बाल विवाह पर निबंध! Here is an essay on ‘Child Marriage’ in Hindi language.

Essay # 1. बाल विवाह का अर्थ:

शिक्षा के प्रचार के साथ-साथ भारतीय समाज से बाल विवाह की प्रथा उठी जा रही है । परन्तु कुछ ही वर्षों पूर्व यह एक भयंकर समस्या थी । बाल विवाह के प्रश्न के साथ विवाह की उचित आयु का प्रश्न भी लगा हुआ है जिसका निश्चय करना सभी देश काल में आवश्यक है । बाल विवाह के हानि लाभ के विवेचन से देर से विवाह के हानि लाभ समझने में भी सहायता मिलेगी ।

बाल विवाह के पक्ष में युक्तियाँ:

बाल विवाह के पक्ष में निम्नलिखित युक्तियाँ दी जाती हैं:

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(i) पति पत्नी के स्वभाव में सामंजस्य:

कुछ लोगों का कहना है कि बाल-विवाह से एक बड़ा लाभ यह है कि बचपन से साथ रहने के कारण पति पत्नी के स्वभाव में अच्छा सामंजस्य हो जाता है । बचपन में बुद्धि कोमल होती है और उसको मोड़ना सरल होता है ।

अत: बचपन में विवाह कर लेने से पति पत्नी धीरे-धीरे एक दूसरे के अनुकूल हो जायेंगे और उनमें संघर्ष कम होगा । बड़ी आयु में विवाह होने से पति पत्नी को एक दूसरे की आदतों के अनुकूल बदलना बड़ा कठिन हो जाता है और संघर्ष की सम्भावना बढ़ जाती है ।

(ii) अनैतिकता और भ्रष्टाचार का विरोध:

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बाल विवाह के पक्ष में दूसरी युक्ति यह है कि इससे समाज अनैतिकता और भ्रष्टाचार से बचा रहता है । बालक बालिकओं में साधारणतया 14, 15 वर्ष की आयु में काम-वासना जागती है । इस वासना की समुचित तृप्ति न होने के कारण ही समाज में अनैतिकता, व्यभिचार और भ्रष्टाचार फैलता है ।

इस भ्रष्टाचार से बचने का एक मात्र उपाय बाल विवाह है । अनेक आधुनिक पाश्चात्य समाजशास्त्रियों ने अधिक आयु में विवाह की हानियाँ बतलाकर छोटी आयु में विवाह का समर्थन किया है । कुछ लोगों का कहना है कि विवाह विद्यार्थी अवस्था में ही हो जाना चाहिये और इससे विद्याध्ययन में कोई बाधा नहीं पड़ती बल्कि और भी सुविधा रहती है क्योंकि युवक-युवतियों में हताशायें कम हो जा हैं ।

(iii) उत्तरदायित्व के कारण प्रगति:

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बाल विवाह के पक्ष में तीसरी मुक्ति यह दी जाती है कि इससे छोटी आयु में ही उत्तरदायित्व पड़ जाने से स्त्री पुरुष की आत्मोन्नति में अधिक प्रगति हो पाती है । विवाह से जीवन में स्थिरता आ जाती है । सन्तान उत्पन्न हो जाने पर पुरुष अपना उत्तरदायित्व अनुभव करके अपनी आर्थिक उन्नति की ओर विशेष ध्यान देने लगता है ।

विवाह से वह सब प्रकार की कुप्रवृतियों और उच्छृंखलताओं से बचा रहता है और उसके जीवन में शीघ्र ही स्थिरता और परिपक्वता आ जाती है । सर गुरूदास बैनर्जी ने बाल-विवाह के इस लाभ का विशेष समर्थन किया है । अपनी प्रसिद्ध बंगला पुस्तक ‘ज्ञान और कर्म’ में उन्होंने इसकी पुष्टि में एक सुन्दर उदाहरण दिया है । स्त्री पुत्र आदि के पालन का कोई उपाय ने देखकर अस्क्रिन साहब बैरिस्टरी करने लगे ।

पहले-पहल जो मुकदमा उन्होंने हाथ में लिया उसमें जब वे व्याख्यान देने लगे तब बीच में प्रधान न्यायाधीश मैंसफील्ड ने यह कह कर कि उनका अमुख विषय अप्रासंगिक है, उन्हें उसका जिक्र न कर का संकेत किया । परन्तु वैरिस्टर ने उस संकेत पर ध्यान न देकर तेजी से खूब बहस की ।

उनका यह व्याख्यान इतना जोरदार और हृदय पर प्रभाव डालने वाला हुआ कि उसी दिन से उन्होंने अपने व्यवसाय में असाधारण यश और प्रतिष्ठ प्राप्त कर ली । व्याख्यान दे चुकने के बाद बैरिस्टर साहब के एक मित्र ने उनसे पूछा कि मैंसफील्ड जैसे प्रबल प्रधान न्यायाधीश के आदेश को न मानने का साहस वे कैसे कर सके ?

इस प्रश्न के उत्तर में अर्स्किन साहब ने कहा- “उस वक्त मुझे ऐसा मालूम पड़ रहा था कि मानो भूख से पीड़ित मेरे बच्चे करुण स्वर में मुझ से कह रहे हैं-पिता इस सुयोग में अगर आप हमारे खाने-पीने का कुछ सुभीता कर सकेंगे तो कर सकेंगे, नहीं तो कुछ न गा ।”

बाल विवाह के विपक्ष में युक्तियाँ:

बाल-विवाह के उपरोक्त लाभों के होते हुए भी उससे अनेक हानियाँ हैं जिनके कारण उसका घोर विरोध किया गया है ।

विपक्ष में मुख्य युक्तियाँ निम्नलिखित हैं:

(i) स्त्रियों की संख्या में कमी:

‘Social Service in India’ में सर एडवर्ड ब्लन्ट ने बाल विवाह के पक्ष में यह सम्मति प्रकट की है कि इससे स्त्रियों के शीघ्र सन्तानें उत्पन्न होने लगती हैं और तरुणावस्था में प्रसव के समय 30-35 वर्ष की आयु होते-होते चार या छ: बच्चे पैदा करके उनकी मृत्यु हो जाती है । सर ब्लन्ट के इस मत से प्रत्येक विचारवान व्यक्ति सहमत होगा । जनगणना के अनुसार रत में हजार पुरुषों पर 947 स्त्रियाँ हैं । भारत में स्त्रियों की संख्या में कमी का एक मुख्य कारण बाल विवाह है ।

(ii) बाल विधवाओं की संख्या में वृद्धि:

बाल-विवाह के कारण बाल विधवाओं की संख्या बढ़ती है जिनका पुनर्विवाह न होने के कारण समाज में व्यभिचार और भ्रूण हत्यायें बढ़ती हैं । इन असहाय स्त्रियों को पशुवत् जीवन व्यतीत करना पड़ता है ।

(iii) देश की जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि:

वैज्ञानिकों के अनुसार विवाह छोटी आयु में होने पर सन्तान शीघ्र और अधिक होती है । इस प्रकार बाल विवाह से देश की जनसंख्या में आवंछित वृद्धि होती है जिससे भोजन, वस्त्र तथा बेकारी की समस्यायें बढ़ती है । बाल वर वधू परिवार नियोजन की आवश्यकता और तरीकों को भी नहीं समझते । अत: सन्तानोत्पत्ति पर कोई नियंत्रण नहीं हो पाता ।

(iv) उच्च शिक्षा में बाधा:

बाल-विवाह से सन्तान आदि के चक्कर में पड़कर स्त्री-पुरुष दोनों की शिक्षा में बाधा पहुंचती है । साधारणतया यह देखा जाता है कि विवाह के बाद लड़के-लड़की सभी पढ़ाई छोड़ देते हैं क्योंकि उनका ध्यान दूसरी ओर चला जा है ।

हाल में कुछ पाश्चात्य समाजशास्त्रियों ने यह मत व्यक्त किया है कि विवाह से विद्याध्ययन में कोई बाधा नहीं पहुँचती बल्कि सहायता मिलती है । सम्भव है कि कुछ युवक युवतियों के विषय में यह मत ठीक हो परन्तु न तो यह मत सभी लोगों पर लागू होता है और न इससे बाल विवाह का औचित्य सिद्ध होता है ।

(v) स्त्रियों के रोगों में वृद्धि:

बाल विवाह से कच्ची आयु में ही सन्तानोत्पत्ति आदि के कारण स्त्रियों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है और वे नाना प्रकार के रोगों में फंसकर असमय में ही संसार से बिदा हो जाती हैं अथवा जीवन भर रोगिणी और निर्बल बनी रहती हैं ।

वैज्ञानिकों का कहना है कि स्त्री पुरुष के रज और वीर्य के पुष्ट होने तक दोनों को ब्रह्मचर्य का पालन करके उसकी रक्षा करनी चाहिये । समय से पूर्व रज और वीर्य क्षीण करने से बड़ी मानसिक और शारीरिक हानि होती है और शरीर तथा मस्तिष्क दोनों की वृद्धि कुंठित हो जाती है ।

(vi) प्रजाति की निर्बलता:

बाल विवाह से निर्बल सन्तान उत्पन्न होती है जिससे प्रजाति निर्बल होती है । शरीर और बुद्धि से युवा होने से पूर्व विवाह करने से पुष्ट सन्तानें उत्पन्न नहीं हो सकतीं ।

(vii) अनुत्तरदायी विवाह:

बाल विवाह का सबसे बड़ा दोष यह है कि वह एक अनुत्तरदायी विवाह है । छोटी आयु में विवाह के कारण वर वधू विवाह के उत्तरदायित्वों को नहीं समझते और कभी-कभी भयंकर गलतियाँ कर बैठते हैं जिससे जान तक पर आ बनती है ।

लड़के लड़कियों में पर्याप्त समझ न होने के कारण माता पिता ही उनका विवाह निश्चित करते हैं जिससे यदि पति पत्नी विरोधी स्वभाव के मिल गए तो संघर्ष होता है और सारे वैवाहिक सुख समाप्त हो जाते हैं । बाल विवाह के उपुर्यक्त गुण दोषों का विवेचन करने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि उससे लाभ के स्थान पर हानियां अधिक हैं और उसकी प्रथा का बन्द होना नितान्त आवश्यक है ।

Essay # 2. बड़ी आयु में विवाह से हानि व लाभ:

परन्तु बाल विवाह की प्रथा के खंडन से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि विवाह जितनी देर से किया जाये उतना ही अच्छा है । विवाह किस आयु में किया जाय यह एक विचारणीय प्रश्न है । वास्तव में बाल विवाह से जो लाभ होते हैं वे ही बड़ी आयु में विवाह की हानियां है ।

बड़ी आयु में विवाह होने से पति पत्नी के स्वभावों के परिपक्व हो चुकने के कारण उनमें वांछनीय सामंजस्य आसानी से नहीं हो पाता । दूसरे, देर से विवाह होने के कारण लड़के लड़कियां अनैतिक और भ्रष्ट उपायों से काम-वासना की तृप्ति करने की चेष्टा करते है जिससे समाज में भ्रष्टाचार फलता है ।

अत्यधिक बड़ी आयु में विवाह होने पर अनेक कन्यायें तो आत्म-हत्या तक करती देखी जाती हैं । अधिक बड़ी आयु में विवाह होने पर वैवाहिक सुख का बहुत सा उन्माद जाता रहता है तथा शारीरिक और मानसिक क्षति अलग होती है । परन्तु बड़ी आयु में विवाह से अनेक लाभ भी हैं ।

ये लाभ वहीं है जो कि बाल विवाह की हानियाँ हैं अर्थात् इनसे वर वधू विवाह का उत्तरदायित्व समझते हैं, पुष्ट सन्तान उत्पन्न होती है, सन्तानोत्पत्ति से स्त्री के स्वास्थ्य को धक्का नहीं लगता और उसकी अकाल मृत्यु नहीं होती ।

बड़ी आयु में विवाह होने पर उत्पादकता कम हो जाती है और स्त्री पुरुष परिवार नियोजन की आवश्यकतायें तथा रीतियाँ समझ सकते हैं । अतः सन्तानें अधिक नहीं उत्पन्न होतीं । इससे स्त्री पुरुष दोनों की शिक्षा निर्बाध रूप से पूर्ण हो जाती है और तन मन से परिपक्व होकर दोनों दामत्य धर्म का समुचित रीति से पालन करते है ।

मध्यम मार्ग उपयुक्त है:

विवाह में लड़के-लड़की की उपयुक्त आयु के सम्बन्ध में मध्यम मार्ग ग्रहण करना ही सबसे अच्छा है । बाल-विवाह और अधिक आयु में विवाह दोनों से अपनी-अपनी हानियाँ और लाभ हैं । दोनों की हानियाँ बचाकर उनको लाभों का उपयोग करने के लिये विवाह की आयु ऐसी रखनी चाहिये कि लड़के लड़की की शिक्षा समाप्त हो जाए, वे शरीर और मन से पुष्ट हो जायें, विवाह के इच्छूक हों और उसके उत्तरदायित्व को समझते हों तथा यौन शिक्षा पा चुके हों ।

इस मध्य मार्ग में लड़के की आयु 18 वर्ष से पच्चीस और लड़की की 15 से 22 तक हो सकती है । इसके बाद दो तीन वर्ष तो कोई चिन्ताजनक बात नहीं परन्तु और अधिक देर होने पर युवक युवतियों की अशान्ति बढ़ जाती है और कभी-कभी भयंकर रूप धारण कर लेती है जिससे उनके कुमार्ग में जाने अथवा विक्षिप्त होने का भय है ।

Essay # 3. बाल विवाह के कारण:

आजकल भारत में बाल विवाह बहुत कम दिखाई पड़ते है । जहाँ इसका श्रेय समाज सुधारकों को है वहाँ राजकीय अधिनियमों की भी कमी नहीं है । बाल-विवाह के सुधार के विषय में जानने से पूर्व उसके कारणों का सर्वेक्षण करना भी लाभदायक होगा क्योंकि उससे सुधार की वांछित दिशाओं का भी संकेत मिलेगा । बाल-विवाह के कारणों में उन सब युक्तियों का हाथ है जो उसके पक्ष में दी जाती हैं ।

बाल-विवाह के अन्य कारण निम्नलिखित हैं:

(I) धार्मिक रूढ़िवाद:

बाल विवाह का सबसे बड़ा कारण धार्मिक रूढिवाद है । अनेक हिन्दू शास्त्रों ने बाल-विवाह का जर्बदस्त समर्थन किया है और बड़ी आयु तक कन्या के ज्वारों बैठाये रहने को पाप बतलाया गया है । अत: धर्म भीरू माता पिता अल्पायु में ही उसके हाथ पीले कर देते है ।

(II) अन्तर्विवाह:

हिन्दुओं में विवाह, जाति, गोत्र तथा प्रवर के बाहर होने का निषेध होने के कारण कन्या के माँ बाप को वर ढूँढने में बड़ी परेशानी होती थी । अतः ज्यों ही कोई अच्छा लड़का मिल जाता था त्यों ही कन्या के संरक्षक चटपट उसका विवाह कर डालते थे ।

(III) सती प्रथा:

परोक्ष रूप से सती प्रथा भी बाल-विवाह का कारण थी । इससे पति की मृत्यु हो जाने पर उसकी पत्नी भी उसके साथ सती हो जाती थी । अत: बच्चों की सुरक्षा के विचार से बचपन में ही उनके विवाह कर दिये जाते थे ताकि माँ बाप के मरने पर लड़का लड़की श्वसुर के घर में सुरक्षा पा सकें ।

(IV) वर मूल्य प्रथा:

बाल विवाह का एक बड़ा कारण वर मूल्य अथवा दहेज प्रथा है । इससे अनेक लोग वर मिल जाने से छोटी आयु में ही शीघ्र से शीघ्र कन्या का विवाह कर देना अच्छा समझते हैं ।

(V) संयुक्त परिवार:

संयुक्त परिवार में विवाह हो जाने पर भी लड़कों पर अपनी पत्नी और बच्चों का कोई उत्तरदायित्व नहीं होता था । अतः छोटी आयु में विवाह करने में कोई कठिनाई नहीं होती थी । इससे बाल-विवाह को प्रोत्साहन मिलता था । दहेज को छोड़कर उपरोक्त सभी कारण अब क्रमशः समाप्त ही हो रहे है । अत: बाल-विवाह भी बहुत कम होता देखा जाता है । आजकल इसका कारण अशिक्षा और उसके परिणामस्वरूप रूढ़िवादिता अधिक है ।

Essay # 4. बाल-विवाह को रोकने के कानूनी उपाय:

भारत में सबसे पहले 1860 में बाल-विवाह को रोकने के लिए एक अधिनियम बनाया गया, इसके अनुसार लड़कियों के विवाह की कम से कम आयु 10 वर्ष निर्धारित की गई परन्तु जनता ने इस कानून को न माना ।

1891 में एक अधिनियम बनाकर लड़कियों की विवाह की आयु की सीमा 13 वर्ष कर दी गई ।

1928 में आयु स्वीकृति समिति ने बाल-विवाह का तीव्र विरोध किया और यह बतलाया कि अधिकतर लोग इस विषय में अब तक बने कानूनों को जानते नहीं हैं । 1929 में हर विलास सारदा ने एक विधेयक उपस्थित किया जो बाल-विवाह निरोधक अधिनियम के नाम से स्वीकृत हुआ । इसके अनुसार विवाह की आयु लडकों के लिये कम से कम 18 वर्ष और लड़कियों के लिए 14 वर्ष निर्धारित की गई ।

1954 में विशेष विवाह अधिनियम ने सिविल मैरिज की आयु सीमा लडकों और लड़कियों के लिये क्रमशः 21 और 18 वर्ष निश्चित की । 1955 के हिन्दु विवाह अधिनियम के अनुसार वैध विवाहों में लड़के लड़कियों की आयु सीमा 18 और 15 वर्ष निश्चित की गई ।

कानूनी उपायों की विफलता के कारण:

इन कानूनी उपायों से अभी देश से बाल-विवाह की बुराई पूरी तरह से दूर नहीं हुई है ।

कानूनी उपायों की इस विफलता के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं:

(A) रूढिवाद:

हिन्दुओं में बाल-विवाह के सबसे बड़े समर्थक कट्टर सनातनी और रूढ़िवादी लोग हैं । इनमें अभी पुराने हिन्दू शास्त्रों के विचार ही पल रहे हैं और वे ही विवाह के विषय में आदर्श माने जाते हैं । ईसा के एक दो शताब्दी बाद भारत में यह धारणा जम चुकी थी कि कन्या का विवाह रजोदर्शन से पूर्व कर लेना चाहिये ।

ब्रह्मपुराण के रचयिता के अनुसार चार वर्ष की आयु के पश्चात् किसी भी लड़के लड़की का विवाह किया जा सकता है । याज्ञवलक्य कहते हैं कि कन्या का विवाह रजोदर्शन से पूर्व कर लेना चाहिये नहीं तो संरक्षकों को प्रतिमास एक भ्रूण हत्या का दोष लगेगा (अप्रयच्छंसमाप्नोति भ्रूण हत्या मृतौ ऋतौ) ।

ईसा के 100-500 वर्ष बाद तक के स्मृतिकारो में विवाह की आयु के सम्बन्ध में निम्नलिखित मत प्रचलित था:

अष्ट वर्षा भवेद् गौरी नववर्षा तु रोहिणी ।

दशवर्षा भवेत्कन्या अत ऊर्ध्व रजस्वला ।।

प्राप्तेतु दशमे वर्षे यस्तु कन्यां न यच्छति ।

मासि-मासि रजस्तस्याः पिता पिबति शोणितम् ।।

अर्थात् आठ वर्ष की लड़की गौरी, नौ वर्ष की रोहिणी तथा दस वर्ष की कन्या कहलाती है । इसके बाद लड़की रजस्वला हो जाती है । लड़की के दस वर्ष की हो जाने पर जो पिता उसका विवाह नहीं करता वह प्रति माह कन्या का खून पीता है । इतने जोरदार शब्दों में बाल-विवाह का आदेश होने पर धर्मभीरू लोग राजदंड से डरकर भी बाल-विवाह से नहीं रुक सकते क्योंकि उनको राज्य से अधिक तथाकथित धर्म का भय होता है ।

(B) बाल-विवाह निरोधक कानूनों की अपूर्णता:

रूढ़िवाद के साथ-साथ बाल-विवाह को रोकने में कानूनों की असफलता का एक बड़ा कारण स्वयं इन कानूनों की अपूर्णता है । इन कानूनों से बाल-विवाह ऐसा अपराध नहीं माना गया जिसकी रिपोर्ट मिलने पर पुलिस अपराधियों को गिरफ्तार करें या उन पर मुकदमा चलाये ।

इनमें बाल-विवाह की रिपोर्ट करने वाले को स्वयं मुकदमा चलाकर अपराध सिद्ध करना पड़ता है जो बड़े-बड़े समाज सुधारकों के लिये भी टेढ़ी खीर है । वास्तव में बाल-विवाह अथवा शिशु-विवाह की प्रथा अब भारत में काफी कम हो गई है । इसमें शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान है ।

शिक्षा के प्रचार से जो सामाजिक जागृति हुई है उससे बाल-विवाह स्वभावत: खत्म हो रहे हैं । शिक्षा के प्रचार से धार्मिक रूढ़िवाद भी समाप्त हो रहा है । परन्तु बाल-विवाह निरोधक कानूनों को और अधिक कटोर बनाने की आवश्यकता है ।

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