मृदा पर निबंध: शीर्ष चार निबंध | Essay on Soil: Top 4 Essays in Hindi!

Essay # 1. मृदा निर्माण के कारक (Soil and Its Formation):

मिट्‌टी खनिज तथा जैव तत्वों का वह गत्यात्मक प्राकृतिक मिश्रण है जिसमें पौधों को उत्पन्न करने की क्षमता होती है । यह धरातल के ऊपरी भाग में पाई जाती है । यह एक नवीनीकरण अयोग्य संसाधन माना जाता है क्योंकि इसके निर्माण में एक लंबी अवधि लगती है ।

a. आधारभूत चट्‌टान या जनक पदार्थ

b. जलवायु

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c. स्थलाकृतिक उच्चावच

d. जैविक प्रभाव (वनस्पतियाँ, जीव जन्तु व मानवीय प्रभाव)

e. समय या विकास की अवधि

इन सभी कारकों में प्रथम दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं । जलवायु और जैविक कारक को क्रियाशील कारक कहा जाता हैं जबकि जनक पदार्थ, स्थलाकृतिक उच्चावच एवं मृदा के विकास की अवधि को निष्क्रिय कारक कहते हैं ।

Essay # 2. मिट्टियों का वर्गिकरण (Classification of Soil):

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मृदा विज्ञान के विकास में रूसी भूगर्भशास्त्री वी.वी. डकाचेव का योगदान सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं । संयुक्त राज्य अमेरिका में सी. एफ. मारबुट ने 1938 ई. में मृदा वर्गीकरण की व्यापक योजना (USDA System) प्रस्तुत की जिसमें उन्होंने आनुवांशिकी कारकों के आधार पर विश्व की मृदाओं को तीस वृहत्तर भागों में बांटा व इसे तीन वर्गों क्षेत्रीय, अंतःक्षेत्रीय व अक्षेत्रीय में रखकर विवेचित किया ।

ये हैं:

1. क्षेत्रीय मिट्‌टियाँ (Regional Soil):

ये पृथ्वी पर अक्षांशीय पेटियाँ बनाते हैं । इन मिट्‌टियों में मृदा संस्तरों का पूर्ण विकास मिलता है अर्थात् वह मिट्‌टी अपनी आधारित चट्‌टान से संबंधित होती है । इन्हें दो प्रमुख वर्गों पेडल्फर व पेडोकल में तथा पुनः बारह मुख्य प्रकार की मिट्‌टियों में बाँटा जा सकता है । संसार के जलवायु प्रदेशों प्राकृतिक वनस्पतियों और मिट्‌टियों में गहरे संबंध है ।

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पेडल्फर मिट्‌टियाँ (अल्युमिनियम (Al) एवं लौह तत्व (Fe) की पर्याप्तता से युक्त):

i. धूसर पोडजोल:

ये उप-आर्कटिक जलवायु प्रदेश के टैगा या कोणधारी वनों में मिलती है । ये अम्लीय (pH मान 4) मिट्‌टी है व कृषि के लिए अनुपयुक्त होती है ।

ii. धूसर-भूरी पोडजोल:

ये मध्य अक्षांशीय पतझड़ वनों की पेटी में पाई जाती है । इसमें ह्यूमस की मात्रा अधिक होती है । खाद व उर्वरकों के प्रयोग एवं फसलों के शस्यावर्तन से मिट्‌टी काफी उपजाऊ बनी रहती है । डेयरी उद्योग व मिश्रित कृषि के लिए यह उपयोगी मिट्‌टी है ।

iii. लाल-पीली पोडजोल:

ये मिट्‌टियाँ उपोष्ण आर्द्र, जलवायु प्रदेशों में पॉडजोलाइजेशन व लैटेराइजेशन प्रक्रिया से निर्मित होती है । इसमें ह्यूमस की कमी होती है ।

iv. लाल-पोडजोल या टेरारोशा:

भूमध्यसागरीय प्रदेशों और चूना क्षेत्रों में मिलने वाली यह मिट्‌टी फेरस ऑक्साइड (Fe2O3) के कारण लाल रंग की होती । इसमें ह्यूमस की कमी होती है ।

v. लैटेराइट मिट्‌टी:

उच्च तापमान व प्रचुर वर्षा वाले उष्णकटिबंधीय वन क्षेत्रों में, निक्षालन क्रिया की अधिकता से यह मिट्टी निर्मित होती है । ह्यूमस का यहाँ अधिक मात्रा में निर्माण होता है परन्तु जीवाणुओं द्वारा अधिक उपभोग एवं निक्षालन के कारण ह्यूमस कम मात्रा में बचती है । इस मिट्‌टी के ऊपरी भागों में Fe2O3 तथा Al के लवणों की अधिकता होती है ।

पेडोकल मिट्टी (कैल्शियम (Ca) की पर्याप्तता):

i. प्रेयरी मिट्टी (Prairie Soil):

शीतोष्ण आर्द्र प्रदेशों में लंबी घास भूमियों की यह मिट्‌टी चरनोजेम और धूसर बादामी पोडजोल के मिश्रित गुणों वाली मृदा है । ह्यूमस की अधिकता के कारण इसका रंग काला-भूरा होता है । यह उपजाऊ मिट्‌टी है । उत्तरी अमेरिका के प्रेयरी, दक्षिणी अमेरिका के पम्पास एवं हंगरी के पुस्टाज आस्ट्रेलिया के डाउन्स घास भूमियों में यही मिट्‌टी मिलती है ।

ii. चरनोजेम (Chernozem Soil):

यह सर्वाधिक उपजाऊ और भुरभुरी मिट्‌टी है । इसमें उर्वरक व सिंचाई की आवश्यकता काफी कम पड़ती है । छोटी घास वाले स्टेपी मैदानों में यह मिट्‌टी पाई जाती है । ह्यूमस की अधिकता के कारण इसका रंग काला होता है । इसके निचली परत में चूने की भी पर्याप्त मात्रा होती है ।

iii. चेस्टनट (Chestnut Soil):

चरनोजेम मिट्‌टी के शुष्क भागों में पायी जाने वाली यह गहरे भूरे रंग की मिट्‌टी है । इसमें ह्यूमस की मात्रा चरनोजम की अपेक्षा कम होती है ।

iv. लाल चेस्टनट और लाल-भूरी मिट्‌टी (Red Chestnut Soil):

यह मिट्‌टी सवाना प्रदेश की अर्द्धशुष्क भागों में पायी जाती है ।

v. सायरोजेम या घूसर मरूस्थलीय मिट्‌टी:

मध्य अक्षांशीय शुष्क मरूस्थलों में पाई जाने वाली यह क्षारीय मिट्‌टी (pH मान 8 से अधिक) है । इसमें चूना सतह के ऊपर जमा रहता है ।

vi. लाल मरूस्थलीय मिट्‌टी:

यह उष्ण कटिबंधीय शुष्क मरूस्थलीय प्रदेशों की मिट्‌टी है । चूना का सतह के निकट पाया जाना व ह्यूमस का अभाव इसकी विशेषता है ।

vii. टुंड्रा प्रदेश की मिट्‌टी:

यह अल्प विकसित मृदा है जिसमें जैव तत्वों व महत्वपूर्ण खनिजों का अभाव पाया जाता है ।

2. अंतः क्षेत्रीय (Intra-Zonal):

यह स्थानीय रूप में उत्पन्न होती है पंरतु उनमें विभिन्न रासायनिक क्रियाओं के कारण आधारी चट्‌टानों की गुणता में अंतर मिलता है । इन मिट्‌टियों को तीन वर्गों में बांटकर देखा जा सकता है ।

ये निम्न हैं:

i. दलदली मिट्‌टी (Hydromorphic Soil):

इसके अंतर्गत पीट, चारागाही (मीडो), बॉग व प्लेनोसोल मिट्‌टियां शामिल की जाती है ।

ii. लवणतायुक्त मिट्‌टी (Halomorphic Soil):

इसमें लवणीय (Saline), क्षारीय (Solonetz), सोलोथ (Soloth) मिट्‌टियां शामिल होती हैं ।

iii. कैल्शियम युक्त मिट्‌टी (Calcimorphic Soil):

इसके अंतर्गत रेंडजिना, टेरारोसा व टेरारोक्सा मिट्‌टियां आती हैं ।

3. अक्षेत्रीय (Azonal):

यह मिट्‌टी स्थानीय उत्पत्ति नहीं रखती है तथा अपरदन के कारकों के द्वारा परिवहित कर लाई जाती है । अतः इसमें आधारी चट्‌टान से पूर्णतः भिन्न पार्श्विका मिलती है । विषम पार्श्विका रखने वाली इस मिट्‌टी में संस्तरों का विकास ठीक से नहीं मिलता । अक्षेत्रीय मिट्टियों को लिथोसॉल व रेगोसॉल प्रकारों में बाँटा जाता है ।

ये दो मुख्य प्रकारों में बाँटी जाती हैं:

i. लिथोसॉल मिट्‌टियाँ:

इसमें कंकड़-पत्थर की अधिकता होती है । भाबर प्रदेश की मिट्‌टी, पर्वतपदीय क्षेत्रों की पथरीली मिट्‌टी इसके अंतर्गत आती हैं ।

ii. रेगोसॉल मिट्‌टियाँ:

इसमें जलोढ़, हिमोढ़ एवं लोएस मिट्‌टियाँ शामिल की जाती हैं ।

CSCS – 1960 का वर्गीकरण:

अमेरिकी मृदा वैज्ञानिकों ने 1960 में मिट्‌टियों के वर्गीकरण की एक नई विस्तृत योजना व्यापक मृदा वर्गीकरण तंत्र (CSCS – Comprehensive Soil Classification System) प्रस्तुत की । इसे मृदा वर्गीकरण विज्ञान (Soil Taxonomy) भी कहा जाता है । इस योजना के अंतर्गत विश्व की समस्त मिट्‌टियों को 10 श्रेणी, 47 उपश्रेणी और 185 वृहत् वर्गों में बाँटा गया है ।

अविकसित मृदा संस्तरों वाली मिट्‌टियाँ:

i. एंटीसोल (Entisol):

यह एजोनल या अपार्श्विक मिट्‌टी के समान होती है ।

ii. इंसेप्टीसोल (Inceptisol):

यह टुंड्रा, अल्पाइन क्षेत्र तथा बाढ़ क्षेत्र की मिट्‌टी के समान है ।

iii. हिस्टोसोल (Histosol):

यह अम्लीय व कुप्रवाहित मिट्‌टी है, जो दलदली या बोग मिट्‌टी के समान होती है । यह जैविक परतों से संपन्न मिट्‌टी है ।

पूर्ण विकसित संस्तरों वाली क्षेत्रीय मिट्‌टियाँ:

i. ऑक्सीसोल (Oxisol):

इसमें Fe व Al आक्साइडों की प्रचुरता होती है । यह उष्ण कटिबंधीय भागों की मिट्‌टी है जो निक्षालन प्रक्रिया से निर्मित होती है ।

ii. अल्टीसोल (Ultisol):

यह उष्ण व उपोष्ण प्रदेश की मिट्‌टियाँ हैं जो उपजाऊ तथा लाल, पीली व भूरी होती हैं ।

iii. वर्टीसोल (Vertisol):

यह रेगुर या रेंडजिना मिट्‌टी के समान है । इसमें सूखने पर दरारें पड़ जाती है, जबकि गीले होने पर यह चिपचिपी हो जाती है । मृत्तिका की अधिकता के कारण इस मिट्‌टी में आर्द्रता धारण सामर्थ्य अधिक होती है ।

iv. अल्फीसॉल (Alfisol):

यह आर्द्र व उपार्द्र प्रदेशों की मिट्‌टियाँ हैं । निक्षालन के कारण इसमें Al व Fe की अधिकता होती है जिससे यह अधिक अम्लीय हो जाती है । ह्यूमस की कमी के कारण इसकी उर्वरता कम रहती है ।

v. स्पोडोसॉल (Spodosol):

यह पोडजॉल समूह की मिट्‌टियों के समान है । टैगा क्षेत्रों में मिलने वाली यह मिट्‌टी अत्यधिक अम्लीय होती है ।

vi. मोलीसॉल (Molisol):

यह विश्व की सर्वाधिक उपजाऊ मिट्‌टी है एवं चरनोजेम मिट्‌टी के समान होती है । प्रेयरी व चेस्टनट मिट्‌टियों को भी इसी समूह में रखा जा सकता है । यह मिट्‌टियाँ काली व गहरे रंग की होती है एवं इसमें ह्यूमस की पर्याप्त मात्रा रहती है ।

vii. एरिडोसोल (Aridosol):

यह रेगिस्तानी प्रदेशों की लवणीय व क्षारीय मिट्‌टी है । इस मिट्‌टी में सतह के निकट सोडियम अथवा कैल्शियम की परत मिलती है तथा ह्यूमस व जल का अभाव रहता है ।

पारिस्थितिकीय आधार पर मृदा अधोलिखित प्रकार की होती है:

1. अवशिष्ट मृदा (Residual Soil):

वैसी मृदा जो बनने के स्थान पर ही पड़ी रहती है, उसे अवशिष्ट मृदा कहते हैं ।

2. वाहित मृदा (Transported Soil):

वैसी मृदा जो बनने वाले स्थान से बहकर आयी हुई मृदा होती है ।

3. जलोढ़ मृदा (Alluvial Soil):

वैसी मृदा जो बनने के स्थान से जल द्वारा बहकर दूसरे स्थान पर पहुँचती है ।

4. वातोढ़ मृदा (Eoilan Soil):

वैसी मृदा जो बनने के स्थान से वायु द्वारा उड़कर दूसरे स्थान पर पहुँचती है ।

5. शेल, मलवा मृदा (Colluvial Soil):

वैसी मृदा जो पृथ्वी के आकर्षण के द्वारा दूसरे स्थान पर पहुँचती है ।

Essay # 3. मृदा अपरदन (Soil Erosion):

मृदा अपरदन एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा मृदा के उपजाऊ तत्व अपरदित होकर अन्यत्र चले जाते हैं, जिसके फलस्वरूप मृदा की गुणवत्ता में कमी आती है तथा बंजर भूमि की समस्या भी उत्पन्न होती है ।

मृदा क्षरण एवं अपरदन के कारक (Soil Erosion and Erosion Factors):

मृदा क्षरण एवं अपरदन के कारकों को दो प्रमुख वर्गों में रखते हैं:

i. प्राकृतिक एवं भौगोलिक कारक

ii. मानवीय कारक

i. प्राकृतिक एवं भौगोलिक कारक (Natural and Geographical Factor):

मृदा अपरदन के प्राकृतिक कारकों के अंतर्गत निम्न प्रक्रियाएँ मृदा अपरदन के लिए उत्तरदायी है:

a. जलीय अपरदन

b. वायु अपरदन

c. हिमानी अपरदन

d. समुद्री तरंगों द्वारा अपरदन

ii. मानवीय कारक (Human Factor):

मानवीय कारकों से मृदा क्षरण एवं अपरदन की प्रक्रिया में तीव्रता आती है । प्राकृतिक कारकों से मृदा अपरदन को त्वरित करने का कार्य मानवीय क्रियाओं द्वारा होता है । मृदा अपरदन को मानवीय कारक दो तरीके से प्रभावित करते हैं ।

मृदा अपरदन के प्रभाव (Effects of Soil Erosion):

a. ऊपरी उपजाऊ मिट्‌टी के आवरण की क्षति से धीरे-धीरे मृदा उर्वरता और कृषि उत्पादकता घटती जाती है ।

b. इस प्रकार कृषि योग्य भूमि कम होती जाती है ।

c. निक्षालन (Leaching) एवं जल-जमाव (Water Logging) द्वारा मृदा के पोषक तत्वों का ह्रास ।

d. भौम जलस्तर और मृदा आर्द्रता में गिरावट देखी जाती है ।

e. वनस्पतियों का सूखना एवं शुष्क भूमि के क्षेत्र में विस्तार ।

f. सूखे व बाढ़ के प्रकोप का बढ़ना ।

g. नदियों और नहरों के तल में रेतों का जमाव बढ़ जाना ।

h. भू-स्खलन के खतरे बढ़ना ।

i. वनस्पति आवरण नष्ट होने से इमारती लकड़ी एवं घरेलू ईंधन हेतु जलावन की लकड़ियों की कमी होने लगती है तथा वन्य जीवन भी दुष्प्रभावित होता है ।

j. मृदा की ऊपरी उपजाऊ सतह का ह्रास, जिससे धीरे-धीरे मृदा की उर्वरता और कृषि उत्पादकता में कमी आती है ।

Essay # 4. मृदा संरक्षण के उपाय (Measures of Soil Conservation):

a. बाढ़ एवं मृदा अपरदन पर नियंत्रण के उद्देश्य से बड़ी नदियों और सहायक नदियों पर उनके ऊपरी भागों में छोटे-छोटे बाँधों का निर्माण ।

b. नहरों से होने वाले जल रिसाव को रोकने के लिए नहरों का अस्तरण (Lining), ताकि निम्न भागों में जलमग्नता को रोका जा सके ।

c. सतही और उर्ध्वाधर अपवाह तंत्र में सुधार कर जलमग्नता की समस्या का निदान करना ।

d. जैविक उर्वरकों (Organic and Bio-Fertilizer) एवं वानस्पतिक खाद (Compost Manure) के उपयोग में वृद्धि करना ।

e. मानव अवशेषों एवं शहरी कचरों को खाद में परिवर्तित करना ।

f. वैज्ञानिक फसल चक्रण पर ध्यान देना ।

g. अवनालिकाओं की भराई एवं ढालों पर वेदिकाओं (Terreaces) का निर्माण करना ।

h. तंगघाटियों (Ravines) का समतलीकरण एवं ढालों पर वृक्षारोपण एवं घासरोपण करना ।

i. सतत् कृषि (Sustainable Agriculture) की तकनीक को अपनाना ।

j. धान एवं गन्ना जैसे लवणतारोधी फसलों को लगाना ।

प्रत्यक्ष कारक (Direct Factor):

इसमें निम्न क्रियाएँ आती हैं, जो मृदा अपरदन के लिए प्रत्यक्षतः उत्तरदायी है:

i. वनों की कटाई तथा वन विनाश ।

ii. अत्यधिक चारागाह के रूप में भूमि का उपयोग अर्थात् अति पशुचारण ।

iii. अवैज्ञानिक कृषि, जैसे अतिकृषि, अल्पकृषि, फसल चक्र का प्रयोग नहीं किया जाना, अवैज्ञानिक सिंचाई पद्धतियाँ, झूम कृषि, ढाल कृषि ।

iv. रासायनिक उर्वरक, कीटनाशकों का प्रयोग ।

अप्रत्यक्ष कारक (Indirect Factor):

इसमें निम्न क्रियाएँ आती हैं, जो अप्रत्यक्ष मृदा अपरदन के लिए उत्तरदायी हैं:

i. सिंचाई, बाँधों का निर्माण, बहुद्देशीय परियोजनाएँ

ii. जल प्रवाह की समस्या

iii. हरित क्रान्ति के चर

iv. नगरीकरण, औद्योगिकरण, सड़क निर्माण, खनन कार्य ।

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