जल संकट पर निबंध | Essay on Water Crisis in Hindi!

जल संकट पर निबंध | Essay on Water Crisis


Essay #

1. जनसंख्या में बढ़ोतरी एवं जल संबंधी समस्याएँ (Population Increase and Water Related Problems):

बढ़ती जनसंख्या चीन को भी पीछे छोड़ रही है । भारत में आज की तरह मृत्यु दर घटती और जन्मदर बढ़ती ही रहेगी तो समस्या बढ़ेगी । आज जो देश प्रगति पर है वृद्धि दर पर उन्होंने काबू पा लिया है । क्या हम पा सकेंगे ? परिवार नियोजन के मार्ग में बाधाएं हैं ।

सवाल सरकारी निष्ठा और कार्यक्षमता का भी है । उपायों के बावजूद भी भारत की जनसंख्या इक्कीसवीं सदी के अन्त तक 180 करोड़ अनुमानित की गई है । भारतीय जनसंख्या के भरण-पोषण के सन्दर्भ में संयुक्त राष्ट्र नियोजन संस्था के आंकड़े बताते हैं कि भारत 2025 ई. तक चीन को भी जनसंख्या में पीछे छोड़ देगा ।

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आज भी परिवार नियोजन के बावजूद उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान जहां देश की 40 प्रतिशत जनता वास करती है, वृद्धि दर 3.29 से 3.71 तक है । जबकि कुल मिलाकर देश की वृद्धि दर पर 2.08 है । जब तक इन क्षेत्रों में परिवार नियोजन कारगर नहीं होता, जनसंख्या बढ़ती रहेगी और उसके साथ ही अन्न, वस्त्र, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि की समस्याएं बनी रहेंगी । खेती में ठहराव आ गया है ।

हर साल बढ़ती जनसंख्या के लिए करीब 15 लाख टन अनाज ओर मुहैय्या करना सरल कार्य नहीं । बढ़ती जनसंख्या के पोषण के लिए संसाधनों का विकास अनिवार्य है । इसके साथ-साथ पर्यावरणीय प्रदूषण की समस्याओं का बढ़ना स्वाभाविक है ।

पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा देश के विकास के लिए महत्वपूर्ण कार्य हुआ, किन्तु एक ओर विकास की योजना बनती रही, दूसरी ओर जनसंख्या और आबादी में निरन्तर बढ़ोत्तरी होती रही । स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाओं के फलस्वरूप मृत्यु दर घटी, अकाल और सूखा जैसी देवी आपदाओं पर भी विजय पाई ।

इस बात की भी कोशिश की गई कि प्रति व्यक्ति औसत आय में वृद्धि में भी यह बात महत्वपूर्ण है कि किस आयु वर्ग के लोग संख्या में ज्यादा हैं और वे उत्पादक कार्यों में लगे हैं या नहीं ।

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हमारे यहाँ जैसी बेरोजगारी है उसमें खाने वाले मुंह ज्यादा हैं, कमाने वाले कम हैं यह ठीक है कि हरित क्रान्ति में हमारी इतनी बड़ी आबादी को भूखों मरने से बचा लिया, फिर भी प्रति व्यक्ति के हिस्से में आने वाले अन्न, तेल और दालों की मात्रा बहुत कम है ।

फलत: समाज का निम्न वर्ग आज भी गरीबी की रेखा के नीचे है और प्रोटीन तथा विटामिन जैसे पौष्टिक पदार्थ उनकी पहुंच के बाहर बने हुए हैं । अस्पतालों, शिक्षण संस्थाओं, राशन की दुकानों, सार्वजनिक स्थानों में यह बात देखते ही बनती है कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी अभाव में जी रहा है ।

आबादी बढ़ने के कारण न सबको चिकित्सा सुविधा मिल सकती, न रोजगार, न भोजन और वस्त्र हमारी गरीबी का सबसे बड़ा कारण जनसंख्या की वृद्धि ही है । जब भोक्ता बहुत हों ओर उपभोक्ता सामग्री कम ही तो एक ओर अधिकांश लोग सुविधाओं से वंचित हो जाते हैं, दूसरी ओर महंगाई बढ़ती जाती है ।

महंगाई के साथ गरीबी, सामाजिक बुराइयां, अपराध बढ़ते जाते हैं और जीवन की गुणवत्ता समाप्त होती जाती है । इससे अन्न की कमी ही नहीं बढ़ती है, बल्कि गन्दी बस्तियां भी खड़ी हो जाती हैं जो रोग का कारण बनती हैं और जिनमें जीए जा रही जिन्दगी मानवता का मजाक उड़ाती दिखाई देती है ।

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इसका एक परिणाम यह भी होता है कि गांवों को छोड़कर रोजगार की खोज में लोग शहरों में आने लगते हैं । औद्योगिकरण के कारण यह प्रक्रिया निरन्तर तेज होती जा रही है । जहां आकर जनसंख्या एकत्र हो जाती है, वहां रहन-सहन की दिक्कतें, प्राकृतिक साधनों की समाप्ति, दैवी आपत्तियां तथा राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक विद्वेष पनपने लगते हैं ।

सबसे बड़ी बात यह है कि इससे जल, वायु और भूमि का प्रदूषण होता है । साथ ही प्रति व्यक्ति के हिस्से मानसिक प्रदूषण भी आने लगता है । बढ़ती आबादी बच्चों के कुपोषण का प्रमुख कारण है । बच्चे को अपने आरम्भिक जीवन में पर्याप्त देखभाल और सुरक्षा की जरूरत होती है ।

यदि बच्चे अधिक हुए तो माता-पिता उनका सही पालन-पोषण नहीं कर पाते । फलत: बड़े परिवारों में बच्चे भावात्मक रूप से असुरक्षित महसूस करते हैं और उम्र के साथ कुंठाओं में जीने लगते हैं । बच्चे के साथ मां को भी बहुत कष्ट झेलने पड़ते हैं ।

निम्न वर्ग में 30 प्रतिशत माताएं कुपोषण का शिकार हो जाती हैं जिसके कारण 36 प्रतिशत बच्चे जन्म लेते ही मर जाते हैं और जीने वालों में प्राय: सबसे छोटी सन्तान मानसिक विकृतियां लेकर आती है । भारत में 46 प्रतिशत लोग गरीबी की रेख के नीचे जीते हैं ।

जो बच्चों को सही पोषण नहीं दे पाते । ऐसे बच्चे शिक्षा से जी चुराते हैं, घर से भाग जाते हैं और अपराधों में फंस जाते हैं । हर वर्ष 2 करोड़ 10 लाख पैदा हुए बच्चों में करीब 10 लाख बच्चे अवांछित सन्तान के रूप में आर्थिक और सामाजिक कारणों में उनके माता-पिता द्वारा फेंक दिए जाते हैं । पुलिस द्वारा पकड़े गए बच्चों में 80 प्रतिशत उन घरों से भागे हैं जिनकी आय बहुत कम होती है । अत: हमें जन्मदर कम रखनी चाहिए ।

संसाधनों की बढ़ती व्यवस्था के कारण भी लगभग आधी जनसंख्या ऐसी है जो काम कर सकती है किन्तु बेकार कामगार लोगों की संख्या में हर साल बढ़ोतरी हो रही है । दूसरी ओर पढ़े-लिखे बेरोजगार लोगों की संख्या भी करोड़ों तक पहुंच गई है ।

करीब डेढ़ करोड़ खेतिहर मजदूर ओर जनसंख्या के एक-तिहाई से कम किसान देश को इतने बेकारों ओर सफेद-खदद्‌रधारी कुर्सियों पर बैठने वाले लोगों का पेट भरने का काम करते हैं ।

हरित क्रांति के बावजूद आज भी कुछ-न-कुछ खाद्यान्न बाहर से मंगाना पड़ता है । हर आदमी को जितनी सब्जियां, दालें, मांस, तेल की जरूरत होती है, उसको मुहैय्या कराने में देश के जितने हाथ काम पर लगने चाहिए थे, वे नहीं लग पा रहे हैं ।

स्पष्ट है कि भविष्य में या तो हमारा उत्पादन बढ़े या फिर आबादी पर रोक लगे, तभी खैर है । उत्पादन बढ़ाने की सीमाएं हैं, तब केवल आबादी घटाने का विकल्प ही शेष रह जाता है ।

यदि जनसंख्या में सन्तुलन नहीं आया या उत्पादन ओर जनसंख्या के बीच सही आनुपातिक सम्बन्ध नहीं बने तो शारीरिक ही नहीं कई मानसिक बीमारियां, तनाव और प्रदूषण समाज को खोखला कर डालेंगे । चूकि संसाधन सीमित होते हैं, इसलिए स्पर्द्धा और संघर्ष पनपेगा तथा सामाजिक विघटन घर कर जायेगा ।

इसके साथ ही अपराध, आत्महत्या, बलात्कार, हिंसा बढ़ते जाएंगे । आबादी बढ़ती है तो इन्सान अपनी पहचान खो बैठता है । भीड़ में वह अपना चेहरा खो देता है । फलत: वह नैतिक बंधनों, मर्यादा से भी हाथ धो बैठता है । परिणामत: नशीले द्रव्यों और शराब के सेवन बढ़ता है और हजारों घर विनष्ट होते हैं ।

बढ़ती दुष्प्रवृत्तियों तथा जिम्मेदारी की भावना की कमी जनसंख्या वृद्धि का प्रमुख कारण है । जिस प्रकार अकेलापन शाप है उसी प्रकार भीड़ के बीच किसी से न जुड़ पाना भी । नगरों में भीड़ के बढ़ने से वहां का रहन-सहन और जीवन की गुणवत्ता में बदलाव आ गया है ।

लोग भीड़ में जीते नहीं, सिर्फ जिन्दगी बसर करते हैं । अभाव गंदगी और प्रदूषण में मनुष्य के व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है । वह आस-पास के पर्यावरण से निरंतर जूझता रहता है; उससे जुड़ नहीं पाता । आत्मीयता के अभाव में कोई किसी के काम नहीं आता । इससे सामाजिक जीवन पर बड़ा आघात पहुंचता है ।

व्यक्ति उच्च आदर्शों और भाईचारे का जीवन न जी सकने की पीड़ा ओर अपराध-भाव से घिरा रहता है । एक समस्या यह भी विचारणीय है कि जनसंख्या की वृद्धि किस आयु वर्ग में अधिक हो रही है । हमारे देश में 0-15 वर्ष के आयु वर्ग की जनसंख्या का प्रतिशत घट रहा है ।

हमारे देश में 15-35 वर्ष का आयु वर्ग भी तुलना में कम है, किन्तु 35-60 वर्ष का आयु वर्ग में वृद्धि की ओर है । यह वर्ग सक्रिय तो होता है, किन्तु आयु के कगार पर होने के कारण यह भविष्य में अधिक आर्थिक विकास में सहायक नहीं होगा ।

पर यह भी मानी हुई बात है कि समय के साथ इक्कीसवीं सदी में अधिक लोग आर्थिक विकास में सहयोग देने की स्थिति में आ जाएंगे । फिर भी रहन-सहन का स्तर बढ़ाने, सबको शिक्षा दे पाने ओर गरीबी हटाने के लिए बल ज्यादा विकास अपेक्षित होगा ।

यदि अकुशल मजदूरों की संख्या इसी तरह बढ़ती रही और रोजगार के अवसर जनसंख्या के अनुपात के अवसर बढ़ाने के लिए 5 हजार करोड़ का अतिरिक्त निवेश हर वर्ष जरूरी होगा, ऐसा विशेषज्ञों का कहना है । तभी हम उन्नत विकासशील देशों के समकक्ष आ सकेंगे ।


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2. संसाधनों की घटती संख्या एवं जल संबंधी समस्याएं (Decreasing Number of Resources and Water Related Problems):

देश की बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए हमने अपने संसाधनों का दोहन किया है । यदि जल संसाधन को ही लें तो आज हमारे देश के ज्यादातर प्राकृतिक जल स्रोत प्रदूषित हो चूके हैं ।

गंगा जिसका जल वैदिक काल में जीवनदायनी माना जाता था जिसकी आज भी हम पूजा करते हैं उसका जल भी आज दूषित है । लेकिन ऐसा नहीं है कि ये संसाधन अब उपयोग के लायक नहीं रहे ।

इनका हम आज भी उपयोग कर सकते हैं और इसके लिए आवश्यकता है कुशल नियोजन की उपयोग चोतुर्भ की । वर्तमान समय में हम आर्थिक विकास के संसाधनों से सम्पन्न हैं । हमारे देश में कोयला, बिजली, तेल, खनिज, जल आदि भौतिक साधनों के भण्डार एकदम इक्कीसवीं सदी में खत्म होने वाले नहीं हैं । किन्तु यदि नियोजन ढंग से नहीं हुआ तो गरीबी फिर भी बनी रह सकती है ।

इन साधनों के उपयोग के लिए संतुलित योजना ही नहीं भारी पूंजी निवेश भी चाहिए और इसके लिए आवश्यक है कि कर्ज पर निर्भर अर्थव्यवस्था की अपेक्षा हमारी बचत पूंजी बढ़ती जाए, निर्यात बढ़े और साधनों का भरपूर आर्थिक और औद्योगिक विकास हो ।

सही विकास भी तभी लाभप्रद होगा जब वह अपने देश के लोगों की आवश्यकताओं के अनुसार हो और उससे विशाल ग्रामीण जनसंख्या को लाभ पहुंचे । पर आगे आएं तभी कच्चा माल अथवा बिजली की खपत बढ़े । सबसे बड़ी जरूरत यह होगी कि लोग काम को कर्तव्य भाव से करें ।

आज की दफ्तरी संस्कृति में हम जी रहे हैं, वह काम न करने, मुफ्त की खाने, टाल-मटोल करने, रोकने या बाधा पहुंचाने को प्रोत्साहित करती है । इक्कीसवीं सदी को इस आदत को तोड़ने के लिए बहुत कोशिश करनी पड़ेगी ।

इसके लिए जन-जन में अपनत्व भी भावना जगानी होगी । हमें यह तय करना होगा कि विकास जन-जन के लिए हो, मुठी भर लोगों के लिए नहीं । जन-जन के बीच का अन्तर पाटे बिना काम नहीं चलेगा ।

यदि सामाजिक न्याय मिलेगा तो जन-जन की भागीदारी से ही आलस्य, जड़ता और प्रमाद दूर भगाए जा सकेंगे । जाहिर है कि अगर जीवन की गुणवत्ता बढ़ानी है तो हम इक्कीसवीं सदी में इस तरह नहीं रह सकते जैसे आज रह रहे हैं ।

हमको पर्यावरण बिगाड़ने की भयंकर त्रासदी का कारण नहीं झेलना है तो स्थल, जलवायु और ऊर्जा के स्रोतों की रक्षा करनी होगी, साथ ही उनका प्रदूषण रहित उत्पादन और खपत करना भी सीखना होगा । उदाहरण के लिए पहले कोयला ही लीजिए । हमें आवश्यकतानुसार कोयला प्राप्त नहीं हो रहा है ।

कई बिजलीघरों को कोयले की कमी से बहुत परेशानी हो जाती है । विश्व में हर व्यक्ति 5 टन कोयला खर्च करता है जबकि भारत में को .015 टन प्रति व्यक्ति कोयला मुश्किल से मिलता है । अभी इसका भण्डार हमारे यहां 3-4 सौ साल तक चल सकता है ।

इक्कीसवीं सदी में कोयले को खपत प्रति व्यक्ति 3000 किलोग्राम तक बढ़ने का अन्दाज है । इसी प्रकार तेल के भण्डार 50-100 साल तक चल पायेंगे, क्योंकि उसकी खपत प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति 1000 किलोग्राम (क्रूड) तक पहुंच सकती है । ऊर्जा का एक अन्य स्रोत बिजली है ।

एक अनुमान के अनुसार इक्कीसवीं सदी में उसकी आवश्यकता लगभग 50 गुना बढ़ जाएगी । इस समय ऊर्जा समस्या हमारे सामने विशेष समस्या के रूप में उभरकर सामने आ रही है ।

यद्यपि कि भारत सरकार इस समस्या के समाधान के लिए बहुआयामी प्रयास कर रही है । फलत: वैज्ञानिकों को ऊर्जा की नई विधियां खोजनी पड़ेगी । वायु, ऊर्जा, पवन चक्कियों तथा सूर्य ऊर्जा, गोबर गैस की दिशा में और तेजी से बढ़ना होगा ।

पेट्रोल और लकड़ी पर अधिक निर्भर न रहकर विकल्प खोजना या कुछ संयम से काम लेना युग की आवश्यकता होगी । हो सकता है कि मोटर-कार चलाने की तरह साइकिल चलाना अगली सदी में अच्छा मान लिया जाए । दूसरी ओर आणविक ऊर्जा की ओर बढ़े बिना भी काम नहीं चलेगा ।

इसी प्रकार नदियों के पानी का ऊर्जा के लिए प्रयोग बहुत जरूरी हो जायेगा । बाँधों का निर्माण भविष्य की समस्याओं के निदान हेतु नितांत अनिवार्य है । बड़े बांध यदि हानिकारक सिद्ध हों तो छोटे-छोटे बांध ऊर्जा ही नहीं, जल के संरक्षण के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होंगे ।


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3. कृषि एवं जल संबंधी समस्यायें  (Agriculture and Water Related Problems):

जल सकट का कृषि क्षेत्र में भी प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है । कृषि कार्य के लिए जल की आवश्यकता होती है । जल के अभाव में कृषि किया ही नहीं जा सकता । दूसरी ओर कृषि में सिंचाई के लिए अधिक मात्रा में जल संसाधन की आवश्यकता होती है ।

ऐसे में आवश्यकता है कृषि का विकास करना, साथ ही साथ जल संसाधन को भी बचाए रखना जिससे की उनका हम भविष्य में भी उपयोग कर सकें । कृषि के विकास के लिए जल जरूरी है किन्तु उसके लिए कई उपाय करने पड़ेंगे, जैसे- कृषि की पद्धति में बदलाव, भूमि के कटाव या भूक्षरण से बचाव, कल्लर ओर बंजर भूमि का उपयोग, सिंचाई की व्यवस्था, बाढ़ और सूखा से बचाने के उपाय करना ।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि व्यर्थ में जाया जाते नदियों के जल का उपयोग हो । नदियों जैसे- गंगा-कावेरी गोदावरी-नर्मदा को जोड़ने की योजना जल के संरक्षण और वितरण की दृष्टि में उपयोगी हो सकती है यद्यपि इसमें पैसा और वक्त दोनों बहुत लगेगा ।

पर इससे पानी को कहीं भी ले जाया जा सकता है । इससे बाढ़ और सूखे की स्थिति भी खत्म होगी और वनों के पर्यावरण की रक्षा हो सकेगी; साथ ही मरुस्थलों के बनने पर भी रोक लगेगी । पर इसमें एक खतरा यह भी है कि एक नदी का प्रदूषण दूसरे में चला जाएगा और सब नदियां प्रदूषित होकर रह जायेंगी ।

हम अकेली एक गंगा को भी करोड़ों रुपए खर्च कर भी साफ नहीं कर पा रहे हैं । तब सभी नदियों को साफ करने के लिए बहुत-सा श्रम और साधन जुटाने पड़ेंगे । भूमि का क्षरण रोकने के लिए वृक्षारोपण अनिवार्य है । आज यदि एक पेड़ लगाया जाता है तो तीन काटे जाते हैं ।

इक्कीसवीं सदी के लिए एक चुनौती यह भी होगी 33% भू-भाग पर जंगल हों जिसमें मिट्टी की परत की हानि न हो और सबसे उपजाऊ मिट्टी बहकर न जाए । मिट्टी ओर पानी की बर्बादी रोकना भविष्य में एक बड़ी जिम्मेदारी बनकर सामने आएगी ।

वर्षा का पानी मिट्टी को अपने साथ बहाकर ले जाए, इसके लिए अच्छा यह है कि जल को एकत्र कर दिया जाए । इसलिए जल-भराव बांध, जल संचय बांध, वानस्पतिक बांध आदि बनाये जाएं और तटों पर वृक्षों को लगाया जाए ।

इससे कृषि को भी लाभ होगा और प्रदूषण भी रुकेगा । जल समस्या के समाधान के लिए यह भी अनिवार्य है कि गन्दे जल का उपयोग वानिकी की दृष्टि से किया जाये । इसके लिए वैज्ञानिक व्यापक स्तर पर प्रयास कर रहे हैं ।


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4. पर्यावरण संबंधी समस्याएं ओर जल संकट (Environmental Problems and Water Crisis):

पर्यावरण की क्षति होती है तो एक ओर भौतिक साधन समाप्त होते जाते हैं, विकृतियां उत्पन्न होती हैं, पर उसके साथ ही सामाजिक ओर मानसिक वातावरण भी बदलता और विकृत होता जाता है ।

आज समाज में हिंसा, आगजनी, सम्बन्ध हीनता, अलगाव की जो स्थितियां दिखाई देती हैं, उसके लिए प्रदूषण भी जिम्मेदार है । जितना अधिक पर्यावरण को क्षति पहुंचेगी उतना ही अधिक समाज निरंकुश और निर्मोह होता जायेगा ।

ऐसी स्थिति में यह सारा विकास, समृद्धि और ऐशो-आराम कहां ठहर पाएगा जब समाज में अशांति हो और लोगों के मन में भोग की अपार लालसा काम कर रही हो, जब प्रकृति को केवल भोग्य समझ लिया जाय । बढ़ती चुनौतियों का सामना करने के लिए यह अनिवार्य है कि जल संसाधनों का व्यापक स्तर पर सही प्रयोग किया जाय ।

जो भविष्यवाणियां की जा रही हैं, वे भी निराधार नहीं हैं, पर यह सिर्फ आने वाले भविष्य की चेतावनी है कि उसके बचाव के लिए हम कुछ करें । वैसे दुनिया के प्रलय की बात लोग वर्षों से करते आ रहे हैं, पर दुनिया अभी भी अपनी जगह पर है ।

इसी प्रकार पर्यावरण का प्रदूषण आज एक सीमा पर पहुंच गया है जिससे हम संकट के एक कगार पर आ गए हैं किन्तु आज भी ऐसे निवारक प्रयत्न और शुद्धीकरण की प्रक्रिया वैज्ञानिक प्रविधि से सम्भव है, जो आनेवाले संकट से मानव को बचा ले जाए ।

एक अच्छा संकेत यह है कि वैज्ञानिकों का ध्यान इधर गया है और विश्व की सरकारें भी इस ओर सचेत होती जा रही हैं । सम्भव है सक्रिय प्रयत्नों से प्रकृति का सन्तुलन बनाए रखने, प्रदूषण को समाप्त करने और प्रकृति के संसाधनों को सुरक्षित रखने की दशा में भविष्य में उपाय सामने आएं और हमारी शंकाएं निर्मूल सिद्ध हों ।

किन्तु इसके लिए अत्यधिक धन, जन-सहयोग और वैज्ञानिक खोज की जरूरत होगी । भविष्य में क्या होगा, यह कहना कठिन है । लेकिन आज हम भविष्य के लिए योजना तो बना ही सकते हैं । वैकल्पिक ऊर्जा के लिए वैज्ञानिकों ने विभिन्न प्रकार के अनुसंधान कार्य करने प्रारम्भ कर दिए हैं ।

उद्योगों द्वारा निकाले गए कचरे रेडियोधर्मी अपशिष्ट आदि के प्रदूषण से बचने के लिए अब वैज्ञानिकों ने इस तरह की सलाह देनी शुरू कर दी है कि जमीन के नीचे उसे गहरे में दबा दिया जाय । कौन जाने इससे भू-गर्भ में कौन-सी प्रतिक्रिया होगी किन्तु यह भी एक उपाय है ।

इसी प्रकार घरेलू गन्दगी, गोबर आदि को ऊर्जा में बदलने और उसे साफ करने की बातें भी हो रही है । इस बात के बारे में भी सोचा जा रहा है कि कल-कारखानों में ऐसी विधि का विकास हो कि उनमें कम पानी का प्रयोग हो ओर कम-से-कम कचरा उत्पन्न हो ।

पर इसके लिए नए तकनीकों की जरूरत होगी जो भविष्य में विकसित होंगे । आज वैज्ञानिकों में यह विचार भी जोर पकड़ रहा है कि औद्योगिक कचरे को किसी दूसरी वस्तु के लिए उपयोग में लाया गया । कचर का ढेर लगाने के बजाय उसे दूसरे पदार्थों में परिवर्तित किया जाए ।

इस तरह चक्र पद्धति से प्रयुक्त पदार्थ को फिर से किसी काम आने वाली चीज में ढाला जा सकता है । एक बार काम में लाकर चीजों को फेंक देना ठीक नहीं । यहां जापान का उदाहरण देना उचित होगा । वहां इस पद्धति से 1980 में जापान ने 292 मीट्रिक टन कचरे में से 124 मीट्रिक टन का उपयोग कर दिखाया ।

ब्रिटेन में औद्योगिक कचरे से ऊर्जा ओर पात पैदा करने का काम चल रहा है । भारत में भी कृषि, गोबर, तम्बाकू नारियल, लाख, अखाद्य, बीज, कॉफी, रबड़, कपास, आम, केला, पशु-पक्षियों सम्बन्धी अवशेषों का उपयोग करने की दिशा में विद्वानों का ध्यान गया है ।

प्रदूषित जल की मात्रा में बढ़ोतरी का कारण औद्योगिक तथा जनसंख्या वृद्धि है । इस समय यहां प्रतिदिन 125000 लाख लीटर गन्दा पानी निकलता है । आगे इसकी मात्रा बढ़ती जाएगी । आज यह प्रदूषण का बहुत बड़ा कारण बना हुआ है ।

अगली सदी के लिए यह एक चुनौती होगी कि वह इसे किस तरह शुद्ध करें या किसी उपयोग में लाए । आज इसका प्रदूषण कई बीमारियों का कारण बना हुआ है और नदियों की गन्दगी ओर वायु के प्रदूषण के लिए भी यह सबसे अधिक जिम्मेदार है ।

इससे निपटने के लिए कहीं इस पानी को सब्जियां सींचने के लिए प्रयोग में लाया जाने लगा है । इससे बड़ी भयंकर स्थिति पैदा होती जा रही है क्योंकि इस पानी में विषैले तत्व होते हैं जो सब्जियों में मिलकर स्वास्थ्य हो हानि पहुँचाते हैं ।

कुछ लोगों को विचार है कि इस पानी का उपचार सम्भव है या इससे किसी तरह की ऊर्जा पैदा की जा सकती है । किन्तु इधर वानिकी में इसका प्रयोग होने लगा है । कहा जाता है कि यूक्वेजिप्टस इसमें खूब फलता-फूलता है । ईंधन और इमारती लकड़ी में काम आने वाले पेड़ इससे सीचें जाएं तो कोई नहीं होती है ।

विभिन्न प्रयासों के बाद भी जल प्रदूषण की समस्या पूरी तरह से समाप्त नहीं हो रही है । कारखानों द्वारा उत्पादित प्रदूषण को कम करने के लिए चिमनियों को ऊँची किए जाने का सुझाव दिया जा रहा है ।

इससे लाभ तो होगा ही किन्तु वास्तव में इनका धुओं वहां भले ही न फैले, सैकड़ों मील दूर बसे लोगों के ऊपर वह फैल ही जाता है । इसलिए एक तरीका यही बचा रहता है कि ऐसे उपाये खोजे जाएँ जिसे इनके धुएं, गैस, अपशिष्ट आदि को किसी दूसरी उपयोगी चीज में बदला जा सके ।

वाहनों से निकलने वाले धुएं से बचने के लिए उपाय ढूंढ़े जा रहे हैं । बिजली से चलने वाली बसों, ट्रामों, रेलों की व्यवस्था की जा सकती है । इस सिलसिले में दिल्ली प्रशासन ने बैटरी से चलने वाली कुछ बसों को चलाने का प्रयोग किया है ।


Essay # 5.

जल संबंधी समस्याओं का निदान (Diagnosis of Water Related Problems):

वैज्ञानिकों का मानना है कि सीमित भण्डार होने के कारण है कि कोयला, गैस, तेल आदि ऊर्जा के साधन बहुत दिन तक आदमी का साथ नहीं देंगे । लेकिन वैज्ञानिक ऊर्जा के वैकल्पिक साधनों की खोज में लगे हैं ।

यह भी कहा जाता है कृषि भूमि पर पड़ने वाले दबाव और प्रदूषण को देखते हुए उत्पादकता जनसंख्या के विस्तार का मुकाबला नहीं कर पायेगी । किन्तु जनसंख्या को परिसीमित करने के प्रयत्न चल रहे हैं और कृषि के क्षेत्र में उपज बढ़ेगी, इस चुनौती को विज्ञान कभी अनसुनी नहीं करेगा, ऐसी आशा आज की जा सकती है ।

भूमि को उर्वर बनाने का प्रयत्न, सिंचाई व्यवस्था और नई भूमि को कृषि के अन्तर्गत लाने का प्रयास उत्पादकता को बढ़ाने में सहायक होता है । वैज्ञानिक यह भी मानने लगे हैं कि यदि जमीन की नमी बनाए रखने या अन्दर के पानी को वाष्पीकरण से बचाए रखने से सूखे से बचा जा सकता है ।

इसके अतिरिक्त गेहूं, धान आदि की जो संकर किस्में पैदा की जा रही हैं, वे फसल में वृद्धि करती हैं । ऐसी स्थिति में शायद भविष्य में अकाल आदि से बचा जा सकेगा और यह भी आशा की जाती है कि विज्ञान कृषि भूमि पर होने वाले प्रदूषणों से उसकी रक्षा कर पाएगा ।

समुद्र से भी आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी जनता की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाने में समर्थ होगी । सूर्य की ऊर्जा का उपयोग बढ़ेगा क्योंकि उसमें अमिट सम्भावनाएँ नजर आ रही हैं । सूर्य पृथ्वी पर 4.1613 कैलोरी ऊर्जा प्रेषित करता है ।

इसका तापक्रम और जलवायु पर ही प्रभाव नहीं पड़ेगा बल्कि पादपों के लिए भी सम्भवत: इसका उपयोग किया जा सकेगा । मरुस्थलों का प्रयोग सूर्य की ऊर्जा को एकत्र करने के लिए किया जा सकता है ।

विश्व भर में इस प्रकार 3.41616 कैलोरी ऊर्जा एकत्र की जा सकेगी जिसका उपयोग खेती के लिए भी किया जा सकेगा । वैज्ञानिकों का विश्वास है कि उत्पादन की समस्याओं को सम्भाला जा सकता है ।

मौसम की सही भविष्यवाणी कृत्रिम मेघों के निर्माण, वायुमण्डल की परत पर विषाक्त-सी गैसों के निराकरण, जेनेटिक इंजीनियरिंग, निशस्त्रीकरण, गन्दे जल का शुद्धीकरण आदि कुछ ऐसी युक्तियां हैं जिनसे स्थल, जल, वायु, खनिज, पादक जीव-जन्तु, ऊर्जा आदि प्राकृतिक संसाधनों की क्षतिपूर्ति सम्भव हो सकेगी ।

भविष्य में ऐसे ईंधनों का प्रयोग होगा जो हवा का कम-से-कम अपव्यय करें । आज वर्ष में ईंधन से लगभग 80,000,000,000 टन वायु जलाई जाती है और लगभग 130 से 160 लाख टन ऑक्सीजन ।

इसकी बचत और कार्बन-डाई-ऑक्साइड को परिसीमित करने के लिए भविष्य में प्रयत्न हो सकते हैं । ऐसा भी सम्भव है कि ईंधन ज्वलन के नए तरीके ढूंढ़ लिए जाएं । आणविक ईंधन संसाधनों का उपयोग भी इस दिशा में कुछ सहायक हो सकता है ।

कार्बन-डाई-ऑक्साइड को एक परिसीमा में रखने के लिए वनीकरण से काम लिया जा सकता है । जहां तक जल की कमी का प्रश्न है, उसकी कमी जल स्रोतों की क्षमता बनाये रखने वाले साधनों को जुटाने से पूरी की जा सकती हैं उद्योगों में पानी के प्रयोग को कम करने की युक्तियां भी कारगर होंगी ।

यह भी अनिवार्य है कि वह उपाय खोजा जाय जिससे समुद्र के पानी की लवणीयता को कम किया जा सके ताकि यह पीने योग्य हो जाये । सरकारें सजग होकर यदि कृषि-सम्बन्धी शोध और जनसंख्या नियन्त्रण कार्यक्रम एक साथ चलती रहे तो कहा जा सकता है कि खाद्य की समस्या उतनी भयंकर नहीं होगी ।

वैज्ञानिक समुद्र से भी खाद्य तत्व निकालने में कार्यरत हैं । अत: सामुद्रिक सम्पत्ति भी इसमें बहुत उपयोगी सिद्ध होगी । प्रदूषण का एक कारण वह लालसा है जो उद्योगों में पैसा कमाने के लिए प्रेरित करती है ।

धन की होड़ में व्यर्थ के उद्योग खुलते हैं और विलासिता को प्रोत्साहित करते हैं । देश का उनसे कोई हित नहीं होता है परंतु काफी प्रदूषण होता है । यह तो अजीब बात होगी कि पहले पर्यावरण को दूषित करो और फिर उसे सुधारने की बात की जाय ।

ऐसी व्यवस्था हो कि प्रदूषण कम-से-कम हो और बचाव पहले किया जाय । कुटीर उद्योगों को क्यों बढ़ावा दिया जाता जिनमें प्रदूषण नहीं के बराबर है । सामाजिक गतिशीलता वृद्धि के कारण वर्तमान समय में नगरीकरण की प्रक्रिया बढ़ रही है ।

नगरों में जनसंख्या के केन्द्रीयकरण की समस्याएं यद्यपि राजनैतिक, आर्थिक, औद्योगिक सभी पर आश्रित हैं फिर भी नगरीकरण को आर्थिक आधार पर रोका जा सकता है । यदि गांवों, कस्बों और छोटे शहरों में काम-काज की सुविधा मिलने लगे तो लोग बड़े शहरों की तरफ नहीं भागेंगे ।

अगर क्षेत्रीय असन्तुलन को समाप्त कर दिया जाए और राष्ट्रीय सम्पदा केन्द्रीय न रहे तो यह समस्या हल हो सकती है । तकनीकी विकास के कारण मानव का विकास कम परिवर्तित हुआ है । विज्ञान और टेक्नोलॉजी मानव को सुख-सुविधा दे सकते हैं पर जीवन की ऊष्मा नहीं ।

उसे इस पृथ्वी पर अच्छी जिन्दगी भी चाहिए और अच्छी जिन्दगी केवल धन और वैभव पर निर्भर नहीं करती । आवश्यकता इस बात की है कि इस प्रकृति से फिर अपना नाता जोड़ें ।

इसका मतलब ‘प्रकृति की ओर लौट चलो’ नहीं है बल्कि प्रकृति ओर पर्यावरण को सही परिप्रेक्ष्य में समझना है । यह सब वैज्ञानिक के लिए भी जरूरी है, उद्यमी के लिए भी और सरकार तथा नागरिक के लिए भी ।

यदि प्रदूषण प्रसार को देखें तो यह स्पष्ट होता है कि सम्पन्न देश सबसे ज्यादा प्रदूषण फैला रहे हैं और उसकी जिम्मेदारी गरीब देशों पर मढ़ रहे हैं । अच्छी बात यह है कि रियोडी जलेरों में ये मुद्दे सामने आए और विश्व के वैज्ञानिक और सरकारें अब इस समस्या के प्रति जागरूक हो गए हैं ।

हमारे देश में पर्यावरण के लिए विशेष ध्यान दिया जाने लगा है और सरकार के पर्यावरण के लिए विशेष ध्यान दिया जाने लगा है ओर सरकार के पर्यावरण की रक्षा और प्रदूषण को मिटाने की दिशा में सक्रिय हो गए हैं ।

पर इतना ही काफी नहीं । ऐसा न हो कि उद्यमी प्रदूषण कर पैसा कमाएं और गरीब उसके परिणाम भोगें । उद्योगपति प्रदूषण मिटाने में अपनी भूमिका निभाएं और जन साधारण भी पीछे न रहे । इस संदर्भ में हर व्यक्ति को अपना योगदान करना है ।

हम सब प्रदूषण फैलाते हैं और हमको भी इसके निवारण में सहायक होना है । भोपाल जैसी गैस त्रासदी को जो लोग देख और भोग चुके हैं उन्हें इस बात का बोध होना चाहिए कि पर्यावरण क्या है ? ओर पर्यावरण के प्रति हमारी दृष्टि क्या होनी चाहिए ?

वह हमको किस तरह प्रभावित करता है, एक मामूली आदमी भी जानता है जब हम कोई हरा-भरा जंगल देखते हैं तो हमारा मन खुश होता है; लेकिन जब हमारे सामने कूड़े का ढेर होता है, तो हमें क्रोध और जुगुप्सा होने लगती है । पर्यावरण हमें अच्छी और बुरी चीज का अहसास कराता है ।

हम उसको सौन्दर्यबोध, लक्ष्यों और जीवन-मूल्यों के साथ जोड़कर देखते हैं । यह हमारे लिए उद्दीपन का भी काम करता है । इसी के अनुसार हम अनेक बार क्रिया और भावना से प्रेरित होते हैं ।

इसमें ही हम रहते ओर विकसित होते हैं । इसी के अनुसार हम अपने को ढालते हैं और कई स्थितियों में इसका अपने अनुकूल निर्माण भी करते हैं । वैज्ञानिकों की दृष्टि कई विकल्पों की खोज में जा रही है । पृथ्वी को काफी न समझकर वे अब आकाश ओर समुद्र में निहित सम्भावनाओं की खोज में लगे हैं ।

अंतरिक्ष यात्राएं मानव को जीवन की नई संभावना का द्वारा खोल रही हैं । पर सवाल यह है कि क्या मनुष्य धरती का खून चूसकर ग्रह-उपग्रहों की ओर पलायन करेगा?

रही बात समुद्र की, उस क्षेत्र में बहुत सारे अनुसंधान हो रहे हैं और ऐसी आशा की जाती है कि जल कृषि और मत्स्य पालन का विकास होगा जिससे खाद्य समस्या का हल हो सकेगा ।

इसके अतिरिक्त रोबो समुद्रतट में बिछी धातुओं का उत्खनन करेगा । पेट्रोल की प्राप्ति भी समुद्र तल से सम्भव हो गई है । ऐसी आशा की जाती है कि समुद्र तल ओर समुद्र तट से मनुष्य को अधिकतम संसाधन प्राप्त होंगे ।

परन्तु यह शत-प्रतिशत सत्य है कि मानव ही नहीं अपितु प्राणी मात्र के लिए भी पर्यावरणीय समस्याएं बढ़ रही हैं । आज आवश्यकता इस बात की है कि पर्यावरण के प्रति हम जागरूक रहें । पर्यावरण से हमारा सीधा सम्बन्ध है । उसमें प्रदूषण की मात्रा बढ़ने न दें ।

किन्तु दुर्भाग्य यह है कि उसका अहसास हमको तब होता है जब कोई बड़ी दुर्घटना हो चुकी होती है । हम उन्हीं विषमताओं में जीने के आदी बन जाते हैं । फिर भी जब सूखा पड़ता है या अतिवृष्टि होती है, तो किसान की नींद हराम हुए बिना नहीं रहती है ।

जब कोई पहाड़ घटता है या नदी सूख जाती है या जंगल मिट जाता है तो बदलते हुए दृश्य पर हमारा ध्यान जाता है । कभी-कभी विकास के नाम पर बड़ी-बड़ी योजनाएं चलाई जाती हैं । इसमें कोई संदेह नहीं कि उनसे राष्ट्र का हित होता है किन्तु लम्बे समय बाद उनका नुकसान सामने नजर आ जाता है ।

इस श्रेणी में बड़े-बड़े बाँधों को लिया जा सकता है । बड़े-बड़े बाँध जब टूटते हैं । तो आस-पास के सारे क्षेत्र को बहा ले जाते हैं । दुनिया में लगभग 45 बड़े बाँध हैं जो कभी भूचाल पैदा कर सकते हैं ।

1945 में ऐसा पहला भूचाल अमेरिका की लेक मीड में आया था । भारत में कोयना और भस्सा खतरे का संकेत लिए हुए हैं । शीघ्र ही बनकर तैयार होने वाले टिहरी बाँध के सम्बन्ध में वैज्ञानिकों ने शंकाएं व्यक्त की हैं ।

इसलिए जरूरी है कि बाँधों, नहरों आदि को बनाते हुए हमको भूगर्भीय तत्वों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । नदियों से पैदा होने वाली बाढ़, उसमें बहकर आने वाले पत्थर, गाद, रेत आदि भयंकर समस्या पैदा करते हैं ।

जब-जब पहाड़ों पर सड़कें बनाने या निर्माण करने के लिए नदी के क्षेत्र को छेड़ा गया था उसकी आंतरिक व्यवस्था में हस्तक्षेप किया गया, तब-तब पहाड़ों के तन-बदन पर बड़े-बड़े घाव नजर आए हैं और उसका सौन्दर्य विकृत हुआ है ।

वायुमण्डल को स्वच्छ रखने संबंधित प्रयास (Efforts to Keep the Atmosphere Clean):

वायुमण्डल को स्वच्छ रखने के निम्न उपाय हैं:

1. दूसरी ओर उपयुक्त विकल्पों की खोज की जाय, जिससे वायु का प्रदूषण न हो ।

2. उसके लिए हरित पट्टी तैयार की जाए; उद्योगों की गैसों पर नियंत्रण रखा जाय ।

3. वायुमण्डल को स्वच्छ रखने के लिए एक ओर प्रदूषण के कारकों पर नियंत्रण रखना होगा ।

4. इस कार्य में स्थानीय जनता, सत्ता और उद्योगों का सहकार लिया जाए ।

5. वनों की रक्षा ही न की जाय, नए वनों का विकास हो, साथ ही वन्य जीवों की सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय उद्यान और अभयारण्य बनते रहें ।

6. पशु-पालन के अवसर बढ़ें और चरागाहों की उपलब्धता हो ।

7. उद्योगों, परिवहन, खनन, उत्खनन से होने वाले खतरे पर्यावरण के लिए समस्या बनते जा रहे हैं ।

8. कृषि के क्षेत्र कीटनाशकों को प्रयोग इस तरह हो कि उससे जीवों ओर जलवायु पर बुरा प्रभाव न पड़े ।

इसके साथ ही शहरों में जो कंकरीट का जंगल खड़ा हो रहा है और गन्दी बस्तियाँ बनती जा रही हैं, यदि इन बातों में ध्यान नहीं दिया गया था । समस्याएं ज्यों की त्यों बनी रहीं तो इक्कीसवीं सदी हमें कोसते हुए बीतेगी ।

प्राकृतिक संतुलन- जल संबंधी समस्याओं के निदान का प्रयास (Natural Balance- An Attempt to Diagnose Water Related Problems):

प्राकृतिक संतुलन जीवन-अस्तित्व के लिए बहुत अनिवार्य है । अकेली ओजोन की क्षति ही विनाश के लिए काफी है । हमें यह समझने में देर नहीं करनी चाहिए कि हम इस विराट् ब्रह्माण्ड के स्वामी नहीं उसके जीवभूत अंग मात्र हैं ।

हमें अपने स्वार्थ के लिए भौतिक साधनों का वैध उसके जीवभूत अंग मात्र हैं । हमें अपने स्वार्थ के लिए भौतिक साधनों का वैध उपभोग ही करना चाहिए तथा भौतिक जगत् को हानि पहुंचाने वाले क्रिया-कलाप से बचना चाहिए ।

रासायनिक यौगिकों का प्रयोग बड़ी सावधानी से हो; ईंधन, पेट्रोल के जलने से ओर धातुओं के अन्धाधुन्ध प्रयोग से पर्यावरण और जीव मंडल के लिए जो खतरा पैदा हो गया है, वह पर्यावरण सुधार और प्राकृतिक सन्तुलन से ही दूर किया जा सकता है ।

इसलिए प्राकृतिक सन्तुलन की गति आगे और भी बढ़ानी होगी । प्राकृतिक संतुलन के लिए मानव दृष्टिकोण में सकारात्मक परिवर्तन अनिवार्य हैं । पर्यावरण सम्बन्धी शिक्षा जन-साधारण को पर्यावरण की समस्याओं और उसके संरक्षण और सुधार के लिए अपेक्षित मानवीय व्यवहार का ज्ञान करा सकती है ।

यद्यपि प्रयोगों से सिद्ध हुआ है कि पर्यावरणीय शिक्षा मनुष्य की संहारक वृत्ति को बदलने में बहुत सहायक नहीं हुई, किन्तु वह पूर्णत: असफल होगी, यह नहीं कहा जा सकता । बच्चों, स्त्रियों आदि पर पर्यावरण शिक्षा का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है ।

भावनात्मक स्तर पर कोई भी शिक्षा कारगर हो सकती है । ‘चिपको आन्दोलन’ इसका एक उदाहरण है । हम केवल उपदेश न दें- केवल पोस्टरबाजी न करें कि ऐसा करो, ऐसा न करो बल्कि लोगों को भावनात्मक स्तर पर एक आन्दोलन का सहभागी बनाएं ।

जिस भाषा में लोगों को शिक्षा दी जाती है, नारे दिये जाते हैं या आदेश देते हैं, वह ऐसी नहीं होनी चाहिए कि लोगों की भावना को ठेस पहुंचाएँ । शिक्षा के अतिरिक्त दण्ड का विधान भी पर्यावरण की सुरक्षा के लिए आवश्यकता है । सरकार का ध्यान इस ओर गया है; किन्तु अभी काफी सख्त कानून बनाने की जरूरत है ।

वन अधिनियम लागू हो चुका है पर कल-कारखानों पर सख्ती होनी चाहिए । शोर के नाम पर धर्म स्थलों, शादी के पण्डालों, जागरणों और रेडियो-टेलीविजन के शोर को कानूनन किसी तरह नियन्त्रित किये जाने की अपेक्षा है ।

आधुनिक विकासशील तकनीकी में हमें वैज्ञानिक उपलब्धियों का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए । बेहताशा उपभोग और व्यर्थ का उत्पादन विज्ञान के साथ हमारे मन की देन भी है । विज्ञान एक समस्या का हल करता है, लेकिन दूसरी पैदा कर देता है ।

जितना भी विज्ञान ने परिवहन, औषधि, विद्युत यन्त्रों, पेट्रोल, ऊर्जा आदि के माध्यम कर दिखाया उतना ही दुष्प्रभाव भी पड़ा है । सुख-सुविधाओं का होना बुरा नहीं पर हर सुख-सुविधा की कीमत चुकानी पड़ती है ।

ग्रामीण क्षेत्रों में नए-नए साधन उपलब्ध हो रहे हैं, किन्तु पर्यावरण में तालमेल जरूरी है । उदाहरण के लिए गाँव में मोटर मार्ग बन रहे हैं किन्तु साथ ही खेती की जमीन, भूगर्भीय तत्वों में फेर-बदल, पानी के स्रोतों का एकदम सूख जाना, बाढ़ आ जाना-कई नई व्याधियाँ भी आ जुड़ी है ।

इसलिए जरूरी है कि विकास योजनाबद्ध हो । विज्ञान को लकीर का फकीर बनाकर न चलें और बड़ी बात यह है कि पर्यावरण की रक्षा का कार्य आपको भी स्वयं करना है । इसमें सबसे मुख्य समस्या प्रकृति और प्राकृतिक साधनों की रक्षा की है । नागरिक को प्राकृतिक सौन्दर्य की भावना को अपने अन्दर बनाए रखने की जरूरत है ।

दूसरी बात यह है कि उसे इस बात से अवगत होना चाहिए कि प्रदूषण से उसके स्वास्थ्य को किस प्रकार की हानि होती है । इसके अतिरिक्त उसे इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि वस्तुओं का अतिभोग, संसाधनों का अत्यधिक दोहन कौन-कौन-सी समस्याएं खड़ी होती हैं ।

हमारे लिए आने वाली सदी में एक खतरा यह भी है कि लोगों की रूचि फूअड़ होती जा रही है कलाकृतियों, शहर की दीवारों, सार्वजनिक स्थानों, पार्कों, पेशाबघरों में लिखकर या चित्र बनाकर बिगाड़ना भी एक तरह से पर्यावरण को धक्का पहुँचाना है ।

किसी भी वस्तु या स्थान का सौन्दर्य सुरक्षित रहे, यह जरूरी है । कला-ध्वंसन की प्रवृत्ति जन्म ही तब लेती है जब व्यक्ति और उसके पर्यावरण से जुड़ा महसूस करें तो यह सब नहीं होगा । पर जब वह समाज या परिवेश से असन्तुष्ट, दुखी और संघर्ष से ग्रस्त होता है तो वह उसका बदला भौतिक पर्यावरण से लेने लगता है ।

किसी ने ठीक ही कहा है कि पर्यावरण की समस्याएं सामाजिक समस्याएं हैं, उनकी शुरुआत कारण रूप में आदमी से होती है ओर उनका अन्त भी उसी से होता है जब वह उसका शिकार बनता है । पर्यावरण एक व्यापक तथा बहुक्षेत्रीय शब्द है ।

किसी भी पर्यावरण को हम सुखद या दुखद रूप में देखने के आदी होते हैं । उसके साथ हमारी सुखद या दुखद स्मृतियाँ जुड़ जाती हैं ओर फिर उससे हमें उसी मात्रा में आराम, उत्तेजना या आकर्षण-विकर्षण का अनुभव होता है । इस प्रकार अन्तत: अनुभवों का सामान्यीकरण हो जाता है ।

यही नहीं, हमें पर्यावरण के प्रति आकर्षण या विकर्षण का भाव दूसरों से भी देखा-देखी प्राप्त हो सकता है । यदि कुछ संभ्रांत नागरिक पर्यावरण की रक्षा पर ध्यान दें तो दूसरों में भी वह प्रवृत्ति स्वत: जग सकती है ।

इसीलिए बच्चों की अभिरुचि के निर्माण में माता-पिता और गुरुजनों का व्यवहार बहुत लाभकारी हो सकता है । आने वाली समस्या का हल मनुष्य और प्रकृति में सामंजस्य स्थापित करना है । व्यक्ति प्रकृति के प्रति निकटता महसूस करें । प्रकृति माँ है, धात्री है, पर भोगी अपने को स्वामी समझता है ।

हमारा देश वह है जहाँ प्रकृति-पूजा होती रही है । हमने वृक्षों को पूजा है, पशु-पक्षी हमारे देवी-देवताओं के वाहन हैं । हमारे वेद प्रकृति के विभिन्न रूपों की अर्चना करते हैं । आज हम प्रकृति के स्वरूप को पूर्वजों से अधिक पहचानते हैं, किन्तु आज भी हमारे मन में उसके प्रति वही उत्सुकता और आत्मीयता होनी चाहिए ।

कई सदियों तक हमको यह नहीं मालूम था कि धरती कैसे बनी, जीव कैसे अस्तित्व में आए ओर वनस्तियां कैसे उग आईं ? एक समय आया जब डार्विन ने विकासवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । वह अपने बाग में बैठा था; एक केंचुए को उसने मिट्टी में से ऊपर आते देखा ।

उसने सोच-विचार शुरू किया और पाया कि यह केंचुआ तो बहुत महत्वपूर्ण है, यह जमीन के अन्दर ही अन्दर हवा आने ओर बाहर जाने के लिए कितना बड़ा काम करता है । इसके बिना तो फसलें उगाना मुमकिन ही नहीं । रॉबर्ट हुक, क्रोसिल रेडी, हुई पाश्चर, ज्याँ लेमार्क ने इसी तरह प्रकृति को पहचानने का महत्वपूर्ण कार्य किया ।

जब डार्विन ने अपने विचार जगत के सामने रखे तो धर्माधिकारियों का पूरा वर्ग उसके खिलाफ हो उठा लेकिन जब उसने संघर्ष और विकास का अपना सिद्धान्त रखा तो सारी पिछली धारणाओं को ही उलट-पुलट कर रख दिया और अंतत: वह समय भी आया जब लोग पौधों और जीव जगत के सम्बन्ध को समझने लगे ।

किन्तु इसके बावजूद भी भीषण संहार चलता रहा । अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए मानव ने प्राकृतिक सम्पदा को जो अपूणीय क्षति पहुंचाई है, उसके परिणाम किसी भी दश्य में सकारात्मक नहीं हो सकते । इसीलिए अब वह पर्यावरण को सुधारना चाहता है ।

इसके लिए मनुष्य को प्रकृति के सजीव तत्व को ही नहीं समझना है बल्कि अपने को भी, अपने क्रिया-कलापों को भी जो पर्यावरण के साथ सम्बन्धों में जुड़े हैं । जंगलों के कटने, वायु प्रदूषण आदि के कारण तापमान में परिवर्तन आ रहा है ।

तापक्रम से भूमि की संरचना बदल रही है, जीवन झुलसने लगा है और पादपों और जीव जगत में बहुत-सी प्रजातियाँ लुप्त होती जा रही हैं । इसलिए प्रकृति के संरक्षण की समस्या आज मुंह बनाए खड़ी है । वनस्पति ओर जीव-जन्तुओं का अस्तित्व जल स्रोतों पर निर्भर करता है किन्तु वनों के कटने से जल-स्रोत सूखते जा रहे हैं नगरों में पीने के पानी की भारी कमी हो गई है ।

जब प्रकृति का सन्तुलन बिगाड़ दिया जाता है तो पर्यावरण, समाज, अर्थव्यवस्था और मानवीय व्यवहार सबमें अनुक्रिया की श्रृंखला बन जाती है और एक तरह की पारस्परिक प्रतिक्रिया शुरू होती है । एक वस्तु दूसरे को प्रभावित करने लगती है और ह्रास की स्थिति अन्त: जीवन की गुणवत्ता को खत्म करके रख देती हैं ।

यह अनिवार्य है राष्ट्र के सफल विकास के लिए सकारात्मक नियोजन किया जाय । पहले से यह जानना कठिन नहीं है कि कल कैसा होगा जब जंगल कट रहे हैं, जलस्रोत सूख रहे हैं । शहर प्रदूषण से भरे हैं । इस सबके लिए अगर अभी से प्रयत्न नहीं हुआ तो बहुत देर हो जायेगी । एक जंगल को तैयार होने में 20-30 वर्ष लगते हैं । नदियों की गन्दगी को साफ करने में अरबों रुपये चाहिए ।

हर सेकंड में तीन बच्चे पैदा होते हैं, उनके खाने रहने की व्यवस्था पर पहले से नहीं सोचेंगे तो क्या होगा ? मृदा की शक्ति और भूगर्भीय संसाधन समाप्त होते जा रहे हैं, कल उनका स्थान कौन-सी चीज लेगी ? विज्ञान और टैक्नोलॉजी को कुछ न कुछ करना होगा ?

अब फिर से प्रकृति की ओर लौटना तो नहीं हो सकता कि मनुष्य उद्योग धन्धे बन्द करके बैठ जाय । लेकिन विकास योजनाओं हेतु यह जानना तो हो ही सकता है कि क्या अच्छा है क्या बुरा । उचित-अनुचित का ध्यान रखते हुए क्षतिपूर्ति सम्भव है ।

पारिस्थितिकी के सामने सबसे बड़ी समस्या भूमि और पर्यावरण के बीच उचित स्थितियों को विकसित करना है । औद्योगिक नीति ऐसी होनी चाहिए कि वह पर्यावरण को आघात न पहुँचाए ।

पर इसमें जहाँ कुछ क्षेत्रों में अन्तर्राष्ट्रीय योगदान की अपेक्षा हैं, वहाँ राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी क्षमताओं का भी प्रश्न है । पर्यावरणीय समस्याओं के निदान के लिए सरकारी योजनाएँ तभी सफल हो सकती हैं जब सामान्य नागरिक भी इसमें भाग ले ।

पर्यावरण की रक्षा एक बहुत बड़ा यज्ञ है । उसमें हममें से हर एक को अपनी आहुति डालनी है, चाहे वह वृक्ष लगा कर हो या गन्दगी न फैलाकर । कभी की बात है, गढ़वाल में अलकनन्दा नदी की घाटी में रैणी गाँव में एक स्त्री पेड़ से चिपक गई; ठेकेदार से यह कहकर कि मैं पेड़ नहीं काटने दूंगी ।

उसकी किसी ने नहीं सुनी ओर वह पेड़ पर बलिदान हो गई उसकी दो बेटियों ने भी वैसा ही किया ओर वे भी मारी गई । लगभग 250 वर्ष बाद वहीं की स्त्रियों ने एक दिन देखा कि रैणी के जंगल में लोग कुल्हाड़ी और आरे लेकर पहुँच गए है ।

जीव-जन्तुओं और पशु-पक्षियों की ही नहीं, हर प्रकार के पेड़-पौधों की प्रकृति के प्रांगण में अपना अलग स्थान है । उनका अपने हित में या कृषि के हित में अन्धाधुन्ध विनाश अगली सदी में दूसरी समस्याएं खड़ी कर सकता हैं एक बड़ी समस्या लुप्त होती जीव जन्तुओं और पेड़-पौधों की प्रजातियों की तस्करी की सामने आएगी ।

आज भी इनकी बड़ी तस्करी होती है । विदेशी वैज्ञानिकों के अनुरोध पर कई दुर्लभ औषधीय पौधे बाहर के देशों में चोरी-चोरी भेजे जाते हैं । जिससे वे घटते जाते हैं । ऐसे में बड़ी निगरानी रखनी पड़ सकती है ।

शोध के बहाने धन के लोभ में कई तस्कर इनका व्यावसायिक लाभ उठाते हैं । बरबेटिन दवा में काम आने वाले काप्टिस लीला तथा कैलेस्ट्रोल निरोधक के मिफोरा गुगुल का देश से बाहर जाना चिन्ता का विषय हो सकता है ।

इसी प्रकार पायीलेडियम दुराली का भी यही हाल है । इस प्रकार के दुर्व्यवहार के कारण आज औषधीय पौधों की 25 किस्में समाप्त हो चुकी हैं । अभी भी 25 हजार प्रजातियां बची हैं । अत: हमारी यह राष्ट्रीय तथा नैतिक जिम्मेदारी है कि हम औषधीय पौधों का रोपण ही नहीं, अपितु प्राप्त पौधों का संरक्षण भी करें ।

पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं के संरक्षण से जनता को शिक्षित और जागरूक बनाना जितना जरूरी है उतना ही उनके जीवित रहने के लिए परिस्थितियां निर्मित करना भी । ये सब जीवित रहें उसके लिए भूमि, वन, वायु और जलस्रोत सुरक्षित रखने होंगे ।

साथ ही उनके लिए सही तापमान बनाए रखना भी जरूरी होगा । जीवदया का महामन्त्र हमारी धार्मिक साधना का आधार रहा है । सामंती शौकों ने पशुओं के शिकार को बढ़ावा दिया । फलत: केवल मनोरंजन के लिए या अपनी पर-पीड़न वृत्ति के लिए कभी आखेट या मृगया की परम्परा चली ।

साथ ही सींगों, खाल, चमड़ा, कस्तूरी, माँस, पंखों आदि के लिए पशु-पक्षी मारे जाने लगे । हाथी दाँत के लिए हाथियों का आखेट होने लगा; शेर की खाल के लिए लोग लालायित रहने लगे । इन सब प्रवृत्तियों ने पशुओं का संहार किया ।

आज सरकार ने अभयारण्य बनाए हैं और शिकार पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया है । यह अभियान तभी सम्भव होगा जब हम प्राणिमात्र के प्राणि दया रखें तथा वनस्पतियों में सौन्दर्य-दर्शन की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे । अत: यह अनिवार्य है कि हम एक सम्पन्न राष्ट्र के निर्माण के लिए प्रकृति की हरीतिमा को बनाए रखें ।


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