एच। माइंट द्वारा सुझाए गए अविकसित देशों की समस्याएं | Read this article in Hindi to learn about:- 1. एच. मिंट द्वारा अर्द्धविकास एवं पिछड़ेपन की प्रस्तावना (Introduction to Economic Backwardness by H.Myint) 2. एच. मिंट के अनुसार अल्पविकसित देशों की समस्या (Problems of Underdeveloped Countries Suggested by H. Myint) and Other Details.

एच. मिंट द्वारा अर्द्धविकास एवं पिछड़ेपन की प्रस्तावना (Introduction to Economic Backwardness):

प्रो. एच. मिंट ने अर्द्धविकास एवं पिछड़ेपन की समस्या को अपने शोध लेख An Interpretation of Economic Backwardness (June 1954) में प्रस्तुत किया । प्रो. मिंट के अनुसार पिछड़ेपन की संकल्पना अनिवार्य रूप से एक तुलनात्मक स्थिति है ।

मिंट के अनुसार कुछ जन समुदाय अन्य अधिक सफल अथवा उन्नत समुदायों की तुलना में कम सफल या पिछड़े होते हैं । पिछड़ी जाति की परिभाषा मिंट ने ऐसे जनसमुदाय द्वारा दी जो किसी-न-किसी कारण निर्वाह-साधन जुटाने के आर्थिक संघर्ष में असफल रहा हो ।

पिछड़ेपन के स्वरूप का आशय तब अधिक प्रासंगिक नहीं होगा, यदि इसका प्रयोग एक ऐसे सजातीय जनसमुदाय तक ही सीमित रखा जाये जिसके कोई अर्न्तराष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्ध नहीं होते ।

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पिछड़ेपन का विचार तब उत्पन्न होता है जब तक आत्मनिर्भर आदिम या मध्यकालीन अर्थव्यवस्था में बाह्य आर्थिक शक्तियाँ प्रवेश करने लगती हैं और वहाँ के निवासी आर्थिक दृष्टि से अधिक उन्नत अन्य जातियों के सम्पर्क में आते हैं ।

एच. मिंट के अनुसार अल्पविकसित देशों की समस्या (Problems of Underdeveloped Countries Suggested by H. Myint):

(1) उनके संसाधनों का सामान्य अर्थों में ‘अल्पविकास’ ही नहीं है बल्कि यह निवासियों के आर्थिक पिछड़ेपन की भी समस्या है ।

(2) जहाँ यह समस्या विद्यमान होती है, वहाँ प्राकृतिक साधनों का ‘अल्पविकास’ एवं निवासियों का पिछड़ापन एक कुचक्र के रूप में एक-दूसरे को गम्भीर बनाते जाते हैं ।

(3) ‘पिछड़ेपन’ एवं ‘साधनों के अल्पविकास’ के अर्न्तसम्बन्ध से प्रभावित होकर प्रायः उपर्युक्त दोनों संकल्पनाओं को एक-दूसरे पर आरोपित करने का प्रयास किया जाता है ।

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इसके साथ ही पहली समस्या को दूसरी के रूप में समझाने की कोशिश की जाती है, ऐसा करते हुए अर्थशास्त्री अपने तार्किक आधार को बदलते रहते हैं, जैसे कि- अल्पविकसित प्राकृतिक साधनों के आधार को छोड़कर वह अल्पविकसित मानवीय साधनों के आधार विनियोग की निजी उत्पादकता से सामाजिक उत्पादकता की ओर ‘उत्पादकता’ के सिद्धान्त से ‘आवश्यकता’ के सिद्धान्त की ओर एवं अन्तत: विनियोजित संसाधनों के अनुकूलतम आबंटन के स्थैतिक विचार से ‘उत्पादक’ अनुदानों द्वारा विनियोग के अगले क्रमों को प्रेरित करने के प्रावैगिक विचार पर केन्द्रित होते हैं । इन सबके बावजूद भी अल्पविकास दृष्टिकोण पिछड़ेपन की वास्तविक समस्या को पहचान नहीं पाया है ।

(4) समस्या की जड़ तक पहुंचने के लिए यह आवश्यक है कि ‘अल्पविकास’ पर आधारित दृष्टिकोण का त्याग किया जाये तथा पिछड़ेपन की समस्या को अपने आप में एक मुख्य समस्या माना जाये ।

एच. मिंट के अनुसार अर्द्धविकास एवं पिछड़ापन की मुख्य प्रवृत्तियाँ (Main Tendencies of Economic Backwardness by H. Myint):

प्रो. मिंट ने पिछड़ेपन की मुख्य प्रवृत्तियों को निम्न बिन्दुओं के द्वारा स्पष्ट किया:

 

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अधिक जनसंख्या का दृष्टिकोण जिसके आधार पर यह सहमति दी जाती है कि पिछड़ी जातियों में जन्म दरों के उच्च होने की प्रवृत्ति होती है । इसी कारण जनसंख्या की अधिकता एवं पिछड़ापन एक-दूसरे को उन कुचक्रों के रूप में गम्भीर बनाते जाते हैं जो इस सम्पूर्ण विजय की मुख्य प्रवृत्ति है ।

परन्तु यह भी त्रुटिरहित व्याख्या नहीं है । सम्भव है कि कुछ देशों में जनसंख्या की अधिकता पिछड़ेपन का मुख्य कारण हो परन्तु इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि अन्य देश जहाँ जनसंख्या का अधिक दबाव नहीं दिखायी देता, क्यों वैसे ही पिछड़े हुए हैं ।

कुछ पिछड़े देशों में प्रारम्भ में जनसंख्या उनके प्राकृतिक साधनों की तुलना में अल्प थी । जब इन देशों में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में सहभागिता की तब से जनसंख्या अतिरेक की समस्या उत्पन्न हुई ।

इसका एक कारण तो यह था कि इन देशों में मृत्युदर गिर गई और दूसरा यह कि उनके संसाधन ऐसी प्राथमिक वस्तुओं के उत्पादन की ओर लगे जिन पर ह्रासमान प्रतिफल का नियम लागू होता है ।

इस स्थिति में जनसंख्या की अधिकता को पिछड़ेपन का कारण नहीं माना जा सकता बल्कि यह भौतिक स्तर पर बाह्य आर्थिक शक्तियों के साथ पिछड़ी जातियों के कुसमायोजन की अभिव्यक्ति है । यह भी आवश्यक नहीं कि यह कुसमायोजन सदैव जनसंख्या के अतिरेक का रूप ले ।

मिंट के अनुसार जनसंख्या की अधिकता की मात्रा न केवल प्राकृतिक संसाधनों की भौतिक मात्रा तथा जनसंख्या के परिमाण के सम्बन्ध पार निर्भर करती है बल्कि यह जनता के तकनीकी एवं आर्थिक विकास के स्तर पर भी निर्भर करती है ।

यह कहना कि आर्थिक पिछड़ेपन का कारण केवल जनसंख्या का दबाव है इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाता कि आर्थिक दृष्टि से पिछड़ी जातियाँ अपनी उत्पादकता को जनसंख्या की वृद्धि के बराबर बढ़ाने में क्यों असमर्थ रहती हैं, जबकि आर्थिक दृष्टि से उन्नत जातियाँ जनसंख्या की भारी वृद्धियों के बावजूद अपना जीवन-स्तर उच्च रखने में सफल हुईं ।

इस समस्या को प्रो. मिंट ने उन्नत जातियों द्वारा पिछड़ी जातियों पर किए राजनीतिक, आर्थिक एवं प्रजातीय भेदभाव द्वारा भी स्पष्ट किया ।

मिंट ने पिछड़े देश के ऐसे मॉडल को ध्यान में रखा जिसमें निम्न प्रतिकूल विशेषताएं विद्यमान थीं:

(1) आरम्भ में देश की जनसंख्या उसके सम्भावित प्राकृतिक संसाधनों के सापेक्ष अल्प थी अर्थात् प्रारम्भ से ही इन देशों में जनसंख्या अतिरेक की समस्या विद्यमान न थी ।

(2) देश के प्राकृतिक साधनों को निर्यात हेतु किए जाने वाले प्राथमिक वस्तु उत्पादन के लिए प्रयुक्त किया जाता है ।

(3) देश में राजनीतिक स्थिति चाहे कैसी भी हो, देश के निवासियों के आर्थिक मामलों में भेदभाव प्रायः नहीं किया जाता ।

स्पष्ट है कि मिंट के मॉडल के अनुसार:

(1) देश जिसके प्राकृतिक संसाधनों की तुलना में जनसंख्या अधिक है, बाह्य विश्व के साथ आर्थिक सम्बन्ध स्थापित करने के फलस्वरूप विकास का आरम्भ करता है ।

(2) देश के प्राकृतिक संसाधनों का विकास निर्यात हेतु प्राथमिक उत्पादन करने की दिशा में होता है । यह विकास विदेशी निजी उपक्रमियों द्वारा किया जाता है जिसे देश की सरकारी नीति का सहयोग मिलता है । विश्व बाजार का विस्तार होने पर निर्यात वस्तु की माँग बढ़ती है ।

(3) आर्थिक सम्बन्धों में एक देश के सभी निवासियों को वैधानिक समानता मिली होती है जिसमें किसी भी प्रकार की सम्पत्ति का अधिग्रहण एवं किसी भी प्रकार के पेशे का चुनाव सम्मिलित है । लेकिन कुछ उपनिवेशों में यह मान्यता लागू नहीं होती ।

संक्षेप में मिंट ने स्पष्ट किया कि असमानता उत्पन्न करने वाले घटक केवल पिछड़े एवं उन्नत देशों के मध्य ही कार्यशील नहीं होते बल्कि एक पिछड़े हुए देश में व्यक्तियों के पिछड़े व उन्नत वर्गों के मध्य में भी विद्यमान होते हैं ।

एच. मिंट के द्वैतता सिद्धांत (Dualism Theory by H. Myint):

मिंट के अनुसार पिछड़े देश बाह्य विश्व के सम्पर्क में आने से पूर्व प्राथमिक व मध्य पूर्व स्थिर अवस्था में होते हैं । इनकी विशिष्ट आदतें एवं रीति-रिवाज दिखायी देते हैं । निवासी न्यूनतम जीवन-निर्वाह स्तर पर निवास करते हैं ।

निम्न उत्पादकता एवं आर्थिक प्रगति के अभाव के बावजूद इन देशों में आर्थिक दबाव एवं तनाव की कोई समस्या नहीं होती । इच्छाएँ एवं क्रियाएँ सामान्य रूप से चलती हैं तथा व्यक्ति अपने पर्यावरण के साथ सन्तुलन में रहते हैं ।

मिंट ने स्पष्ट किया कि विकास की दूसरी अवस्था विशेष रूप से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यह पिछड़े समाज बाह्य आर्थिक शक्तियों से परिचित हुए । पिछड़े हुए लोगों का जब मौद्रिक अर्थव्यवस्था से सम्पर्क हुआ तो उन्होंने अपने जीवन-स्तर में परिवर्तन का अनुभव किया ।

धीरे-धीरे उन्होंने आयातों की मांग की तथा इसके बदले नगद फसलों खदान एवं बागानों के उत्पादन का निर्यात किया । इन देशों के आर्थिक विकास में निर्यात एवं कर देय क्षमता की मुख्य भूमिका रही ।

विश्व के सम्पर्क में आने से खुलेपन की इस प्रक्रिया में पिछड़े देश के निवासियों ने पश्चिमी समाज के मूल्यों को अपनाना प्रारम्भ किया । इससे आर्थिक तनाव दबाव एवं कुसमायोजन उत्पन्न होने लगा । इस तीसरी अवस्था में अर्द्धविकसित देशों के सम्मुख राजनीतिक समस्याएँ उठ खड़ी हुई हैं ।

मिंट के अनुसार ऐसी द्वैत अर्थव्यवस्थाओं में अधीन व्यक्तियों के मध्य विशेषीकरण का एक उच्च अंश प्राप्त करना सम्भव नहीं हुआ । एक पिछड़े देश में विशेषीकरण की प्रक्रिया निर्यात बाजार के लिए तब अधिक तीव्र एवं सफल होती है जब यह पिछड़े व्यक्तियों को उत्पादन की परम्परागत विधियों के द्वारा कृषि उत्पादन एवं अकुशल श्रम के रूप में कार्य करने देती है ।

द्वैत अर्थव्यवस्था की एक अन्य विशेषता को स्पष्ट करते हुए मिंट ने कहा कि ऐसे समाजों में बड़े यूरोपीय प्रतिष्ठानों एवं विदेशियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है । उदाहरणार्थ दक्षिण पूर्वी एशिया में भारतीय एवं चीनी, पूर्वी अफ्रीका में भारतीय, पश्चिमी अफ्रीका में सीरिया निवासी एवं अफ्रीकी निवासियों ने मध्यस्थ की भूमिका प्रस्तुत की ।

इन मध्यस्थों ने कृषकों के द्वारा उत्पादित अनाज को एकत्रित किया । घरेलू उपभोक्ताओं को आयातित वस्तुएँ वितरित कीं तथा मुद्रा को उधार देने का काम किया । घरेलू जनसंख्या एवं पश्चिमी उन्नत समाज के मध्य उन्होंने बफर की भूमिका प्रस्तुत की ।

उन्होंने पिछड़े हुए क्षेत्रों में शिक्षा व प्रेरणा उत्पन्न करने के प्रभाव के रूप में कार्य किया । पिछड़े हुए देश के निवासियों को बागानों एवं खनन उद्योग में काम करने के अवसर मिले ।

यह देखा गया कि इन उद्योगों में काम के अवसर मिलने के बावजूद उन्होंने इसे नियमित रोजगार के रूप में न देखकर कुछ मुद्रा प्राप्त करने के अस्थायी तरीके के रूप में लिया । इस प्रकार खुलेपन की प्रक्रिया के प्रारम्भ होने के बावजूद पिछड़े देशों के व्यक्ति उन्नत आर्थिक जीवन की पद्धतियों से अपरिचित ही रहे ।

वित्तीय द्वैतता (Financial Dualism):

प्रो. मिंट ने अपने अध्ययन Economic Theory and the Underdeveloped Countries (1971) एवं Economics of the Developing Countries (1969) में वित्तीय द्वैतता का विश्लेषण किया ।

वित्तीय द्वैतता से आशय है कम विकसित देशों में संगठित एवं असंगठित मुद्रा बाजार के मध्य विभिन्न मुद्रा दरों का विद्यमान होना । यह देखा गया कि परम्परागत क्षेत्र के असंगठित मुद्रा बाजार में ब्याज की दर आधुनिक क्षेत्र के संगठित मुद्रा बाजार में विद्यमान ब्याज की दरों से काफी अधिक होती है ।

(1) असंगठित मुद्रा बाजार के अन्तर्गत गाँव के दुकानदार, भूमि स्वामी, लेन-देन का कार्य करने वाले व्यापारी, गाँव की अर्थव्यवस्था में एकाधिकारी की मुख्य भूमिका का निर्वाह करते हैं । दूसरी तरफ कम विकसित देश के संगठित मुद्रा बाजार में ब्याज की दरें अल्प होती हैं तथा साख की सुविधाएँ पर्याप्त होती हैं ।

संगठित मुद्रा बाजार में वाणिज्यिक बैंक एवं अन्य वित्तीय संस्थाएँ निम्न ब्याज की दरों में अल्पकालीन साख, आधुनिक व्यावसायिक क्षेत्र को प्रदान करती हैं । इस क्षेत्र में निर्यात उद्योगों के विदेशी स्वामित्व वाले उपक्रम सरकार एवं आधुनिक विनिर्माण उपक्रम सम्मिलित रहते हैं ।

(2) मिंट के अनुसार पिछड़े देशों में औपनिवेशिक अवधि एवं कम विकसित देशों में औद्योगीकरण प्रारम्भ होने पर बन्द अर्थव्यवस्था के अधीन की वित्तीय द्वैतता में अन्तर होता है ।

औपनिवेशिक अवधि में स्थिर विनिमय दरों पर करेन्सी प्रणाली स्वचालित होती है तथा परिवर्तनीयता का गुण विद्यमान होता है । विदेशी विनिमय की कमी व भुगतान सन्तुलन की कोई समस्या नहीं होती ।

वर्तमान कम विकसित देश तीव्र घरेलू मुद्रा प्रसार एवं भुगतान सन्तुलन की कठिनाइयों का अनुभव करते हैं जिसके परिणामस्वरूप परम्परागत क्षेत्र में छोटी व्यापारिक इकाइयाँ, जैसे- कृषक, छोटे व्यापारी, दस्तकारी के कामगार उच्च ब्याज की दरों पर साख प्राप्त कर पाते हैं तथा देश के पास विदेशी विनिमय की कमी होती है ।

(3) औपनिवेशिक प्रणाली के अधीन संगठित कम विकसित देशों के मुद्रा बाजार में पश्चिमी वाणिज्यिक बैंकों की शाखाओं का विस्तार होता है जो अन्तर्राष्ट्रीय वित्त बाजार से जुड़े होते हैं ।

(4) औपनिवेशिक प्रणाली में आधुनिक क्षेत्र के अधीन खदान, बागान एवं विदेशी उपक्रम वाणिज्यिक बैंकों एवं विश्व पूंजी बाजार में निम्न ब्याज दरों पर साख प्राप्त करते हैं । वर्तमान समय में कम विकसित देशों ने केन्द्रीय बैंकों की स्थापना द्वारा मौद्रिक स्वाधीनता प्राप्त की है ।

इन देशों के अपने विदेशी विनिमय नियन्त्रण हैं तथा इन्होंने विदेशी वाणिज्यिक बैंकों से लाभ की प्राप्तियों एवं कोषों के हस्तान्तरण को नियन्त्रित करने में सफलता पायी है । इसके परिणामस्वरूप कम विकसित देशों के संगठित मुद्रा बाजार को विश्व के पूंजी बाजार से पृथक् रखा जा सकता है ।

इन देशों ने सस्ती मुद्रा नीति को अपनाया है । यह पाया गया है कि पूंजी दुर्लभ कम विकसित देशों के केन्द्रीय बैंकों में पूंजी समृद्ध विकसित देशों के सापेक्ष ब्याज की दरें निम्न हैं । इस प्रकार यह देश अपनी विनिमय दरों का अधिमूल्यन करते रहते हैं ।

(5) कम विकसित देश मुद्रा प्रसारिक दबाव, गिरती हुई विदेशी विनिमय दर एवं भुगतान सन्तुलन के दबावों का सामना करते हैं । इसलिए अधिमूल्यित विनिमय दरों पर विदेशी विनिमय की अधिक माँग का सामना करते हैं । इसे दूर करने के लिए वह विदेशी विनिमय आयात नियन्त्रण, मौद्रिक एवं राजकोषीय उपाय एवं प्रत्यक्ष नियन्त्रणों पर आधारित रहते हैं ।

उपर्युक्त घटकों से परम्परागत क्षेत्र एवं आधुनिक औद्योगिक क्षेत्र के मध्य आर्थिक द्वैतता बढ़ती जाती है । राजकोषीय एवं मौद्रिक नीतियाँ परम्परागत क्षेत्र की तुलना में आधुनिक औद्योगिक क्षेत्र का पक्ष लेती हैं । कृत्रिम रूप से निर्धारित निम्न ब्याज दरों का अनुरक्षण करने वाली सस्ती मुद्रा नीति बड़े औद्योगिक उपक्रमों को साख उपलब्ध कराती हैं ।

ब्याज की निम्न दरें विदेशों से पूँजी के प्रवाह एवं देश के मध्य बचतों को निरुत्साहित करती हैं लेकिन ऋणों के लिए अतिरिक्त माँग का सृजन करती हैं । इस प्रकार घरेलू बचतें निम्न ब्याज की दर पर आधुनिक औद्योगिक क्षेत्र की ओर प्रवाहित होती है ।

इसके परिणामस्वरूप परम्परागत लघु उद्योगों में पूँजी की पूर्ति घट जाती है तथा कृषि क्षेत्र उच्च ब्याज की दर पर पूँजी की प्राप्ति कर पाता है । विदेशी विनिमय एवं आयात पर प्रतिबन्ध लगने से भुगतान सन्तुलन में समायोजन सम्भव होता है, जिसके परम्परागत क्षेत्र की तुलना में आधुनिक क्षेत्र को लाभ प्राप्त होते हैं ।

आधुनिक क्षेत्र में ही उपलब्ध विदेशी विनिमय का आबंटन होता है तथा विनिर्माण उद्योग में उत्पादन की उच्च पूँजी गहन विधियों के अपनाने से उत्पादन बढ़ता है ।

कृषि एवं लघु उद्योग क्षेत्र विदेशी विनिमय एवं आयात नियन्त्रण के परिणाम-स्वरूप आयातित उपभोक्ता वस्तुओं को उच्च कीमतों पर प्राप्त करते हैं तथा वह विदेशी विनिमय एवं आयात परमिट को आसानी से प्राप्त नहीं कर पाता, क्योंकि कम विकसित देश में लाल फीताशाही एवं भ्रष्टाचार का वर्चस्व रहता है ।

परम्परागत क्षेत्र इस दृष्टि से भी हानि प्राप्त करता है, क्योंकि सार्वजनिक सेवाओं पर किया जाने वाला व्यय ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों को अधिक लाभ पहुँचाता है । परम्परागत क्षेत्र की तुलना में आधुनिक क्षेत्र में अन्तर्संरचना सुधार तेजी से होते हैं ।

परम्परागत एवं आधुनिक क्षेत्रों के मध्य साधनों का कुआवंटन होने के परिणामस्वरूप कम विकसित देशों में एकीकृत घरेलू पूँजी बाजार के विकास में बाधा आती है । सरकारी नियन्त्रणों के बढ़ने से काले बाजार का जन्म होता है ।

घरेलू मुद्रा प्रसार के साथ अधिमूल्यित विनिमय दरें पूँजी के सट्‌टाजनित बर्हिप्रवाह को जन्म देती हैं । एक समर्थ पूंजी बाजार की वृद्धि इस कारण भी नहीं हो पाती, क्योंकि व्यक्ति अपनी पूँजी को स्वर्ण, आभूषण एवं सट्‌टाजनित क्रियाओं में लगाते हैं ।

पूँजी की दुर्लभ पूर्ति पर लगने वाले सरकारी नियन्त्रणों से कम विकसित देशों में वित्तीय मध्यवर्तियों की वृद्धि में अवरोध उत्पन्न होता है । यह नियन्त्रण बड़ी विनिर्माण इकाइयों एवं बैंकों को लाभ पहुँचाते हैं ।

सरकार यह विश्वास करती है कि दुर्लभ पूँजीगत वस्तुओं एवं आधुनिक मशीनरी पर विनियोजित पूँजी कोष उत्पादक होता है, जबकि कृषि एवं व्यापार क्रियाओं पर किया गया विनियोग अनुत्पादक होता है ।

प्रो. मिंट यह आवश्यक समझते हैं कि परम्परागत क्षेत्र में साहूकारों की क्रियाओं को रोकने एवं इस क्षेत्र को वाणिज्यिक बैंकों व सहकारी साख समितियों द्वारा सुलभ साख पहुँचाने के प्रयास इसलिए सफल नही हो पाते ।

क्योंकि:

(i) ऋण प्रदान करने के नियम एवं औपचारिकताएँ काफी दृढ़ होती हैं तथा व्यापक लाल फीताशाही पनप जाती है,

(ii) ग्रामीण क्षेत्रों में वाणिज्यिक बैंकों के कर्मचारियों के वेतन एवं उपरिमद लागतें उच्च होती हैं,

(iii) मुख्य कार्यालय एवं शाखाओं के मध्य तालमेल का अभाव होता है,

(iv) अनुदान युक्त ऋण प्रदान करने में काफी भेदभाव बरता जाता है ।

प्रो. मिंट ने कम विकसित देशों में वित्तीय द्वैतता दूर करने के लिए दो प्रकार की नीतियों को प्रस्तावित किया है:

i. कम विकसित देशों को अपने संगठित साख बाजारों में ब्याज की दरों को इतना अधिक बढ़ाना चाहिए जिससे विद्यमान पूंजीगत कोषों की कमी की दशा दिखायी दे । इसके परिणामस्वरूप एक एकीकृत घरेलू कीमत बाजार की वृद्धि होगी जो बचतों को आसानी से देश के भीतर एवं विदेशों से एकत्रित कर पाएगी ।

ii. एक अधिक एकीकृत घरेलू पूँजी बाजार को सृजित करना तथा परम्परागत व आधुनिक दोनों क्षेत्रों को समान दरों पर पूँजी कोष उपलब्ध करना आवश्यक है । इससे दोनों क्षेत्रों के मध्य संसाधनों का कुवितरण कम होगा । परम्परागत क्षेत्र में ब्याज की दर को घटाया जाना भी आवश्यक है ।