नए लोक प्रशासन पर निबंध | Essay on New Public Administration in Hindi.

Essay # 1. नवीन लोक प्रशासन का अर्थ (Meaning of New Public Administration):

एक शताब्दी के अल्पकाल में ही लोक प्रशासन जैसे अपेक्षाकृत नए विषय ने जितने परिवर्तन देखे हैं, संभवत: वह अपने आप में उदाहरण है, एक प्रक्रिया के रूप में तो लोक प्रशासन मानव जीवन के उद्‌भव के साथ ही आरंभ हो गया था, किंतु विषय के रूप में यह एक शताब्दी पूर्व ही प्रकाश में आया, 1887 में वुडरो विल्सन के लेख ‘The Study of Administration’ के साथ ही लोक प्रशासन का एक विषय परिवर्तन के रूप में जन्म हुआ तब से लेकर आज तक परिस्थिति के अनुसार लोक प्रशासन में लगातार परिवर्तन होते रहे हैं ।

यदि यह कहा जाए कि परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को ढालना ही लोक-प्रशासन की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता रही है तो अतिशयोक्ति न होगी । एक शताब्दी पूर्व लोक प्रशासन में ‘राजनीति प्रशासन द्विविभाजन’ (Politics Administration Dichotomy) का सूत्रपात किया गया था वहीं वर्तमान में यह ‘कल्याणकारी राज्य’ की ओर केंद्रित हो गया है ।

कल्याणकारी राज्य की धारणा को मूर्तरूप देने के प्रयास में लोक प्रशासन में अनेकानेक नवीन प्रवृत्तियों का उभार हुआ है, इन नवीन प्रवृत्तियों ने परंपरागत लोक प्रशासन में बुनियादी परिवर्तन कर दिए हैं । परिणामत: यह एक नए रूप में उभरा है, इस परिवर्तित लोक प्रशासन को नवीन लोक प्रशासन का नाम दिया गया है ।

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यद्यपि नवीन लोक प्रशासन की यह प्रवृति 1940 से प्रकाश में आई है तथापि इसका उभार बीते तीन दशकों में तेजी से हुआ है । इतने कम समय में ही लोक प्रशासन की यह विधा लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच गई है ।

Essay # 2. नवीन लोक प्रशासन की प्रकृति (Nature of New Public Administration):

विगत तीन दशकों में नवीन लोक प्रशासन ने प्रबंध विचारकों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिवर्तनों का प्रमुख एजेन्ट बना दिया है । यह माना जाने लगा है कि हमारा पारंपरिक लोक प्रशासन इस समय वैध नहीं है ।

इसके नेपथ्य में सर्वप्रथम कारण यह माना जाता है कि पुरातन लोक प्रशासन के सिद्धांत उन तत्वों को पहचानने में विफल रहे हैं जो सार्वजनिक क्षेत्र में प्रभावकारिता व दक्षता के प्रेरक हैं, पुरातन लोक प्रशासन के सिद्धांत थे-मूल्यशून्यता, दक्षता, निष्पक्षता, कार्यकुशलता, जबकि नवीन लोक प्रशासन, नैतिकता उत्तरदायित्व प्रणाली पर बल देता है । यह माना जाने लगा है कि नवीन लोक प्रशासन सामाजिक परिवर्तन का सर्वश्रेष्ठ संवाहक है तथा यह लक्ष्योम्मुखी है ।

जैसा कि फ्रेडरिक्सन का विचार है- ”नवीन लोक प्रशासन कम व्यापक अथवा लोकप्रिय और अपने पूर्वजों की अपेक्षा अधिक सार्वजनिक, कम वर्णात्मक और अधिक परंपरागत एवं आदेशात्मक, कम संरथानोमुख और अधिक मुवक्किल पर प्रभावोम्मुख, कम तटस्थ एवं अधिक मानकीय आदर्श है ।”

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नवीन लोक प्रशासन की विशेषताएं:

नवीन लोक प्रशासन की विशेषताओं को निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत समझा जा सकता है:

1. राजनीति तथा प्रशासन का द्विविभाजन अप्रासंगिक:

प्राचीन लोक प्रशासन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता राजनीति बनाम प्रशासन थी । तत्कालीन लेखकों ने राजनीति तथा प्रशासन को दो ऐसे बिंदुओं के रूप में व्यक्त किया जो एक-दूसरे से पूर्णत: अलग हैं । नवीन लोक प्रशासन के विचारकों ने इस अवधारणा को अब निरस्त कर दिया है ।

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नए विचारकों का मानना है कि राजनीति तथा प्रशासन को अलग-अलग रूप में देखने पर दोनों विधाएं अपूर्ण रहती है तथा समाज के प्रति अपने उतरदायित्व का सही रूप में निर्वहन नहीं कर पाती है । अब यह माना जाता है कि उक्त दोनों विधाएं अभिन्न रूप से जुड़ी हैं ।

यह भी माना जाता है कि दोनों विधाओं की एक-दूसरे पर प्रतिक्रिया होती रहती है । नवीन लोक प्रशासन के एक अन्य प्रमुख विचारक पॉल एप्लबी का विचार है कि राजनीति तथा प्रशासन को अलग-अलग बिंदु मानने पर लोक प्रशासन की स्वीकार्यता तो कम होगी ही साथ ही कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ध्वस्त हो जाएगी । उनका विचार है कि नीति का निर्माण ही लोक प्रशासन है इसलिए यह द्विविभाजन अवास्तविक, अप्रासंगिक व अव्यवहार्य है ।

एक अन्य विचार रॉबर्ट टी, गोलमव्यूस्की तो प्रशासन को राजनीति पर हावी मानते हुए कहते हैं कि प्रशासन महत्वपूर्ण कार्यों में राजनीति को बदल सकता है न कि राजनीति, प्रशासन को । राजनीति और प्रशासन को पृथक् करना संभव नहीं है ।

2. प्रभावोत्पादकता:

पुरातन लोक प्रशासन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक ‘मितव्ययता तथा कार्यकुशलता’ थी, किंतु कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को सार्थक करने के प्रयास में अब लोकप्रिय सरकारों ने मितव्ययता जैसे शब्द को भुला दिया है । अब सरकारें इस दिशा में प्रयासरत् हैं कि कैसे जनता को अधिकाधिक राहत दी जाए ।

समाजशास्त्री उसी सरकार को बेहतर ठहराते हैं जो सामाजिक संवेदनाओं को समझ सके, कहा जाने लगा है कि मितव्ययता का स्थान सामाजिक कार्यकुशलता ने ग्रहण कर लिया है तथा लोक प्रशासन अब कतिपय प्रक्रियाओं व व्यवसायों से निकलकर सामुदायिक प्रक्रियाओं में शामिल हो चुका है ।

लोक प्रशासन को अधिकाधिक प्रभावोम्मुख बनाए जाने के लिए सरकारें अब घाटे का बजट बनाकर भी जनता को लाभ पहुंचाना अपना ध्येय समझने लगी हैं । इसे ही श्रेयस्कर माना जाता है समाज भी इसे ही मान्यता देता है ।

3. मानवीय दृष्टिकोण:

पुरातन लोक प्रशासन में सिद्धांतों का इस तरह बोलबाला था कि सम्पूर्ण तन्त्र में मनुष्य मात्र एक कलपुर्जा समझा जाता था । क्लासिकल सिद्धांत तथा वैज्ञानिक प्रबंधन में मनुष्य को आर्थिक जीव कहा गया और मानवीयता को कोई स्थान नहीं दिया गया ।

नवीन लोक प्रशासन में मनुष्य को मात्र आर्थिक तराजू में नहीं तौला गया है और यह प्रदर्शित करने की चेष्टा की गई है कि अब प्रशासन कार्योम्मुख होने की अपेक्षा मानवोम्मुखी हो । नवीन लोक प्रशासन के उभार के पश्चात् प्रत्येक राजनीतिक प्रशासनिक क्रिया का केंद्र बिंदु मनुष्य बन गया है जो लोक प्रशासन की नवीन विचारधारा को निर्मूल घोषित करती है जिसमें मनुष्य को उत्पादन का यंत्र माना जाता है ।

4. ग्राहक केंद्रित प्रशासन:

नव लोक प्रशासन ग्राहक केंद्रित प्रशासन पर बल देता है । नीग्रो एवं नीग्रो के शब्दों में “लोक सेवाओं का अधिकाधिक प्रभावशाली तथा मानवीय वितरण उसी स्थिति में सार्थक सिद्ध हो सकता है, जबकि ग्राहक केंद्रित प्रशासन के साथ प्रशासन में नौकरशाही को दूर किया जाए ।”

5. एक प्रगतिशील विज्ञान:

पुरातन लोक प्रशासन के लेखकों ने इस विषय को विज्ञान के रूप में स्थापित करने के प्रयास में विभिन्न सिद्धांतो व तकनीकों की खोज की, किंतु नवीन लोक प्रशासन के समर्थक यह मानते हैं कि सिद्धांत व तकनीकों के कारण लोक प्रशासन की मूल आत्मा नष्ट हो जाती है जिसके कारण लोक प्रशासन एक अनपेक्षित दृढ़ता की ओर अग्रसर हो जाता है ।

नवीन लोक प्रशासन अधिकतम स्तर पर लोक प्रशासन का स्वरूप एक प्रगतिशील विज्ञान के रूप में देखते हैं । रॉबर्ट डाहल जैसे लेखक ने तो लोक प्रशासन को विज्ञान विषय मानने पर गंभीर चिंता व्यक्त की है । नवीन लोक प्रशासन के समर्थक मानते हैं कि लोक प्रशासन के अपने शाश्वत अथवा सर्वव्यहार्य सिद्धांत हैं, किंतु कोई सामान्य सिद्धांत नहीं है, जैसा कि बर्नार्ड का मानना है कि पारंपरिक लोक प्रशासन के सिद्धांत नवीन संदर्भों में मुहावरों से कम नहीं हैं ।

नवीन परिप्रेक्ष्य में यह कहा जाता है कि पारंपरिक लोक प्रशासन का कोई सिद्धांत एकल रूप में निरूपित नहीं किया जा सकता । उदाहरण के रूप में ‘आदेश की एकता’ (Unity of Command) को लिया जा सकता है । इस सिद्धांत का मूल यह है कि कोई भी कर्मचारी अपने से वरिष्ठ मात्र एक अधिकारी की आज्ञा का पालन करेगा । वर्तमान संदर्भों में यह हास्यास्पद ही प्रतीत होता है, क्योंकि प्रत्येक कर्मचारी बहुआयामी कार्य करता है और इस परिस्थिति में मात्र एक अधिकारी की आज्ञा मानना प्रशासन में दृढ़ता की स्थिति उत्पन्न करेगा ।

इसी प्रकार पदसोपानिक (Hierarchy) सिद्धांत का भी पूर्णतया पालन नहीं किया जा सकता है । वस्तुस्थिति स्पष्ट हो जाती है कि लोक प्रशासन के अपने कुछ सिद्धांत अवश्य हो सकते हैं, किंतु उसमें पर्याप्त नमनीयता उपस्थित है । लोक प्रशासन के सिद्धांत गणितीय सिद्धांतों की तरह कठोर नहीं है ।

अतएव पुरातन विचारकों की यह परिकल्पना है कि लोक प्रशासन विज्ञान है । नवीन लोक प्रशासन में उक्त महत्वपूर्ण बिंदुओं के दर्शन होते हैं । इन बिंदुओं के आधार पर नवीन लोक प्रशासन की प्रकृति एवं प्रवृत्ति को सहज रूप से समझा जा सकता है ।

नवीन लोक प्रशासन को समाज के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के लिए प्रेरित करती है, नवीन लोक प्रशासन सम्प्रति पी.पी.बी. सिद्धांत पर कार्य कर रहा है, इसे विस्तृत रूप में कार्यक्रम नियोजन, क्रियान्वयन, बजट (Programme, Planning, Budgeting) कहा जाता है, इसी प्रकार नवीन लोक प्रशासन नियोजन पर प्राथमिक दृष्टि केंद्रित करना है ।

नवीन लोक प्रशासन की एक अन्य विशेषता प्रशासनिक प्रयासों की प्रक्रियाओं और संरचनाओं तथा उनके लक्ष्यों के आपसी संबंधों पर अधिक स्पष्ट चिन्तन करना है, नवीन लोक प्रशासन अब अधिकाधिक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक रूख अपनाए हुए है ।

इस प्रयास में नवीन लोक प्रशासन के एजेन्ट सत्ता का अधिकतम विकेंद्रीकरण करने पर बल देते हैं । भारत में पंचायती राज इसी विकेंद्रीकरण का प्रतिफल है । स्थानीय व्यक्तियों को देश की नीति निर्माण संस्था में बनाए रखे जाने का प्रयास नवीन लोक प्रशासन लगातार कर रहा है । नवीन लोक प्रशासन के समर्थक सामाजिक न्याय को मानवीय विकास का पथ प्रदर्शन करने हेतु सर्वोतम वाहक समझते हैं । नवीन लोक प्रशासन में अधिकारियों की निष्पक्षता को भी अनुपयुक्त ठहराया गया है ।

नवीन लोक-प्रशासन का विचार है कि लोक सेवकों को दलगत तटस्थता तो बनाए रखनी चाहिए, किंतु सामाजिक और अन्य कार्यक्रमों को लागू करते हुए उन्हें निष्पक्षता का आवरण हटा देना चाहिए कि वे अपनी स्वेच्छा का प्रयोग समाज में अल्प सुविधाओं वाले समूहों के हितों की रक्षा करने के लिए करें ।

नवीन लोक-प्रशासन इस बात पर भी जोर देता है कि प्रशासनिक अध्ययन करते समय पारदेशीय (International) अध्ययन पर गौर किया जाए, प्रशासन के कार्यों में तभी संपूर्णता आ सकती है जब विभिन्न देशों की प्रशासनिक प्रणालियों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए ।

हाल के वर्षों में नवीन लोक-प्रशासन को और अधिक अभिनव बनाए जाने का प्रयास किया गया है । डेविड रचने तथा टेड गिब्लर की कृति ‘Reinventins Government: How the Entrepreneurial Spirit is Transforming the Public Sector’ में एक और सकारात्मक प्रयास देखने को मिलता है ।

इस पुस्तक में उन्होंने दस सूत्रीय कार्यक्रम का सुझाव दिया है जिसे वे ‘उद्यमकर्ता शासन’ (Entrepreneurial Government) कहते हैं । इसकी विशेषताओं का उल्लेख करते हुए लेखक ने कहा कि उद्यमकर्ता शासन हितों तथा सेवाओं में भिन्न उपलब्धकर्ताओं के मध्य प्रतिस्पर्धा प्रोत्साहित करते हैं ।

इस शासन में अधिकाधिक विकेंद्रीकरण, कल्याणकारी बजट, बाजारीय संरचना पर जोर दिया जाता है । उद्यमकर्ता शासन में कठिनाइयों को पूर्ण आकार लेने की बजाय उसके इलाज के स्थान पर उनके निवारण को महत्व देते हैं ।

इस प्रकार नवीन लोक-प्रशासन का दर्शन परंपरागत सिद्धांतों को बहुत हद तक खारिज करता है । नवीन लोक-प्रशासन के अनेक विचारक इसे नए रूप में एक मौलिक विषय के रूप में प्रस्तुत करते हैं, किंतु कुछ विचारक नवीन लोक-प्रशासन को परंपरागत प्रशासन के संशोधित रूप से और ज्यादा नहीं मानते हैं ।

उदाहरण के लिए कैम्पबेल का तर्क है कि नवीन लोक-प्रशासन की भिन्नता केवल परिभाषा के कारण ही है सहज रूप में यह देखा जा सकता है कि नवीन लोक प्रशासन का विषय मौलिक अध्ययन की पुर्नव्यवस्था पर अधिक बल देता है । उनका यह भी तर्क है कि नवीन लोक-प्रशासन परंपरागत प्रशासन से भिन्न केवल इसलिए है कि यह अन्य युग्मों की अपेक्षा अधिक से अधिक समाज के प्रति संवेदनशील है ।

इस प्रकार एक अन्य विचारक राबर्ट गोलमब्यूक्की का कहना है कि नवीन लोक-प्रशासन शब्दों में क्रांतिवाद का उद्‌भव करता है, किंतु वास्तव में यह पुरातत्व सिद्धांतों व तकनीकों की स्थिति है, लेकिन उक्त विचार पूर्वाग्रह से प्रतीत होते नजर आते हैं ।

नवीन लोक-प्रशासन, की स्थिति को नीग्रो एवं नीग्रो ने अधिक स्पष्टता से व्यक्त किया है कि जब से नवीन लोक-प्रशासन का उद्‌भव हुआ है मूल्यों और नैतिकता के प्रश्न लोक-प्रशासन के मुख्य विषय रहे हैं । महज एक शताब्दी के अल्पकाल में जिस तेजी से लोक-प्रशासन में परिवर्तन होते रहे हैं उसरने प्रशासन व प्रबंधन में नवीनतम प्रवृत्तियों का समावेश होता रहा है ।

राजनीति, प्रशासन द्विविभाजन से लोक-प्रशासन का चलने वाला सिलसिला परिवर्तनों की बाढ़ में सिद्धांतों की खोज, सिद्धांतों का निरस्तीकरण, तुलनात्मक अध्ययन लोक-प्रशासन से लेकर अभिनव उद्यमकर्ता शासन तक आ पहुंचा है ।

कहा जा सकता है कि आज समाज की सरकार को लोक-प्रशासन जिस तरह प्रभावित कर रहा है वह आगामी समय का संकेत देता है कि एक विषय के रूप में लोक-प्रशासन अन्य समस्त विषयों को काफी पीछे छोड़ देगा ।

Essay # 3. नवीन लोक-प्रशासन की विकास यात्रा (Development of New Public Administration):

नवीन लोक प्रशासन को समझने के संदर्भ में परंपरागत लोक प्रशासन का मोटे तौर पर अवलोकन करना उचित ही होगा, 1887 में जब लोक प्रशासन का उदय हुआ तो तत्कालीन लेखकों तथा विचारकों के सम्मुख यह चुनौती थी कि किस तरह लोक प्रशासन को अन्य विषयों की छाया से मुक्त रखा जाए, चूंकि लोक प्रशासन व राजनीतिशास्त्र में अच्छा सामंजस्य रहा है ।

इसलिए यह प्रयास किया कि राजनीति व लोक प्रशासन का तालमेल न होने पाये । इस हेतु तत्कालीन विचारकों यथा- वुडरो विल्सन, फ्रेंक जे. गुडनो, एल.डी. व्हाइट आदि ने राजनीति प्रशासन द्विविभाजन पर बल दिया । ऐसे प्रयास 1927 तक होते रहे, इस समय डब्ल्यू. एफ. विलोबी की पुस्तक ‘Principles of Public Administration’ प्रकाशित हुई ।

एक विषय के रूप में लोक प्रशासन को स्थापित करने की सफलता के पश्चात् लोक प्रशासन को विज्ञान विषय का दर्जा दिलाने का प्रयास किया गया और यह कोशिश की गई कि लोक प्रशासन में कुछ निश्चित सिद्धांतों का अन्वेषण किया जाए ।

परिणामत: पोस्डकॉर्ब, आदेश की एकता, पद सोपान, संचार, केंद्रीयकरण, कार्यविभाजन, मितव्ययता, कार्यकुशलता जैसे सिद्धांतों की खोज हुई, सिद्धांतों के प्रतिपादन में फेयोल, उर्विक, एम.पी. फॉलेट, पिफ्नर, प्रेस्थस, मूनी, रैले, लूथर गुलिक, एच. साइमन आदि ने अपना योगदान किया ।

किंतु मात्र एक दशक के अल्पकाल में ही लोक प्रशासन के उक्त सिद्धांत हारचारम्द स्थिति के शिकार हो गए । 1938 में चेस्टर बनार्ड की पुस्तक ‘The Function of Executive’ में बताया गया कि लोक प्रशासन के सिद्धांत मुहावरों में कम नहीं हैं ।

इस पुस्तक में कहा गया कि प्रशासन में किसी सिद्धांत का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि निश्चित सिद्धांतों की उपस्थिति किसी विषय को ‘विज्ञान’ की श्रेणी में ला देती है, जबकि लोक प्रशासन विज्ञान तो हो ही नहीं सकता सिद्धांतों की निश्चितता को मान्यता नहीं मिल सकी, क्योंकि सभी में कोई भी स्पष्ट रूप से लागू नहीं हो सकता था ।

1948 में इन तथाकथित सिद्धांतवादियों की जमकर धज्जियां उड़ाई गईं, किंतु 1948 के पश्चात् लोक प्रशासन विषय को गंभीर चुनौती का सामना करना पड़ा, क्योंकि विचारकों ने लोक प्रशासन में सिद्धांतों का अभाव तो घोषित कर दिया था, किंतु नया स्वरूप क्या हो यह घोषित नहीं किया । असमंजस्य का यह काल जिसे लोक प्रशासन विषय के संदर्भ में पहचान की ‘संकट का काल’ कहा जाता है जो 1968 तक चलता रहा ।

1968 के पश्चात् लोक प्रशासन के क्षेत्र में नवीन विचारों का सूत्रपात हुआ । सातवें दशक के अंतराल में उभरे विचारों को ही नवीन लोक प्रशासन की संज्ञा दी गई । वस्तुत: नव लोक प्रशासन का आरंभ 1967 के हन्नी प्रतिवेदन से समझा जा सकता है । प्रो. जॉन सी. हन्नी का प्रतिवेदन अमरीका में ‘लोक-प्रशासन के स्वतंत्र विषय के रूप में अध्ययन की संभावनाओं’ पर आधारित था ।

इस प्रतिवेदन में लोक प्रशासन को विस्तृत एवं व्यापक बनाने पर जोर दिया गया । इस प्रतिवेदन का बड़े पैमाने पर स्वागत किया गया, किंतु फिर भी यह कहा जा सकता है कि लोक प्रशासन को तत्कालीन सामाजिक समस्याओं के साथ सीधा संबंध स्थापित करने के लिए इस प्रतिवेदन में कोई पर्याप्त दृष्टिकोण नहीं सुझाया गया था ।

इस प्रतिवेदन के पश्चात् अमरीका के ‘फिलाडेल्फिया’ में इसी विषय पर सम्मेलन आयोजित हुआ, सम्मेलन में लोक प्रशासन के दर्शन पर जबर्दस्त वाद-विवाद हुआ, कुछ चिन्तकों ने लोक प्रशासन को महज बौद्धिक चिंतन का केंद्र माना तो दूसरों ने उसे मात्र प्रक्रिया माना ।

कुछ चितंकों ने इसे प्रशासन तो कुछ ने इसे समाज का अंग माना, वस्तुस्थिति यह रही कि इस सम्मेलन में भी लोक प्रशासन का नवीन स्वरूप निर्धारित नहीं किया जा सका । 1968 में आयोजित मिन्नोब्रुक कॉन्फ़्रेंस ने लोक प्रशासन की प्रकृति में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया । यह सम्मेलन नवीन लोक प्रशासन को स्थापित करने में मील का पत्थर सिद्ध हुआ ।

यह सम्मेलन विभिन्न दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण रहा । प्रथम तो यह कि इस सम्मेलन में वे समस्त बिंदु वाद-विवाद की परिधि में आए जो पिछले दो सम्मेलनों में शामिल नहीं किए गए थे । द्वितीय यह कि इस सम्मेलन में युवा विचारकों का प्रतिनिधित्व रहा । मिन्नोब्रुक सम्मेलन का निहितार्थ यह हुआ कि परंपरागत लोक प्रशासन के स्थान पर नवीन लोक प्रशासन का नाम प्रकाश में आया ।

सम्मेलन के सार तत्वों को समेटे हुए 1971 में फ्रेंक मेरीनी कृत पुस्तक ‘Toward a New Public Administration Minnouebrook Perspective’ के प्रकाशन के साथ ही नवीन लोक-प्रशासन को मान्यता प्राप्त हुई । इसी समय ड्‌वाइट वाल्डो की कृति ‘Public Administration in a Time of Turbulence’ ने नवीन लोक प्रशासन को और सशक्त बना दिया । उक्त दोनों पुस्तकों में नवीन लोक प्रशासन को सामाजिक समस्याओं के प्रति संवेदनशील माना गया है ।

सन् 1980 व 1990 के दौरान विकसित राष्ट्रों में सार्वजनिक क्षेत्र प्रबंधन में दृढ़ता तथा अधिकारीतंत्रीय प्रवृत्ति से नमनीयता की ओर मुड़ते देखा गया । इसके अलावा विभिन्न राष्ट्रों में आर्थिक सामाजिक राजनीति विकेंद्रीकरण की चाह में लोक प्रशासन को सरकार व जनता के मध्य नवीन संबंध स्थापित करने पर बल दिया गया है ।

इन तथ्यों का उल्लेख 1980 में प्रकाशित एच. जार्ज फ्रेडरिक्सन की पुस्तक ‘Public Administration Development and Discipline’ में देखा जा सकता है । यह पुस्तक नवीन लोक प्रशासन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ है । 1990 के दशक में नवीन लोक प्रशासन में भी और ज्यादा अभिनव प्रयोग हुए ।

इस दशक में एक नए मॉडल का आविर्भाव हुआ है, प्रसिद्ध भारतीय चिंतक मोहित भट्‌टाचार्य का विचार है कि इस मॉडल को प्रबंधीकरण, नवीन लोक प्रबंधन, बाजार आधारित लोक प्रशासन, उद्यमकर्ता शासन आदि का नाम दिया जा सकता है, उन्हीं के शब्दों में यदि कहा जाए कि तीन ‘E’ को क्रियान्वित करने का प्रयास किया जा रहा है तो गलत न होगा । ये तीन ‘E’ है- दक्षता (Efficiency), अर्थव्यवस्था (Economy) तथा प्रभावकारिता (Effectiveness) ।

स्पष्टत: यह देखा जा सकता है कि इन तीन दशकों में लोक प्रशासन अपने नवीन रूप में लोकप्रिय हो चला है ।