आयुर्वेदिक चिकित्सा पर निबंध | Essay on Ayurvedic Medicine in Hindi.

जड़ी-बूटियों को कई शताब्दियों से उनके स्वास्थ्यकर लाभदायक गुणों के लिए जाना और उपयोग किया जाता रहा है । सुमेर (विश्व की शुरुआती सभ्यताओं में से एक) के लोग औषधीय जड़ी-बूटियों जैसे मुलेठी और पुदीना का प्रयोग बहुतायत में करते थे । लगभग 4000 ईसा पूर्व के समय की प्राप्त हुई मिट्टी से बनी तख्तियों से यह स्पष्ट हो चुका है ।

चीनी साहित्य ‘पेन साओ’ जो लगभग 3000 ईसा पूर्व लिखा गया है, में करीब 1000 जड़ी-बूटियों के सूत्र थे और ये सूत्र रचना के भी हजारों साल पहले के होंगे । मिस्र में 1700 ईसा पूर्व दर्ज इतिहास दर्शाता है कि जड़ी-बूटी जैसे हपुषा (काँटेदार पत्तियों और बेर की तरह जहरीले फलों वाली झड़ी) तथा लहसुन की उन्हें जानकारी थी और 4000 ईसा पूर्व से ही ये इलाज के उपयोग में लाई जाती थीं ।

मिस्र के लोगों को बाबूने के फूल के अद्‌भुत गुणों के बारे में भी पता था । क्लियोपेट्रा जैसी स्त्रियाँ फूलों की पंखुडियों को पीसकर अपनी त्वचा के सौन्दर्य के लिए उपयोग में लाती थीं, ताकि रूखे-सूखे मौसम से त्वचा की सुरक्षा हो सके । ये पुरातन सच्चतियाँ स्वास्थ्य और सौन्दर्य को बनाए रखने के लिए जड़ी-बूटियों पर निर्भर हुआ करती थीं । वे ऐसा बहुत कुछ जानते थे, जिसके बारे में हम कुछ नहीं जानते ।

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पारंपरिक तौर पर कई संस्कृतियाँ स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए और आँखों के संक्रमण, पेट दर्द, नपुंसकता और सिरदर्द जैसी विभिन्न बीमारियों में असरदार रूप से जड़ी-बूटियों का उपयोग करती थीं और अब भी करती हैं । यहाँ तक कि 1630 में मैसाच्युसेट्‌स के प्लायमाउथ में नाव से उतरने के तुरंत बाद हर तीर्थयात्री ने जड़ी-खुदी के पौधों को बोया, जो वे अटलांटिक से लेकर आए थे । बहुत जल्द ही उन्होंने अपने मूल निवास उत्तरी अमेरिका में भी औषधीय पौधों, जैसे कसकारा सग्राडा और पीत कंद को खोज लिया और फिर ये भी उनके खजाने में जुड़ गए ।

वनस्पति शब्द ने अपने में कई चीजों को, जैसे जड, पत्तियाँ, छाल और बेरी को शामिल कर लिया है । आपने पाया होगा कि जड़ी-बूटी और वनस्पति शब्दों का भी उपयोग हम आपस में अदल-बदलकर कर लेते हैं । आज जडी-बूटी सामान्यतः पौधे या पौधे के उस भाग को कहते हैं, जिसे उसके औषधीय गुण, जायके या खुशबू के गुण के चलते उपयोग में लाया जाता है ।

जड़ी-बूटी में वे गुणकारी तत्व होते हैं, जो भोजन में नहीं पाए जाते । पूर्वज जड़ी-बूटियों को अपने दैनिक आहार के एक हिस्से के रूप में इस्तेमाल करते थे, लेकिन हम शायद ही कभी छाल के टुकडे को मुँह में डालकर चबाते होंगे या कभी ऐसा करना भी नहीं चाहेंगे ।

आज भी वनस्पति में पाए जाने वाले पोषक तत्व बेजोड़ हैं और हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं । लेकिन आज के आधुनिक समय में हमारे पास जड़ी-बूटी का पूरक लेने का विकल्प भी मौजूद है ।

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आज जड़ी-बूटी से बनी दवाओं की जानकारी लोक कथाओं व क्षेत्रीयता के हाशिए से निकलकर मुख्यधारा में शामिल हो गई है । पूरे विश्व के चिकित्सा विद्यालयों में इनके गुणों पर अध्ययन किया जा रहा है । इस मामले में जर्मनी अग्रणी है । जर्मनी के आपातकाल कमरों में, एल्कोहल विषाक्तता या दवा को अधिक मात्रा में लेने से जूझ रहे रोगियों के लिवर की कार्य प्रणाली को सामान्य रखने के लिए मिल्क थिसिल को प्रतिदिन अंतः शिरा से दिया जाता है ।

दवाओं का यह अविषाक्त उपयोग प्रशंसनीय है और अन्य देशों में भी ऐसा किया जाना चाहिए । जर्मनी ही एकमात्र ऐसा देश है, जहाँ सेंट जॉन्स वार्ट में मौजूद एक सक्रिय पदार्थ- हाइपरीकम चिकित्सकीय उपयोग के लिए प्रमाणित है ।

मनोवैज्ञानिक समस्याओं के लिए प्रतिवर्ष डॉक्टर 6 करोड 60 लाख से अधिक लोगों को इसकी सिफारिश करते हैं । जर्मनी के डॉक्टर प्रोजेक की तुलना में सेन्ट जॉन्स वार्ट को 20 गुना ज्यादा बार अपने नुस्खे में लिखते हैं । उत्तरी अमेरिका में औषधीय अवसाद-रोधी के रूप में प्रोजेक का काफी उपयोग होता है ।

जहाँ एक तरफ कई देश, जैसे चीन, जापान, कोरिया, फ्रांस और जर्मनी विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य समस्याओं का निदान हर्बल दवा से कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ उत्तरी अमेरिका में चिकित्सा समुदाय जडी-बूटियों को लेकर अभी भी सशंकित है । और अक्सर बीमारियों के उपचार के लिए इसे छोडकर एलोपैथिक दवा या सर्जरी के पक्ष में रहता है ।

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इलाज में दवाओं और शल्य क्रिया के उपयोग की आधुनिक दृष्टि को लेकर रोगियों ने प्रश्न उठाने भी शुरू कर दिए हैं । अब वे ठीक होने और सेहतमंद बने रहने के लिए इलाज की कम आक्रामक विधि का अनुरोध करते हैं । बाजार पहले ही इस प्रचलित माँग पर सक्रिय हो गया है और जड़ी-बूटी से बनी दवाएँ अब व्यापक स्तर पर उपलब्ध है । हालाँकि अब भी, खासकर चिकित्सा और दवा उद्योग ने इन्हें पूरी तरह अपनाया नहीं है ।

एक समस्या यह है कि जड़ी-बूटियों वाली दवाएँ बनाना एलोपैथिक दवाओं की तरह फायदे का सौदा नहीं है । एक आधुनिक दवा को पेटेन्ट किया जा सकता है, जिससे निर्माता कंपनी को इसके विशेष अधिकार मिल जाते हैं । जबकि जडी-बूटियाँ तो अधिकांश उपभोक्ताओं को आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं और बहुत कम ही पेटेन्ट होती हैं ।

यदि एक कंपनी किसी जड़ी-बूटी पर अनुसंधान करने और उसके प्रभावों को प्रमाणित करने में लाखों डॉलर खर्च करती है और दूसरी कंपनी, जिसने कोई खर्च नहीं किया है, वह उसी उत्पाद को कम कीमत पर बाजार में ले आती है, तो पहली कंपनी के लिए यह घाटे का सौदा होगा ।

चूँकि इसमें बहुत फायदा मिलता ही नहीं है, इसलिए जड़ी-बूटी से दवा बनाने वाली कंपनियों चिकित्सकों की उस तरह खुशामद नहीं कर पाती हैं, जैसा एलोपैथिक दवा कंपनियों करती हैं । परिणामस्वरूप आधुनिक दवाओं से बीमारियों का इलाज करने की तरफ झुकाव बढ जाता है । बजाए इसके कि धीरे-धीरे स्वास्थ्यकर जड़ी-बूटी से उपचार किया जाए या पहले ही इनके उपयोग से बीमारियों से बचाव किया जाए ।

निश्चित तौर पर आधुनिक दवाएँ लाभकारी है और विशेष परिस्थितियों में अनिवार्य हो जाती हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि हमने स्वास्थ्य समस्याओं से जूझने में ही अपना सारा प्रयास झोंक दिया है बजाए उनकी रोकथाम करने के । हमारी स्वास्थ्य सुरक्षा प्रणाली सिर्फ आपातकालीन या गंभीर बीमारी की प्रबंधन प्रणाली हो गई है ।

गौर करें कि बडी बीमारियों, जैसे कैन्सर, दमा, हृदयरोग, गठिया आदि का इलाज तो संभव है, लेकिन इनकी रोकथाम के कोई प्रयास नहीं हो रहे हैं । इससे आपको एहसास हो गया होगा कि आधुनिक स्वास्थ्य प्रणाली कितने सकट में है ।

आज के दौर में मानव रोग के कारण जानने के बजाए, दवाएँ खाकर लक्षणों का उपचार करते रहना ही ठीक समझते हैं । जड़ी-बूटी को छोड्‌कर बाकी दवाएँ केवल महँगी ही नहीं होतीं, बल्कि आपके शरीर से भी बहुत बडी कीमत वसूल लेती हैं । बीमारी के मूल कारण तक न पहुँचकर केवल लक्षणों को दवाओं से दबा देना खतरनाक हो सकता है, क्योंकि लक्षणों के द्वारा ही हमें शरीर से सकेत मिलता है कि सब कुछ ठीक नहीं है ।

स्वास्थ्य और बेहतरी की ओर देखने का एक अलग नजरिया है जिसे समग्र आरोग्य कहा जाता है अब यह पद्धति ज्यादा ध्यान आकर्षित कर रही है । इसके पीछे मूल आधार यह है कि आदर्श पोषण और जीवनशैली हो, तो शरीर स्वयं अपना इलाज कर सकता है ।

यदि शरीर बहुत तनाव में हैं, तो जड़ी-बूटियों से बनी समग्र दवाओं को लेने से शरीर को पुन: संतुलन प्राप्त करने में सहायता मिलती है । ताकि शरीर वह सब कर सके, जिसके लिए वह बना है स्वयं का उपचार ।

समग्र आरोग्य के इस नजरिए में जीवन के सभी पहलू आ जाते हैं । इसमें पोषण, जीवनशैली, वर्तमान स्वास्थ्य की स्थिति, वंशानुगत कमजोरी और संवेगात्मक स्वास्थ्य शामिल है । कई जड़ी-बूटी विशेषज्ञों का मानना है कि मन, शरीर और आत्मा आपस में जुड़े हुए हैं और इन सभी को ध्यान में रखते हुए केवल एक भाग का उपचार करना संभव नहीं है ।

पौधों से औषधियों तक (Plants to Drugs):

चिकित्सक द्वारा सुझाई दवाओं में 25 प्रतिशत से अधिक में सक्रिय पदार्थ पौधों से प्राप्त किए जाते हैं? दुकानों में उपलब्ध कई दवाएँ भी पौधों के यौगिक से बनी होती हैं ।

सफेद सरइ की छाल, सेलीसिन का मौलिक स्रोत है, जो एस्पिरिन का आधार बनाता है । सेलीसिन को पहली बार 1852 में कृत्रिम रूप से संश्लेषित किया गया था । बाद में 1899 में इसे और संवर्धित कर ऐसा बनाया गया, जिससे पेट में कम जलन हो और एसीटिल सेलीसिलिक अन्त, जिसे एस्पिरिन कहा गया, की एक प्रसिद्ध दवा कंपनी ने लॉन्य किया ।

इन सारी घटनाओं से बहुत पहले, सफेद सरई की छाल का उपयोग सामान्य दर्द और जकडन को दूर करने के लिए किया जाता था । प्राचीन मिस्र, असीरियाई और ग्रीक पांडुलिपि में सफेद सरई की छाल का उल्लेख है और प्राचीन चिकित्सकों, गेलन, हिप्पोक्रेट्‌स और डायोस्कोराइड द्वारा इस प्रभावकारी जड़ी-बूटी का उपयोग दर्द और बुखार के उपचार के लिए किया जाता था ।

मूल अमेरिकन इंडियन्स द्वारा सिरदर्द, बुखार, जख्मी माँस-पेशियों, गठिया और सर्दी के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता था । हम जड़ी-बूटी के उपचार से निकलकर, उनसे बनी दवाओं का सेवन करने लगे थे और अब फिर से जड़ी-बूटी को उसके शुद्ध रूप में उपयोग करना शुरू कर चुके हैं ।

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