राज्यपाल का जबरन पदच्युत पर निबंध! Here is an essay on ‘Forced Removal of Governor’ in Hindi language.

वर्ष 2014 के आम चुनाव भारत के लोकतान्त्रिक इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण हैं । एक लम्बे अर्से बाद भारत की जनता ने किसी एक दल को पूर्ण जनादेश दिया और उसे नरेन्द्र मोदी जैसा मजबूत प्रधानमन्त्री मिला । इसके उत्तर में नरेन्द्र मोदी ने भी प्रधानमन्त्री का पदभार ग्रहण करते ही देशवासियों को आश्वस्त किया है कि वह जनता की उम्मीदों पर खरा उतरेंगे ।

जनता चाहती है कि नरेन्द्र मोदी एक ऐसे राजनीतिक युग की शुरूआत करे, जिसमें राष्ट्रीय हित सर्वोपरि हो और नेतागण ऐसे कार्य करें, जिससे जनता का भरोसा उन पर बड़े, लेकिन नई केन्द्र सरकार ने एक महीने के भीतर ही यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को हटाने का सन्देश देकर कई सवालों को जन्म दे दिया है ।

वास्तव में, हमारे देश में संघीय शासन प्रणाली की व्यवस्था है । संघीय शासन प्रणाली से तात्पर्य एक ऐसी शासन व्यवस्था से है, जहाँ केन्द्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों का भी सह-अस्तित्व होता है । हमारे देश में भी ऐसा ही है । यहाँ राज्य सरकारें अपने-अपने राज्यों के विषयों को सम्भालती हैं और केन्द्र सरकार समग्र राष्ट्र के हितों का ध्यान रखती है ।

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यहाँ सत्ता का केन्द्र प्रधानमन्त्री होता है, लेकिन साथ ही राष्ट्रपति की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है । यदपि प्रधानमन्त्री की तुलना में उसकी शक्तियाँ थोड़ी सीमित होती है, लेकिन वह देश का प्रथम नागरिक होता है और किसी भी कानून को अन्तिम रूप देने में उसकी स्वीकृति आवश्यक होती है ।

केन्द्र स्तर पर जो भूमिका राष्ट्रपति की होती है, राज्य स्तर पर वही भूमिका राज्यपाल की होती है । सभी राज्यों के राज्यपाल राष्ट्रपति द्वारा ही मनोनीत किए जाते हैं । राज्यों में राज्यपाल को राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के तौर पर देखा जाता है और राज्यपाल आवश्यकता पड़ने पर सीधे राष्ट्रपति से संवाद स्थापित कर सकता है ।

अतः यह स्पष्ट है कि राज्यपाल का पद संवैधानिक दृष्टिकोण से काफ़ी महत्वपूर्ण है और इसकी गरिमा को बनाए रखना संविधान का आदेश है । प्रत्येक सरकार से संविधान की यह आशा होती है कि वह लोकतान्त्रिक मूल्यों की गरिमा बनाए रखे, फिर वह चाहे किसी भी दल अथवा गठबन्धन की सरकार हो ।

ऐसे में नवनिर्वाचित एनडीए सरकार द्वारा पूर्ववर्ती यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को इस्तीफा सौंपने के लिए कहना एक नई बहस को जन्म देता है । उल्लेखनीय है कि नई सरकार ने गृह सचिव के जरिए उन राज्यपालों को इस्तीफ़ा देने का सन्देश पहुँचाया है, जिन्हें यूपीए सरकार ने मनोनीत किया था ।

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सरकार की मंशा को भाँपते हुए अब तक शकर नारायणन महाराष्ट्र, शेखर दत (छत्तीसगढ़), बीएल जोशी (उत्तर प्रदेश), अश्विनी कुमार (नागालैण्ड), शीला दीक्षित (केरल), एम के नारायणन (पश्चिम बंगाल), वी पुरुषोत्तमन (मिजोरम), विनोद कुमार दुग्गल (मणिपुर) और बीबी वांचो गोवा राज्यपाल के पद से इस्तीफा दे चुके है ।

आने वाले दिनों में हो सकता है कि यह सूची और भी लम्बी हो जाए, हालाँकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि नई सरकार ने सत्ता में आते ही पुरानी सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को हटा दिया । इससे पूर्व, वर्ष 2004 में यूपीए सरकार ने सत्ता में आते ही एनडीए सरकार द्वारा नियुक्त उत्तर प्रदेश, गुजरात, हरियाणा और गोवा के राज्यपालों को हटा दिया था ।

राज्य स्तर पर राज्यपाल का पद सर्वोच्च होता है । ऐसे में इस तरह राज्यपालों को अकारण ही जबरदस्ती पदच्युत करने का मामला काफी संवेदनशील हो जाता है । इस पूरे प्रकरण में सबसे अहम् सवाल यह उठता है कि केन्द्र सरकार द्वारा इस प्रकार राज्यपालों को पदचूत करना किस हद तक सही है ? आखिरकार राज्यपालों को बदलने की आवश्यकता ही क्यों पड़ती है ? इस विषय पर बहुत ही गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है ।

केन्द्र सरकारें राज्यपालों को अपने प्रतिनिधि के तौर पर देखती हैं, इसलिए हर राज्य में अपने मनोनुकूल व्यक्ति को बिठाना जरूरी समझती हैं । कई बार ऐसी परिस्थिति होती है कि जब राज्यपाल केन्द्र सरकार की विपक्षी पार्टी से सम्बन्ध रखता है ।

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अतः ऐसे में सरकार के विभिन्न स्तरों पर तालमेल की कमी सामने आने की आशंका रहती है । राज्यपाल विधानसभा को भंग करने की शक्ति रखता है और धारा-356 के तहत यदि किसी राज्य की विधानसभा को भंग कर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जाता है, तो शासन से सम्बन्धित सभी शक्तियाँ राज्यपाल को मिल जाती हैं ।

इसके अतिरिक्त राज्यपाल किसी भी बिल को अनिश्चित काल तक के लिए रोक सकता है, जिससे कानून बनने की प्रक्रिया लम्बी खिंच जाती है । इस प्रकार, राज्यपाल की शक्तियों को देखते हुए केन्द्र सरकार ओर राज्यपाल में तालमेल होना जरूरी है, ताकि केन्द्र सुचारु रूप से अपना काम कर सके । इस दृष्टिकोण से देखा जाए, तो केन्द्र द्वारा मनोनुकूल व्यक्ति को राज्यपाल नियुक्त करना अनुचित नहीं लगता ।

हालाँकि इस विषय के दूसरे पक्ष पर भी विचार करना चाहिए । राज्यपाल जैसे महत्वपूर्ण संवैधानिक पद की एक गरिमा होती है । केन्द्र द्वारा कमी भी कारण बताए बिना ही राज्यपाल को पदच्युत कर देना या उनका स्थानान्तरण कर देना इस पद की गरिमा को धूमिल करता है । अस्सी के दशक में नियुक्ति और स्थानान्तरण को लेकर राज्यपालों की स्थिति बेहद हास्यास्पद हो गई थी ।

ऐसा लग रहा है, वह दौर फिर से लौट रहा है । वर्तमान समय में देखा जाए, तो आठ उत्तर-पूर्वी राज्यों में से तीन राज्यों के पास स्थायी राज्यपाल नहीं है । वर्ष 2014 के मई-जून के दो महीनों में मिजोरम में पाँच बार राज्यपाल बदले जा चुके है । बीच-बीच में राजनीतिक दल राज्यपालों की नियुक्ति को लेकर थोड़ा-बहुत सतर्क तो हुए हैं, लेकिन अवसर मिलते ही वे इस पर राजनीति करना आरम्भ कर देते हैं, इसलिए केन्द्र में सत्ता में आने बाली पार्टियां जल्दी ही पूर्ववर्ती सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को हटाकर उनकी जगह अपने दल से सम्बन्धित व्यक्तियों को नियुक्त करती है ।

वास्तव में, इस तरह राजनीतिक दल अपने सेवानिवृत्त राजनेताओं को खुश करने का प्रयास करते है । कई बार यह देखने में आया है कि पार्टियाँ अपने अत्यधिक वरिष्ठ सदस्यों को ‘आराम’ देना चाहती हैं परन्तु वे उन्हें अचानक ही पार्टी से अलग नहीं कर सकतीं । अतः वे उन्हें किसी राज्य का राज्यपाल बनाकर आसानी से उनसे मुक्त हो जाती हैं ।

अब तक इस मुद्दे पर हमने राजनीतिक दृष्टिकोण से विचार किया । इस सम्बन्ध में न्यायपालिका का क्या कहना है, यह भी जानना महत्त्वपूर्ण है । वर्ष 2004 में जब यूपीए सरकार ने एनडीए द्वारा नियुक्त कई राज्यपालों को हटा दिया था, तब बीजेपी के सांसद बीपी सिंघल ने यूपीए सरकार के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी ।

सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2010 में इस विषय पर अपना फैसला सुनाते हुए स्पष्ट तौर पर कहा था कि राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है, केन्द्र सरकार का कर्मचारी या एजेण्ट नहीं, वह संविधान के अनुच्छेद-156(1) के तहत राष्ट्रपति की अनुकम्पा से अपने पद पर बना रहता है ।

लेकिन जिस तरह इस पद के लिए कोई विशेष योग्यता निर्धारित नहीं है, उसी तरह राज्यपाल को हटाने के लिए भी कुछ नियम तय नहीं किए गए है । राष्ट्रपति कमी भी कारण बताकर या बिना कारण बताए ही अपनी अनुक्रम वापस लेकर उसे पद से हटा सकता है ।

अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि इन सबके बावजूद राज्यपाल को हटाने के लिए ठोस और वैध कारण होना चाहिए । इसके साथ ही कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि राज्यपाल की नियुक्ति अथवा सेवानिवृत्ति पूर्णतः राजनीतिक मामला है । इस सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका बहुत ही सीमित है ।

यदि कोई व्यक्ति राज्यपाल की सेवानिवृति को लेकर कोर्ट में जाता है, तो उसका केस बहुत ही मजबूत, होना चाहिए अन्यथा सुप्रीम कोर्ट इस मामले में संक्षेप कर सकता । सुप्रीम कोर्ट के फैसले से एक बात तो साफ हो जाती है कि राज्यपालों की नियुक्ति को लेकर केन्द्र सरकारों को गम्भीरता बरतनी चाहिए । केवल राजनीतिक कारणों से इस पद की स्थिति को ही हास्यास्पद बना देना उचित नहीं है ।

यद्यपि हमारे देश में राज्यपालों को लेकर कुछ चीजें साफ नहीं हैं, बावजूद इसके राजनीति का आदर्श यही है कि इस महत्वपूर्ण पद और इस पर आसीन व्यक्ति की गरिमा बरकरार रखी जाए । उम्मीद है कि भविष्य में सरकारें इस ओर ध्यान देगी ।

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