गुप्त युग के दौरान शिल्प, व्यापार, अर्थव्यवस्था और शहरीकरण | Read this article in Hindi to learn about:- 1. शिल्प एवं शिल्पी  (Crafts and Craftsman) 2. व्यापार (Business) 3. मुद्रा अर्थव्यवस्था  (Monetary Economy) 4. शहरी बस्तियाँ (Urban Settlements).

शिल्प एवं शिल्पी (Crafts and Craftsman):

शकों, कुषाणों और सातवाहनों का (200 ई॰ पू॰-300 ई॰) और प्रथम तमिल राज्यों का युग प्राचीन भारत के शिल्प और वाणिज्य के इतिहास में चरम उत्कर्ष का काल था । इस काल में कलाओं और शिल्पों का विलक्षण विकास हुआ । इस काल के ग्रंथों में हम शिल्पियों के जितने प्रकार पाते हैं उतने पहले के लेखों में नहीं पाते ।

मौर्य-पूर्व काल के दीघनिकाय में लगभग चौबीस प्रकार के व्यवसायों का उल्लेख है तो इसी काल के महावस्तु में राजगीर में रहने वाले 36 प्रकार के व्यवसायियों का उल्लेख है और फिर भी सूची अधूरी है । मिलिन्दपव्हो या मिलिन्दप्रश्न में तो 75 व्यवसाय गिनाए गए हैं, जिनमें 60 विविध प्रकार के शिल्पों से संबद्ध हैं ।

अंग्रेजी में गारलैंड ऑफ मदुरई कहे जाने वाले तमिल मूलग्रंथ में उपर्युक्त दोनों बौद्ध मूलग्रंथों में शिल्प एवं शिल्पियों संबंधी दी गई जानकारी को आगे बढ़ाया गया है । इसके अनुसार अनेक शिल्पी अपनी दुकानों में काम करते थे । इनमें जुलाहे बजाज पुष्पोत्पादक स्वर्णकार और ताम्रकार शामिल हैं ।

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साहित्यिक स्रोतों में तो शिल्पियों को अधिकतर नगरों से जोड़ा गया है, किंतु कुछ उत्खननों से स्पष्ट होता है कि वे गाँवों में भी रहते थे । तेलंगाना स्थित करीमनगर के एक गाँव में बढ़ई लोहार सुनार कुम्हार आदि अलग-अलग टोले में रहते थे तथा कृषि-मजदूर तथा अन्य मजदूर एक दूसरे छोर पर बसते थे ।

सोना चांदी सीसा टिन तांबा पीतल लोहा और रत्न के काम वाले आठ शिल्प थे । पीतल जस्ते सुरमा और लाल संखिया के कई प्रभेदों का उल्लेख है । इससे खान और धातु के कौशल में भारी प्रगति और विशेषीकरण का पता चलता है । लोहा बनाने के तकनीकी ज्ञान में भारी प्रगति हुई ।

अनेक उत्खनन स्थलों पर कुषाण और सातवाहनकालीन स्तरों में लौहशिल्प की वस्तुएँ अधिकाधिक संख्या में मिली हैं । परंतु इस विषय में आंध्र प्रदेश का तेलंगाना सबसे समृद्ध प्रतीत होता है । इस क्षेत्र के करीमनगर और नालगोंड जिलों में हथियारों के अलावा तराजू की डंडी मूठवाले फावड़े और कुल्हाड़ियाँ, हँसिया, फाल, उस्तरा और करछुल आदि लोहे की वस्तुएँ मिली हैं । छुरी-काँटे सहित भारतीय लोहे और इस्पात का निर्यात अबीसीनियाई बंदरगाहों को किया जाता था और पश्चिम एशिया में उनकी भारी प्रतिष्ठा थी ।

कपड़ा बनाने रेशम बुनने और हथियारों एवं विलास की वस्तुओं के निर्माण में भी भारी प्रगति हुई । मथुरा शाटक नामक विशेष प्रकार के वस्त्र के निर्माण का बड़ा केंद्र हो गया था । दक्षिण भारत के कई नगरों में रंगरेजी उन्नत शिल्प थी । तमिलनाडु में तिरुचिरापल्ली नगर के उपनगर उरैयूर में ईंटों का बना रंगाई का हौज मिला है । अरिकमेडु में भी इस तरह के हौज मिले है ।

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ये हौज ईसा की पहली-तीसरी सदियों के हैं । इन क्षेत्रों में करघे पर कपड़ा बुनने का व्यवसाय बहुत प्रचलित था । कोल्ड के प्रचलन से तेल के उत्पादन में वृद्धि हुई । इस काल के अभिलेख बतलाते हैं कि बुनकरों जौहरियों मूर्तिकारों मछुआरों लोहारों गंधियों ने बौद्ध भिक्षुओं के लिए गुहाएँ बनवाईं तथा उन्हें स्तंभ पट्‌ट कुंड आदि का दान दिया । इन सब से प्रकट होता है कि दस्तकारों के धंधों में खूब बहुत हुई ।

विलास की वस्तुओं का उत्पादन करने वाले शिल्पों में हाथी दाँत का काम कांच का काम और मणि-माणिक्य बनाने का काम उल्लेखनीय है । सीप या शंख शिल्प भी उन्नत स्थिति में था । कुषाण स्थलों में खुदाई के क्रम में बहुत-सी शिल्प-वस्तुएँ निकली हैं ।

भारतीय दंतशिल्प की वस्तुएँ अफगानिस्तान और रोम में भी मिली है । इनका संबंध दकन में सातवाहन स्थलों के उत्खनन में पाई गई दंतशिल्प की वस्तुओं से जोड़ा जाता है ।

रोम की कांच की वस्तुएँ तक्षशिला और अफगानिस्तान में मिलती हैं लेकिन भारत ने कांच ढालने की जानकारी ईसवी सन् के आरंभ में आकर प्राप्त की और उसे चोटी पर पहुँचाया । इसी तरह मौर्योत्तर स्तरों में रत्नतुल्य पत्थरों के मनके या मणियाँ बड़ी संख्या में मिलती हैं । इन्हीं स्तरों में शंख के बने मनके और कंगन भी पाए गए हैं ।

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सिक्कों की ढलाई महत्वपूर्ण शिल्प थी और यह काल सोने, चांदी, तांबे, कांसे, सीसे (लेड) और पोटीन के तरह-तरह के सिक्के बनाने के लिए मशहूर है । शिल्पी लोग नकली रोमन सिक्के भी बना लेते थे । सिक्का ढालने के कई तरह के साँचे उत्तर भारत और दकन में पाए गए थे ।

सातवाहन स्तर के एक साँचे से पता लगता है कि इससे छह-छह सिक्के एक ही बार में निकल आते थे । इन शहरी हस्तशिल्पों के साथ-साथ पकी मिट्‌टी (टेराकोटा) की सुदर-सुन्दर मूर्तिकाएँ भी बनती थीं जो विशाल मात्रा में पाई गई हैं ।

ये लगभग सभी कुषाण और सातवाहन स्थलों में पाए गए है किंतु इस प्रसंग में नालगोंडा जिले के येल्लश्वरम का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है जहाँ मूर्तिकाएँ और उनके निर्माण के साँचे सबसे अधिक संख्या में मिले है ।

मूर्तिकाएँ और उनके साँचे हैदराबाद से लगभग 65 किलोमीटर की दूरी पर कोंडापुर में भी पाए गए हैं । मूर्तिकाएँ अधिकतर नगर निवासी उच्च वर्गों के लिए बनती थीं । गौर करने की बात है कि गुप्तकाल और खासकर गुप्तोत्तर काल में नगरों के पतन के साथ मूर्तिका की संख्या बहुत घट गई ।

शिल्पी लोग आपस में संगठित होते थे और उनके संगठन का नाम श्रेणी था । ईसा की दूसरी सदी में महाराष्ट्र में बौद्ध धर्मावलंबी गृहस्थ उपासकों ने कुम्हारों तेलियों और बुनकरों की श्रेणियों के पास धन जमा किया ताकि उससे बौद्ध भिक्षुओं को वस्त्र और अन्य आवश्यक वस्तुएँ दी जाएँ ।

इसी सदी में प्रतिदिन एक सौ ब्राह्मणों को भोजन कराने के लिए एक अधिपति ने आटा पीसने वालों की एक श्रेणी के पास अपनी मासिक आय से बचाकर धन जमा किया ।

विभिन्न ग्रंथों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस काल के शिल्पियों की कम-से-कम चौबीस-पच्चीस श्रेणियाँ प्रचलित थीं । अभिलेखों से ज्ञात अधिकतर शिल्पी मथुरा क्षेत्र में तथा पश्चिमी दकन में जमे थे जो पश्चिमी समुद्रतट की ओर जाने वाले व्यापार मार्ग पर पड़ते थे ।

व्यापार (Business):

गारलैंड आफॅ मदुरई में बाजार की गलियों को खरीद-बिक्री करनेवाले लोगों की चौड़ी नदियाँ कहा गया है । साकल नगर के वर्णन में ‘आपण’ शब्द की आवृत्ति से दुकानदारों के महत्व का संकेत मिलता है । यहाँ की दुकानें काशी कोटुक्बर तथा अन्य स्थानों में बने विविध प्रकार के वस्त्रों से भरी प्रतीत होती थीं ।

अनेक शिल्पी और सौदागर श्रेणी और आयतन नामक निगमों में संगठित थे लेकिन इन संगठनों का संचालन कैसे होता था इसका संकेत न महावस्तु में मिलता है और न ही मिलिन्दपञ्हो में । सौदागर और शिल्पी दोनों उच्च नीच और मध्यकोटियों में बँटे थे ।

बौद्ध मूलग्रंथों में अंकित है कि श्रेष्ठी निगम का प्रमुख सौदागर होता था और कारवाँ का नेता सार्थवाह सौदागरों के संघ का प्रधान होता था । इनमें लगभग आधे दर्जन छोटे-मोटे सौदागरों का भी उल्लेख है जो वणिक कहलाते थे । वे फल, कंद, पका भोजन, चीनी, छाल-वस्त्र, मकई अथवा घास और बाँस के गट्‌ठे बेचते थे । हम तमिल मूलग्रंथों में अनेक दुकानदारों के बारे में भी सुनते हैं ।

वे मीठी रोटियाँ सुगंधित चूर्ण चबेना और फूल-मालाएँ बेचते थे । अतएव ये सौदागर शहरी लोगों की विविध आवश्यकताओं की जिनमें भोजन वस्त्र और आवास शामिल होते थे पूर्ति करते थे । इनमें हम गधिक नामक इत्रफरोशों अथवा हरफनमौला सौदागरों को जोड़ सकते हैं । इस शब्द के अंतर्गत अनेक प्रकार के तेली जिनमें कुछ सुगंधित तेलों के विक्रेता होते थे, शामिल थे ।

‘अग्रिवणिज’ शब्द दुर्बोध मालूम पड़ता है, लेकिन ये सौदागर कुछ भाषाई परिवर्तन करने पर ‘अग्रवालों’ के पूर्ववर्ती हो सकते हैं । इस शब्द का जो भी अर्थ हो लेकिन निश्चित रूप से ये थोक-विक्रेता होते थे जो आंतरिक और वैदेशिक दोनों व्यापार संचालित करते थे ।

व्यापार के मार्ग और केंद्र (Trade Routes and Centers):

इस काल की सबसे बड़ी आर्थिक प्रक्रिया थी भारत और पूर्वी रोमन साम्राज्य के बीच फूलता-फलता व्यापार । आरंभ में यह व्यापार अधिकतर स्थल मार्ग से होता था । ईसा-पूर्व पहली सदी से शकों पार्थियनों और कुषाणों की गतिविधियों के कारण स्थल मार्ग से व्यापार करना संकटापन्न हो गया ।

यद्यपि ईरान के पार्थियन लोग भारत से लोहा और इस्पात का निर्यात करते थे तथापि वे ईरान के और भी पश्चिमी इलाकों के साथ भारत के व्यापार में बाधा डालते थे । परंतु ईसा की पहली सदी से व्यापार मुख्यत: समुद्री मार्ग से होने लगा ।

लगता है ईसवी सन् के आरंभ के आसपास मानसून के रहस्य का पता लग गया फलस्वरूप नाविक अरब सागर के पूर्वी तटों से उसके पश्चिमी तटों तक का सफर काफी कम समय में कर सकते थे । वे भारत के विभिन्न बंदरगाहों पर आसानी से पहुँच सकते थे जैसे पश्चिमी समुद्र तट पर भड़ौच और सोपारा तथा पूर्वी तट पर अरिकमेडु और ताम्रलिप्ति ।

इन सभी बंदरगाहों में भड़ौच सबसे महत्व पूर्ण और उन्नतिशील था । वहाँ सातवाहन राज्य के उत्पादन तो पहुंचते ही थे शक और कुषाण राज्य की वस्तुएँ भी पहुँचती थीं । शक और कुषाण लोग भी पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत से पश्चिमी समुद्र तट तक दो मार्गों से जाते थे ।

दोनों मार्ग तक्षशिला में मिलते थे और मध्य एशिया से गुजरने वाले रेशम मार्ग से भी जुड़े थे । पहला मार्ग उत्तर से सीधे दक्षिण की ओर जाता था तक्षशिला को निचली सिंधु घाटी से जोड़ता था और वहाँ से भड़ौच चला जाता था । दूसरा मार्ग जो उत्तरापथ नाम से विदित है, अधिक चालू था ।

यह तक्षशिला से चलकर आधुनिक पंजाब से होते हुए यमुना के पश्चिम तट पहुँचता और यमुना का अनुसरण करते हुए दक्षिण की ओर मथुरा पहुँचता था । फिर मथुरा से मालवा में उज्जैन पहुँचकर वहाँ से पश्चिमी समुद्र तट पर भड़ौच जाता था । उज्जैन में आकर एक और मार्ग उससे मिलता था जो इलाहाबाद के समीप कौशांबी से निकलता था ।

विदेश व्यापार (Foreign Trade):

भारत और रोम के बीच व्यापार तो भारी मात्रा में चला लेकिन इस व्यापार में साधारण लोगों के रोजमर्रे के काम की चीजें शामिल नहीं थीं । बाजार में विलास की वस्तुएँ खूब चलती थीं जो अभिजातवर्गीय आवश्यकताएँ मानी जाती थीं ।

रोमवालों ने सबसे पहले देश के सुदूर दक्षिणी हिस्से से व्यापार आरंभ किया; इसीलिए उनके सबसे पहले के सिक्के तमिल राज्यों में मिले हैं, जो सातवाहन के राज्यक्षेत्र के बाहर हैं । रोमवाले मुख्यत: मसालों का आयात करते थे जिनके लिए दक्षिण भारत मशहूर था । वे मध्य और दक्षिण भारत से मलमल मोती रत्न और माणिक्य का आयात करते थे । लोहे की वस्तुएँ खासकर बरतन रोमन साम्राज्य में भेजी जाने वाली महत्वपूर्ण वस्तुएँ थीं । मोती, हाथी, दाँत, रत्न और पशु की गिनती विलास की वस्तुओं में थी । किंतु पौधे और उसके उत्पाद धर्म अंतिम संस्कार रसोई और औषध के काम में आते थे ।

रसोईघर के बरतन भी आयात में शामिल रहे होंगे । छुरी-काँटे का प्रयोग उच्चवर्ग के लोगों में शायद महत्त्वपूर्ण स्थान रखता होगा । भारत से सीधे भेजी जाने वाली वस्तुओं के अलावा कुछ वस्तुएँ चीन और मध्य एशिया से भारत आतीं और तब रोमन साम्राज्य के पूर्वी भागों में भेजी जाती थीं ।

रेशम चीन से सीधे रोमन साम्राज्य को अफगानिस्तान और ईरान से गुजरने वाले रेशम मार्ग से भेजा जाता था । लेकिन बाद में जब ईरान और उसके पड़ोस के क्षेत्रों में पार्थियनों का शासन हो गया तब इसमें कठिनाई पैदा हुई । अत: रेशम के व्यापार का मार्ग कुछ बदल गया और वह इस उपमहादेश के पश्चिमोत्तर भाग से होते हुए पश्चिमी भारत के बंदरगाहों पर आने लगा ।

कभी-कभी चीन से रेशम भारत के पूर्वी समुद्रतट होते हुए भी भारत आता था तब वह यहाँ से पश्चिमी देशों को जाता था । इस प्रकार भारत और रोमन साम्राज्य के बीच रेशम का पारगमन व्यापार काफी चला । बदले में रोम के लोग भारत को शराब, शराब के दोहत्थे कलश और मिट्‌टी के अन्यान्य प्रकार के पात्र भेजते थे ।

ये वस्तुएँ पश्चिमी बंगाल के तामलुक, पांडिचेरी के निकट के अरिकमेडु और दक्षिण भारत के कई अन्य स्थानों में खुदाई में मिली हैं । कभी-कभी तो वे वस्तुएँ गुवाहाटी तक पहुंच जातीं । लगता है सातवाहन अपना सिक्का ढालने में जिस सीसे का इस्तेमाल करते थे वह रोम से लपेटी हुई पट्‌टियों की शक्ल में मँगाया जाता था ।

उत्तर भारत में रोम से आई वस्तुएँ बहुत कम ही मिली हैं, परंतु इसमें संदेह नहीं कि कुषाणों के समय में इस उपमहादेश के पश्चिमोत्तर भाग में ईसा की दूसरी सदी में रोमन साम्राज्य के पूर्वी भाग के साथ व्यापार चलता था ।

जब 115 ई॰ में मैसोपोटामिया को जीतकर रोम का प्रांत बना लिया गया तब इस व्यापार को और सहूलियत मिली । रोम के सम्राट ट्रॉजेन ने न केवल मस्कट पर विजय प्राप्त की, बल्कि फारस की खाड़ी का पता भी लगाया । व्यापार और विजय के फलस्वरूप रोमन वस्तुएँ अफगानिस्तान और पश्चिमोत्तर भारत में पहुँचीं ।

काबुल से 72 किलोमीटर उत्तर बेग्राम में इटली मिस्र और सीरिया में बने कांच के बड़े-बड़े मर्तबान मिले है । वहाँ कटोरे, कांसे का गोड़ा इस्पात का पैमाना पश्चिम में बने बाट, कांसे की छोटी-छोटी यूनानी-रोमन मूर्तियाँ सुराहियाँ और सिलखड़ी के अन्यान्य पात्र भी मिले है ।

तक्षशिला में जिसकी पहचान पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत के आधुनिक सिरकप से की गई है यूनानी-रोमन कांस्यमूर्तियों के उत्कुष्ट नमूने मिले है । हमें चांदी के गहने कुछ कांस्य पात्र एक कलश और रोमन सम्राट् टिबेरिअस के कुछ सिक्के भी मिले है ।

परंतु अरेटाइन मृदभांड जो दक्षिण भारत में आमतौर पर पाए जाते हैं वे मध्य भारत या पश्चिमी भारत या अफगानिस्तान में नहीं मिले । स्पष्ट है कि इन स्थानों में वे लोकप्रिय पश्चिमी वस्तुएँ नहीं पहुँचीं जो अधिकतर विंध्य के दक्षिण में सातवाहन राज्य में और उससे भी दक्षिण में पाई गई हैं । इस प्रकार सातवाहनों और कुषाणों के राज्यों को रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार से लाभ पहुँचा यद्यपि लगता है कि सबसे अधिक लाभ सातवाहनों को हुआ ।

रोम से भारत आई वस्तुओं में सबसे महत्त्व के हैं ढेर सारे रोमन सिक्के जो प्राय: सोने और चांदी के हैं । समूचे उपमहादेश में इन सिक्कों के लगभग 115 जखीरे प्रकाश में आए हैं और इनमें अधिकतर विंध्य के दक्षिण में पाए गए हैं । भारत में पाए गए रोमन सोने-चांदी के सिक्कों की संख्या 6000 से अधिक नहीं है पर यह कहना कठिन है कि केवल इतने ही सिक्के रोम से आए ।

रोमन लेखक प्लिनी ने 77 ई॰ में लैटिन में लिखे नेचुरल हिस्ट्री नामक अपने विवरण में अफसोस प्रकट किया है कि भारत के साथ व्यापार करके रोम अपना स्वर्णभंडार लुटाता जा रहा है । इस कथन में अतिरंजन हो सकता है ।

लेकिन उससे भी पहले 22 ई॰ में शिकायत का वर्णन मिलता है कि रोम पूरब से गोल मिर्च मँगाने पर अत्यधिक खर्च कर रहा है । पश्चिम के लोगों को भारतीय गोल मिर्च इतनी प्रिय थी कि संस्कृत में गोल मिर्च का नाम ही पड़ गया यवनप्रिय ।

भारत में बने छुरी-काँटे के इस्तेमाल के खिलाफ भी भारी प्रतिक्रिया हुई जिन्हें रोम के अमीर ऊँची कीमतों में खरीदते थे । उस समय लोगों को व्यापार संतुलन की अवधारणा भले ही न रही हो परंतु भारतीय प्रायद्वीप में पाए गए रोमन सिक्कों और पात्रों की बहुतायत से इसमें संदेह नहीं रह जाता है कि रोम के साथ व्यापार में भारत का पलड़ा भारी था ।

रोम को अपनी मुद्रा में होने वाली कमी का अनुभव इतना तेज हुआ कि अंततोगत्वा रोम को भारत के साथ गोल मिर्च और इस्पात की वस्तुओं के व्यापार को बंद करने के लिए कदम उठाने पड़े । लगता है कि भारत-रोम व्यापार और जहाजरानी में मुख्य भूमिका रोमनों ने अदा की ।

यद्यपि रोमन व्यापारी दक्षिण भारत में बस गए तथापि इस बात का बहुत कम प्रमाण मिलता है कि भारत के लोग रोमन साम्राज्य में बसे । मिट्‌टी के बरतन के टुकड़ों पर तमिल भाषा में लिखित अभिरेखण मिले हैं जिससे पता चलता है कि कुछ तमिल सौदागर रोमन काल में मिस्र में बसते थे ।

मुद्रा अर्थव्यवस्था  (Monetary Economy):

रोम से भारत आए चांदी और सोने के सिक्कों का उपयोग लोग किस काम में करते थे ? रोमन स्वर्णमुद्राएँ अपनी धातु के लिए मूल्यवान होती थीं पर साथ ही उनका प्रचलन बड़े-बड़े लेन-देन में भी रहा होगा । उत्तर में हिंद-यूनानी शासकों ने कुछेक स्वर्णमुद्राएँ जारी कीं ।

लेकिन कुषाणों ने काफी संख्या में स्वर्णमुद्राएँ चलाईं । यह समझना गलत होगा कि सभी कुषाण स्वर्णमुद्राएँ रोमन सोने से ढाली गईं, और भारत के पास अपना सोना नहीं था ।

पाँचवीं सदी ईसा-पूर्व में ही भारत ने ईरानी साम्राज्य को नजराना के तौर पर 320 टैलेंट सोना दिया था । यह सोना सिंध की स्वर्णखान से निकाला गया होगा । कुषाण संभवत: मध्य एशिया से सोना प्राप्त करते थे । यह भी संभव है कि यह सोना या तो कर्नाटक से या झारखंड के ढालभूम, जो बाद में कुषाण कब्जे में आ गई की स्वर्णखानों से भी मिला होगा ।

रोम से संपर्क के फलस्वरूप कुषाणों ने दीनार सदृश स्वर्णमुद्राएँ जारी कीं जो गुप्तों के शासनकाल में खूब प्रचलित हुईं । परंतु स्वर्णमुद्राओं का प्रयोग रोजमर्रा के लेन-देन में नहीं होता होगा ये लेन-देन सीसे पोटीन या तांबे के सिक्कों से चलते थे । आंध्र में सीसा और तांबा दोनों की खानें पाई गई हैं, और कर्नाटक में सोने की ।

औथों ने दकन में सीसे और पोटीन के सिक्के बड़ी संख्या में जारी किए । प्रायद्वीप के सिरे पर कुछ आहत मुद्राएँ और आरंभिक संगम युग की मुद्राएँ पाई गई हैं । कुषाणों ने उत्तर और उत्तरी-पश्चिमी भारत में तांबे के सिक्के सबसे अधिक संख्या में जारी किए ।

तांबे और कांसे के सिक्के भारी मात्रा में कई देशी राजवंशों ने भी जारी किए जैसे मध्य भारत में राज करने वाले नाग, पूर्वी राजस्थान पर तथा हरियाणा पंजाब और उत्तर प्रदेश के संलग्न क्षेत्रों पर शासन करने वाले यौधेय तथा कौशांबी मथुरा अवंति और अहिच्छत्रा (उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में स्थित) में राज करने वाले मित्र ।

शायद इस काल में मुद्रात्मक अर्थव्यवस्था नगरों और उपनगरों के जन-सामान्य के जीवन में जितनी गहराई तक प्रवेश कर गई वैसा अन्य किसी भी पहले काल में नहीं हुआ । यह परिवर्तन कला और शिल्प के विकास तथा रोमन साम्राज्य के साथ पुरजोर व्यापार के अनुरूप ही है ।

शहरी बस्तियाँ (Urban Settlements):

शिल्प और वाणिज्य में बढ़त और मुद्रा के अधिकाधिक प्रयोग के परिणामस्वरूप इस काल में अनेकानेक नगरों की श्रीवृद्धि हुई । वैशाली, पाटलिपुत्र, वाराणसी, कौशांबी, श्रावस्ती, हस्तिनापुर, मथुरा, इंद्रप्रस्थ (नई दिल्ली का पुराना किला) इन सभी उत्तर भारतीय नगरों के उल्लेख साहित्यिक ग्रंथों में मिलते हैं और कुछ नगरों का वर्णन चीनी यात्रियों ने भी किया है ।

अधिकतर नगर ईसा की पहली और दूसरी सदियों में कुषाण काल में फूले-फले ऐसा उत्खननों के आधार पर कहा जा सकता है, क्योंकि खुदाई से कुषाण युग की उत्कृष्टतर संरचनाएँ प्रकट हुई हैं । इनसे यह भी प्रकट होता है कि बिहार के कई पुरास्थल, जैसे चिरदि सोनपुर और बक्सर आदि तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई पुरास्थल, खैराडीह और मासोन कुषाण काल में समृद्ध थे ।

इसी तरह उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद के निकट शृंगवेरपुर, सोहगौरा, भीटा और कौशांबी तथा उसके पश्चिमी जिलों में अतरंजीखेड़ा और कई अन्य स्थल कुषाण काल में उन्नति पर थे । शृंगवेरपुर और चिराँद दोनों स्थलों पर ईंटों से बने बहुत-सी कुषाणकालीन भवन मिले हैं । मथुरा में सोंख के उत्खनन में कुषाण काल के सात स्तर दिखाई देते हैं जबकि गुप्त युग का केवल एक स्तर है ।

फिर पंजाब के अंतर्गत जालंधर, लुधियाना और रोपड़ में, कई स्थलों पर कुषाण काल की अच्छी संरचनाएँ पाते हैं । हरियाणा में खोदे गए पुरास्थलों के बारे में भी यही सच्चाई है । राजस्थान में रंगमहल भी कुषाण संरचनाओं के लिए मशहूर हैं ।

कई जगह तो कुषाणकालीन संरचनाओं से निकली पुरानी ईंटों से गुप्तकाल में बनी भोंडे ढंग की इमारतें भी मिली हैं । कुल मिलाकर कुषाणकाल के भौतिक अवशेष दिखलाते हैं कि नगरीकरण अपनी चोटी पर था । मालवा और पश्चिमी भारत के शक राज्य के नगरों के बारे में भी यह बात लागू होती है ।

सबसे महत्वपूर्ण नगर उज्जयिनी था क्योंकि यहाँ दो बड़े मार्ग मिलते थे- एक कौशांबी से आने वाला और दूसरा मथुरा से । इसका महत्व इसलिए भी था कि यहाँ से गोमेद (अगेट) और इंद्रगोप (कार्नेलियन) पत्थरों का निर्यात होता था ।

उत्खननों से ज्ञात होता है कि यहाँ 200 ई॰ पू॰ के बाद मणि या मनके बनाने के लिए गोमेद इंद्रगोप और सूर्यकांत (जैस्पर) रत्नों का काम बड़े पैमाने पर होता था । यह संभव था, क्योंकि शिप्रा नदी की तलशिला के फाँसों से ये पत्थर प्रचुर मात्रा में प्राप्त किए जा सकते थे ।

शक और कुषाण काल के समान ही सातवाहन राज्य में नगर उन्नति करते रहे । सातवाहन काल में पश्चिमी और दक्षिणी भारत में तंगर (तेर), पैठन, धान्यकटक, अमरावती, नागार्जुनकोंड, भड़ौच, सोपारा, अरिकमेडु और कावेरीपट्‌टनम समृद्ध नगर थे । तेलंगाना में कई सातवाहन बस्तियाँ खुदाई से निकली हैं ।

इनमें से कुछ तो आंध्रों के दीवार-घिरे उन तीस नगरों में से होंगे जिनका उल्लेख प्लिनी ने किया है । उनका उदय आंध्र के तटवर्ती शहरों से काफी पहले परंतु पश्चिमी महाराष्ट्र के शहरों से कुछ ही समय बाद हुआ होगा ।

परंतु महाराष्ट्र, आंध्र और तमिलनाडु में नगरों का ह्रास सामान्यत: ईसा की तीसरी सदी के मध्य से या उसके बाद से शुरू हो जाता है । कुषाण और सातवाहन साम्राज्यों में नगरों की उन्नति इसलिए हुई कि रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार बहुत अच्छा चल रहा था । भारत रोमन साम्राज्य के पूर्वी भाग और मध्य एशिया के साथ भी व्यापार करता था ।

पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नगर इसलिए फूलते-फलते रहे कि कुषाण शक्ति का केंद्र पश्चिमोत्तर भारत था । भारत में अधिकतर कुषाण नगर मथुरा से तक्षशिला जाने वाले पश्चिमोत्तर मार्ग या उत्तरापथ पर पड़ते थे । कुषाण साम्राज्य में मार्गों पर सुरक्षा का प्रबंध था ।

ईसा की तीसरी सदी में उसका अंत होने से इन नगरों को गहरा धक्का लगा । शायद यही बात दकन में भी हुई । तीसरी सदी से जब रोमन साम्राज्य ने भारत के साथ व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया नगर अपने शिल्पियों और वणिकों का भरण-पोषण करने में असमर्थ हो गए । दकन में हुई खुदाइयों से भी सातवाहन काल के बाद से नगर-बस्तियों के ह्रास का संकेत मिलता है ।

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