जैन धर्म पर निबंध | Essay on Jainism in Hindi. Here is an essay on ‘Jainism’ for class 8, 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Jainism’ especially written for school and college students in Hindi language.

जैन धर्म पर निबंध | Essay on Jainism


Essay Contents:

  1. जैन धर्म के उद्‌भव के कारण (Causes of Emergence of Jainism)
  2. वर्धमान महावीर और जैन संप्रदाय (Vardhaman Mahavir and Jain Community)
  3. जैन धर्म के सिद्धांत (Principles of Jainism)
  4. जैन धर्म का प्रसार  (The Spread of Jainism)
  5. जैन धर्म का योगदान  (Contribution of Jainism)

# 1. जैन धर्म के उद्‌भव के कारण (Causes of Emergence of Jainism):

ईसा-पूर्व छठी सदी के उत्तरार्द्ध में मध्य गंगा के मैदानों में अनेक धार्मिक संप्रदायों का उदय हुआ । इस युग के करीब 62 धार्मिक संप्रदाय ज्ञात हैं । इनमें से कई संप्रदाय पूर्वोत्तर भारत में रहने वाले विभिन्न समुदायों में प्रचलित धार्मिक प्रथाओं और अनुष्ठान-विधियों पर आधारित थे । इनमें जैन संप्रदाय और बौद्ध संप्रदाय सबसे प्रमुख थे । शक्तिशाली धार्मिक सुधार आंदोलनों के रूप में इनका उत्थान हुआ ।

वैदिकोत्तर काल में समाज स्पष्टतः चार वर्णों में विभाजित था-ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र । हर वर्ण के कर्तव्य अलग-अलग निर्धारित थे और इस पर जोर दिया जाता था कि वर्ण जन्ममूलक है और दो उच्च वर्णों को कुछ विशेषाधिकार दिए गए ।

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ब्राह्मण जिन्हें पुरोहितों और शिक्षकों का कर्त्तव्य सौंपा गया था समाज में अपना स्थान सबसे ऊँचा होने का दावा करते थे । वे कई विशेषाधिकारों के दावेदार थे जैसे दान लेना, करों से छुटकारा दंडों की माफी आदि । उत्तर वैदिक ग्रंथों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जहाँ ब्राह्मणों ने ऐसे अधिकारों का लाभ उठाया । वर्णक्रम में क्षत्रियों का स्थान दूसरा था ।

वे युद्ध करते थे शासन करते थे और किसानों से उगाहे गए करों पर जीते थे । वैश्य खेती पशुपालन और व्यापार करते थे और ये ही मुख्य करदाता थे, यद्यपि इन्हें दो उच्च वर्णों के साथ द्विज नामक समूह में स्थान मिला था । द्विज को जनेऊ पहनने और वेद पढ़ने का अधिकार था पर शूद्र को इससे वंचित रखा गया था ।

शूद्रों का कर्त्तव्य ऊपर के तीनों वर्णों की सेवा करना था और स्त्रियों की भांति उन्हें भी वेद पढ़ने के लिए अधिकार से अलग रखा गया था । वैदिकोत्तर काल में वे गृहदास, कृषिदास, शिल्पी और मजदूर के रूप में दिखाई देते हैं ।

वे स्वभाव से ही क्रूरकर्मा लोभी और चोर कहे गए हैं और उनमें से कुछ अस्पृश्य भी माने जाते थे । वर्णव्यवस्था में जो जितने उँचे वर्ण का होता था वह उतना ही शुद्ध और सुविधाधिकारी समझा जाता था । अपराधी जितने ही नीच वर्ण का होता उसके लिए सजा उतनी ही अधिक कठोर होती थी ।

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यह स्वाभाविक ही था कि इस तरह के वर्ण विभाजन वाले समाज में तनाव पैदा होता और वैश्यों और शूद्रों में इसकी कैसी प्रतिक्रिया थी यह जानने का कोई साधन नहीं है । परंतु क्षत्रिय लोग, जो शासक के रूप में काम करते थे ब्राह्मणों के धर्म विषयक प्रभुत्व पर प्रबल आपत्ति करते थे और लगता है कि उन्होंने वर्णव्यवस्था को जन्ममूलक मानने के विरुद्ध आंदोलन छेड़ दिया था ।

विविध विशेषाधिकारों का दावा करने वाले पुरोहितों या ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के विरुद्ध क्षत्रियों का खड़ा होना नए धर्मों के उद्‌भव का अन्यतम कारण हुआ । जैन धर्म के संस्थापक वर्धमान महावीर और बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध दोनों क्षत्रिय थे और दोनों ने ब्राह्मणों की मान्यता को चुनौती दी ।

परंतु इन धर्मों के उद्‌भव का यथार्थ कारण है पूर्वोत्तर भारत में नई कृषिमूलक अर्थव्यवस्था का विस्तार । पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरी एवं दक्षिणी बिहार सहित पूर्वोत्तर भारत में वर्षा की दर लगभग 100 सेंटीमीटर है ।

बड़े पैमाने पर बस्तियाँ स्थापित होने से पहले यहाँ घने जंगल थे । इन घने जंगलों को लोहे की कुल्हाड़ियों के बिना साफ कर पाना संभव नहीं था । यद्यपि 600 ई॰ पू॰ के पहले भी इस क्षेत्र में लोग रहते थे तथापि वे पत्थर और तांबे के औजारों का इस्तेमाल करते थे ।

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वे नदीतट अथवा नदी सगंम के समीप के क्षेत्रों में बड़ी कठिनाई का जीवन बिताते थे । 600 ई॰ पू॰ के आसपास जब इधर लोहे का इस्तेमाल होने लगा मध्य गंगा के मैदानों में लोग भारी संख्या में बसने लगे । इस क्षेत्र की मिट्‌टी में नमी अधिक होने के कारण पूर्वकाल के लोहे के बहुत-से औजार तो बच नहीं सके फिर भी कुछेक कुल्हाड़ियाँ लगभग 600-500 ई॰ पू॰ के स्तर से निकली हैं ।

लोहे के औजारों के इस्तेमाल की बदौलत जंगलों की सफाई कृषि और बड़ी-बड़ी बस्तियों की स्थापना संभव हुई । लोहे के फाल वाले हलों पर आधारित कृषिमूलक अर्थव्यवस्था में बैलों का इस्तेमाल जरूरी था पर पशुपालन के बिना बैल आएँ कहाँ से । दूसरी ओर वैदिक कर्मकांड के अनुसार यज्ञों में पशु अंधाधुंध मारे जाने लगे ।

असंख्य यज्ञों में बछड़ों और साँड़ों के लगातार मारे जाते रहने से पशुधन क्षीण होता गया । यह कृषि की प्रगति में बाधक सिद्ध हुआ । मगध के दक्षिणी और पूर्वी छोरों पर बसे कबायली लोग भी पशुओं को मार-मार कर खाते गए लेकिन यदि इस नई कृषिमूलक अर्थव्यवस्था को चलाना था तो इस पशुवध को रोकना आवश्यक ही था ।

इस काल में पूर्वोत्तर भारत में अनेक नगरों की स्थापना हुई । उदाहरणार्थ कौशांबी (प्रयाग के समीप), कुशीनगर (जिला देवरिया, उत्तर प्रदेश), वाराणसी वैशाली (इसी नाम का नवस्थापित जिला उत्तर बिहार), चिराँद (सारन जिला) और राजगीर (पटना से लगभग 100 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व) ।

अन्यान्य नगरों के अतिरिक्त इन नगरों में बहुत-से शिल्पी और व्यापारी रहते थे जिन्होंने सर्वप्रथम सिक्के चलाए । सबसे पुराने सिक्के ईसा-पूर्व पाँचवीं सदी के हैं और वे पंचमार्क्ड या आहत सिक्के कहलाते हैं । आरंभ में उनका प्रचलन पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में हुआ ।

स्वभावतः सिक्कों के प्रचलन से वाणिज्य-व्यापार बढ़ा और उससे वैश्यों का महत्व बढ़ा । ब्राह्मण-प्रधान समाज में वैश्यों का स्थान तृतीय कोटि में था प्रथम और द्वितीय कोटियों में क्रमश: ब्राह्मण और क्षत्रिय आते थे । स्वभावतः वे ऐसे किसी धर्म की खोज में थे जहाँ उनकी सामाजिक स्थिति सधरे ।

क्षत्रियों के अतिरिक्त वैश्यों ने महावीर और गौतम बुद्ध दोनों की उदारतापूर्वक सहायता की । वणिकों ने जो संस्कृति कहलाते थे गौतम बुद्ध और उनके शिष्यों को प्रचुर दान दिए । इसके कई कारण थे । पहला यह कि जैन और बौद्ध धर्म की आरंभिक अवस्था में तत्कालीन वर्णव्यवस्था को कोई महत्व नहीं दिया गया ।

दूसरे वे अहिंसा का उपदेश देते थे जिससे विभिन्न राजाओं के बीच होने वाले युद्धों का अंत हो सकता था और उसके फलस्वरूप वाणिज्य-व्यापार में उन्नति हो सकती थी ।

तीसरे ब्राह्मणों की कानून संबंधी पुस्तकों में जो धर्मसूत्र कहलाती थी, सूद पर धन लगाने के कारोबार को निंदनीय समझा जाता था और सूद पर जीने वाले को अधम कहा जाता था । अतः जो वैश्य वाणिज्य-व्यापार में वृद्धि होने के कारण महाजनी करते थे वे आदर नहीं पाते थे और अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाना चाहते थे । दूसरी ओर, तरह-तरह की निजी संपत्ति के संचय के विरुद्ध भी कड़ी प्रतिक्रिया थी । पुराने विचार के लोग सिक्कों को जो अवश्य ही चांदी और तांबे के होते थे इस्तेमाल में लाना या जमा करना पसंद नहीं करते थे ।

वे लोग नए-नए ढंग के निवासों और परिधानों से नई परिवहन प्रणालियों से परहेज करते थे तथा युद्ध और हिंसा से घृणा करते थे । संपत्ति के नए-नए प्रकारों से समाज में असमानता पनपी । इसके कारण आम लोगों का जीवन दुख-दर्द से भर गया था । इसलिए सामान्य लोग कामना करते थे कि आदिम जीवन लौट आए ।

वे फिर उस संन्यास के आदर्श की ओर जाना चाहते थे जिसमें संपत्ति के नए-नए प्रकारों और जीवन की नई पद्धति का अभाव था । बौद्ध और जैन दोनों संप्रदाय सरल शुद्ध और संयमित जीवन के पक्षधर थे । बौद्ध और जैन दोनों भिक्षुओं को आदेश था कि वे जीवन में विलास की वस्तुओं का उपभोग नहीं करें । उन्हें सोना और चांदी छूना मना था । उन्हें अपने दाताओं से उतना ही ग्रहण करना था जितने से उनकी प्राण-रक्षा हो । इसलिए उन्होंने गंगा घाटी के नए जीवन में विकसित भौतिक सुख-सुविधाओं का विरोध किया ।

दूसरे शब्दों में ईसा-पूर्व छठी-पाँचवीं सदी में मध्य गंगा के मैदान में हम भौतिक जीवन में हुए परिवर्तनों के विरुद्ध उसी प्रकार की प्रतिक्रिया देखते हैं जैसी प्रतिक्रिया आधुनिक काल में औद्योगिक क्रांति से आए परिवर्तनों के विरुद्ध देख रहे हैं । औद्योगिक क्रांति ने जिस प्रकार बहुत लोगों के मन में यंत्र-पूर्व युग के जीवन में लौट जाने की चाह जगाई है, उसी प्रकार अतीत के लोग भी लौह युग के पूर्व की जिंदगी में लौट जाना चाहते थे ।


# 2. वर्धमान महावीर और जैन संप्रदाय (Vardhaman Mahavir and Jain Community):

जैन धर्मावलंबियों का विश्वास है कि उनके सबसे महान धर्मोपदेष्टा महावीर के पहले तेईस और आचार्य हुए हैं जो तीर्थंकर कहलाते थे । यदि महावीर को अंतिम या चौबीसवाँ तीर्थंकर मानें तो जैन धर्म का उद्‌भव काल ईसा-पूर्व नवीं सदी ठहरता है । कुछ जैनियों का विश्वास है कि ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर थे और जैन धर्म के शिक्षक थे । उनका संबंध अयोध्या से था जो ई॰ पू॰ 500 में आबाद हुआ ।

आरंभ के अधि कतर तीर्थंकर अर्थात् पंद्रहवें तीर्थंकर तक पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में उत्पन्न बताए गए हैं इसलिए उनकी ऐतिहासिकता नितांत संदिग्ध है । मध्य गंगा के मैदान का कोई भी भाग ईसा-पूर्व छठी सदी से पहले ठीक से आबाद नहीं हुआ था ।

स्पष्ट है कि इन तीर्थंकरों की, जो अधिकतर मध्य गंगा के मैदान में उत्पन्न हुए और जिन्होंने बिहार में निर्वाण प्राप्त किया मिथक कथा जैन संप्रदाय की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए गढ़ ली गई है । जैन धर्म के प्राचीनतम सिद्धांतों के उपदेष्टा तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ माने जाते हैं जो वाराणसी के निवासी थे । वे राज्य सुख को छोड़ संन्यासी हो गए किंतु यथार्थ में जैन धर्म की स्थापना उनके आध्यात्मिक शिष्य वर्धमान महावीर ने की ।

महान सुधारक वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध का ठीक-ठीक समय निश्चित करना कठिन है । एक परंपरा के अनुसार वर्धमान महावीर का जन्म 540 ई॰ पू॰ में वैशाली के पास किसी गाँव में हुआ । वैशाली की पहचान उत्तर बिहार में इसी नाम के नवस्थापित जिले में अवस्थित बसाढ़ से की गई है ।

उनके पिता सिद्धार्थ क्षत्रिय कुल के प्रधान थे । उनकी माता का नाम त्रिशला था जो बिंबिसार के ससुर लिच्छवि नरेश चेतक की बहन थी । इस प्रकार महावीर के परिवार का संबंध मगध के राजपरिवार से था । इस संबंध के कारण अपने धर्म प्रसार के क्रम में उन्हें राजाओं और राजसचिवों के साथ संपर्क करना आसान हुआ ।

आरंभ में महावीर गार्हस्थ जीवन में थे किंतु सत्य की खोज में वे 30 वर्ष की अवस्था में सांसारिक जीवन का परित्याग करके यती (संन्यासी) हो गए । 12 वर्षों तक वे जहाँ-तहाँ भटकते रहे । वे एक गाँव में एक दिन से अधिक और एक शहर में पाँच दिन से अधिक न टिकते थे ।

कहा जाता है कि अपनी बारह साल की लंबी यात्रा के दौरान उन्होंने एक बार भी अपने वस्त्र नहीं बदले किंतु जब 42 वर्ष की अवस्था में उन्हें कैवल्य प्राप्त हो गया तो उन्होंने वस्त्र का एकदम परित्याग कर दिया । कैवल्य द्वारा उन्होंने सुख-दुख पर विजय प्राप्त की ।

इसी विजय के कारण वे महावीर अर्थात् महान शूर, या जिन अर्थात् विजेता कहलाए और उनके अनुयायी जैन कहलाते हैं । कोसल, मगध, मिथिला, चंपा आदि प्रदेशों में घूम-घूम कर वे अपने धर्म का प्रचार 30 वर्षों तक करते रहे । उनका निर्वाण 468 ई॰ पू॰ में बहत्तर साल की उम्र में आज के राजगीर के समीप पावापुरी में हुआ । दूसरी परंपरा के अनुसार उनका देहांत 527 ई॰ पू॰ में हुआ ।

परंतु पुरातात्त्विक साक्ष्य के आधार पर उन्हें निश्चित रूप से छठी शताब्दी ई॰ पू॰ में नहीं रखा जा सकता है जिन नगरों और अन्य वासस्थानों से उनका संबंध था उनका उदय 500 ई॰ पू॰ तक नहीं हुआ था ।


Essay # 3. जैन धर्म के सिद्धांत (Principles of Jainism):

जैन धर्म के पांच व्रत हैं:

(1) अहिंसा या हिंसा नहीं करना,

(2) अमृषा या झूठ न बोलना,

(3) अचौर्य या चोरी नहीं करना,

(4) अपरिग्रह या संपत्ति अर्जित नहीं करना और

(5) ब्रह्मचर्य या इंद्रिय निग्रह करना ।

कहा जाता है कि इनमें चार व्रत पहले से चले आ रहे थे महावीर ने केवल पाँचवाँ व्रत जोड़ा । जैन धर्म में अहिंसा या किसी प्राणी को न सताने के व्रत को सबसे अधिक महत्व दिया गया । कभी-कभी इस व्रत के विचित्र परिणाम दिखाई देते हैं जैसे कुछ जैन धर्मावलंबी राजा पशु की हत्या करने वालों को फाँसी पर चढ़ा देते थे ।

महावीर के पूर्व तीर्थंकर पार्श्व ने तो अपने अनुयायियों को निचले और ऊपरी अंगों को वस्त्र से ढकने की अनुमति दी थी, पर महावीर ने वस्त्र का सर्वथा त्याग करने का आदेश दिया । इसका आशय यह था कि वे अपने अनुयायियों के जीवन में और भी अधिक संयम लाना चाहते थे । इसके चलते बाद में जैन धर्म दो संप्रदायों में विभक्त हो गया- श्वेतांबर अर्थात् सफेद वस्त्र धारण करने वाले और दिगंबर अर्थात् नग्न रहने वाले ।

जेन धर्म में देवताओं का अस्तित्व स्वीकार किया गया है पर उनका स्थान जिन से नीचे रखा गया है । बौद्ध धर्म में वर्णव्यवस्था की जो निंदा है वह इस धर्म में नहीं है । महावीर के अनुसार, पूर्वजन्म में अर्जित पुण्य या पाप के अनुसार ही किसी का जन्म उच्च या निम्न कुल में होता है ।

महावीर ने चांडालों में भी मानवीय गुणों का होना संभव बताया है । उनके मत में शुद्ध और अच्छे आचरण वाले निम्न जाति के लोग भी मोक्ष पा सकते हैं । जैन धर्म में मुख्यत: सांसारिक बंधनों से छुटकारा पाने के उपाय बताए गए हैं ।

ऐसा छुटकारा या मोक्ष पाने के लिए कर्मकांडीय अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है, यह सम्यक् ज्ञान सम्यक् ध्यान और सम्यक् आचरण से प्राप्त किया जा सकता है । ये तीनों जैन धर्म का त्रिरत्न अर्थात् तीन जौहर माने जाते हैं । जैन धर्म में युद्ध और कृषि दोनों वर्जित हैं क्योंकि दोनों में जीवों की हिंसा होती है । फलत: जैन धर्मावलंबियों में व्यापार और वाणिज्य करने वाले की संख्या अधिक हो गई ।


# 4. जैन धर्म का प्रसार (The Spread of Jainism):

जैन धर्म के उपदेशों के प्रचार-प्रसार के लिए महावीर ने अपने अनुयायियों का संघ बनाया जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों को स्थान मिला । महावीर के अनुयायियों की संख्या 1400 बताई गई है जो कोई बड़ी संख्या नहीं है । चूंकि जैन धर्म ने अपने को ब्राह्मण धर्म से स्पष्टतः पृथक् नहीं किया इसलिए आरंभ में उसे अधिक लोगों ने नहीं अपनाया ।

ऐसा रहते हुए भी जैन धर्म धीरे-धीरे दक्षिण और पश्चिम भारत में फैला जहाँ ब्राह्मण धर्म कमजोर था । एक परवर्ती परंपरा के अनुसार कर्नाटक में जैन धर्म का प्रचार सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य (322-298 ई॰ पू॰) ने किया । उसने जैन धर्म को अपना लिया राज्य को त्याग दिया और अपने जीवन के अंतिम वर्ष जैन साधु होकर कर्नाटक में जैन धर्म का प्रचार करते हुए बिताए ।

लेकिन इस परंपरा की पुष्टि अन्य किसी स्रोत से नहीं होती है । दक्षिण भारत में जैन धर्म के फैलने का दूसरा कारण यह बताया जाता है कि महावीर के निर्वाण के 200 वर्ष बाद मगध में भारी अकाल पड़ा । अकाल बारह वर्षों तक रहा अतः बहुत-से जैन बाहुभद्र के नेतृत्व में प्राण बचाने के लिए दक्षिणापथ चले गए, शेष जैन लोग स्थलबाहु के नेतृत्व में मगध में ही रह गए ।

प्रवासी जैनों ने दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रचार किया । अकाल समाप्त होने पर जब वे मगध लौट आए तो स्थानीय जैनों से उनका मतभेद हो गया । दक्षिण से लौटे जैनों का दावा था कि अकाल की अवधि में भी उन लोगों ने अपने धार्मिक नियमों का पालन किया है लेकिन जो मगध में रहे उन्होंने नियमों का उल्लंघन किया और शिथिल हो गए ।

इस मतभेद को दूर करने के लिए और जैन धर्म के मुख्य उपदेशों को संकलित करने के लिए पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) में एक परिषद् का आयोजन किया

गया । पर दक्षिणी जैनों ने इस परिषद् का बहिष्कार किया और इसके निर्णयों को नहीं माना । तब से दक्षिणी जैन दिगंबर कहलाए और मगध के जैन श्वेतांबर । अकाल होने की परंपरा बाद की होने से संदेहास्पद मानी जाती है । किंतु इसमें कोई संदेह नहीं है कि जैन दो संप्रदायों में बँट गए थे ।

परंतु कर्नाटक में जैन धर्म के फैलने का पुरातात्त्विक साक्ष्य ईसा की तीसरी सदी से पहले का नहीं मिलता है । बाद की सदियों में, विशेषकर पाँचवीं सदी में कर्नाटक में बहुत सारे जैन मठ स्थापित हुए जो बसदि कहलाते थे, और उनके भरणपोषण के लिए उन्हें राजाओं से भूमिदान मिले ।

कलिंग या उड़ीसा में जैन धर्म का प्रचार ईसा-पूर्व चौथी सदी में हुआ; और ईसा-पूर्व पहली सदी में इसे आंध्र और मगध के राजाओं को पराजित करने वाले कलिंग-नरेश खारवेल का संरक्षण मिला ।

ईसा-पूर्व दूसरी और पहली सदी में जैन धर्म तमिलनाडु के दक्षिणी भागों में भी पहुँच गया था । बाद के सदियों में जैन धर्म मालवा, गुजरात और राजस्थान में फैला, और इन क्षेत्रों में आज भी जैन धर्मावलंबियों की संख्या अधिक है तथा मुख्यतः वे व्यापार और वाणिज्य में लगे हुए हैं ।

यद्यपि जैन धर्म को उतना राजाश्रय नहीं मिला जितना बौद्ध धर्म को और पूर्वकाल में इसका प्रसार भी उतना तेज नहीं हुआ तथापि यह जहां-कहीं पहुँचा अपना अस्तित्व बनाए हुए है । इसके विपरीत बौद्ध धर्म तो मानों भारतीय उपमहादेश से लुप्त ही हो गया ।


# 5. जैन धर्म का योगदान  (Contribution of Jainism):

जैन धर्म ने ही सबसे पहले वर्णव्यवस्था और वैदिक कर्मकांड की बुराइयों को हटाने के लिए गंभीर प्रयास किया । आरंभ में जैनों ने मुख्यतः ब्राह्मणों द्वारा संपोषित संस्कृत भाषा का परित्याग किया और अपने धर्मोपदेश के लिए आम लोगों की बोलचाल की प्राकृत भाषा को अपनाया ।

उनके धार्मिक ग्रंथ अर्धमागधी भाषा में लिखे गए और ये ग्रंथ ईसा की छठी सदी में गुजरात में वलभी नामक स्थान में जो एक महान विद्या-केंद्र था अंतिम रूप से संकलित किए गए । जैनों ने प्राकृत को अपनाया इससे प्राकृत भाषा और साहित्य की समृद्धि हुई । प्राकृत भाषा से कई क्षेत्रीय भाषाएँ विकसित हुईं । इनमें विशेष उल्लेखनीय है- शौरसेनी, जिससे मराठी भाषा निकली है ।

जैनों ने अपभ्रंश भाषा में पहली बार कई महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे और इसका पहला व्याकरण तैयार किया । जैन साहित्य में महाकाव्य, पुराण, आख्यायिका और नाटक हैं । जैन लेखों का बहुत बड़ा भाग आज भी पांडुलिपि के रूप में पड़ा है और अप्रकाशित है ।

गुजरात और राजस्थान के जैन मठों में ऐसी पांडुलिपियाँ पाई जाती हैं । जैनों ने मध्यकाल के आरंभ में संस्कृत का भी खूब प्रयोग किया और इसमें बहुत-से ग्रंथ लिखे । अंततः जैनों ने कन्नड़ के विकास में भी यथेष्ट योगदान दिया; इस भाषा में उन्होंने प्रचुर लेखन किया है ।

बौद्धों की तरह जैन लोग भी आरंभ में मूर्तिपूजक नहीं थे । बाद में वे महावीर और तीर्थंकरों की भी पूजा करने लगे । इसके लिए सुंदर और कभी-कभी विशाल प्रस्तर प्रतिमाएँ विशेषकर कर्नाटक गुजरात राजस्थान और मध्य प्रदेश में निर्मित हुईं । प्राचीन काल की जैन कला उतनी उत्कृष्ट नहीं है जितनी बौद्ध कला किंतु मध्यकाल की कला और स्थापत्य में जैनों का प्रशंसनीय योगदान है ।


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