रुपये की आत्मकथा पर निबंध! Here is an essay on ‘Autobiography of a Rupee’ in Hindi language. 

मैं भारत की राष्ट्रीय मुद्रा रुपया हूँ । मेरे अभाव में लोगों का जीवन अत्यन्त कष्टप्रद हो जाता है । जिनके पास मैं नहीं होता, उन्हें लोग दरिद्र एवं निर्धन कहते हैं । आइए, आज मैं आपको अपनी कहानी बताता हूँ ।

मुद्रा के रूप में मेरी उत्पत्ति बहुत पहले ही हो गई थी और सिन्धु घाटी सभ्यता में भी मेरा प्रचलन था, किन्तु आज मैं अपने भारतीय स्वरूप ‘रुपया’ की चर्चा करूँगा । मेरे इस नाम की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द ‘रुप्याह’ से हुई है, जिसका अर्थ होता हैं- ‘चाँदी’ ।

‘रुप्याह’ से बना शब्द है- ‘रुप्यकम्’ अर्थात् ‘चाँदी का सिक्का’ । ‘रुपया’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम शेरशाह सूरी ने अपने शासनकाल 1540-45 ई. के दौरान किया था । उसने जो रुपया चलाया था वह चाँदी का सिक्का था, जिसका भार लगभग 11.5 ग्राम था ।

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मुगलकाल के दौरान मौद्रिक प्रणाली को सुदृढ़ करने के लिए मिश्र धातुओं के रुपयों का प्रचलन हुआ । ब्रिटिशकाल के दौरान चाँदी के रुपये के सिक्के का प्रचलन प्रारम्भ हुआ, जो 91.7% तक शुद्ध चाँदी का था । ब्रिटिशकाल के दौरान ही भारत में नोटों का प्रचलन भी प्रारम्भ हुआ ।

अब सोने-चाँदी के बदले सस्ती धातुओं के मिश्रण से मेरा निर्माण किया जाता है । आजकल मैं सिक्कों से अधिक नोटों के रूप में प्रचलित हूँ । मैं एक रुपये से लेकर हजार रुपये तक के नोट के रूप में उपलब्ध हूँ ।

ब्रिटिशकाल से लेकर भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद जुलाई, 2010 तक मुझे दर्शाने के लिए हिन्दी में ‘रु’ तथा अंग्रेजी में Re (एक रुपया के लिए) एवं Rs (एक से अधिक के लिए) का प्रयोग किया जाता था ।

अब मेरे लिए एक अधिकारिक प्रतीक-चिह्न ‘Rs’ 15 जुलाई, 2010 को चुन लिया गया है, जिसे आईआईटी, गुवाहाटी के प्रोफेसर डी. उदय कुमार ने डिजाइन किया है । इस तरह अमेरिकी डॉलर, ब्रिटिश पाउण्ड, जापानी येन एवं यूरोपीय संघ के यूरो के बाद मैं भारतीय रुपया (Rs) पाँचवीं ऐसी मुद्रा हूँ, जिसे प्रतीक-चिह्न से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचाना जाने लगा है ।

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मुझे भारतीय रिजर्व बैंक जारी करता है । यही मेरे बाजार नियामक का कार्य भी करता है । पैसे के रूप में देखा जाए, तो मेरा मान एक सौ पैसे के बराबर होता है । मुझे कई नामों से जाना जाता है ।

मेरे निर्माण के लिए कुछ मानदण्ड निर्धारित हैं । इसका अधिकार भारतीय रिजर्व बैंक को है, जो राष्ट्रीय स्वर्ण-भण्डार के आधार पर मुझे जारी करता है । अपनी उत्पत्ति एवं प्रचलन के बारे में बताने के बाद अब मैं अपनी विशेषताओं के बारे में बताने जा रहा हूँ ।

मुझमें अद्भुत आकर्षण-शक्ति है । मुझे पाने के लिए मन्दिर छोड़ पुजारी, आश्रम छोड़ महन्त, कुर्सी छोड़ पदाधिकारी, बँगला छोड़ राजनेता मेरी ओर दौड़ पड़ते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि पूरी दुनिया ही मेरी अँगुली पर नाच रही है । दुनिया ही क्यों, अब तो भगवान भी मेरी ही मुट्ठी में हैं ।

भीड़-भाड़ के कारण यदि आपको मन्दिर में प्रवेश करना कठिन लग रहा हो, तो भगवान के दूत-पुजारी, पण्डा के पास मुझे पहुँचाकर देखिए, शीघ्र ही भगवान के दुर्लभ दर्शन सुलभ हो जाएंगे ।

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मेरा महत्व आपको कहाँ दिखाई नहीं पड़ता है- दवा के अभाव में तड़पते रोगी के पास जब मैं पहुँच जाता हूँ, तब उसके जीवन में आशा के दीप जलने लगते हैं । भिखारी के खाली कटोरे में मेरी उपस्थिति मात्र से भिखारी को अन्नपूर्णा देवी के दर्शन होने लगते हैं ।

अभावग्रस्त विद्यार्थी के पास पहुँचते ही मैं उसे सरस्वती-दूत दिखने लगता हूँ । राज्य के खजाने में मेरी कमी से सबल-से-सबल राजा के भी माथे पर चिन्ता की लकीरें खिंच जाती हैं । तिजोरियों में मेरी अनुपस्थिति तो सेठ-साहूकारों के लिए हृदयाघात जैसी जानलेवा बीमारी का आमन्त्रण है ।

भोगियों के लिए मैं ही सब कुछ हूँ । अत: रोगी हो या भोगी, राजा हो या रंक, विद्यार्थी हो या व्यापारी, सभी के लिए मैं जीवन हूँ । यह मेरा व्यावहारिक परिचय है । ‘अर्थशास्त्र’ की भाषा में कहूँ तो मैं विनिमय का माध्यम हूँ ।

वास्तविकता भी यही है कि मैं एक साधनमात्र हूँ, लेकिन आजकल लोगों ने मुझे ही साध्य बना लिया है । किसी चिकित्सक से यदि आप पूछे कि आपके जीवन का लक्ष्य क्या है, तो वह उत्तर देगा- “खूब सारा पैसा कमाना” ।

किसी अभियन्ता से भी यह प्रश्न पूछने पर उसका भी उत्तर यही होता है । कार्यालयों में लिपिक से लेकर अधिकारी तक तथा छोटे व्यापारियों से लेकर बड़े उद्योगपतियों तक सब मुझे अधिक-से-अधिक मात्रा में अर्जित करने के लिए लालायित रहते हैं ।

आजकल खिलाड़ी एवं राजनेता भी मेरे फेर में पड़ गए हैं । खिलाड़ी मुझे पाने के लिए खेल से अधिक विज्ञापन पर ध्यान देने लगे हैं एवं राजनेताओं को मेरी कृपा प्राप्त करने के लिए दलाली से लेकर घोटाला तक करने में भी शर्म महसूस नहीं होती ।

कुछ लोग कहते हैं कि मैं भ्रष्टाचार की जड़ हूँ । बेशक भ्रष्टाचार मेरे ही कारण होता है, लेकिन इसके लिए मुझे दोष देना सरासर अनुचित है । इसका जिम्मेदार मनुष्य खुद है । मैं तो उसके हाथों की कठपुतली हूँ । वह जैसे चाहे मुझे प्रयोग करें ।

कुछ लोग यदि मुझे तिजोरियों में छुपाकर रख देते हैं, तो इसमें मेरा क्या दोष है ! बलशाली लोग तो कमजोर लोगों से मुझे जबदरसनी छीन भी लेते हैं । लोग किसी भी प्रकार के अनुचित कार्य करवाने के लिए प्रेरक के रूप में मेरा प्रयोग करते हैं, तो इसमें मेरा क्या दोष है ।

यदि मैं व्यभिचारी के पास होता हूँ, तो लोग उसे भी अच्छा मानने लगते हैं । इसे तो मनुष्य की मूर्खता कहा जाना चाहिए । मेरा प्रयोग कर लोग सफलता की राह आसान करने के लिए तत्पर रहते हैं ।

ज्ञान के बारे में यह कहा जाता है कि बाँटने पर यह बढ़ता है, लेकिन मेरे बारे में यह प्रसिद्ध है कि मुझे खर्च कर फिर से मुझे पाया नहीं जा सकता । यह हर परिस्थिति में सही नहीं होता ।

शेयर दलालों एवं साहूकारों को ही देख लीजिए, वे मुझे इसलिए खर्च करते हैं, ताकि मैं और अधिक बनकर उनके पास फिर आऊँ । अपनी कहानी समाप्त करने से पहले मैं आपको अपनी सबसे बड़ी विशेषता भी बताता चलूँ ।

मेरी तीन गतियाँ होती हैं- दान, भोग और नाश । इसलिए समझदार लोग मेरा अर्जन करने के बाद जी खोलकर मुझे दान करते हैं । दान करने में असमर्थ लोग मेरा जी भरकर उपभोग करते हैं ।

जो लोग न मेरा दान करते हैं और न भोग, उनके पास मैं अधिक दिनों तक नहीं रह पाता या तो चोर, डाकू या फिर आयकर अधिकारी मुझे पाताल से भी ढूँढ निकालते हैं । मेरी कमी यदि कई प्रकार की समस्याओं का कारण बनती है, तो मेरी अधिकता भी कम नुकसानदायक नहीं होती ।

इसलिए मेरे प्रयोग में मनुष्य को सावधानी बरतनी चाहिए । बुरे दिनों के लिए मुझे बचाकर रखना लोगों के हित में होता है । लोग मुझे बचाने के लिए कर चोरी करते हैं ।

ऐसा नहीं करना चाहिए । इससे देश का विकास बाधित होता है । मेरा ठीक से प्रयोग कीजिए फिर देखिए, न केवल आप, बल्कि आपका परिवार, समाज एवं देश भी प्रगति के पथ पर तेजी से अग्रसर हो जाएगा ।

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