भारत का उच्चतम न्यायालय पर निबंध | Essay on the Supreme Court of India in Hindi.

Essay # 1. भारत के सर्वोच्च न्यायालय का प्रारम्भ (Introduction to the Supreme Court of India):

एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य में न्यायपालिका कानून की व्याख्या करने का महत्वपूर्ण कार्य करती है । भारत में न्यायिक व्यवस्था एकात्मक प्रकृति की है, जिसके सर्वोच्च पायदान पर भारत का सर्वोच्च न्यायालय स्थित है ।

1933 के श्वेतपत्र में, संघीय सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया । यह प्रस्ताव संयुक्त समिति द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया तथा औपनिवेशिक शासकों के द्वारा भी त्याग दिया गया । 1935 के अधिनियम के अन्तर्गत एक अखिल भारतीय न्यायालय, जिससे संघीय न्यायालय कहा गया, स्थापित किया गया । इसमें एक मुख्य न्यायाधीश की व्यवस्था थी ।

अन्य न्यायाधीशों की संख्या ब्रिटिश सरकार अवश्यकतानुसार निर्धारित करती । 1937 से 1950 तक संवैधानिक प्रश्न संघीय न्यायालय के सम्मुख आते रहे, जबकि सामान्य, नागरिक और आपराधिक अपीलें प्रिवी कौंसिल के पास जाती रहीं ।

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जब संविधान सभा के सम्मुख सर्वोच्च न्यायालय का प्रश्न आया तब यह स्पष्ट था कि संघीय न्यायालय और प्रिवी कौंसिल दोनों की शक्तियां सामूहिक रूप से सर्वोच्च न्यायालय में निहित होंगी । स्वतंत्रता के बाद, नये संविधान ने सर्वोच्च न्यायालय को संघीय न्यायालय के स्थान पर स्थापित किया । भारतीय संविधान के निर्माता चाहते थे कि न्यायपालिका देश के विस्तृत राजनैतिक दर्शन के अनुरूप हो ।

सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना से संबंधित प्रारूप प्रस्तावों को तैयार करने का कार्य पांच सदस्यों की एक अस्थाई समिति ने किया, जिसके सदस्य थे- बी॰एन॰ राव, के॰एम॰ मुंशी. एम॰एल॰ मित्तर, वर्धाचारी तथा अल्लादि कृष्ण-स्वामी अय्यर ।

संविधान सभा द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को परमादिकृत किया गया, क्योंकि न्यायालय को अधिकारों के विस्तार के रूप में देखा गया, सामाजिक क्रांति का एक अस्त्र माना गया तथा संविधान के संरक्षक के रूप में देखा गया ।

Essay # 2. सर्वोच्च न्यायालय से संबंधित महत्वपूर्ण अनुच्छेद (Important Articles Related to Supreme Court of India):

अनुच्छेद 124:

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न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं सेवानिवृति के संबंध में । इसी अनुच्छेद में न्यायाधीशों को हटाने संबंधी प्रक्रिया का वर्णन है ।

अनुच्छेद 125:

न्यायाधीश की नियुक्ति के उपरांत उसकी सेवा शर्तों में कोई हानिकारक परिवर्तन न करने से संबंधित ।

अनुच्छेद 126:

ADVERTISEMENTS:

कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश से संबंधित ।

अनुच्छेद 127:

राष्ट्रपति की सहमति से तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित ।

अनुच्छेद 128:

आवश्यकता होने पर मुख्य न्यायाधीश द्वारा राष्ट्रपति की सहमति से सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की उपस्थिति से संबंधित ।

अनुच्छेद 129:

सर्वोच्च न्यायालय का अभिलेखीय न्यायालय होने से संबंधित ।

अनुच्छेद 130:

सर्वोच्च न्यायालय का कार्यस्थल दिल्ली में होने तथा राष्ट्रपति की सहमति से मुख्य न्यायाधीश द्वारा स्थान परिवर्तन से संबंधित ।

अनुच्छेद 131:

सर्वोच्च न्यायालय के मूलभूत अधिकार क्षेत्र से संबंधित ।

अनुच्छेद 132:

उच्च न्यायालय के उन सभी निर्णयों के विरुद्ध, जिसमें कानून का कोई महत्वपूर्ण प्रश्न निहित हो, की सुनवाई से संबंधित ।

अनुच्छेद 133:

सभी नागरिक मामलों में, उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध, जिसमें 20,000 रुपये से अधिक का मामला हो या कानून का कोई महत्वपूर्ण प्रश्न संबंधित हो, की सुनवाई की अपील से संबंधित ।

अनुच्छेद 134:

उच्च न्यायालय द्वारा नीचे के न्यायालय के निर्णय को बदलते हुए किसी अभियुक्त को मौत की सजा दिए जाने के विरुद्ध अपील सुनने का अधिकार ।

अनुच्छेद 136:

किसी भी न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध अपील सुनने का अधिकार ।

अनुच्छेद 137:

अपने ही निर्णय का पुनरावलोकन करने का अधिकार ।

अनुच्छेद 141:

उच्चतम न्यायालय द्वारा घोषित विधि का सभी न्यायालयों पर आबद्धकर होना ।

अनुच्छेद 143:

परामर्शदात्री अधिकार ।

वर्तमान में भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश व 30 अन्य न्यायाधीश है । प्रारंभ में संविधान में 8 न्यायाधीशों की व्यवस्था थी, लेकिन 1956, 1970 तथा 1977 में इसकी संख्या को बढाया गया और 1986 में इस संख्या को 26 फिर आगे 31 कर दिया गया ।

Essay # 3. न्यायपालिका और भारतीय संविधान में न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति (Judiciary and the Power of Judicial Review in the Indian Constitution):

भारत का संविधान उन लोगों के द्वारा निर्मित किया गया, जिन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया । वे ऐसी आशा नहीं करते थे कि राजनीतिक स्वतंत्रता सभी कमजोरियों की रामबाण औषधि सिद्ध होगी । वे इस तथ्य को जानते थे कि गरीबी व सामाजिक अन्याय भारत में सर्वप्रमुख समस्याएं हैं, किंतु वे यह भी महसूस करते थे कि हिंसा या सर्वाधिकारवादी माध्यमों से परिवर्तन कष्टकर ही नहीं वरन् शोषण के नये दौर का प्रारंभ करने वाला हो सकता है । इसलिए उन्होंने परिवर्तन हेतु लोकतांत्रिक मार्ग को अपनाया ।

इसलिए संविधान में सीमित सरकार का प्रावधान है । इसमें मूलभूत अधिकारों का एक चार्टर भी सम्मिलित है, जिसका उल्लंघन राज्य नहीं कर सकता । अपने अधिकारों की सुरक्षा के लिए व्यक्ति को न्यायालय का संरक्षण प्राप्त है ।

इसके अतिरिक्त, संविधान एक संघीय सरकार (Federal Government) की व्यवस्था करता है, जिसमें शक्तियाँ केन्द्र व राज्यों के मध्य विभाजित हैं । इन सभी प्रावधानों को अर्थपूर्ण बनाने के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था की गई है ।

इस संदर्भ में भारतीय न्याय प्रणाली के सर्वोच्च पायदान पर स्थित सर्वोच्च न्यायालय को निम्नलिखित चार महत्वपूर्ण संवैधानिक कार्य सौंपे गये:

(i) मूलभूत अधिकारों का संरक्षक और गारंटी देने वाले के रूप में ।

(ii) संघीय समानता कायम रखना ।

(iii) कार्यपालिका और विधायी सत्ता के मनमानेपन को रोकते हुए विधि के शासन को सुनिश्चित करना ।

(iv) संविधान की व्याख्या करना ।

किंतु संविधान निर्माताओं ने ‘न्यायिक पुनरावलोकन’ (Judicial Review) का संविधान में कहीं भी उल्लेख नहीं किया । वस्तुतः न्यायिक पुनरावलोकन न्यायपालिका की वह शक्ति है, जिसके माध्यम से वह विधायिका या कार्यपालिका के किसी भी कार्य या आदेश की संवैधानिक वैधता के संबंध में निर्णय दे सकती है ।

यह शक्ति इस सामान्य तार्किकता पर आधारित है कि संविधान ही देश का सर्वोच्च कानून है और कोई भी सत्ता यदि संविधान द्वारा सीमित किए गए क्षेत्र से परे जाकर कार्य करने का प्रयास करती है, तो उसे रोका जाएगा ।

वस्तुतः न्यायिक पुनरावलोकन का सिद्धांत अमेरिकी संवैधानिक व्यवस्था की देन है । अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह अधिकार मारबरी बनाम मेडीसन (Marbury Vs Madison) मामले में 1803 में प्राप्त किया गया, जब न्यायमूर्ति मार्शल ने अपने निर्णय में यह कहा कि ”कोई भी कानून जो संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करता है, कानूनन अमान्य (Null and Void) माना जाएगा ।” उसी समय से अमेरिका में न्यायिक सर्वोच्चता स्थापित हो गई ।

भारत में, 1935 के भारत शासन अधिनियम के द्वारा स्थापित संघीय न्यायालय को न्यायिक पुनरावलोकन का सीमित अधिकार प्राप्त था ।

वस्तुतः भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा संविधान में न्यायिक समीक्षा या न्यायिक पुनरावलोकन को स्थान प्रदान न करने का कारण यह था कि शायद संविधान निर्माता इस तथ्य से परिचित थे कि अमेरिका एवं अन्य स्थानों पर न्यायिक समीक्षा का अनुभव संतोषजनक नहीं रहा है ।

यह संसद के माध्यम से व्यक्त होने वाली जनसाधारण की इच्छा पर रोक लगाता है । न्यायिक समीक्षा ऐसी याचिकाओं के द्वार खोल देती है जिसके कारण धन का खर्च एवं समय की बर्बादी होती है और सरकारी कार्यक्रमों को लागू करने में देरी होती है । न्यायपालिका न तो किसी के प्रति उत्तरदायी होती है और न ही अपने निर्णयों के विरुद्ध जवाबदेह है ।

इसलिए संविधान निर्माताओं ने न्यायालयों द्वारा न्यायिक प्रक्रिया का माखौल बनाए जाने एवं संसद के तृतीय सदन के रूप में कार्य करने से रोकने के लिए कई उपाय अपनाए । उनका मानना था कि आर्थिक सुधारों तथा सामाजिक विधानों के क्षेत्र में सरकार की विधायी शाखा की सर्वोच्चता बनी रहनी चाहिए ।

दूसरे, हमारे संविधान ने अमेरिकी संविधान के कानून की उचित प्रक्रिया (Due Process of Law) के स्थान पर कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया को अपनाया है, जिससे हमारे न्यायालय, जिस प्रकार कानून लिखा है, उसकी व्याख्या कर सकते हैं । किसी कानून को इस आधार पर अवैध घोषित नहीं कर सकते कि यह अन्यायपूर्ण है ।

तीसरे, अमेरिका के मूलभूत अधिकार के विपरीत भारत में मूलभूत अधिकारों को सही रूप में परिभाषित किया गया है । संसद इस पर तार्किक प्रतिबंध भी लगा सकती है । इसी प्रकार, केन्द्र व राज्यों के मध्य शक्ति विभाजन में शेष शक्तियाँ (Residuary Power) केन्द्र में निहित है । अंत में, भारतीय संविधान अमेरिकी संविधान की तरह कठोर नहीं है । यहाँ संसद के लिए यह संभव है कि विपरीत न्यायिक निर्णयों से वह संविधान संशोधन के माध्यम से मुक्त हो जाए ।

यद्यपि संविधान में न्यायिक पुनरावलोकन या न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) का कहीं प्रावधान नहीं हैं किन्तु न्यायपालिका ने संविधान के कई प्रावधानों से यह शक्ति प्राप्त कर ली है । प्रथम, संविधान में कहीं भी यह प्रावधान नहीं है कि न्यायपालिका संसद के निर्णयों पर विचार नहीं कर सकती है ।

मूलभूत अधिकारों से संबंधित संपूर्ण अध्याय की भाषा इस प्रकार की है कि अन्ततः न्यायपालिका ही मौलिक अधिकारों की सीमा का निर्धारण करेगी । विशेष रूप से, अनुच्छेद 13(2) जिसमें यह उल्लेख किया गया है कि ऐसा कोई भी कानून जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, उसको रह किया जाएगा ।

दूसरे, संविधान निर्माताओं द्वारा सामान्य जनता के लिए सामाजिक-आर्थिक न्याय के महत्व पर बल दिए जाने के बावजूद, कहीं पर भी यह संकेत नहीं किया गया कि न्यायपालिका इस पर क्या राख अपनाएगी ।

”कानून द्वारा स्थापित कार्यप्रणाली के अनुसार कार्य करने की” धारा से भी उच्चतम न्यायालय को दो धार वाली तलवार प्राप्त हो गई । जहां एक ओर वैधानिक पक्ष पर बल दिया गया है, वहीं इसका तार्किक अभिप्राय यह है कि न्यायपालिका ही कानून को उसकी वैधानिक बारीकियों के संबंध में परिभाषित करेगी और यह सामाजिक प्रसंग से अलग भी हो सकता है ।

दूसरी ओर, संविधान ने ऐसी कोई सामाजिक व्यवस्था न्यायालय के लिए निश्चित नहीं की है, जिससे वह इस प्रसंग में वैधानिक अनिवार्यता के साथ कार्य करे । इसने न्यायालयों को एक ऐसा व्यापक क्षेत्र उपलब्ध कराया है कि वह अपनी इच्छा से कार्य कर सकती है ।

अंत में, न्यायालय को न्यायिक समीक्षा की शक्ति उसके द्वारा संविधान को परिभाषित करने से भी प्राप्त होती है । संविधान ने अपनी परिभाषा के लिए न्यायालय द्वारा अनुसरण किए जाने वाले मूल्यों की कोई नियमावली या निर्देश जारी नहीं किया है, इसलिए न्यायपालिका के लिए न्यायिक विवेक का प्रयोग करने के लिए व्यापक क्षेत्र उपलब्ध हो गया है ।

संविधान वह मूलभूत ग्रंथ है जो सरकार के तीनों अंगों की शक्ति-संरचना एवं उनके आपसी संबंधों को व्याख्यायित करता है । वस्तुतः संविधान का सार इस संबंध की प्रकृति के आधार पर ही निर्धारित किया जा सकता है । इस प्रकार, उस अंग की सर्वोच्च सत्ता स्थापित हो जाती है, जिसके पास संविधान की व्याख्या का अधिकार हो ।

भारत में न्यायपालिका को संविधान की व्याख्या का एवं इसके माध्यम से सरकार के विभिन्न घटकों के मध्य संबंधों की प्रकृति निर्धारित करने का अधिकार प्राप्त है । इस प्रकार भारत में न्यायपालिका ने सरकार के दो अन्य घटकों की अपेक्षा सर्वोच्चता प्राप्त कर ली है ।

न्यायमूर्ति पतंजलि शास्त्री ने अपना यह मत अभिव्यक्त किया है कि, ”हमारे संविधान में विधायन (Legislation) की न्यायिक समीक्षा संवैधानिक प्रावधानों से अनुरूपता रखती है, जबकि अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने विधायी एक्टो के समीक्षा की अतिरिक्त शक्ति 5वें और 14वें संशोधन की ‘उचित प्रक्रिया’ (Due Process) वाली धारा से प्राप्त की है । यह तथ्य विशेष रूप से मौलिक अधिकारों के संबंध में स्थापित होता है, जहां इस न्यायालय को पहरेदार की भूमिका दी गई है ।

स्वतंत्र भारत में विधायिका एवं न्यायपालिका के मध्य संस्थात्मक प्रतिद्वंद्विता (Institutional Rivalry) से संबंधित कई विवाद उभरकर सामने आये । यद्यपि न्यायिक समीक्षा की शक्ति की अपनी सीमाएं थी तथापि इसे विधायिका की सर्वोच्चता के लिए चुनौती माना गया, जिसने कई संविधान-संशोधनों का मार्ग प्रशस्त किया ।

डॉ. अम्बेडकर ने यह विचार अभिव्यक्त किया था कि – ”संविधान निर्माण करते समय संविधान निर्माताओं का कोई पक्षपाती उद्देश्य नहीं था । एक बेहतर और क्रियाशील संविधान की प्राप्ति के अतिरिक्त उनका कोई और स्वार्थ नहीं था । संविधान के अनुच्छेदों पर विचार करते समय उन्होंने एक सर्वसम्मत विशेष उपाय अपनाया । यदि भविष्य की संसद, संविधान सभा के रूप में मिलती है तो इसके सदस्य दलीय प्रतिबद्धताओं से बंधे होंगे तथा अपने दल के लक्ष्यों या विचारधारा की पूर्ति के लिए संविधान के उन अनुच्छेदों को हटाएंगे जो उनके मार्ग में बाधा स्वरूप हैं जबकि संविधान सभा का कोई निहित स्वार्थ नहीं है, वही संसद का होगा ।”

किंतु पंडित नेहरू, जो संसदीय संप्रभुता के कट्‌टर समर्थक थे, ने दूसरे सुर में अपना विचार व्यक्त किया संसद की संप्रभु इच्छा के निर्णय के सम्मुख कोई सर्वोच्च न्यायालय या न्यायपालिका नहीं आ सकती, क्योंकि संसद संपूर्ण समुदाय (Community) के हित का प्रतिनिधित्व करती है…..आखिरकार संपूर्ण संविधान भी एक संसद की ही कृति है ।”

वस्तुतः व्याख्याओं व संशोधनों के द्वारा संविधान व्यापक परिवर्तन से गुजर चुका है । यह प्रक्रिया प्रथम संशोधन एक्ट (1951) से ही प्रारंभ हो चुकी थी, जिसने जमींदारी व्यवस्था को समाप्त कर दिया । इस संशोधन को शंकरी प्रसाद केस के माध्यम से इस आधार पर चुनौती दी गई कि यह मौलिक अधिकारों को चोट पहुंचाता है ।

न्यायालय ने इस याचिका को खारिज कर दिया तथा यह निर्णय दिया कि संसद संविधान के किसी भी भाग का संशोधन कर सकती है, इसमें मौलिक अधिकार भी सम्मिलित हैं । इसी प्रकार, 17वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1964 को सज्जन सिंह केस के माध्यम से न्यायालय में चुनौती दी गई कि इससे संविधान के अनुच्छेद 314 के अंतर्गत मौलिक अधिकारों का हनन होता है किंतु सर्वोच्च न्यायालय ने अपने बहुमत निर्णय में शंकरी प्रसाद केस के निर्णय को कायम रखा ।

न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) को प्रदर्शित करने वाला महत्वपूर्ण निर्णय 1967 के गोलकनाथ केस में आया । इस केरम में संविधान के पहले, चौथे व सत्रहवें संशोधन अधिनियमों को इस आधार पर चुनौती दी गई कि ये मौलिक अधिकारों का हनन करते हैं । न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 13(2) का हवाला देते हुए 6-5 के बहुमत से यह निर्णय दिया कि संसद के पास संविधान द्वारा प्रदत्त मूलभूत अधिकारों के संशोधन का अधिकार नहीं है ।

सामाजिक विधायनों के अक्रियान्वयन के भय के मध्य संसद ने बैंकिग कंपनी (उपक्रमों के स्थानान्तरण एवं स्वामित्व) अध्यादेश के माध्यम से 1969 में 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया । इस अधिनियम को आर.सी. कूपर के द्वारा चुनौती दी गई कि यह अनुच्छेद 14 और 13(2) का उल्लंघन करता है ।

1970 में एक बार पुन: राष्ट्रपति ने एक कार्यपालिका आदेश जारी कर राजाओं के प्रिवी पर्स को समाप्त कर दिया । इसे माधव राव सिंधिया के द्वारा चुनौती दी गई । उपरोक्त दोनों अध्यादेशों को न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित कर दिया गया ।

इन सभी घटनाक्रमों को देखते हुए संसद ने चौबीसवां संविधान संशोधन अधिनियम (1971) पारित किया, जिसमें संविधान के अनुच्छेद 13 व 368 में पर्याप्त संशोधन किया गया तथा यह प्रावधान किया गया कि संसद संविधान के किसी भी भाग के संशोधन में सक्षम है । वे संविधान संशोधन अधिनियम (1971) के माध्यम से संसद ने संविधान के अनुच्छेद 31 में संशोधन किया, जिससे न्यायालय द्वारा बैंकों के राष्ट्रीयकरण के संबंध में आरोपित बाधा को दूर किया गया ।

इसी प्रकार, 26वें संविधान संशोधन अधिनियम (1971) के माध्यम से संसद ने राजाओं के प्रिवी पर्स की समाप्ति का मार्ग प्रशस्त किया । सरकार ने अपने इन कार्यों का यह कहते हुए बचाव किया कि समाज के सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं में परिवर्तन हेतु ये संशोधन आवश्यक थे ।

1973 में केशवानन्द भारती के केस में 24वें, 25वें एवं 26वें संविधान संशोधन उच्चतम न्यायालय के सम्मुख विचार के लिए आए । न्यायालय ने ‘आधारभूत संरचना’ की संकल्पना का प्रतिपादन किया । यद्यपि न्यायालय ने आधारभूत संरचना (Basic) की संकल्पना की व्याख्या नहीं की किंतु न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि संविधान संशोधन का संसद का अधिकार असीमित नहीं है, वरन् इस पर आधारभूत संरचना का प्रतिबंध है, अर्थात् संसद संविधान के आधारभूत संरचना में परिवर्तन नहीं कर सकती ।

श्रीमती इंदिरा गाँधी ने 1976 में आपातकालीन स्थिति का इस्तेमाल करते हुए संसद को बहुत से संशोधन करने के लिए बाध्य किया ।

42वें संवैधानिक संशोधन ने न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के प्रयोग पर कई सीमाएं आरोपित कीं:

1. राज्य-सूची के कई विषयों को समवर्ती सूची में सम्मिलित कर केन्द्र की शक्ति बढ़ाई गई ।

2. सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों की शक्तियों में कमी की गई । संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 31 के संबंध में राज्य के नीति निदेशक तत्वों के क्रियान्वयन के लिए संसद को कोई भी कानून बनाने की छूट दी गई ।

3. मूलभूत अधिकारों के क्रियान्वयन हेतु आदेश जारी करने की सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति सीमित कर दी गई, यह प्रावधान किया गया कि ये आदेश तभी जारी किये जा सकते हैं जब कोई महत्वपूर्ण हानि हुई हो तथा कानून द्वारा वैकल्पिक उपचार उपलब्ध न हो ।

4. किसी केन्द्रीय कानून की वैधता की जांच करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के न्यूनतम 7 न्यायाधीशों की खंडपीठ गठित करने का प्रावधान किया गया तथा किसी कानून को असवैधानिक घोषित करने के लिए दो-तिहाई न्यायाधीशों के समर्थन को आवश्यक बना दिया गया । किसी कानून की संवैधानिक वैधता की जांच करने के लिए उच्च न्यायालयों में 5 सदस्यीय खंडपीठ का प्रावधान किया गया ।

5. उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया अत्यधिक विस्तारित कर दी गई ।

6. यह भी प्रावधान किया गया कि प्रशासनिक अधिकरणों के निर्णयों को अनुच्छेद 323 A के अंतर्गत केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही चुनौती दी जा सकती है । इंदिरा गाँधी के सत्ताच्युत होने के बाद, 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी सरकार ने 23वें व 44वें संशोधनों के माध्यम से न्यायपालिका की गरिमा वापस ला दी ।

संविधान के 44वें संशोधन में निम्न प्रमुख परिवर्तन हुए:

1. संपत्ति के अधिकार को मूलभूत अधिकारों के अध्याय से हटाकर अनुच्छेद 300 A के अंतर्गत स्थान दिया गया ।

2. मूलभूत अधिकारों की सुरक्षा को सुनिश्चित किया गया ।

3. अनुच्छेद 131 A और 226 A को निरस्त करते हुए न्यायपालिका के अधिकारों को कुछ हद तक वापस किया गया और न्यायालयों के न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति पुनर्स्थापित की गई ।

मिनर्वा मिल्स केस में न्यायालय ने मूलभूत अधिकारों तथा राज्य के नीति निदेशक तत्वों के मध्य पुन: संतुलन स्थापित किया- अनुच्छेद 39 b और c को मूलभूत अधिकारों पर वरीयता देकर । मिनर्वा मिलन केस में सर्वोच्च न्यायालय ने आधारभूत ढांचे (Basic Structure) के सिद्धांत को मान्यता देते हुए यह स्पष्ट किया कि संसद को संविधान संशोधन करने की सीमित शक्ति प्राप्त है और यह सीमित शक्ति पूर्ण शक्ति में परिवर्तित नहीं हो सकती ।

इस केस में सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ हद तक मूलभूत ढांचे को भी चिह्नित किया, जिसमें संघवाद, संसदीय लोकतत्र, धर्मनिरपेक्षता आदि को महत्वपूर्ण माना गया किंतु अभी भी आधारभूत ढांचे के संबंध में स्पष्टीकरण नहीं है ।

न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने न्यायिक पुनरावलोकन के संबंध में यह विचार व्यक्त किया कि ”न्यायिक पुनरावलोकन का महत्वपूर्ण सिद्धांत अपने सर्वोत्तम रूप में तभी आ सकता है, जबकि यह सार्वजनिक नीति की व्यापक रूपरेखा के भीतर हो तथा संविधि की उद्देश्यपूर्णता के परीक्षण से संयुक्त हो ।”

मेनका गाँधी के केस में न्यायालय ने स्वतंत्रता की संकल्पना को नया आयाम प्रदान किया । इस केस में निर्णय देते हुए मुख्य न्यायाधीश पी॰एन॰ भगवती ने यह विचार अभिव्यक्त किया कि ”कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया मनमानी पूर्ण (Arbitrary), अन्यायपूर्ण एवं भेदभावयुका नहीं हो सकती ।”

इसी प्रकार 1994 में अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग के मामले में बोम्मई केस का निर्णय महत्वपूर्ण एवं युगान्तकारी सिद्ध हुआ । 1994 से पूर्व, अनुच्छेद 356 के संबंध में, मंत्रिमंडल द्वारा राष्ट्रपति को दी गई सलाह की न्यायिक जांच के घेरे से बाहर रखने के कारण, सर्वोच्च न्यायालय इस अनुच्छेद के दुरुपयोग के मामले को केन्द्र में शासन करने वाली सरकार के विशेषाधिकार के रूप में ”राजनीतिक अंधकार” (Political Thicket) में छोड़ दिया था किंतु इस स्थिति पर पुनर्विचार के संकेत राजस्थान सरकार और अन्य बनाम भारत संघ (1971) के निर्णय में मिला ।

अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने एस॰आर॰ बोम्मई बनाम भारतीय संघ मामलों पर यह व्यवस्था दी कि ”संवैधानिक तंत्र की असफलता” (Breakdown of the Constitutional Machinery) के कारण अनुच्छेद 356 के लिए विचाराधीन किसी राज्य के मामले पर केबिनेट द्वारा दी गई ‘सलाह’ पर राष्ट्रपति की संतुष्टि व्यक्तिपरक प्रकृति की होती है जो कि कुछ प्रासंगिक आधारों पर निर्भर होती हैं न कि निरपेक्ष या निरंकुश ।

न्यायालय ने यह विचार व्यक्त किया कि ”अनुच्छेद 356 (1) के अंतर्गत उद्‌घोषणा न्यायिक पुनरावलोकन का विषय नहीं है । न्यायालय अनुच्छेद 356 (1) की उद्‌घोषणा के लिए आधारों या कारणों की शुद्धता की जांच नहीं करेगा । इसकी जांच केवल यह देखने तक सीमित रहेगी कि क्या आधार या कारण प्रासंगिक हैं… यदि न्यायालय उद्घोषणा को रह कर देती है तो इससे बर्खास्त हुई सरकार पुन: कायम हो जाएगी तथा यदि विधानसभा निलंबित हो या भंग कर दी गई हो तो वह भी पुन: क्रियाशील हो जाएगी ।

Essay # 4. न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism):

भारत विश्व का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश है । लोकतंत्र को स्थायित्व और सुदृढ़ आधार प्रदान करने में स्वतंत्र व निष्पक्ष न्यायपालिका की भूमिका हमेशा ही महत्वपूर्ण रही है । इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि न्यायपालिका को विधायी और कार्यपालिका शक्तियों के हस्तक्षेप से मुक्त रखा जाए ।

भारत में न्यायपालिका को स्वतंत्र बनाये रखने के तीन विशेष कारण रहे:

प्रथम, भारत में संविधान को सर्वोच्च माना गया है और संविधान की व्याख्या से संबंधित उठने वाले मुद्दों का निपटारा स्वतंत्र व निष्पक्ष न्यायपालिका के सिवाय और कोई निकाय नहीं कर सकता । द्वितीय, समय-समय पर केन्द्र और राज्यों के मध्य विवाद उत्पन्न होते रहते हैं, अतः इसके निपटारे के लिए भी स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता महसूस की गई ।

तृतीय, भारतीय संविधान द्वारा भारतीय नागरिकों को मूल अधिकार प्रदान किए गए हैं और उनकी रक्षा और उन्हें बनाये रखने के लिए भी स्वतंत्र व निष्पक्ष न्यायपालिका की आवश्यकता पडी । इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए भारतीय संविधान निर्माताओं ने सरकार के तीनों अंगों की शक्तियों का स्पष्ट रूप से उल्लेख संविधान में किया ताकि इनके मध्य कार्य क्षेत्र के विषय में कोई मतभेद न रहे ।

भारत में एकल न्यायपालिका का अनुसरण किया गया है, जिसमें सभी न्यायालय सब प्रकार के कानूनी की व्याख्या करते हैं और सभी सर्वोच्च न्यायालय के अधीन हैं । संविधान का अभिरक्षक होने के साथ-साथ न्यायपालिका से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अमीर-गरीब, शक्तिशाली-कमजोर, सरकारी अथवा गैर-सरकारी आदि का भेदभाव किए बिना न्याय करे ।

एक अच्छी सरकार की कुशलता भी उसके नागरिकों को मिलने वाले निष्पक्ष, अल्पव्ययी और सकारात्मक न्याय पर निर्भर करती है लेकिन दुर्भाग्य से हमें ऐसी न्याय व्यवस्था विरासत में मिली है जिसका स्वरूप सामंतशाही रहा है । यह केवल विशिष्ट लोगों तक ही सीमित ही, जिसके कारण यह आम लोगों के लिए सरल, सुबोध, सस्ती व तत्काल न्याय प्रदान करने वाली न बन सकी ।

दूसरी तरफ विधानपालिका भी कार्यपालिका के दबाव में आकर ऐसे कानूनों का निर्माण करती है, जिससे नागरिकों की स्वतंत्रता और सुरक्षा का हनन होता है । ऐसी स्थिति में नागरिकों को मात्र न्यायपालिका ही न्याय के लिए आशा की किरण नजर आती है ।

न्यायिक सक्रियता का अर्थ एवं विकास:

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि न्यायपालिका ने अपना कर्तव्यपालन सदैव ईमानदारी एवं निष्ठा-भावना से किया है लेकिन ब्रिटिश औपनिवेशिक न्याय व्यवस्था पर आधारित होने के कारण यह सामान्यतः विशिष्ट वर्ग के लोगों की परिधि से बाहर न आ सकी । विगत कुछ वर्षों से न्यायपालिका ने अपनी स्थिति का मूल्यांकन करते हुए अपने कर्तव्यों को पहचाना है ।

उसने स्वयं स्वीकार किया है कि उसका स्वरूप मात्र कानूनी न होकर सामाजिक व आर्थिक भी है । उसने महसूस किया है कि समाज के अंतिम व्यक्ति की दशा सुधारने व उसे मूलभूत मानवीय अधिकार दिलाने में भी उसका महत्वपूर्ण योगदान तथा सक्रिय भागीदारी होना आवश्यक है ।

विभिन्न विद्वानों ने न्यायपालिका के इस दृष्टिकोण को न्यायपालिका की क्रियाशीलता अथवा न्यायिक सक्रियतावाद का नाम दिया है । इस न्यायिक सक्रियतावाद को अपनाने के कारण भारतीय न्याय का स्वरूप बदलता जा रहा है । न्यायपालिका का मुख्य कार्य अपने समक्ष लाये गये विवादों का देश के संविधान और कानूनों के अनुसार निर्णय करना है ।

यद्यपि न्यायपालिका अपने इस कर्तव्यपालन में निष्पक्षता का परिचय देती रही है, तथापि इसको न्यायपालिका की सक्रियता नहीं कह सकते लेकिन जब न्यायपालिका अपने न्यायिक अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर कार्यपालिका अथवा विधानपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करती है तो न्यायपालिका की ऐसी कार्यवाही को न्यायिक सक्रियता का नाम दिया जाता है ।

न्यायिक सक्रियता का इतिहास जनहित याचिकाओं से जुड़ा है । जनहित याचिका की शुरुआत 1978 में एक विख्यात ठग चार्ल्स शोभराज के सर्वोच्च न्यायालय को लिखे उसे पत्र से हुई जिसमें उसने शिकायत की कि उसे और उसके साथियों को जेल में भयंकर यंत्रणा से गुजरना पड़ रहा है, जिसके परिणामस्वरूप न्यायालय ने जेलखानों की दशा की जांच का आदेश दिया ।

बाद में सामाजिक न्याय संगठनों द्वारा उठाये गये मुकद्दमों को लेकर और भी बहुत से मामलों की जांघ-पड़ताल की गई । वास्तव में इस जनहित याचिका को शुरू करने का श्रेय दो न्यायाधीशों-न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर और जस्टिस पी॰एन॰ भगवती को जाता है, जिन्होंने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया कि जनहित के मामलों में यह नहीं देखा जाएगा कि कष्ट सहने वाला व्यक्ति स्वयं न्यायालय के द्वार पर दस्तक देता है या उसकी ओर से अन्य कोई व्यक्ति ।

अभिप्राय यह है कि कोई भी व्यक्ति या संस्था जनहित के मामलों को न्यायालय में उठा सकता है । प्रत्येक नागरिक को न्याय पाने का अधिकार है और जागरूक लोगों का यह कर्तव्य बन जाता है कि वे देश के अभागे लोगों के मामलों को न्यायालय में उठाने को तैयार रहें ।

न्याय का अर्थ केवल ‘कानूनी न्याय’ न होकर संविधानने की प्रस्तावना में वर्णित ‘सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक’ न्याय है । न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती के अनुसार, न्यायाधीश एक सृजनात्मक कलाकार है जिसमें अरस्तु और प्लेटो दोनों के गुण पाये जाते हैं । एक ओर वह ‘विधि के शासन’ का संस्थापक है तो दूसरी ओर प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्यकता के मुताबिक न्याय प्रदान करने वाला ‘दार्शनिक राजा’ भी है ।

सर्वोच्च न्यायालय ने जनहित याचिकाओं को इसलिए प्रोत्साहन दिया क्योंकि हमारी न्याय व्यवस्था में अनेक त्रुटियां हैं । पहला तो वही व्यक्ति मुकद्दमा दायर कर सकता है, जिसका विवाद के साथ प्रत्यक्ष संबंध होता है, दूसरा न्याय मिलने में देरी, अत्यधिक खर्च की समस्या और तीसरा जनता की घोर निर्धनता जिसके कारण वह शोषण व अत्याचार से मुक्ति पाने के लिए न्यायालय की शरण में जाने में स्वयं को असहाय समझती है ।

अतः न्यायालय ने औपचारिकताओं से हटकर ऐसी व्यवस्था की ताकि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह विवाद से संबंधित है अथवा नहीं, सार्वजनिक हित में पीडित व्यक्ति की ओर से न्यायपालिका के पास याचिका भेज सकता है । जनहित याचिका पद्धति का उद्देश्य प्रत्येक जरूरतमंद को न्याय प्रदान करना है ।

जनहित याचिका पद्धति के माध्यम से ही दबे हुए, अभावग्रस्त, पीडित, शोषित, और निर्धन व्यक्तियों के लिए न्याय सुलभ हो सकता है । इन याचिकाओं से जहां एक ओर न्यायपालिका की शक्ति में वृद्धि हुई है, वहीं दूसरी ओर न्यायिक सक्रियता भी बढी है ।

न्यायिक सक्रियता के विभिन्न आयाम:

1996-98 की कालावधि न्यायपालिका की सक्रियता की दृष्टि से अभूतपूर्व कही जा सकती है, अब वह अनुदारवादी न्यायालय के स्थान पर प्रगतिशील दृष्टिकोण वाले न्यायालय का रूप ग्रहण करता जा रहा है । न्यायपालिका ने लगभग प्रत्येक क्षेत्र (राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरण आदि) में अपनी सक्रिय भूमिका का परिचय दिया है ।

न्यायिक सक्रियतावाद के विभिन्न आयामों का वर्णन निम्नलिखित है:

1. जनहितकारी विवादों को मान्यता:

न्यायिक सक्रियता से सार्वजनिक हित के मुकद्दमों को मान्यता प्राप्त हुई है । इसके अनुसार कोई भी व्यक्ति किसी ऐसे समूह या व्यक्ति की ओर से मुकद्दमा लड़ सकता है, जिसको उसके कानूनी अधिकारों से वंचित कर दिया गया हो ।

पहले वही व्यक्ति अदालत में मुकद्दमा दायर कर सकता था जो स्वयं किसी रूप में मुकद्दमे से संबंधित हो लेकिन अब सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि गरीब, अपंग अथवा सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से पिछड़े लोगों के मामले में कोई भी आदमी न्यायालय के समक्ष ‘वाद’ ला सकता है ।

न्यायालय अपने सारे तकनीकी तथा कार्य-विधि संबंधी नियमों की परवाह किये बिना उस पर कार्यवाही करेगा । ऐसे मुकद्दमों की शुरुआत संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने की । भारत में इसकी शुरात भागलपुर (बिहार) की जेल के विचाराधीन बंदी रखे गये कैदियों से हुई । उनके विषय में पुलिस आयोग के सदस्य श्री के॰एफ॰ रुस्तमजी ने एक लेख लिखा तथा श्रीमती हिंगोरानी (वकील) ने धारा 32 के अंतर्गत उनके मामलों को सर्वोच्च न्यायालय में उठाया ।

बिहार की इन जेलों में सैकडों विचाराधीन कैदी किसी अदालती कार्यवाही के बिना ही वर्षों से सड़ रहे थे । इनकी ओर से कोई भी जमानत देने वाला नहीं था और न ही उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि वो वकील करते । अतएव सर्वोच्च न्यायलय ने निर्णय दिया कि बिना कारण किसी को जैल में न रखा जाए ।

यदि उन पर मुकद्दमा चलाने में 18 माह से अधिक समय लग गया हो तो उन्हें जमानत पर छोड़ दिया जाए । इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने गरीब और असहाय लोगों को भी जनहित याचिकाओं के माध्यम से न्याय प्राप्त करने का अधिकार प्रदान किया ।

2. राजनीतिक क्षेत्र में न्यायिक सक्रियता:

1996 के पश्चात न्यायपालिका की कार्यशीलता में अभूतपूर्व परिवर्तन आया है । उसने एक सचेत और क्रियाशील अभिकरण की भूमिका अदा कर राजनीतिक क्षेत्र में होने वाले व्यापक भ्रष्टाचार को उजागर किया है । हवाला कांड जिसमें देश के बड़े-बड़े नेता शामिल थे, उनके विरुद्ध जांच के आदेश देकर अपनी सक्रियता का परिचय दिया ।

चाहे चन्द्रास्वामी की गिरफ्तारी रही हो या कल्पनाथ राय को जेल की सजा हो, पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को न्यायालय में उपस्थित होना पड़ा हो, चिकित्सा उपकरण आयात घोटाला हो या दूरसंचार घोटाला अथवा यूरिया घोटाले के मामले रहे हों, न्यायपालिका ने सभी में सक्रियता तथा तत्परता के साथ कार्य किया है ।

चुनाव आयोग और उसके अधिकार क्षेत्र से संबंधित उत्पन्न मामलों का निपटारा भी सर्वोच्च न्यायालय ने बडी कुशलता से किया है । विशेषकर चुनाव आयोग से संबंधित अनुच्छेद 324, जोकि चुनाव आयोग को स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए कानून-अवस्था बनाये रखने की बात करता है, को स्पष्ट कर चुनाव आयोग और राजनीतिज्ञों के मतभेदों को दूर किया है ।

यही नहीं, सर्वोच्च न्यायालय ने उम्मीदवारों के लिए आचार-संहिता का निर्माण करने और उनके विषय में पूर्ण जानकारी जनता तक पहुंचाने की बात कहकर राजनीति के अपराधीकरण पर अंकुश लगाने की कोशिश की है ।

यहां तक कि कर्नाटक सरकार द्वारा कावेरी जल बंटवारे का पालन न करने तथा कुख्यात चन्दन तस्कर वीरप्पन के समक्ष लाचारी के लिए भी न्यायपालिका ने कर्नाटक सरकार को फटकार लगाकर राजनीतिक क्षेत्र में अपनी सक्रियता का परिचय दिया है ।

3. पर्यावरण के संदर्भ में सक्रियता:

न्यायपालिका ने दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे पर्यावरण प्रदूषण के प्रति भी अपनी सक्रियता दिखाई है । न्यायपालिका ने अकेले दिल्ली शहर में 700 औद्योगिक इकाइयों पर 10,000 रुपये प्रति इकाई जुर्माना लगाया है । इसके अतिरिक्त शहरी क्षेत्रों में स्थित औद्योगिक इकाइयों को बंद करने अथवा उन्हें आबादी से दूर ले जाने का निर्णय दिया है ।

दिल्ली को वायु-प्रदूषण से बचाने के लिए न्यायापालिका ने डीजल की बसों व अन्य यात्री परिवहनों को गैस (C.N.G) से चलाने का निर्णय देकर लोगों को स्वच्छ पर्यावरण प्रदान करने की कोशिश की है । इसके अतिरिक्त अनेक ऐसे पर्यावरण संबंधी मामले हैं, जिनमें न्यायपालिका ने प्रभावशाली एवं सक्रिय भूमिका का परिचय दिया है ।

4. मौलिक अधिकार संबंधी:

न्यायपालिका ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों से संबंधित विवादों के निपटारे में अपनी सक्रियता का परिचय दिया है । सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की धारा 21 की नवीन व्याख्या प्रस्तुत करके मौलिक अधिकारों की रक्षा में अपनी भूमिका को दर्शाया है ।

इस अनुच्छेद में व्यक्ति के जीवन और सुरक्षा को वास्तविक बनाने के प्रयास निहित हैं । इस अनुच्छेद में कहा गया है कि कानून द्वारा स्थापित कार्यविधि के अतिरिक्त किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या निजी स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा ।

मेनका गाँधी के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि कार्यविधि भी विवेक सम्मत तथा न्यायपूर्ण होनी चाहिए । सरकार की प्रत्येक कार्यवाही विवेकपूर्ण तरीके से संपन्न होनी चाहिए । अब संविधान के मौलिक अधिकारों की प्रत्येक धारा में ‘विवेकशीलता’ एक अनिवार्य शर्त है ।

5. कार्यपालिका के ‘स्वविवेक’ का स्पष्टीकरण:

कार्यपालिका द्वारा कुछ ऐसे कार्य संपन्न किए जाते हैं, जिसके निर्धारण में वे किसी निश्चित कानून व नियम का सहारा न लेकर स्वविवेक के आधार पर निर्णय लेते हैं । न्यायपालिका ने कार्यपालिका के इस ‘स्वविवेक’ का स्पष्टीकरण कर इसके लिए विवेक का आधार घोषित किया ।

सर्वोच्च न्यायालय ने कस्तूरीमल रेड्‌डी के विवाद में अपना दृष्टिकोण इस प्रकार रखा कि राज्य के स्वविवेक का आधार संविधान के चौथे भाग में वर्णित ‘राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत’ होना चाहिए । इस प्रकार न्यायपालिका ने कार्यपालिका के स्वविवेक को स्पष्ट करने में अपनी क्रियाशीलता दिखाई है ।

6. न्यायिक सक्रियता की अन्य दशाएँ:

उपर्युक्त क्षेत्रों के अतिरिक्त न्यायपालिका ने अपनी सक्रियता का परिचय सामाजिक व आर्थिक क्षेत्रों में भी दिया है । जिसके कारण आज वह समाज के दुर्बल लोगों की संरक्षिका के रूप में जाने जानी लगी है, जैसे कि सामाजिक क्षेत्र में सार्वजनिक सेवाओं में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत निर्धारित करना, सरकारी एवं गैर सरकारी कर्मचारियों के स्वास्थ्य एवं उनके हितों का समर्थन करना ।

समाज के गरीब व दुर्बल व्यक्तियों के लिए निःशुल्क कानूनी सहायता का प्रावधान व उनकी आर्थिक दशा को देखते हुए जमानत राशि का निर्धारण इत्यादि अनेक ऐसे क्षेत्र हैं, जिसमें न्यायपालिका ने अपनी सक्रियता का परिचय दिया है ।

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