रभु जाति होने के लिये किसी भी जाति में निम्नलिखित विशेषतायें हो:
(1) उपलब्ध स्थानीय कृषि योग्य भूमि में से एक बड़े अंश पर उस जाति का स्वामित्व हो ।
(2) उस जाति की सदस्य-संख्या यथेष्ट हो ।
(3) स्थानीय सोपान में उस जाति को उच्च स्थान प्राप्त हो ।
(4) प्रभुता के उपरोक्त गुण उपस्थित होने पर कोई जाति प्रभु जाति कहलाती है । कभी-कभी किसी गांव में एक से अधिक जातियों की प्रभुता होती है और कालान्तर में प्रभुता एक जाति से दूसरी जाति के पास पहुँच सकती है । पिछली शताब्दी में प्रभुता पर प्रभाव डालने वाले अनेक तत्व प्रकट हुए हैं ।
जैसे-पश्चिमी शिक्षा, प्रशासन में नौकरियाँ, आमदनी के शहरी साधन इत्यादि । स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से वयस्क मताधिकार के कारण निम्न जातियों विशेषतया हरिजनों में, आत्म-सम्मान और शक्ति का नया भाव उत्पन्न हुआ है ।
अब ग्रामीण भारत के बहुत से भागों में सत्ता संख्या की दृष्टि से बड़ी भूस्वामी किसान जातियों के हाथों में पहुँच गई है और कुछ ऐसे गाँवों को छोड्कर जहाँ हरिजन बहुसंख्यक हैं अभी वह कुछ समय तक उन्हीं के । जिस जाति को केवल एक गाँव में प्रभुता प्राप्त हो उसे उस जाति का अवश्य ख्याल रखना पड़ता है जिसे प्रादेशिक प्रभुता प्राप्त है ।
इस प्रकार प्रभु जातियों में भी स्थानीय प्रभु जाति प्रादेशिक प्रभु जाति की तुलना में कम शक्तिशाली होती है । प्रभुता स्थापित करने में भूस्वामित्व एक बड़ा निर्णायक तत्व है । भूस्वामित्व से न केवल शक्ति प्रतिष्ठा भी बढ़ती है ।
भूस्वामी जातियों के अधिकार और प्रतिष्ठ का अन्य जातियों के साथ उनके सम्बन्धों पर प्रभाव पड़ता है, जैसे-पंजाब के कुछ भागों में जाट भूस्वामी ब्राह्मणों को अपना सेवक समझते हैं और पूर्वी उत्तर प्रदेश के माधोपुर गाँव में किसी समय प्रभुता सम्पन्न ठाकुर अपने गुरुओं और पुरोहितों के अतिरिक्त अन्य किसी ब्राह्मण के हाथ का बना भोजन नहीं खाते थे, किन्तु प्रभु जाति की लौकिक कसौटियाँ महत्त्वपूर्ण होने पर भी कर्मकाण्डीय श्रेष्ठता का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व और अपनी अलग ही ।
कभी-कभी कर्मकाण्डीय और लौकिक पद के बीच विच्छेद दिखाई पड़ता है, फिर भी लौकिक कसौटी से कर्मकाण्डीय कसौटी अधिक ऊँची है । लखपती गुजराती बनिया कभी भी उस रसोई में पैर नहीं रखता जहाँ ब्राह्मण रसोइया काम करता हो क्योंकि ऐसा करने से ब्राह्मण और रसोई के बर्तन अपवित्र हो ।
स्थानीय प्रभु जाति का संस्कृतीकरण के विभिन्न आदर्शों के लिये मध्यमान होना सांस्कृतिक संचरण की प्रक्रिया में उस जाति के महत्व का सूचक है । इस भांति यदि स्थानीय प्रभु जाति ब्राह्मण या लिंगायत हो तो उसकी प्रवृत्ति संस्कृतीकरण के ब्राह्मण आदर्श की ओर होगी और यदि वह राजपूत अथवा बनिया हो तो क्षत्रिय या वैश्य आदर्श की ओर संरचण होगा । प्रत्येक स्थानीय प्रभु जाति की ब्राह्मण क्षत्रिय या वैश्य आदर्शों की अपनी-अपनी अलग धारणा होती हैं |
प्रभु जातियों के उदाहरण:
ग्रामीण भारत का एक ऐसा नक्शा बनाया जा सकता है जिसमें प्रत्येक गाँव की प्रभु जातियाँ दिखाई गयी हों परन्तु इसके लिए बड़े भारी परिश्रम की आवश्यकता होगी । फिर भी कुछ प्रभु जातियों के नाम गिनाये जा सकते हैं ।
उत्तर भारत में गाँव के लोग प्रभु जातियों को ‘अजगर’ का नाम देते हैं जो दलित अल्पसंख्यक जातियों में प्रभु जातियों के आतंक का सूचक है । अजगर चार प्रभु जातियों के नामों के पहले अक्षरों को लेकर बना है । ये हैं- अहीर, जाट, गूजर और राजपूत ।
पश्चिमी बंगाल के कुछ भागों में सदगोप, गुजरात में पाटीदार और राजपूत, महाराष्ट्र में मराठा, आन्ध्र में कस्म और रेड्डी, मैसूर में औक्कलिजग और लिंगायत, मद्रास में वेल्लास, गाऊडर पड़याची और कल्लर और केरल में नायर, सीरियाई ईसाई तथा इजवन प्रभु जातियाँ हैं ।
देहातों में रहने वाले बहुसंख्यक लोगों के लिए और कभी-कभी ब्राह्मणों के लिए भी प्रभु जातियाँ ही आदर्श उपस्थित करती हैं । पाटीदार का पिछले सौ वर्षों में अधिक संस्कृतीकरण हुआ है और गुजरात के कैरा जिले में बारिया सहित अन्य सभी समूहों की संस्कृति पर उनका प्रभाव पड़ा है ।
क्षत्रियों की भांति ब्राह्मणों ने भी ग्रामीण तथा नगरीय भारत में बहुत दिनों तक प्रभुता बनाये रखी है । तीर्थस्थान और मठ भी संस्कृतीकरण के श्रोत थे । संस्कृतीकरण का प्रसार तीर्थस्थान या मठ वाले क्षेत्र में रहने वाली अप्रभु जातियों में उदग्र रूप में और अन्य क्षेत्रों में क्षैतिज के रूप में होता था ।
4. जनजातियों में संस्कृतिकरण:
अनेक जनजातियों में भी संस्कृतीकरण की प्रक्रिया दिखलाई पड़ती है । दूसरी ओर एस. एल. कालिया ने दिखलाया है, उत्तर प्रदेश की जौनसार बावर और मध्य प्रदेश के बस्तर क्षेत्र की जातियों में जनजातिकरण की प्रक्रिया दिखलाई पड़ती है । प्रभु जाति के बुजुर्ग लोग गाँव में लोगों को नियम तोड़ने पर जुर्माने, शारीरिक कष्ट या जाति-बहिष्कार की सजा देते हैं ।
किन्तु इससे परिवर्तन की गति कम नहीं होती । फिर भी कभी-कभी महान् परम्पराओं के प्रतिनिधि द्विज वर्णे लघु परम्पराओं के सामने घुटने टेकते दिखलाई पड़ते हैं; किन्तु यह मानना सही नहीं होगा कि ब्राह्मणों की संस्कृति में संस्कृतीकरण सदा ही अधिक होता है ।
मैरियट ने किशनगढ़ी गाँव के अध्ययन में लिखा है- ”इस क्षेत्र में ब्राह्मणों के अपेक्षातया अल्प संस्कृतीकरण में ही इस बात का सूत्र छिपा है कि किशनगढ़ी की बाकी जातियों में संस्कृतीकरण की इतनी धीमी गति का और उनके धर्म में महान् परम्परा के तत्वों के अपेक्षातया इतने अल्प अनुपात का क्या कारण है ।”
जाति-व्यवस्था की दो प्रवृत्तियों:
जाति-व्यवस्था में निम्नलिखित दो प्रवृत्तियाँ स्पष्ट दिखलाई पड़ती है:
(1) किसी स्थानीय समाज में नैतिक और धार्मिक प्रतिमानों सहित बहुत सी संस्कृतियों के अस्तित्व को मान्यता दी जाती है ।
(2) उच्च जातियों के रंग-ढंग का अनुकरण किया जाता है ।
परन्तु फिर भी यह याद रखना आवश्यक है कि स्थानीय ग्राम व्यवस्था अखिल भारतीय व्यवस्था से पूरी तरह स्वतन्त्र नहीं होती । आचरण के आदर्श तीर्थयात्राओं हरिकथाओं और धार्मिक नाटकों जैसे महान परम्परा के स्रोतों से ही प्राप्त होते हैं । गाँव में प्रभु जाति के बुजुर्ग ही एक बहुतत्वादी संस्कृति और मूल्य-व्यवस्था के प्रहरी होते हैं ।
प्रभु जातियाँ अपने प्रभाव क्षेत्र में रहने वाली विभिन्न जातियों के बीच संरचनात्मक दूरी बनाये रखती हैं, किन्तु प्रभु जाति का कार्य केवल बहुतत्ववादी संस्कृति के संरक्षक होने तक ही सीमित नहीं है । वह निम्न जातियों में प्रभु जाति की प्रतिष्ठादायक जीवन-शैली का अनुकरण करने की इच्छा भी जगाती है । अनुकरण का यह कार्य घुमा-फिराकर किया जाता है क्योंकि जल्दबाजी करने से उच्च जातियों द्वारा दण्ड मिलने का भय रहता है ।
5. पंजाब में संस्कृतीकरण:
डी॰ आर. चानना ने एक ऐसे क्षेत्र में संस्कृतीकरण के प्रसार का विवेचन किया है जो 1947 में देश के विभाजन तक इस्लाम और कुछ पश्चिम एशियाई सांस्कृतिक रूपों से बहुत अधिक प्रभावित था; वहाँ सिख धर्म को गौण प्रभुता प्राप्त थी । धर्म के मामले में हिन्दू इस्लाम में विशेषतया सूफी सन्तों के उपदेशों से बहुत गहरे प्रभावित थे ।
भूतपूर्व पंजाब और उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रान्त में मुसलमानों की प्रार्थमिक प्रभुता थी और इस प्रदेश के कुछ इलाकों में सिखों की गौण प्रभुता थी । हिन्दुओं में ब्राह्मणों में न धन था और न विद्या इसलिए व्यापारी जातियाँ अधिक महत्वपूर्ण थीं ।
आर्य समाज और उसकी प्रतिद्वन्दी सनातन धर्म सभा और उनके द्वारा स्थापित दोनों प्रकार की पारस्परिक और आधुनिक शिक्षा संस्थाओं ने पंजाब के हिन्दुओं में विद्या का प्रसार किया । इससे पंजाबी हिन्दुओं में संस्कृतीकरण बढ़ा । प्रभु जाति का प्रभाव सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों तक फैला हुआ जान पड़ता है ।
6. संस्कृतीकरण में राजनीतिक तत्व:
अंग्रेजों से पहले के भारत में राजनीतिक व्यवस्था की अस्थिरता सामाजिक गतिशीलता का शक्तिशाली स्रोत थी । अठारहवीं शताब्दी में राजनीतिक व्यवस्था के चार स्तर थे- साम्राजिक, माध्यमिक, प्रादेशिक और स्थानीय । साम्राजिक स्तर पर मुगल शहंशाह होते थे । माध्यमिक स्तर पर अवध के नवाब जैसे नवाब थे ।
इनके अधीन जागीरदार लोग थे जो कि प्रादेशिक स्तर पर सर्वोपरि थे । जागीरदार स्थानीय ‘आमिल’ लोगों के द्वारा शासन करते थे । इस प्रकार मुगल शहंशाह के अधीन अवध का नवाब और अवध के नवाब के अधीन बनारस का राजा था, तथा बनारस का राजा स्थानीय मुखियों की सहायता से शासनकार्य करता था ।
प्रत्येक स्तर पर निम्न स्तर के पद वाले व्यक्ति को उच्च स्तर की राजनीतिक व्यवस्था के लिए धन और सैनिक जुटाने पड़ते थे । कोहन की भांति शाह ने भी अठारहवीं शताब्दी के गुजरात में राजनीतिक व्यवस्था में अनेक स्तर माने हैं जैसे साम्राजिक, प्रादेशिक तथा स्थानीय स्तर इत्यादि ।
अठारहवीं शताब्दी में गुजरात तथा बनारस प्रदेश की परिस्थितयों में राजनीतिक व्यवस्था भूमिहार, ब्राह्मण, राजपूत, पाटीदार और कोली जैसे स्थानीय प्रभु समूहों के नेताओं की गतिशीलता के लिए अनुकूल थी । अंग्रेजों से पूर्व के भारत में सामाजिक गतिशीलता का उदाहरण देने के लिए डॉ॰ श्रीनिवास ने उत्तर प्रदेश, गुजरात और केरल से उदाहरण दिए है ।
इन तीनों ही क्षेत्रों में राजनीतिक सत्ता के विभिन्न स्तर दिखलाई पड़ते हैं और राजनीतिक व्यवस्था गतिशीलता दिखाई पड़ती है । राजनीतिक अस्थिरता के परिणामस्वरूप विशेषतया प्रभु जातियों के लिए सामाजिक गतिशीलता उत्पन्न हुई । अंग्रेजी-पूर्व राजनीतिक व्यवस्था कुछ महत्वपूर्ण स्थिति वाले व्यक्तियों और समूहों की गतिशीलता के लिए अधिक अनुकूल थी ।
राजा को अपने राज्य में बसने वाली जातियों को उठाने या गिराने का अधिकार था । यह अधिकार इस बात से उत्पन्न हुआ था कि अंग्रेजों से पहले भारतीय राजा, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, जाति-व्यवस्था के शिखर पर स्थित माने जाते थे ।
राज्य के अन्दर जातियों के पदों को राजा की सहमति प्राप्त होती थी और किसी अपराध के लिए जाति से निकाला गया व्यक्ति राजा से पुनरावेदन कर सकता था । राजा को अधिकार था कि वह फिर से सब प्रमाणों की जाँच करें और निर्णय को मान ले या बदल दे ।
पद के बारे में झगड़े तय करने और किसी अपराध के लिए उपयुक्त दण्ड निर्धारित करने में राजा विद्वान ब्राह्मणों से परामर्श लेता था परन्तु वे केवल नियम को घोषित अथवा निर्धारित करते थे । दूसरी ओर राजा ही उस निर्णय को लागू करता था ।
7. संस्कृतीकरण के आर्थिक कारण:
अंग्रेजों के राज्य से पहले केवल राजनीतिक कारणों से ही नहीं बल्कि आर्थिक कारणों से भी जाति व्यवस्था में गतिशीलता दिखलाई पड़ती है । खेतों में मेहनत करने का काम कम हैसियत का चिन्ह माना जाता था । जो जमींदार जितना ही बड़ा होता था उस पर यह निषेध उतना ही अधिक लागू होता था ।
इस प्रकार भूमि पर अधिकार और आर्थिक स्थिति जाति-व्यवस्था में ऊँचा स्थान दिलाने का एक कारण थी । मध्य युग में सामाजिक गतिशीलता स्थान-विषयक गतिशीलता के साथ जुड़ी हुई थी । स्थान परिवर्तन कर लेने से अनेक नई जातियों का जन्म हुआ और क्रमशः वे मूल जाति से भिन्न हो गई । एक ही जाति की विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाली प्रशाखाओं में क्रमशः सांस्कृतिक भिन्नता दिखलाई पड़ने लगी ।
इस प्रकार सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक अनेक कारणों से भारत की जाति-व्यवस्था में विभिन्न जातियों के पद परिवर्तित होते रहे हैं । किन्तु इस परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए यह याद रखना आवश्यक है कि जाति-व्यवस्था में यह परिवर्तन व्यवस्था के अन्दर परिवर्तन है ।
कुल मिलाकर इस व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं होता । परिवर्तन की यह प्रक्रिया समझने के लिए डॉ॰ श्रीनिवास ने संस्कृतीकरण के प्रत्यय को प्रयोग किया है । यह प्रत्यय कहाँ तक समीचीन है, इसकी डॉ॰ डी. एक मजूमदार तथा अन्य समकालीन समाजशास्त्रियों ने परीक्षा की है । इस परीक्षा के विवेचन से इस प्रत्यय का महत्व और सीमाएँ स्पष्ट होंगी ।