इस्लाम पर निबंध: इस्लाम का परिचय, सिद्धांत और प्रभाव भारत पर धर्म | Essay on Islam: Intro, Theories and Impact of Islam Religion on India!

इस्लाम पर निबंध | Essay on Islam Religion in Hindi


Essay Contents:

  1. इस्लाम धर्म का परिचय  (Introduction to Islam Religion)
  2. इस्लाम के सिद्धान्त (Theories of Islam)
  3. भारतीय सभ्यता पर इस्लाम का प्रभाव (Impact of Islam on Indian Civilization)
  4. हिन्दू समान पर इस्लाम का प्रभाव (Influence of Islam on Hindu Unity)
  5. हिन्दू धर्म तथा इस्लाम (Hinduism and Islam)
  6. इस्लाम तथा भारतीय साहित्य (Islam and Indian Literature)
  7. इस्लाम तथा हिन्दू कला (Islam and Hindu Art)


Essay # 1. इस्लाम धर्म का परिचय (Introduction to Islamic Religion):

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विश्व के प्राचीन धर्मो में इस्लाम धर्म का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । इसके प्रवर्तक पैगम्बर मुहम्मद थे । उनका जन्म 570-71 ई॰ के लगभग अरब प्रायद्वीप के मक्का नगर में हुआ । उनके पिता अब्दुचा तथा माता आमिना, कुरैश नामक कबीले से सम्बन्धित थे ।

मुहम्मद के बचपन में ही उनके माता-पिता का निधन हो गया जिससे उनका पालन-पोषण उनके चाचा अबू तालिब के द्वारा किया गया । उनका प्रारम्भिक जीवन लोकिक सुख-सुविधाओं से वंचित रहा । बचपन में वे ऊँट तथा बकरियों चराया करते थे । बड़े होने पर उन्होंने व्यापार करना प्रारम्भ किया ।

वे अपनी ईमानदारी के लिये प्रसिद्ध थे । वे खदीजा नामक व्यापारिक महिला के सम्पर्क में गये जो आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त सम्पन्न थी । कालान्तर में मुहम्मद से उसने विवाह कर लिया । इस प्रकार अब वे एक समृद्ध सौदागर बन गये तथा लौकिक सुख-सुविधा की सारी वस्तुयें उन्हें सुलभ हो गयीं ।

किन्तु मुहम्मद का मन सांसारिक विषय-भोगों में वास्तविक सन्तोष नहीं  प्राप्त कर सका । वे धार्मिक चिन्तन की ओर प्रवृत्त हुए । मक्का के समीप हीरा की पहाड़ी गुफा में बैठकर वे ध्यान लगाते तथा अलौकिक सत्ता के विषय में घण्टों सोचा करते थे ।  यहीं ध्यान करते हुए मुहम्मद को जिब्राईल के माध्यम से अल्लाह का पैगाम मिला कि वे सत्य का प्रचार करे ।

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अब वे पैगम्बर तथा नबी (सिद्ध पुरुष) के रूष में विख्यात हो गये । उन्हें अल्लाह का आनीम पैगम्बर माना जाता है । पैगाम प्राप्ति के बाद उन्होंने अपने मत का व्यापक प्रचार-प्रसार किया । उन्होंने स्वयं यह अनुभव किया कि वे ईश्वर के महानतम पैगम्बर है जिन्हें उसने पृथ्वी पर अपना सन्देश प्रचारित करने के उद्देश्य से प्रेषित किया है ।

मुहम्मद ने शक्ति द्वारा इस्लाम का प्रचार किया । गिबन के अनुसार उन्होंने ‘एक हाथ में तलवार तथा दूसरे में कुरान ग्रहण करके ईसाई तथा रोमन साम्राज्य के ऊपर अपना राजसिंहासन स्थापित किया था । उन्होंने अपने गृहनगर मक्का में 200 कट्टर अनुयायियों का संगठन तैयार किया तथा वहाँ से वे मदीना पहुँच गये ।

वहाँ के कवीलों ने उनकी सहायता की तथा उन्होंने अपना मजबूत राजनैतिक संगठन कायम कर लिया । अपने प्रभाव का विस्तार करने के लिये उन्हें मक्का के कबीलों से कई युद्ध करने पड़े और सभी में उन्हें सफलता प्राप्त हुई । उन्होंने मक्का पर अधिकार कर लिया तथा वहाँ इस्लाम का झण्डा फहरा दिया ।

वहाँ के ईसाई, यहूदी तथा अरबी कबीलों ने उनकी प्रभुसत्ता स्वीकार कर लिया । इस प्रकार मुहम्मद ने विभिन्न संघर्षरत अरबी कबीलों के बीच एकता स्थापित कर दिया । 632 ई॰ के लगभग उनकी मृत्यु हुई ।

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मुहम्मद की मृत्यु के वाद एक शताब्दी में ही अरबों ने एक बड़े भू-भाग पर अपना अधिकार जमा लिया तथा मुस्लिम साम्राज्य पश्चिमी यूरोप के पायरेनीज पर्वत से लेकर चीन तथा भारत की सीमाओं तक फैल गया ।


Essay # 2. इस्लाम के सिद्धान्त (Theories of Islam):

पैगम्बर मुहम्मद के उपदेशों तथा शिक्षाओं को ही सम्मिलित रूप से इस्लाम की संज्ञा दी जाती है । इस्लाम मत कट्टर एकेश्वरवाद में विश्वास करता है । इसके अनुसार सृष्टि का एकमात्र देवता ‘अल्लाह’ (ईश्वर) है जो सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ एवं असीम करुणा का सागर है । उसके अतिरिक्त कोई दूसरी सत्ता नहीं है ।

सभी मनुष्य उसी की सन्तान है और इस प्रकार सभी मुसलमान सगे भाई-बहन हैं । अल्लाह ही समय-समय पर अपने पैगम्बरों को पृथ्वी पर भेजता है । इस्लाम के अनुसार मनुष्य को अल्लाह की इच्छा के समक्ष अपने आपको पूर्णतया अर्पित कर देना चाहिए ।

इस्लाम मानव मात्र की समानता में विश्वास करता है जिसके अनुसार एक ही ईश्वर की सन्तान होने के कारण एक मनुष्य तथा दूसरे मनुष्य के बीच कोई भेद नहीं है । यह अवतारवाद, मूर्ति-पूजा तथा जाति-पाँति का घोर विरोधी है ।

इस धर्म की प्रमुख नैतिक शिक्षायें क्षमा-शीलता, ईमानदारी, दूसरों की भलाई के लिये कार्य करना, निर्धनों की सहायता करना और इसके लिये जकात देना, प्रतिशोध न लेना, संयम से काम लेना आदि है । यह धर्म, पाप तथा पुण्य में विश्वास रखता है ।

मनुष्य को ईश्वर से डरकर अच्छे कर्म करने चाहिये तथा कार्यों से विरत रहना चाहिए । स्वर्ग तथा नरक का निर्धारण मनुष्य के अच्छे-बुरे कार्यों के आधार पर ही किया जाता । जो धर्म में आस्था नहीं रखते तथा बुरा काम करते है उन्हें मृत्यु के बाद घोर कष्ट मिलता है ।

इसके विपरीत भला कार्य करने वाले व्यक्ति शाश्वत सुख की प्राप्ति करते हैं । इस प्रकार यह मत कर्मवाद की भी मान्यता देता है, किन्तु पुनर्जन्म का सिद्धान्त इसे मान्य नहीं है । इस्लाम धर्म के कर्मकाण्डीय पक्ष इस प्रकार हैं- कलमा पढना, दिन में पाँच बार नमाज अदा करना, प्रत्येक शुक्रवार के दिन सामूहिक रूप से नमाज अदा करना, जकात देना, रमजान के महीने में रोजा रखना, मक्का की (हज) यात्रा करना आदि ।


Essay # 3. भारतीय सभ्यता पर इस्लाम का प्रभाव (Impact of Islam on Indian Civilization):

यह एक सुविदित तथ्य है कि भारतीय संस्कृति ने पूर्ववर्ती आक्रान्ताओं-शक, यवन, कुषाण, हूण- आदि को आत्मसात कर लिया । उन्होंने भारतीय धर्म तथा सामाजिक आचार-विचारों को ग्रहण किया और अपनी विशिष्टता खो बैठे । किन्तु हिन्दू संस्कृति की यह ग्रहणशीलता एवं आत्मसातीकरण की प्रवृत्ति मुस्लिम आक्रान्ताओं के सम्मुख असफल रही ।

इसका सर्वप्रथम कारण यह था कि मुसलमान अपने साथ अपनी एक विशिष्ट संस्कृति लेकर भारतभूमि पर अवतरित हुए थे जिससे वे अपने को पृथक् रख सकने में समर्थ हो सके । इसमें सन्देह नहीं कि दोनों सम्प्रदायों के उदार व्यक्तियों द्वारा परस्पर समन्वय के प्रयत्न हुए तथा उनका एक-दूसरे के ऊपर प्रभाव भी पड़ा तथापि हिंदू तथा मुसलमान दोनों ही भारतीय समाज में अपनी विशिष्ट संस्कृतियों के साथ विद्यमान रहे ।

हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों के स्वभावतः भिन्न होने के बावजूद निरन्तर साथ रहने के कारण हिन्दू मध्यता के कुछ सामाजिक एवं धार्मिक पक्षों पर इस्लाम धर्म का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही था । परन्तु यह प्रभाव किस सीमा तक पडा इस विषय में विद्वानों ने परस्पर विरोधी विचार व्यक्त किये हैं ।

पं॰ जवाहर लाल नेहरू का मत है कि ‘भारत में आने के बाद मुसलमानों का वंश पूर्णतया भारतीय हो गया तथा वे भारत को अपनी मातृभूमि तथा शेष विश्व को विदेश मानने लगे ।’ ताराचन्द के अनुसार इस्लाम का प्रभाव हिन्दू धर्म, साहित्य, कला तथा विज्ञान पर ही नहीं पड़ा अपितु उसने हिंदू संस्कृति की आत्मा तथा हिम मस्तिष्क की सामग्री को भी परिवर्तित कर दिया । फलस्वरूप हिन्दू सभ्यता के प्रमुख स्तम्भ ढहने लगे तथा फिर दोनों के समन्वय से एक नवीन सभ्यता का उदय हुआ जिसे ‘इण्डी-इस्लामी सभ्यता कहा जा सकता है ।’

नवीं शती से दक्षिणी भारतीय धार्मिक-सामाजिक विचारधारा की कुछ विशेषतायें जैसे एकेश्वरवाद पर बल दिया जाना, भक्ति का सिद्धान्त, आत्मसमर्पण (प्रपत्ति) का सिद्धान्त, गुरु का सम्मान, जाति प्रथा की शिथिलता, धर्म के कर्मकाण्डीय पक्ष की उपेक्षा आदि निश्चयतः इस्लाम धर्म के प्रवाह का परिणाम थीं ।

कालान्तर में भक्ति का सिद्धान्त तथा शूद्रों के प्रति उदारता का भाव उत्तरी भारत में भी विकसित हुआ । विद्वान् इतिहासकार ने इस बात पर बल दिया है कि शंकराचार्य ने अपने अद्वैत का सिद्धान्त इस्लाम के एकेश्वरवाद से ही ग्रहण किया था ।

इसके विपरीत हेवेल तथा श्रीराम शर्मा जैसे विद्वानों की मान्यता है कि यद्यपि राजनैतिक दृष्टि से मुसलमानों ने भारतीयों को अपनी अधीनता में कर लिया किन्तु भारतीय सभ्यता की आत्मा को वे कभी भी नियंत्रित न कर सके तथा उसका वैदिक आधिपत्य सदा की तरह अब भी विद्यमान रहा ।

जदुनाथ सरकार तथा टाइटस का विचार है कि भारतीय सभ्यता ने ही इस्लामी सभ्यता को पूर्णतया प्रभावित किया था । किन्तु ये दोनों ही मत अतिवादी प्रतीत होते हैं । जहाँ यह कथन युक्तिसंगत नहीं है कि इस्लाम ने भारतीय सभ्यता की आत्मा को परिवर्तित कर दिया, वहाँ यह निष्कर्ष भी नहीं निकाल सकते है कि इस्लाम का भारतीय सभ्यता पर कोई भी प्रभाव नहीं पड़ा ।

वास्तविकता यह है कि दीर्घकालीन साहचर्य के कारण दोनों ही सभ्यतायें एक दूसरे से प्रभावित हुई तथा यह प्रभाव सामाजिक-धार्मिक क्षेत्र में ही अधिक रहा । भारत की राजनैतिक संस्थायें यथावत विद्यमान रहीं तथा इनमें इस्लाम के आगमन के कारण कोई बड़ा परिवर्तन उत्पन्न नहीं हुआ ।


Essay # 4. हिन्दू समान पर इस्लाम का प्रभाव (Influence of Islam on Hindu Unity):

इस्लाम के सम्पर्क में आने के परिणामस्वरूप हमें हिन्दू समाज में कुछ नई प्रवृत्तियाँ देखने को मिलती है । मुस्लिम शासकों ने हिन्दू प्रजा को अधिकाधिक अपने मत में परिवर्तित करने का अभियान प्रारम्भ कर रखा था । इसका एक परिणाम यह हुआ कि हिन्दू व्यवस्थाकारों ने अपनी जाति की शुद्धता एवं पवित्रता बनाये रखने के उद्देश्य से जाति प्रथा के नियमों को अत्यधिक कठोर बना दिया ।

दैनिक आचार-विचार के नियमों में भी कठोरता आई । माधव, विश्वेश्वर आदि हिन्दू व्यवस्थाकारों ने हिन्दूओं के पालनार्थ कठोर सामाजिक-धार्मिक नियमों का विधान प्रस्तुत किया । खान-पान के नियमों में भी कठोरता आई । अन्तर्जातीय विवाह प्रायः बन्द हो गये । सामाजिक सम्बन्ध अत्यन्त संकुचित हो गये ।

अल्वरुनी के विवरण से पता चलता है कि हिन्दू समाज में जाति-प्रथा के बन्धन चट्टान के समान दृढ़ हो गये थे । जो स्त्री-पुरूष तुर्कों द्वारा बलात् मुसलमान बना लिये गये थे उन्हें हिन्दू धर्म में पुन शामिल करने के लिये अनेक प्रकार के प्रायश्चितों का विधान किया गया । देवलस्मृति में इनका विवरण प्राप्त होता है ।

आक्रान्ताओं के नापाक इरादों से हिन्दू महिलाओं की पवित्रता को बचाने के उद्देश्य से समाज में बाल विवाह एवं पर्दा प्रथा का प्रचलन हुआ । अब कन्याओं का विवाह सात-आठ वर्ष में ही किया जाने लगा तथा उन्हें कठोर पर्दे में रखने का विधान प्रस्तुत किया गया । इससे उनकी स्वतंत्रता समाप्त हो गयी ।

राजपूत समाज में जौहर-प्रथा, जिसके अनुसार अपने सतीत्व की रक्षा के लिये राजपूत रानियों सामूहिक प्राणोत्सर्ग करती थीं, का प्रचलन इस्लाम के आगमन से ही प्रारम्भ हुआ । हिन्दू समाज ने इस्लामी समाज के कुछ उदार नियमों एवं सिद्धान्तों को ग्रहण कर लिया । इस्लाम जाति-पाँति को न मानकर मानवमात्र की समानता पर बल देता था । इस भाव को हिन्दुओं ने ग्रहण किया ।

हिन्दु सुधारकों ने भी जाति-पाति, ऊँच-नीच, छुआ-छूत आदि को निरर्थक बताते हुए जातियों की एकता पर बल दिया । अब शूद्र तथा अछूतों को इस्लाम में दीक्षित होने से बचाने के लिये उनके साथ अधिक उदारता का व्यवहार किये जाने का उपदेश दिया जाने लगा जिससे हिंदू सामाजिक दृष्टि में परिवर्तन आया । मुस्लिम सम्पर्क के फलस्वरूप समाज में दास प्रथा का प्रचलन भी बहुत अधिक बढ़ गया ।

पुरुष तथा स्त्री दोनों में दास रखने का शोक बढता गया । हिन्दू समाज के कुलीन वर्ग के लोग मुस्लिम वेश-भूषा, आहार-विहार, सामाजिक रीति-रिवाजों से प्रभावित हुए तथा उनमें से अधिकांश को उन्होंने ग्रहण कर लिया । कुलीन हिन्दूओं ने मुसलमानों के समान पोशाक पहनना प्रारम्भ कर दिया । वे लम्बी बाहों वाला कुर्ता-पायजामा पहनने लगे । दोनों वर्गों के लोग साफा बांधते थे ।

हिन्दू समाज में मद्यपान तथा माँसाहार का प्रचलन अधिक बढ़ गया । राजपूत शासकों एवं सामन्तों ने मुसलमान के दरबारी-शिष्टाचार एवं अभिवादन के ढंग को अपना लिया । ताराचन्द के शब्दों में इस्लाम का प्रभाव हिम रीति-रिवाजों, गृहस्थी के छोटे-मोटे व्यवहारों, संगीत, पोशाक, पाक विधि, विवाह विधि, त्योहार, उत्सवों आदि के आयोजन तथा मराठी, राजपूतों एवं सिक्खों के दरबारी संस्थाओं तथा शिष्टाचारों पर जितने सुस्पष्ट एवं सुन्दर ढंग से दिखाई देता है, वह अन्यत्र नहीं ।


Essay # 5. हिन्दू धर्म तथा इस्लाम (Hinduism and Islam):

हिन्दूओं तथा मुसलमानों के साथ-साथ रहने के कारण दोनों के धर्मों का भी एक दूसरे के ऊपर न्यूनाधिक प्रभाव पड़ा । ताराचन्द के इस कथन से सहमत होना कठिन है कि भारतीय धर्म में भक्ति-भावना, गुरु के सम्मान की भावना का विकास, धर्म के कर्मकाण्डीय पक्षों की उपेक्षा के सिद्धान्त आदि के पीछे इस्लाम धर्म का ही प्रभाव था ।

यह भी उचित नहीं लगता कि शकर का अद्वैतवाद का सिद्धान्त इस्लामी एकेश्वरवाद से लिया गया था । इन सिद्धान्तों का मूल प्राचीन हिन्दू धर्म में ही देखने को मिलता है । भक्ति तथा प्रपत्ति के सिद्धान्त विकसित रूप से भगवद्‌गीता में प्राप्त होते हैं ।

इसी प्रकार बौद्ध तथा शाक्त तथा सिद्ध मतों में गुरु के प्रति अतिशय सम्मान का भाव मिलता है । उपनिषदों में धर्म कर्मकाण्डीय पक्ष की आलोचना की गयी है । कालान्तर में सिद्ध सम्प्रदाय के सन्तों ने भी धर्म के बाह्य कर्मकाण्डों की कड़ी निंदा की थी । जहाँ तक शंकर के अद्वैतवाद का प्रश्न है उसे इस्लामी एकेश्वरवाद से सम्बन्ध करना कोरी कल्पना की उड़ान प्रतीत होता है ।

शंकर ने वेदों तथा उपनिषदों में वर्णित एकेश्वरवादी विचारधारा को ही पूर्णता प्रदान की तथा उनके मत के पीछे किसी प्रकार की इस्लामी प्रेरणा नहीं थी । यदि शंकर इस्लाम से तनिक भी प्रभावित होते तो वे मूर्ति-पूजा का खण्डन अवश्य करते जो इस्लाम धर्म का एक प्रमुख सिद्धान्त है । ताराचन्द ने स्वयं यह स्वीकार किया है कि उनके इस निष्कर्ष को पुष्ट करने के लिये कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है ।

यद्यपि हिन्दू धर्म के मूल तत्वों पर इस्लाम को कोई क्रान्तिकारी प्रभाव नहीं पड़ा तथापि इसका अप्रत्यक्ष प्रभाव अवश्य रहा । इस्लामी प्रभाव के कारण हिन्दु धर्म के अन्दर कुछ नवीन सम्प्रदायों का उदय हुआ । पूर्व मध्यकाल के भक्ति आन्दोलन को इस्लाम के आगमन का अप्रत्यक्ष प्रभाव माना जा सकता है, क्योंकि भक्ति के मूल तत्व हिन्दू धर्म में बहुत पहले से ही विद्यमान रहे है ।

कुछ विद्वान् चैतन्य तथा बल्लभ के कृष्ण भक्ति सम्प्रदाय के ऊपर इस्लाम के सूफी मत का प्रभाव बताते है, किन्तु यह विवादास्पद है । इसी प्रकार गेरेट की इस अवधारणा के पीछे भी कोई आधार नहीं है कि आर्य समाज ने मूर्ति पूजा के विरोध तथा दूसरे धर्मावलम्बियों को अपने मत में दीक्षित करने का सिद्धान्त इस्लाम से ही ग्रहण किया था ।

आर्य-समाज का उद्देश्य प्राचीन वैदिक धर्म का पुनरुत्थान करना था और यही कारण है कि इसने इस्लाम धर्म का विरोध किया । मुसलमानों के साहचर्य से हिन्दुओं के मन में उनके धर्म के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई । वे सूफी सन्तों का सम्मान करते थे । उन्होंने मुस्लिम पीरों तथा मजारों की पूजा करना प्रारम्भ कर दिया ।

अजमेर के शेख मुइनुद्दीन चिश्ती के भक्तों में हिन्दुओं की संख्या ही अधिक थी । इस्लाम धर्म के उदार एवं जनवादी दृष्टिकोण ने हिन्दू धर्म की कट्टरता को कम किया जिससे समाज के निम्न वर्गों के प्रति धार्मिक मामलों में नरम बर्ताव किया जाने लगा । शूद्रों को मन्दिरों में प्रवेश की अनुमति दे दी गयी ।

ऐसा लगता है कि शैव मत का लिंगायत सम्प्रदाय इस्लाम धर्म से कुछ प्रभावित था । इस सम्प्रदाय के लोगों ने वेदों का खण्डन किया तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया । वे जाति-पाति को भी नहीं मानते थे तथा मुसलमानों के ही समान अपने मृतकों को दफनाते थे ।


Essay # 6. इस्लाम तथा भारतीय साहित्य (Islam and Indian Literature):

भारत में इस्लाम के आगमन का एक महत्वपूर्ण प्रभाव यहाँ के साहित्य पर पड़ा । कई हिंदू विद्वानों ने अरबी-फारसी भाषाओं का अध्ययन करना प्रारम्भ कर दिया । कुछ मुसलमान शासक शिक्षा और साहित्य के उदार संरक्षक भी थे । फिरोज तुगलक के शासन काल में दर्शन, ज्योतिष के कुछ ग्रन्थों का फारसी भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया गया ।

इसी प्रकार सिकन्दर लोदी ने भी संस्कृत के आयुर्वेद ग्रन्थों का फारसी भाषा में अनुवाद करवाया था । इस्लामी प्रभाव के फलस्वरूप प्रादेशिक भाषाओं तथा उनके साहित्य की प्रगति हुई । कुतुबन, मंझन, मलिक मुहम्मद जायसी जैसे सूफी सन्तों ने हिन्दी भाषा में अपने ग्रन्थ लिखे । जायसी का यद्‌मावह हिन्दी साहित्य की उत्कृष्ट रचना है । चौदहवीं शती में अमीर खसरों हिन्दी के अच्छे विद्वान हुए ।

भक्ति आन्दोलन के सन्तों तथा सुधारकों ने अपने उपदेश देशी भाषाओं में ही दिये । कबीर ने लगभग बीस हजार पदों की हिन्दी भाषा में रचना की । उनकी रचनाओं में हुई प्रादेशिक भाषाओं के शब्द मिलते है जिसके कारण कुछ विद्वान् उनकी भाषा को ‘पंचमेन् खिचड़ी’ की संज्ञा प्रदान करते हैं । इसी प्रकार गुरु नानक ने गुरुमुखी तथा पंजाबी में अपनी रचनायें प्रस्तुत की जिसमें इन भाषाओं का विकास हुआ ।

कृष्ण-भक्त सन्तों ने ब्रजभाषा में अपने ग्रंथ लिखे । हिन्दी भाषा के साथ ही साथ इस्लामी प्रभाव से मराठी, गुजराती, बंगाली भाषाओं के साहित्य भी इस युग में समृद्ध हुए । फारसी, अरवबी, तुर्की आदि भाषाओं के बहुत से शब्दों को इन देशी भाषाओं में ग्रहण कर लिया गया जिसके परिणामस्वरूप इनका शब्दकोश समृद्ध हो गया । दक्षिण भाषाओं में भी कुछ शब्द ग्रहण किये गये ।

ज्ञानेश्वर तथा एकनाथ जैसे सन्तों ने मराठी भाषा में ग्रन्थ लिखे । गुजरात में अपभ्रंश भाषा का प्रयोग हुआ जिसमें जैन लेखकों ने अपनी कृतियों का प्रणयन किया । अनेक ‘रासों’ की रचना भी इस समय की जाने लगी जिनके माध्यम से जैन सन्त अपने उपदेशों का प्रचार करते थे ।

बंगला साहित्य के प्रसिद्ध कवि विद्यापति हुए जिनकी रचनाओं में मैथिली भाषा का भी विकास हुआ । बंगाल के मुसलमान शासकों ने भी बंगला साहित्य को प्रोत्साहित किया तथा अनेक संस्कृत ग्रन्थों का बंगाल में अनुवाद करवाया । रामायण तथा महाभारत जैसे ग्रन्थों का बंगला अनुवाद प्रस्तुत किया गया ।

महाप्रभु चेतन्य देव ने अपने भजन-गीतों के माध्यम से बंगला साहित्य को समृद्धशाली बनाया । इसी प्रकार दक्षिण में शेव सन्तों ने अपनी रचनाओं के द्वारा तमिल भाषा एवं साहित्य को समृद्ध बनाया । विजय नगर का शासक कृष्ण देवराय तेलगू भाषा का विद्वान रख संरक्षक था ।

भारत में मुसलमानों द्वारा लाई गयी तुर्की और फारसी भाषाओं के सम्पर्क के फलस्वरूप वोल-चाल की एक नई भाषा का जन्म हुआ जिसे पहले ‘जबान-ए- हिन्दीवी’ तथा बाद में ‘उर्दू’ नाम दिया गया । इसमें अरबी, फारसी, तुर्की, ब्रजभाषा, हिन्दी तथा दिल्ली प्रदेश की स्थानीय भाषाओं के शब्दों का सम्मिश्रण दिखाई देता है ।

वस्तुतः इसके माध्यम से हिन्दुओं तथा मुसलमानों के साहित्य को समन्वित करने का प्रयास किया गया । भारत के मुस्लिम शासकों ने बाद में इसे राजभाषा बनाया । अमीर खुसरो ने सर्वप्रथम इसमें अपनी रचनायें प्रस्तुत की थीं । भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने हिन्दी-उर्दू भाषा को विकसित करने में महान् योगदान दिया था ।


Essay # 7. इस्लाम तथा हिन्दू कला (Islam and Hindu Art):

इस्लामी सभ्यता तथा संस्कृति का सबसे अधिक प्रभाव हिन्दू ललित कलाओं तथा विशेष रूप से स्थापत्य कला के ऊपर पड़ा । हिन्दुओं ने इस्लामी कला के प्रायः सभी उपयोगी एवं सुन्दर तत्वों का समायोजन अपनी कला में कर लिया । राजपूत शासकों ने इस्लामी स्थापत्य कला के विविध तत्वों को ग्रहण कर उनके अनुसार अपने राजमहलों एवं मन्दिरों को सजा दिया ।

हिन्दू कलाकारों ने मुस्लिम कला के अनुकरण पर अपने भवनों तथा मन्दिरों में मेहराबों तथा गुम्बदों का प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया । वृन्दावन के कई मन्दिरों में इस्लामी कला शैली का प्रभाव स्पष्टतया परिलक्षित होता है । हिन्दुओं ने इस्लामी कला की सादगी को भी ग्रहण कर लिया जिससे हिंदू कला की प्रचुर अलंकारिकता कम हो गयी ।

मध्यकाल में हिन्दू-मुस्लिम कला शैलियों के परस्पर सम्पर्क के कारण कला की एक नवीन शैली का विकास हुआ जिसे विद्वानों ने ‘इण्डो-इस्लामिक-कला’ की संज्ञा प्रदान किया है । मुगल काल के हिन्दू शासकों ने भी इस्लामी शैली के अनुरूप अपनी इमारतों का निर्माण करवाया था ।

आमेर के रूमानीनगर की इमारतों, बीकानेर के राजमहलों, जोधपुर तथा ओरछा के दुर्गों, डीग के भवनों आदि के निर्माण में इस्लामी कला का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । ताराचन्द ने इण्डो-मुस्लिम कला की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए लिखा है ‘मुसलिम कला की सरल कर्कशता कम हो गयी तथा हिन्दू कला की बहुलता पर रोक लग गया ।

शिल्प कौशल, अलंकरण की प्रचुरता तथा सामान्य रचना हिन्दु रही, किन्तु सीधे गुन्बद तथा सपाट दीवारें, वृहद औगन तथा डाटदार छतें मुसलमानी विशेषतायें थी । स्थापत्य कला के साथ-साथ हिन्दू चित्रकला भी इस्लाम से प्रभावित हुई । इसके फलस्वरूप चित्रकला के विषय एवं तकनीकों में परिवर्तन आया ।

इस्लामी कला के प्रभाव से हिन्दु चित्रकार आकृति चित्रण एवं भित्ति चित्रण करने की कला में अत्यन्त प्रवीण हो गये । इस्लाम ने हिन्दु सभ्यता के विविध पक्षों पर कुछ न कुछ प्रभाव डाला । दूसरी ओर मुसलमान भी हिन्दू सभ्यता से बहुत अधिक प्रभावित हुए । हिंदू मूर्तिपूजा के प्रभाव से मुस्लिम समाज में भी सन्तों तथा दरगाहों की पूजा प्रारम्भ हो गयी ।

कुछ मुस्लिम त्योहार हिंदू त्योहारों जैसे धूमधाम से मनायें जाने लगा । हिन्दू जाति प्रथा ने भी मुस्लिम समाज को प्रभावित किया तथा उसमें पठान, सैय्यद, शेख आदि विभाजन हो गये । ये अपनों से नीची जाति में विवाह नहीं करते थे । हिन्दुओं के वस्त्राभूषणों का भी प्रभाव मुसलमानों पर पड़ा । मुस्लिम रहस्यवाद (सूफीमत) ने वेदान्त से प्रेरणा ग्रहण की थी ।

हिन्दुओं के प्रभाव से मुसलमान भी चमत्कारों एवं कुछ अन्धविश्वासों में आस्था रखने लगे । कुछ मुसलमान हिम ज्योतिष एवं औषधि शास्त्र से भी प्रभावित हुए । कुछ कुलीन मुस्लिम घरानों में हिन्दूओं की सती एवं जौहर प्रथाओं को भी अपना लिया गया ।

इस प्रकार टाइटस का यह कथन वस्तुतः महत्वपूर्ण हो जाता है कि सब कुछ कहने के बाद भी इसमें सन्देह नहीं है कि हिम धर्म ने, जो अभी तक अपने सुनिश्चित मार्ग पर आश्चर्यजनक आस्था एवं विश्वास के साथ अग्रसर है, इस्लाम के ऊपर, अपने इस्लामी प्रभाव की अपेक्षा, कहीं अधिक प्रभाव उत्पन्न किया था ।

इस प्रकार हिन्दू धर्म तथा संस्कृति में कोई आमूल परिवर्तन नहीं हुआ । दोनों संस्कृतियों के समन्वय सम्मिश्रण तथा सामंजस्य के बावजूद भी भारत में हिन्दुओं तथा मुसलमानों ने अपनी विशिष्टता अन्त तक चनाये रखी जो आज भी दोनों की सामाजिक एवं धार्मिक परम्पराओं में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है ।


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