समाज के प्रौद्योगिक प्रभाव! Read this article in Hindi to learn about the effects of technology on society.

मैकाइवर ने प्रौद्योगिक कारकों के सामाजिक प्रभावों को दो भागों में बांटा है:

(I) प्रत्यक्ष प्रभाव:

इसमें नवीन श्रम संगठन, कार्यों का विशेषीकरण, समय पालन तथा शीघ्रतापूर्वक कार्य सम्पादन आदि आते है ।

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(II) अप्रत्यक्ष प्रभाव:

इसमें शहरों की संख्या में वृद्धि, बेकारी, प्रतिद्वन्द्विता, अपराध, जीवन स्तर की धारणा, समाज में नये वर्गों के निर्माण आदि का समावेश है ।

इस विषय में अन्य सामाजिक प्रभाव निम्नलिखित हैं:

(i) मूल्यों में परिवर्तन:

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आर्थिक सीमाओं के विस्तार राज्यों के क्षेत्र के विस्तार, नये वर्गों के निर्माण लोकतन्त्र के विकास, फैशन के प्रचार, नगरीकरण नवीन विचारधाराओं के प्रसार तथा नई समितियों के निर्माण से मनुष्यों के विश्वासों प्रवृतियों तथा विचारों पर बड़ा प्रभाव पड़ा है । इससे जीवन के मूल्यों में जबर्दस्त परिवर्तन हुआ है । पुराने मूल्य बिल्कुल बदल गये है ।

धन को लगभग सर्वोच्च स्थान दिया जाने लगा है । उसी से सब पद प्रतिष्ठा आदि होती है । भारतीय समाज में पहले जो आदर ब्राह्मणों तथा बाद में जो क्षत्रियों को प्राप्त था वही अब वैश्यों या पूंजीपतियों को मिलने लगा है । नैतिक मूल्यों का अब उतना अधिक सम्मान नहीं रह गया है ।

धर्म को निजी मामला समझा जाने लगा है और सामाजिक सम्बन्धों में धर्म-निरपेक्षता पर जोर दिया जाने लगा है । गुणों के स्थान पर संख्या अथवा मात्रा को महत्व दिया जाने लगा है । जीवन बहिर्मुखी होता जा रहा है । विचार के स्थान पर बाहरी तड़क-भड़क को अधिक महत्व दिया जाने लगा है ।

दिखावट और बनावट के सामने संस्कृति के मौलिक तत्वों की अवहेलना होने लगी है । मानवीय सम्बन्ध निर्वैयक्तिक और द्वैतीयक होते जा रहे हैं । सब ओर ‘मानव यन्त्र’ दिखाई पड़ते हैं जिनमें गति है परन्तु मौलिकता नहीं, स्पन्दन है परन्तु भावना नहीं हृदय है परन्तु अनुभूतियां नहीं । सभी दौड़ रहे है । किसी को किसी ओर देखने की फुरसत नहीं है ।

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मगर किधर और कहाँ ? कौन जाने ? कौन सोचे ? किसी से पूछो तो यही जवाब मिलेगा “तुम्हें क्या ? मुझे क्या ?” सामाजिक मूल्यों के इन परिवर्तनों का एरिक फ्रॉम ने अपनी पुस्तक “The Sane Society” में बड़ा अच्छा वर्णन किया है । इस प्रकार ग्रीन ने ठीक ही लिखा है कि ”प्रौद्योगिक परिवर्तन सामाजिक मूल्यों और नैतिक नियमों को प्रभावित करते है ।”

(ii) सामाजिक संस्थाओं पर प्रभाव:

प्रौद्योगिकी ने सामाजिक संस्थाओं पर भी प्रभाव डाला है । परिवार के अनेक काम दूसरी समितियां करने लगी हैं । परिवार के बहुत से काम मशीनों से होने लगे है । इससे स्त्रियों को अधिक अवकाश मिलने लगा है और उनकी अवस्था पहले से बहुत सुधर गई है ।

अब वे घर से बाहर प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों से कन्धा से कन्धा मिलाकर काम करने लगी हैं । पारिवारिक नियन्त्रण कम होता जा रहा है । विघटन के चिन्ह भी स्पष्ट दिखाई पड़ने लगे हैं । बच्चों की संख्या घटती जा रही है ।

परिवार के साथ-साथ विवाह के बन्धन भी ढीले पड़ गये हैं क्योंकि विवाह एक धार्मिक संस्कार न रहकर सामाजिक समझौता बन गया है जिसको किसी भी समय तोड़ा जा सकता है चुनाव का क्षेत्र बढ़ गया है । प्रेम को अधिक महत्व दिया जाने लगा है तलाकों की संख्या बढ़ रही है ।

धार्मिक संस्थाओं का महत्व कम होता जा रहा है राज्य धर्म निरपेक्ष तथा कल्याणकारी बनते जा रहे हैं । प्रौद्योगिकी के विकास से उनका क्षेत्र बराबर बढ़ता जा रहा है और वे अधिक स्थिर होने लगे है । विश्व राज्य की कल्पना का प्रचार होता जा रहा है ।

(iii) नगरीय जीवन के प्रभाव:

प्रौद्योगिकी का सामाजिक जीवन पर प्रभाव सबसे अधिक नगरीय जीवन में दिखाई पड़ता है क्योंकि नगरों के विकास में प्रौद्योगिक कारकों का भारी महत्व है । नगरों के सामाजिक जीवन में प्रौद्योगिकी के विकास के निम्नलिखित प्रभाव स्पष्ट देखे जा सकते हैं- सामुदायिक भावना की कमी सम्बन्धों में निर्वैयक्तिकता, समय का मूल्य बढ़ जाना, बीमारियों की संख्या और प्रकारों में वृद्धि, पारिवारिक नियन्त्रण का अभाव, नैतिकता का निम्न स्तर, स्त्री-पुरुषों की जनसंख्या में विषमता अपराधों की संख्या में वृद्धि, सामाजिक विघटन आदि । दूसरी ओर जीवन की सुविधाओं में तथा अवकाश में वृद्धि, आत्मविश्वास में वृद्धि तथा ज्ञान और सांस्कृतिक तत्वों के प्रसार के रूप में प्रौद्योगिकी के अच्छे प्रभाव भी दिखाई पड़ते है ।

क्या औद्योगिक समाज प्रगति की और जा रहा है:

इस प्रकार उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि प्रौद्योगिक विकास से समाज में भारी परिवर्तन होता है । प्रौद्योगिक विकास के साथ सामाजिक संगठन में बराबर परिवर्तन होता जा रहा है । परन्तु क्या इस प्रकार के प्रत्येक परिवर्तन को प्रगति कहा जा सकता है ? क्या आधुनिक औद्योगिक समाज प्रगति की ओर जा रहा है ? यह एक विवादास्पद विषय है ।

प्रौद्योगिक विकास से समाज में अनेक लाभदायक परिवर्तन हुए हैं और जीवन के आराम तथा भोग के साधन बढ़ गये हैं । परन्तु जहां तक मानव सम्बन्धों का प्रश्न है, यह प्रभाव अधिक स्वस्थ नहीं हुआ है । ऑल्डस हक्सले, सोरोकिन, टॉयनबी, श्वाइटजर, बर्दयेव, टॉल्सटॉय, महात्मा गांधी, रस्किन, श्री अरविन्द आदि विश्व के कितने ही मनीषियों और विचारकों ने प्रौद्योगिकी के विकास के दुष्परिणामों का चित्र खींचा है और मानव को उनसे बचने की चेतावनी दी है ।

अतः यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि औद्योगिक समाज इस प्रकार से प्रगति की ओर नहीं बढ़ रहा है । प्रौद्योगिक विकास में अन्धाधुन्ध दौड़ से मौलिक गलतियां होने की संभावना है । विचारवान् मनुष्यों को रुक कर सोचना है कि वे कहां जा रहे हैं और उन्हें कहाँ जाना है । प्रौद्योगिकी एक साधन है । उसको साध्य समझ बैठना महान् भूल है । साध्य क्या है ? इसका पता नीति, दर्शन, धर्म अथवा अनुभव से चलेगा । उसको जान कर उसको प्राप्त करने के लिए प्रौद्योगिकी को साधन रूप में प्रयोग करने से ही प्रौद्योगिकी से लाभ उठाया जा सकेगा ।

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