ब्रिटिश काल में भारत में गरीबी | India’s Poverty during British Era!

प्राचीन काल से ही भारत साधन सम्पन्न देश रहा है उसकी सम्पन्नता प्रकृति में मौजूद पर्याप्त संसाधनों के साथ कृषि पशुपालन एवं तकनीकि का कुशलता से प्रयोग, तीनों ओर से पहाड़ों एवं एक ओर से नदी से घिरे होने के कारण इसने विदेशी आक्रमणकारियों को यहाँ प्रवेश करने से रोका परन्तु भारत की सम्पन्नता देखकर विदेशी अपने आप को रोक नहीं पायें और उन्होंने भारत में प्रवेश किया और आर्थिक दोहन किया ।

भारत में प्रचलित मुद्रा उसकी सम्पन्नता को व्यक्त करती है । गुप्त शासकों के समय भारत में सर्वाधिक सोने, चांदी के सिक्के चलाए गये परन्तु कुषाणों के समय सर्वाधिक शुद्ध सोने के सिक्के चलाये गये जो भारत की मौद्रिक सम्पन्नता को दर्शाते हैं ।

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मध्यकाल में मुस्लिम आक्रमणकारीयों ने भी भारत का आर्थिक शोषण किया परन्तु ब्रिटिश काल में भारत सम्पन्नता से विपन्नता की ओर अग्रसर हुआ जिससे भारत में गरीबी फैली धन की निकासी ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । ब्रिटिश काल में भारत की गरीबी भारतीय धन की निकासी के कारण हुई । भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा ।

भारतीय पूजी एवं अन्य वस्तुओं का इंग्लैण्ड जाने से भारतीयों को कुछ प्राप्त नहीं हुआ । ऐसा नहीं है कि इससे पहले पूर्व शासकों द्वारा भारत का आर्थिक शोषण नहीं किया गया, किया गया परन्तु तब भारत का धन भारत में ही रहा । अंग्रेजों की उपेक्षित नीति एवज भारतीय की निरंतर बढ़ती गरीबी के कारण दादा भाई नौरोजी ने कहा कि अग्रज भारत का आर्थिक शोषण कर रहे हे ।

उन्होंने अपनी पुस्टाक “भारत में गरीबी और गैर-ब्रिटिश शासन” में भारत के आर्थिक एवं राजनीतिक दोनों पक्षों को प्रस्तुत किया है । अपने देशवासियों के कष्टों एवं राजनीतिक दासता की बुराइयों को दुनिया के सामने प्रस्तुत करना उनका मुख्य लक्ष्य था जिससे भारत की गरीबी को समाज किया जा सकें एव धन निकासी रोकी जा सकें । भारत में सम्पत्ति का ह्रास की उन्होंने व्याख्या की जिससे भारत में बढ़ती गरीबी का उन्मूलन किया जा सकें ।

दादा भाई नौरोजी के अनुसार- “धन निष्कासन दो प्रकार से होता है प्रथम भारत और यूरोप में होने वाली अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु तथा इंग्लैण्ड में होने वाले व्यय हेतु वे इस धन को भेजते हैं । इंग्लैण्ड में दिया जाने वाला पेंशन व वेतन भी इसका कारण है द्वितीय निष्कासन उन यूरोपवासियों द्वारा जो स्वयं ब्रिटिश शासन तंत्र के अधिकारी नहीं है, धन भारत के बाहर भेजने से होता है । इस निष्कासन से भारत अपनी पूजी निर्माण से वंचित होता है ।

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अंग्रेज उसी पूजी को जिसका निष्कासन उन्होंने भारत में ही किया है, पुन: लाते है और समस्त व्यापार तथा महत्त्वपूर्ण उद्योगों पर अपना एकछत्र अधिकार स्थापित कर लेते हे । इस प्रकार वे भारत का और अधिक शोषण कर पूजी का निष्कासन करते है । इस सारे पाप का मूल अधिकारिक कारण निष्कासन है ।

अंग्रेज ऐसे दुष्ट साहूकार थे, जो धन प्राप्त करने के लिये, बच्चों की भूख मिटाने के लिए रखे गये अनाज को भी हड़पने में कोई संकोच नहीं करते थे । उन्होंनें आर्थिक शोषण की क्रूर नीति का पालन किया, कृषि से होने वाले सम्पूर्ण लाभ अपने पास सुरक्षित रखे । अधिकाधिक लाभ प्राप्त करने के लिये उन्होंने स्थायी बंदोबस्त, रैयतवाड़ी, महलवाड़ी आदि भूमि अधिग्रहण की पद्धतियाँ अपनाई जिससे किसानों को नुकसान हुआ और वह अधिक गरीब होते चले गये ।

भारतेन्दु हरिशचन्द्र भी भारत की गरीबी में भारतीय “धन की लूट” को प्रमुखता से प्रस्तुत करते है । “लूट” को उन्होंनें विदेशी शासन की मूल बुराई और विदेशी शासन के अस्तित्व का मूल कारण बताया ओर व्यक्त किया ।

कल के कल बल छलन सों छले इते के लोग,

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नित नित धन सों घटत है बढत है दुख सोग ।।

मारकीन मलमल बिना चलत कछू नहिं काम

परेदशी जुलहान के मानहु भये गुलाम ।।

ब्रिटेन और भारत के बीच शोषक और शोषित के संबंध को उन्होंने “मान्वेस्टर” और “लूट” प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया है । साथ ही इसकी कठोर यर्थारता को “मुकरी” (मुकरी- एक परम्परागत काव्य विधा है जिसमें चार पंक्तियाँ होती हैं) में व्यक्त किया है । और लूट की व्याख्या की है ।

भीतर भीतर सब रस चूसै ।

हंसि हंसि के तन-मन-धन मूसै ।

जाहिर बातन में अति तेज ।

क्यों सखि साजन नहिं अंगरेज ।

भारतीय धन निकासी से औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर में गिरावट आई गुलामी एवं शोषण की इस व्यवस्था ने सम्पूर्ण भारतीय अर्थ व्यवस्था को अव्यवस्थित कर दिया । अतिरिक्त निर्यात के साथ-साथ होम चार्जेस लागू कर भारतीय सम्पत्ति इंग्लैण्ड जाने लगी ।

अन्य खर्चो के अतिरिक्त इन चार्जेस में भारतीय रुण पर ब्याज भी था । 1858 तक भारतीय ण 695 लाख हो गया था, परन्तु भारतीयों को इसके एवज में कुछ भी प्रान्त नहीं हुआ 1757-1857 के बीच भारतीय सम्पत्ति अनुचित रूप से इंग्लैण्ड पहुंचाई जाने लगी जिससे भारतीय और गरीब होते चले गये ।

लारेंस सुलिवन कोर्ट ऑफ डायरेक्टरर्स के डिप्टी चेयरमेन के अनुसार -हमारी व्यवस्था बहुत कुछ स्पंज जैसी है, जो गंगा तट से सारी अच्छी वस्तुओं को सोखकर टेम्स के किनारे निचौड़ आती है । ब्रिटिशकालीन भारत की आर्थिक दशा का वर्णन William Digby ने अपनी पुस्तक “Prosperous British India”, दादा भाई नौरोजी ने “Poverty and Un-British Rule in India” and R.C. Dutt uss “Economic History of India” में किया है ।

William Digby ने ब्रिटिश दावे का उपहास उड़ाया कि ईश्वर की आज्ञा से भारत उनके पास धरोहर के रूप में रखा हुआ है । जबकि भारत गरीब होता जा रहा था । अंग्रेजी अर्थव्यवस्था इतनी उन्नत हो गयी थी कि तैयार माल को बाहर भेजने के बाद भी उनके पास लगाने के लिए पूंजी बची थी ।

दादा भाई नौरोजी, जी.वी. जोशी, डी.ई. वाचा ने भारत से हुए धन के निष्कासन पर अपना अनुमान लगाया है । दादा भाई नौरोजी ने अंग्रेजी राज्य के आरंभ से लेकर 1865-1866 तक समस्त निकास का अनुमान डेढ सौ करोड़ पौण्ड लगाया । 1901 में वाचा ने 1860-1900 के बीच निकासी का वार्षिक औसत 30-40 करोड़ रूपया के बीच बताया ।

आर.सी. दत्त ने इस अनुमान को 2 करोड़ 20 लाख पौण्ड प्रतिवर्ष बताया । दादा भाई नौरोजी ने धन के निकास को ‘अनिष्ठो का अनिष्ठ’ की संघ दी और इसे भारत की गरीबी का प्रमुख कारण बताया उनके अनुसार इंग्लैंण्ड भारत का खून चूसकर उसे समाप्त समाज कर रहा है ।

उन्होंने 1905 ई॰ में सुन्दरलेण्ड को एक पत्र में कहा था कि “भारत की दशा बहुत खराब है, ब्रिटेन और भारत में स्वामी और दास की स्थिति नहीं है, यह उससे भी गिरी हुई है । यह एक ऐसे लूटे हुए राष्ट्र की दशा है जहाँ लुटेरा लगातार लूट रहा है और फिर साफ बचकर निकल जाता है ।”

दादा भाई नौरोजी ने भारतीय गरीबी का कारण धन निकासी ही कहा था । उनके अनुसार “जनता की भीषण गरीबी और दयनीय दशा का मुख्य कारण विदेशियों को भारतीय शासन में असाधारण रूप से नौकरी देना, देश के भौतिक साधनों की हानि और धन निर्गम था । यह जीवन व मृत्यु का सवाल है, इस बुराई को हटा दीजिए जिससे भारत प्रत्येक दशा में समृद्ध हो जायेगा ।

महादेव गोविन्द रानाडे के अनुसार “राष्ट्रीय पूंजी का एक तिहाई हिस्सा किसी न किसी रूप में ब्रिटिश शासन द्वारा भारत से बाहर ले जाया जाता है ।”  आर.सी.दत्त ने अपनी पुस्तक Economics History of India में धन निकासी विषय पर कुछ इस प्रकार कहा है कि “भारतीय राजाओं द्वारा धन लेना तो सूर्य द्वारा भूमि से पानी लेने के समान था जो कि पुन: वर्षा के रूप में भूमि की उर्वरता देने के लिए वापिस आता था, पर अंग्रेजों द्वारा लिया गया कर फिर भारत में वर्षा न करके इंग्लेण्ड में ही वर्षा करता था क्योंकि उन्हें पूर्ण विश्वास था कि यदि भारत की गरीबी समाज करना है तो भारत का जो अविरल धन इंग्लेण्ड में बह रहा है उसे बहने से रोकना होगा और यह धन तभी रूक सकता है जब भारतीय जनता में राष्ट्रवादी भावना जागृत हो ।

“इस प्रकार सोने की चिडिया कहलाने वाला देश अब सोना नहीं लोहा बन रहा था और यह लोहा ऐसा नहीं था कि इसमें जंग लग रही थी बल्कि यह लोहा राष्ट्रवादी विचारों से प्रेरित होकर क्रांति की ओर अग्रसर हो रहा था जिसका मुख्य उद्देश्य अंग्रेजी शासन को समाप्त करना था जिससे भारत में सुख समृद्धि और शांति आए और गरीबी का नामों निशान न रहे । अंतत: 15 अगस्त, 1947 को भारत आजाद हुआ और ब्रिटिशकलीन भारत की गरीबी व धन निष्कासन से उसे मुक्ति मिली ।

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