भारत की संवैधानिक प्रणाली पर निबंध | Essay on Constitutional System of India in Hindi!

Essay # 1. संवैधानिक व्यवस्था का अर्थ (Meaning of Constitutional System of India):

किसी भी देश का संविधान उसकी शासन प्रणाली का फ्रेमवर्क प्रस्तुत करता है । लेकिन उसकी सफलता या असफलता उन लोगों पर निर्भर करती है जो उसके संचालन के लिये उत्तरदायी हैं । यदि एक ही संविधान को दो भिन्न देशों में लागू कर दिया जाये तो उसके भिन्न-भिन्न परिणाम सामने आयेंगे । भारत के संविधान द्वारा यहाँ पर एक लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की स्थापना की गयी है ।

भारत में राजनीतिक लोकतंत्र अन्य नवोदित राष्ट्रों की तुलना में सफल माना जा सकता है । गत 63 वर्षों में भारत में केन्द्रीय स्तर पर 15 बार चुनावों के माध्यम से शान्तिपूर्ण तरीके से सत्ता परिवर्तन हो चुका है ।

जबकि एशिया व अफ्रीका के कई नवोदित राष्ट्रों में लोकतंत्र कुछ ही वर्षों में दम तोड़ गया तथा उसका स्थान तानाशाही शासन ने ले लिया । पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार, फिलीपीन्स आदि इसके उदाहरण हैं । इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भारत में संविधान द्वारा स्थापित लोकतांत्रिक व्यवस्था को चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ा ।

Essay # 2. संवैधानिक व्यवस्था  के संकट (Crisis of Constitutional System of India):

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भारतीय संविधान द्वारा भारत में संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था की गयी थी । राजनीतिक दलों को राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने की स्वतंत्रता नागरिकों के मौलिक अधिकारों की व्यवस्था न्यायपालिका तथा प्रेस की स्वतंत्रता सार्वभौमिक मताधिकार आदि इस संसदीय लोकतंत्र के स्तंभ थे ।

लेकिन भारत में 1970 के दशक में कुछ ऐसी घटनाएँ हुई जिन्होंने लोकतंत्र को कमजोर बनाने का कार्य किया । 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी द्वारा राष्ट्रीय आपात की घोषणा तथा आपातकाल के दौरान जनता के मौलिक अधिकारों का हनन, लोकतांत्रिक विरोध को दबाना, न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर चोट, गैर-संवैधानिक सत्ता केन्द्रों का उदय आदि कुछ ऐसी प्रवृत्तियाँ दिखाई दीं कि भारत में लोकतंत्र का भविष्य ही संकटग्रस्त दिखने लगा । लोकतंत्र को कमजोर बनाने वाली इन्हीं प्रवृत्तियों को समीक्षकों ने संवैधानिक व्यवस्था के संकट की संज्ञा दी है ।

भारतीय जनता तथा राजनीतिक दलों व अन्य समूहों द्वारा इन प्रवृत्तियों का विरोध भी किया गया तथा अन्तत: भारतीय लोकतंत्र को इस संकट से उबरने में सफलता भी मिल गयी लेकिन इस संकट तथा इससे जुड़ी घटनाओं का अध्ययन भविष्य में भारतीय लोकतंत्र की रक्षा के लिये आवश्यक है ।

इससे यह भी सीख मिलती है कि किस तरह संसदात्मक लोकतंत्र में जनता द्वारा चुनी हुई सरकार तानाशाही शासन का रूप ले लेती है । अत: इस अध्याय में इस संकट के स्वरूप तथा इससे उबरने के प्रयासों का अध्ययन किया जायेगा ।

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I. 1971 के चुनाव व नई सरकार (1971 Election and New Government):

1970 के संवैधानिक व्यवस्था के संकट की पृष्ठभूमि 1971 के चुनावों के बाद स्थापित कांग्रेस के शासन की प्रकृति में ही निहित थी । 1971 में इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी को चुनावों में भारी सफलता मिली थी । लेकिन यह सफलता कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के विरोध का सामना करते हुये प्राप्त हुई थी ।

पुन: 1969 में कांग्रेस का विभाजन हुआ था तथा इन्दिरा गांधी को सरकार तथा अपनी पार्टी दोनों में अपनी स्थिति को मजबूत करने की आवश्यकता थी । ‘गरीबी हटाओ’ के नारे से चुनावी सफलता तो प्राप्त हो गयी थी लेकिन आम जनता की बड़ी हुयी आकांक्षाओं को पूरा करना एक बड़ी चुनौती थी । न्यायपालिका तथा अन्य राजनीतिक समूह भारत में बड़े व क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तनों के पक्ष में नहीं थे ।

1971 के बाद यद्यपि इन्दिरा गांधी की व्यक्तिगत छवि में इजाफा हुआ लेकिन अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान का सामना करना पड़ा । महँगाई तथा बेरोजगारी की समस्याएं नियंत्रण में नहीं थीं । उधर इन्दिरा गांधी अपने चुनावी वायदों को पूरा करने के लिये तीव्र परिवर्तन की नीतियों को लागू करना चाहती थीं तथा इसी माध्यम से भारतीय राजनीति व कांग्रेस में अपनी पकड़ मजबूत करना चाहती थी । इस पृष्ठभूमि में जो घटनाक्रम घटित हुआ उसमें संवैधानिक व्यवस्था के सकट के बीज निहित थे ।

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II. प्रतिबद्ध नौकरशाही की धारणा का चलन (The Trend of the Conviction of Committed Bureaucracy):

सरकार को अपनी तीव्र सुधारवादी तथा समाजवादी नीतियों को लागू करने में सबसे बड़ी बाधा पुराने रवैये पर चलने वाली नौकरशाही के रूप में दिखाई दे रही थी । नौकरशाही का यहाँ तात्पर्य प्रशासनिक अधिकारियों से है जो सरकार की नीतियों को लागू करने के लिये उत्तरदायी होते हैं ।

अत: एक ऐसी नौकरशाही की कल्पना प्रस्तुत की गयी जो सरकार व शासक दल की नीतियों के प्रति वचनबद्ध हो । ऐसी नौकरशाही को ही प्रतिबद्ध नौकरशाही कहा जाता है । प्रतिबद्ध नौकरशाही का विचार प्रचलित तटस्थ नौकरशाही के विचार से नितान्त भिन्न था ।

भारत में नौकरशाही की कल्पना ब्रिटेन से ली गयी है तथा राजनीतिक तटस्थता उसका सबसे प्रमुख ल क्षण है । नौकरशाही की राजनीतिक तटस्थता के पीछे मुख्य तर्क यह है कि लोकतंत्र में विभिन्न विचारधाराओं के दल समय-समय पर सत्ता प्राप्त करते हैं, जबकि नौकरशाही स्थायी रूप से काम करती है तथा वह विभिन्न विरोध विचारधाराओं के दलों के सरकारों के अधीन कार्य करती है ।

अत: राजनीतिक रूप से उन्हें तटस्थ रहना आवश्यक है । इस पृष्ठभूमि में इन्दिरा सरकार द्वारा प्रचारित प्रतिबद्ध नौकरशाही के विचार ने भारत में विवाद का रूप धारण कर लिया । सरकार का तर्क यह था कि उसे अपनी नीतियों दूसरे शब्दों में दल की नीतियों को लागू करने के लिये एक प्रतिबद्ध नौकरशाही की आवश्यकता है । अन्यथा उसका तीव्र सामाजिक व आर्थिक परिवर्तन का लक्ष्य पूरा नहीं हो पायेगा । तब से लेकर अब तक यह विवाद समय-समय पर उठता रहता है ।

वास्तव में प्रतिबद्ध नौकरशाही की धारणा साम्यवादी देशों की उत्पत्ति है, क्योंकि वहाँ एक ही पार्टी का शासन होता है तथा एक ही राजनीतिक विचारधारा को मान्यता मिली होती है । साम्यवादी देशों में नौकरशाही साम्यवादी पार्टी की विचारधारा व नीतियों को लागू करने का साधन होती है ।

1970 के दशक में भारत में केन्द्रीय व प्रान्तीय स्तरों पर प्रतिबद्ध नौकरशाही के विचार का प्रचलन भारत में साम्यवादी देशों के प्रभाव का परिणाम हो सकता है । उदाहरण के लिये 1967 में जब पश्चिम बंगाल में साम्यवादी पार्टी की सरकार का गठन हुआ तो यदि कहीं उद्योगपतियों का घेराव किया जाये तो सरकारी कर्मचारी उसमें हस्तक्षेप नहीं करेंगे ।

लोकतंत्र में इसे न्यायसंगत आदेश नहीं माना जा सकता क्योंकि उद्योगपतियों सहित सभी नागरिकों के अधिकारों की रक्षा का दायित्व सरकार का है । इस सम्बन्ध में सही दृष्टिकोण यह है कि नौकरशाही को भारत के किसी दल विशेष की विचारधारा में प्रतिबद्धता व्यक्त करने की बजाय संविधान में निहित मूल्यों व आदर्शों के प्रति वचनबद्ध होना चाहिये ।

III. प्रतिबद्ध न्यायपालिका (Committed Judiciary):

सरकार द्वारा जिस तरह नौकरशाही को सरकार की प्रगतिशील नीतियों में बाधक मानकर प्रतिबद्ध नौकरशाही का विचार दिया गया था उसी तरह न्यायपालिका को भी सरकार की प्रगतिशील नीतियों में बाधक माना जा रहा था तथा न्यायपालिका से सरकार की नीतियों के अनुसार ही कार्य करने की अपेक्षा की जा रही थी । ऐसी न्यायपालिका जो सरकार या शासक दल की नीतियों को करने की दृष्टि से ही अपने दायित्वों का निर्वाह करती है तो उसे प्रतिबद्ध न्यायपालिका कहा जाता है ।

प्रतिबद्ध नौकरशाही का विचार साम्यवादी एक दलीय शासन प्रणाली वाले देशों जैसे चीन अथवा पूर्व सोवियत संघ की विशेषता है, क्योंक वहाँ एक ही विचारधारा-साम्यवादी विचारधारा का वर्चस्व होने के कारण सरकार के तीनों अंगों से साम्यवादी विचारधारा के अनुसार कार्य करने की अपेक्षा की जाती है ।

इसके विपरीत उदारवादी लोकतांत्रिक देशों में विभिन्न विचारधारा वाले देशों को राजनीति में भाग लेने की इजाजत होती है तथा नागरिकों को सरकार के विरुद्ध भी कई प्रकार के अधिकार व स्वतंत्रताएं प्राप्त होती हैं । अत: इन देशों में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को आवश्यक माना गया है ताकि वह सरकार के आदेशों व नीतियों के विरुद्ध भी नागरिकों के अधिकारों की रक्षा कर सके ।

IV. लोकप्रिय संसद बनाम स्वतंत्र न्यायपालिका (Popular Parliament vs. Independent Judiciary):

1970 के दशक में भारत में प्रतिबद्ध नौकरशाही का विचार वास्तव में संसद व न्याय-पालिका के वर्चस्व की लड़ाई का रूप धारण कर चुका है तथा इसके उदाहरण वर्तमान समय में भी देखने में आते है । वस्तुत: भारतीय संविधान में नागरिकों को कतिपय मौलिक अधिकार प्रदान किये गये हैं ।

इन मौलिक अधिकारों तथा संविधान दोनों की रक्षा के दायित्व का अधिकार न्यायपालिका को प्राप्त है । इन मौलिक अधिकारों में संपत्ति का अधिकार भी उस समय शामिल था । सरकार जब भी प्रगतिशील नीतियों को लागू करने के लिये संसद में कानून बनाती तो न्यायपालिका उन्हें किसी मौलिक अधिकर के उल्लंघन के आधार पर अवैध घोषित कर देती थी ।

भारत में संसद व न्यायपालिका के बीच प्रतिद्वन्द्विता का पहला मामला तब आया जब 1967 में गोलकनाथ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती संसद ने इस निर्णय को निष्प्रभावी बनाने लिये 1971 में 24वाँ संविधान संशोधन पारित किया तथा अनुच्छेद-368 में लिख दिया गया कि संसद की संविधान संशोधन की शक्ति पर कोई सीमा नहीं होगी । यह विवाद यहीं पर शान्त नहीं हुआ ।

1973 में केशवानन्द भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि संसद संविधान के मौलिक ढाँचे में कोई संशोधन नहीं कर सकती । इस निर्णय को निष्प्रभावी करने के लिये 1976 में संविधान में संशोधन कर यह प्रावधान किया गया कि संसद द्वारा किये गये किसी संविधान संशोधन को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती । दोनों के मध्य यह विवाद आज भी कायम है ।

संसद व न्यायपालिका के बीच इस विवाद का निहितार्थ यह है कि सरकार ने न्यायपालिका को अपनी प्रगतिशील नीतियों को लागू करने के मार्ग में एक बाधा के रूप में लिया । प्रतिबद्ध नौकरशाही का विचार इसी बाधा को दूर करने का एक प्रयास है ।

लेकिन भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता के पक्ष में इतना प्रबल जनमत था कि यह विचार भारत में 1970 के दशक में भी लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर सका । यहाँ सही मत यही है कि न्यायपालिका को भी संविधान की व्यवस्था के प्रति वचनबद्ध होना चाहिये न कि किसी राजनीतिक दल व उसकी सरकार की विचारधारा के प्रति ।

Essay # 3. संवैधानिक व्यवस्था के संकट की पृष्ठभूमि (Background of Crisis of Constitutional Arrangement):

भारत में संवैधानिक व्यवस्था के संकट का शीर्ष बिन्दु 25 जून, 1975 को इन्दिरा सरकार द्वारा लागू को गयी आपातकाल की घोषणा थी । आपातकाल में ही सरकार द्वारा मौलिक अधिकारों रह हनन, न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर रोक तथा राजनीतिक दलों की गतिविधियों पर प्रतिबन्ध जैसी घटनाएँ घटित हुईं ।

यह संकट अचानक नहीं आया बल्कि इसकी पृष्ठभूमि में कई अन्य कई घटनाएँ भी महत्वपूर्ण हैं, जिनका विवरण निम्न प्रकार हैं:

1. आर्थिक समस्याएँ (Financial Problems):

1971 में भले ही देश की जनता ने कांग्रेस को ‘गरीबी हटाओ’ के नाम पर बहुमत प्रदान कर दिया हो लेकिन देश की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी । इसके कई कारण थे । 1971 के भारत-पाक युद्ध के कारण न केवल रक्षा व्यय में बढ़ोत्तरी हुयी, वरन् बांग्लादेश से एक करोड़ शरणार्थी भारत आ गये । इतनी बड़ी संख्या में शरणार्थियों के भरण-पोषण में अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त बोझ पड़ा ।

इससे अर्थव्यवस्था की स्थिति कमजोर हो गयी । बेरोजगारों की संख्या निरन्तर बढ रही थी । सरकारी आकड़ों के अनुसार 1971 में भारत में बेरोजगार व्यक्तियों की संख्या 187 करोड़ थी । ग्रामीण बेरोजगारों की संख्या इसमें शामिल नहीं है । उधर कई विपरीत बाह्य व आन्तरिक परिस्थितियों के कारण आवश्यक वस्तुओं की महँगाई तेजी से बढ रही थी ।

1973 में तेल उत्पादक देशों ने तेल उत्पादन की मात्रा व उनकी कीमतों को नियंत्रित करने की प्रक्रिया शुरू की । इसे अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में ‘तेल कूटनीति’ के नाम से जाना जाता है । 1973-74 में कतिपय महत्त्वपूर्ण वस्तुओं जैसे पेट्रोलियम उत्पाद उर्वरक तथा लोहा व स्टील की कीमतें बहुत अधिक बढ गयीं थीं । तेल की कीमतों में वृद्धि के कारण अन्य वस्तुओं की कीमतों में भी इजाफा हुआ ।

सरकारी नियंत्रणों के कारण भ्रष्टाचार की समस्या भी बढ़ गयी । बढ़ती महँगाई ने उत्पादकों किसानों तथा आम जनता सभी को प्रभावित किया । इन आर्थिक समस्याओं के कारण समाज के अन्य वर्गों जैसे-मजदूर किसान छात्र मध्यम वर्ग आदि में असन्तोष बढ़ने लगा । इस असन्तोष के कारण देश के कई हिस्सों में विरोध व आन्दोलन आयोजित किये गये ।

2. गुजरात का नवनिर्माण आन्दोलन (Gujarat Reform Movement):

गुजरात के नवनिर्माण आन्दोलन की जड़ें भी देश की आर्थिक समस्याओं में निहित है । इसकी शुरूआत तो शिक्षण संस्थाओं से हुयी लेकिन शीघ्र ही इसने बड़े आन्दोलन का रूप ले लिया । गुजरात के अहमदाबाद शहर के एल की. इन्जीनियरिंग कालेज के छात्रावास में बढ़ती महँगाई के कारण 20 दिसम्बर 1973 को भोजन की दरों में एक साथ 20 प्रतिशत का इजाफा किया गया ।

विरोधस्वरूप छात्रों ने आन्दोलन शुरू कर दिया । इस आन्दोलन ने धीरे-धीरे बड़ा रूप ले लिया तथा अन्य समस्याओं जैसे भ्रष्टाचार बेरोजगारी जमाखोरी मुनाफाखोरी कुप्रशासन तथा अन्य सामाजिक समस्याओं को भी अपने आगोश में लिया । इस आन्दोलन को आम जनता की सहानुभूति प्राप्त थी क्योंकि इसमें आम जनता की मौलिक समस्याओं को उठाया गया था । छात्रों व युवाओं ने आन्दोलन को चलाने के लिये नव निर्माण युवक समिति की स्थापना की ।

धीरे-धीरे इस आन्दोलन में समाज के अन्य वर्ग तथा विभिन्न राजनीतिक दल जैसे- जनसंघ भारतीय क्रान्ति दल कांग्रेस (संगठन) आदि भी शामिल हो गये । पुरानी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मोरारजी देसाई ने आन्दोलन के समर्थन में आमरण अनशन किया । आन्दोलन की लोकप्रियता अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक जैसी समाजसेवी संस्थाएँ भी शामिल हो गयीं । इस आन्दोलन को ही नवनिर्माण आन्दोलन के नाम से जानते है ।

सरकार ने आन्दोलन को दवाने के भरसक प्रयास किये लेकिन उसे सफलता नहीं मिली । परिणामत गुजरात में कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा । 16 मार्च 1974 को गुजरात में राष्ट्रपति शासन लागू कर विधान सभा को भंग कर दिया गया ।

करीब तीन माह चले इस आन्दोलन में 100 लोगों की जान गयी लगभग 3,000 लोग घायल हुये तथा करीब 8,000 लोगों को जेल भेजा गया । जून 1975 में गुजरात विधान सभा के नये चुनाव हुये जिसमें कांग्रेस को पराजय मिली तथा वहाँ गैर-कांग्रेसी दलों की सरकार का गठन किया गया ।

3. जयप्रकाश नारायन तथा बिहार आन्दोलन (Jayprakash Narayan and Bihar Movement):

गुजरात की तरह बिहार भी महँगाई, मुनाफाखोरी, बेरोजगारी, आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति में कमी जैसी समस्याओं से जूझ रहा था तथा वहाँ भी गुजरात की तर्ज पर छात्रों द्वारा आन्दोलन की शुरुआत की गयी । प्रसिद्ध समाजवादी तथा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जयप्रकाश नारायन यद्यपि सार्वजनिक जीवन से अलग थे लेकिन उन्होंने बिहार की जनता की भावनाओं को देखते हुए इस आन्दोलन का नेतृत्व अपने हाथ में लिया ।

8 अप्रैल 1974 को उन्होंने इन समस्याओं के विरोध में पटना में एक मौन जुलूस निकाला जिस पर पुलिस द्वारा लाठीचार्ज किया गया । पाँच जून 1974 को उन्होंने पटना में एक बड़ी रैली को सम्बोधित किया जिसमें लाखों लोगों ने भाग लिया था । उन्होंने कहा कि देश की आजादी के 27 वर्ष बाद भी गरीबी बेरोजगारी महँगाई जैसी समस्याओं का अन्त नहीं हुआ तथा जनता विभिन्न प्रकार के शोषण व अत्याचार का शिकार है ।

अत: अब केवल सरकार को बर्खास्त करने से काम नहीं चलेगा वरन अब सम्पूर्ण क्रान्ति की आवश्यकता है । सम्पूर्ण क्रान्ति का तात्पर्य जीवन के सभी क्षेत्रों-सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व नैतिक में आधारभूत परिवर्तन लाने से है । इसके साथ ही उन्होंने बिहार आन्दोलन को अपने नेतृत्व से मजबूती प्रदान कर दी ।

जयप्रकाश नारायन ने वी. एम. तारकुण्डे के साथ मिलकर 1974 में सिटीजन फॉर डेमाक्रेसी तथा पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज- पी. यू. सी. एल. नामक गैर-सरकारी संगठनों की स्थापना की । इन संगठनों का मुख्य उद्देश्य नागरिकों के अधिकारों व स्वतंत्रताओं की रक्षा करना है । ये संस्थाएँ आज भी कार्यरत हैं । जयप्रकाश नारायन ने इस आन्दोलन के दौरान सम्पूर्ण क्रान्ति के विचार को व्यवहारिक रूप देने का प्रयास किया ।

12 जून को जब इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा इन्दिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया गया तो जयप्रकाश नारायन ने इन्दिरा गांधी से प्रधानमंत्री पद से त्याग पत्र देने की माँग की । अन्तत: 25 जून को देश में आपातकाल लागू कर दिया गया तथा जयप्रकाश व अन्य नेताओं को उसी रात को हिरासत में लेकर जेल में डाल दिया गया । इस आन्दोलन को बिहार आन्दोलन के नाम से जानते हैं ।

4. रेल हड़ताल (Rail Strike):

मई 1974 की रेल हड़ताल भी सरकार के लिये चुनौतीपूर्ण साबित हुई । रेल कर्मचारियों के कम वेतन तथा काम करने के अधिक घंटे जैसी समस्याएं लम्बे समय से चली आ रही थीं । अत: अधिक वेतन तथा काम करने के घण्टों को कम करने तथा अस्थाई कर्मचारियों को स्थायी नियुक्ति जैसी माँगों को लेकर देश के 17 लाख रेल कर्मचारी 8 मई 1974 को हड़ताल पर चले गये ।

यह हड़ताल 20 दिन चली । हड़ताल का नेतृत्व प्रसिद्ध समाजवादी व श्रमिक नेता जार्ज फर्नान्डीज ने किया । रेल सेवाओं को आवश्यक सेवाएं मानते हुये इस हड़ताल को सरकार द्वारा अवैध घोषित कर दिया गया । हजारों लोगों को हिरासत में ले लिया गया तथा सैकड़ों कर्मचारियों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा । हड़ताल विफल रही तथा 27 मई को इसे वापिस ले लिया गया । फिर भी इस हड़ताल ने केन्द्र सरकार के समक्ष एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी थी ।

5. इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय (Allahabad High Court Verdict):

देश के विभिन्न हिस्सों में इन्दिरा गांधी की केन्द्र सरकार के विरुद्ध विभिन्न वर्गों द्वारा व्यापक विरोध चल ही रहा था कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 12 जून, 1975 को दिये गये अपने एक फैसले द्वारा 1971 में रायबरेली से इन्दिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया ।

कोर्ट ने यह तर्क दिया कि उन्होंने चुनाव जीतने के लिये सरकारी सेवाओं का दुरुपयोग किया है । इस फैसले द्वारा उन पर अगले छ: वर्ष तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी गयी । इसका परिणाम यह हुआ कि विरोधी दलों द्वारा उनके त्यागपत्र की माँग उठा दी गयी ।

इन्दिरा गांधी ने हाई कोर्ट के इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी । लोक सभा ने पहले तो इस फैसले पर कुछ समय के लिये रोक लगा दी तथा बाद में उन्हें इस शर्त पर लोक सभा का सदस्य बने रहने की अनुमति प्रदान की कि वे संसद की कार्यवाही में भाग नहीं लेगीं ।

कुछ भी हो इस फैसले से प्रधानमंत्री की सत्ता ही विवाद के घेरे में आ गयी । वैसे भी कांग्रेस के विभाजन के बाद से ही देश का वरिष्ठ नेतृत्व इन्दिरा गांधी की कार्य शैली से प्रसन्न नहीं था । कांग्रेस में परिवारवाद के आरोप की शुरुआत भी उन्हीं के शासन काल से हुई ।

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