आंतरिक सुरक्षा के समक्ष चुनौतियाँ पर निबंध | Essay on Challenges before Internal Security in India, 

किसी भी राष्ट्र के जन्म के साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा की प्रक्रिया का जन्म होता है जो कि राष्ट्र के जीवन में प्रत्येक पहलू से संबंधित होती है । राष्ट्रीय सुरक्षा से तात्पर्य राष्ट्र की एकता अखंडता संप्रभुता एवं नागरिकों के जीवन एवं उनकी संपत्ति की रक्षा करने से है जिसको सशस्त्र सेनाओं के द्वारा पूरा किया जाता है ।

किन्तु किसी भी राष्ट्र को तभी सुरक्षित कहा जा सकता है जब वह आंतरिक खतरों से भी पूर्णतः अवमुक्त हो । यह उस स्तर के राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया है जहाँ राष्ट्र राष्ट्रीय आकांक्षा के मार्ग में आन वाली समस्त बाधाओं से निपटने में सक्षम हो जाता है ।

किसी भी राष्ट्र की सुरक्षा को खतरा बाह्य और आंतरिक दोनों प्रकार से हो सकता है । लेकिन जब राष्ट्र की सुरक्षा को खतरा बाहर से होता है तो यह पूर्ण रूप से राष्ट्रीय रक्षा के क्षेत्र में आता है जबकि आंतरिक खतरा, राष्ट्रीय रक्षा एवं सुरक्षा दोनों क्षेत्रों से संबंधित होता है ।

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भारत एक विशाल संघीय राष्ट्र है जो अनेक संस्कृतियों को अपने में संजोए हुए है । यहाँ भिन्न-भिन्न जातियों धर्मों भाषाओं को बोलने वाले लोग निवास करते हैं । आजादी के बाद भारत एक संप्रभु सशक्त, लोकप्रिय केंद्रीय सरकार द्वारा शासित राष्ट्र है जहाँ केंद्र एवं राज्यों के मधुर संबंध से राष्ट्र की एकता को बल मिलता है ।

परन्तु राष्ट्र की विशालता एवं प्रांतों के विकास का स्तर अलग-अलग होने से मूल्यों में विभिन्नता स्वाभाविक है । ऐसे में जब राज्य एवं केंद्र की विचारधाराये विरोधी होती हैं तो जिस क्षेत्र के लोगों को भेदभाव का एहसास होता है, वहाँ के लोगों में असंतोष की भावना का जन्म होना अनिवार्य है ।

इस असंतोष को बढावा देने में हमारी राजनैतिक व्यवस्था एवं चुनाव प्रक्रिया मुख्य रूप से उत्तरदायी है । असंतोष का प्रमुख कारण सिद्धातविहीन राजनीति भी है क्योंकि राजनीतिज्ञ चुनाव जीतने के लिये एवं सत्ता प्राप्त करने के लिए अदूरदर्शिता पूर्ण नीति अपनाते हैं ।

देश की एकता एवं अखंडता पर ध्यान न देकर जन-मानस की संवेदनशील भावनाओं को उद्वेलित करते हैं । साथ ही साप्रदायिकता एवं क्षेत्रीयता जैसी भावनाओं को भडका कर चुनाव जीतने का प्रयास करते हैं । जनमानस की यही असंतोष की भावना राष्ट्र के लिए गंभीर खतरा पैदा कर देती है ।

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देश की आंतरिक सुरक्षा को आज जिस एक आंदोलन से सबसे बडी चुनौती मिल रही है, वह है- नक्सलवाद । नक्सलवाद का जन्म साठ के दशक में पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी आंदोलन से हुआ । नक्सलवाड़ी गाँव में सामंतों के शोषण के खिलाफ कुछ किसानों ने सशस्त्र विद्रोह कर सामंतों को सजा दी, जिसके बाद से इसे नक्सलवाद के नाम से जाना गया ।

धीरे-धीरे चारू मजूमदार और कानू सान्याल जैसे नेताओं के नेतृत्व में नक्सलवाद का विस्तार पूरे पश्चिम बंगाल में हुआ लेकिन सत्तर के दशक के दमन और राज्य में वामपंथी पार्टियों के सत्तारूढ़ होने के बाद भूमि सुधार कार्यक्रम के लागू होने के साथ ही आंदोलन पड़ोसी राज्यों में भी अपने पैर पसारता चला गया और आज देश के दर्जन भर से अधिक राज्यों में नक्सलवादी गतिविधियाँ संचालित हो रही हैं जो राष्ट्र के लिए सिरदर्द बनी हुई है ।

प्रभावित राज्यों में कई तरह की समितियाँ व टास्क फोर्स गठित जा चुकी हैं और प्रभावित राज्यों के लिए कई विकास योजनाएँ प्रारम्भ की गई हैं लेकिन स्थिति ज्यों-की-त्यों बनी हुई है । आंतरिक सुरक्षा को एक और बड़ी चुनौती देश में लगातार बढ रही क्षेत्रवादी प्रवृत्ति से मिल रही है । क्षेत्रीयता का तात्पर्य उन प्रवृत्तियों सें है जिसके अंतर्गत विभिन्न भाषायी, जातीय व क्षेत्रीय समुनय राजनैतिक प्रशासनिक और आर्थिक दृष्टिकोण से स्वायत्तता की माँग करते हैं ।

भारत में मुख्य रूप से असम, नागालैंड, मिजोरम, पंजाब तथा जम्मू-कश्मीर राज्य मुख्य रूप से क्षेत्रीय आंदोलनों में प्रभावित रहे हैं । स्वाधीनता के पश्चात सन् 1950 के प्रारम्भिक दशक में कुछ सीमित क्षेत्रों में ही क्षेत्रीय अलगाववाद की प्रवृत्ति देखी गयी ।

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लेकिन 1960 के बाद व्यापक रूप से क्षेत्रीयता की भावनायें बलवती होने लगी । सर्वप्रथम पूर्वोत्तर भारत में नगा विद्रोहियों ने अलग राज्य की स्थापना हेतु विद्रोह किया उसके पश्चात मद्रास में विशाल आन्ध्रा आंदोलन तथा द्रविड मुनेत्र कषगम का पृथक्‌वादी द्रविड आंदोलन हुआ तथा अकाली दल ने इस तरह का विद्रोह किया कि स्वहित के स्थान पर राष्ट्रहित को ताक पर रख दिया गया और हमारी राष्ट्रीय अखंडता खतरे में पड़ गयी ।

धीरे-धीरे इन आंदोलनों की सीख अन्य राज्यों में फैलती गयी और ये आंदोलन हिंसक रूप लेने लगे । हरियाणा और पंजाब के बटवारे के साथ ही पूरा असम छोटे-छोटे अनेक राज्यों में विभक्त हो उठा, तत्पश्चात् उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड, बिहार से झारखंड और मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ को अलग राज्य दिये जाने की माँग भी जोर पकडती रही जिसके लिये व्यापक जनांदौलन चलाया गया ।

जगह-जगह तोड-फोड़ एवं बद का रास्ता अपनाया गया । यही नहीं सरकारी संपत्ति को भी नुकसान पहुंचाया गया तथा आंदोलनकारियों को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी । ज्ञातव्य है कि आंदोलन को क्षेत्रीय दल बराबर समर्थन देते रहे ।

लंबे संघर्ष के बाद उत्तरांचल, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य अस्तित्व में आये । उग्र क्षेत्रवाद के कारण विभिन्न क्षेत्रों के मध्य तनाव व टकराव पैदा होता है । यह भावना राष्ट्रीय एकता के विकास में एक प्रबल विरोधी तत्व ही नहीं ।

अपितु देश में व्यापक अराजकता के लिए उत्तरदायी है । बंगाल बंगालवासियों के लिए, महाराष्ट्र महाराष्ट्रवासियों के लिए, गुजरात गुजरातवासियों के लिए, उत्तराखण्ड उत्तराखण्डवासियों के लिए झारखंड झारखंडवासियों के लिए जैसे नारे, देश के अमन चैन के लिए खुली चुनौती हैं ।

दूसरी तरफ असम में बँगला शरणार्थियों की हो रही घुसपैठ ने यहाँ के जन-मानस को चिंतित कर रखा है कि कही वे अपने प्रदेश में अल्पसंख्यक बन के न रह जाए । असमवासियों द्वारा इन विदेशियों की पहचान कर इन्हें असम से बाहर निकालने की माँग जोर पकडती जा रही है ।

दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर समस्या सदाबहार बनी हुई है क्योंकि पाक समर्थित पृथक्‌तावादी तत्वों ने आतंकवाद का सहारा लेकर इस राज्य को भारत से पृथक करने के लिए सुनियोजित अप्रत्यक्ष युद्ध छेड़ रखा है जो भारतीय सुरक्षा के लिए कड़ी चुनौती है ।

भाषावाद भी राष्ट्रीय सुरक्षा के सम्मुख एक चुनौती के रूप में देखा जा रहा है, क्योंकि भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है । भाषा व मातृभूमि दो ऐसी चीजें हैं जिससे मनुष्य का जन्मजात प्रेम होता है और इसको भूलना व छोड़ना आसान नहीं है ।

भारत में हिन्दी, मराठी, गुजराती, उडिया, असमी, राजस्थानी, बंगाली, पंजाबी, नेपाली, मणिपुरी, तेलुगू, कोंकणी, कन्नड़ मलयालम आदि 22 भाषायें भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल की गई हैं, जिसमें हिन्दी भाषा सर्वत्र बोली और समझी जाती है ।

लेकिन केंद्र सरकार द्वारा जब सरकारी काम-काज में हिन्दी भाषा का प्रयोग करने का आदेश जारी किया गया तो दक्षिण भारत में इसका कड़ा विरोध हुआ । ज्ञातव्य है कि तमिलनाडु में तो भाषायी प्रश्न को लेकर भारत से अलग होने की माँग भी की गई थी ।

तोड़-फोड़ व आगजनी के साथ ही कुछ हिन्दी प्रेमियों को अग्नि की भेंट चढ़ा दिया गया । इस समस्या को लेकर भारत दो भागों में विभाजित हो गया-उत्तरी भारत, दक्षिणी भारत । यद्यपि भारत की राष्ट्रभाषा समिति ने तीन सूत्री फॉर्मूले को अपनाने का सुझाव दिया जिससे क्षेत्रीय भाषाओं की सुरक्षा हो सके ।

इसके अलावा एक विदेशी भाषा मुख्यतया अंग्रेजी तथा उस राज्य में बोली जाने वाली भाषा और हिन्दी शामिल है । यह देखा गया है कि समय-समय पर भाषा सम्बन्धी उलझाव राष्ट्रीय एकता एवं समृद्धि के लिए अपशकुन बन जाता है । एक अन्य समस्या जो आंतरिक सुरक्षा को समय-समय पर चुनौती देती रहती है, वह है जातिवाद । भारत में विभिन्न जाति व धर्म के लोग निवास करते हैं । प्राचीन भारत में वृहतर भारत की अवधारणा एवं अनेकता में एकता की प्रवृत्ति ने धीरे-धीरे जातिवाद व क्षेत्रवाद की भावना को प्रोत्साहित किया है ।

सामाजिक न्याय व दलित उत्थान हेतु मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने तथा जातिगत आरक्षण हेतु देश की कई राज्य सरकारों के मध्य प्रारम्भिक प्रतिस्पर्धा ने संपूर्ण भारतीय सामाजिक-व्यवस्था को झकझोर कर रख दिया है । आज देश के अंदर विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ जातिवाद के नाम पर अपनी पहचान बनाने में लगी हैं ।

यही नहीं संवैधानिक चुनाव भी जातिवाद के नाम पर लड़े जा रहे हैं । फलतः ऐसी स्थिति में देश के अंदर अराजकता जैसी घटनाये घटित होना स्वाभाविक है जिससे देश की सुरक्षा को खतरा महसूस किया जा सकता है । हाल ही में राजस्थान में हुआ गुर्जर-मीणा संघर्ष इस तथ्य को भलीभांति उजागर करता है ।

भारत में हजारों जनजातियां निवास करती हैं । जनजाति का तात्पर्य ऐसे स्थानीय आदिम समूहों से है जो एक सामान्य क्षेत्र में रहते हों तथा एक सामान्य भाषा बोलते हो और एक सामान्य संस्कृति का अनुसरण करते हो । इन जनजातीय समुदायों का पारस्परिक टकराव तथा इनकी दयनीय, आर्थिक, सामाजिक सांस्कृतिक, राजनैतिक, स्वास्थ्य तथा शिक्षा जैसी मूलभूत समस्याये राष्ट्र के आंतरिक-आयामों को किसी-न-किसी रूप में प्रभावित करती हैं ।

भौगोलिक दृष्टि से भारत की जनजातियों को मुख्यतः तीन हिस्सों में बाटा जा सकता है- पूर्वोत्तर क्षेत्र, केंद्रीय और दक्षिणी क्षेत्र । भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्रों में ऐसी जातियों का उदय हुआ, जिन्होंने समस्त क्षेत्र में एक बड़ा उपद्रव खड़ा किया, जिससे हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में पड़ गई ।

सन् 1980 में त्रिपुरा में आदिवासियों के द्वारा बंगाली हिन्दुओं को जिस तरह से मारा-पीटा गया, वह सबसे ज्यादा खौफनाक घटना थी, जिसमें करीब दस हजार धरो को आग के हवाले कर दिया गया था । आज भी जनजातियों के मध्य आये दिन छिट-पुट घटनाये होती रहती हैं जिनके समाधान के लिए सरकार को ठोस कदम उठाने चाहिए ।

इनके जीवन स्तर को उठाने के लिए स्वास्थ्य शिक्षा और रोजगार को बढ़ावा देना होगा । साथ ही पुनर्वास के लिए सरकार को एक योजना बनानी चाहिए अन्यथा हमारा पड़ोसी देश अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, त्रिपुरा, मणिपुर, आदि क्षेत्रों की जनजातियों को भडका सकता है, जिससे हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा और अखंडता खंडित हो सकती है ।

देश की आंतरिक सुरक्षा को साप्रदायिकता का घुन भी अक्सर खोखला करता रहता है । साप्रदायिकता की परिणति भारत और पाकिस्तान के निर्माण के समय से ही हुई और दोनों राष्ट्र आज तक एक-दूसरे के विरोधी बने हुए हैं ।

सांप्रदायिकता का अर्थ ऐसी विचारधारा से है, जिसके अंतर्गत किसी संप्रदाय विशेष के लोग न्यूनाधिक रूप से धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक, समान ढांचे में विश्वास रखते हों । भारत में विभिन्न धर्मावलंबी रहते है और अपने-अपने हितों के लिए विभिन्न संप्रदायों से संबद्ध हो गये हैं और इनकी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक दशा भी भिन्न है ।

आज संप्रदायवाद की भावना दो विभिन्न समुदायों के मध्य कटुता एवं पारस्परिक विरोध उत्पन्न करने के साथ-साथ दूसरे धर्मों का शोषण करती है, जिसका उद्देश्य धार्मिक न होकर राजनैतिक होता है । सांप्रदायिकता महामारी की भांति फैल रही है । शायद ही कोई ऐसा राज्य है जहाँ सांप्रदायिकता का तांडव लोगों का संहार न कर रहा हो ।

भारत में निर्धनता एक बहुत बड़ी समस्या है, जिसका का मुख्य कारण बेरोजगारी, जनसंख्या और देश की आर्थिक स्थिति का ठीक न होना है । भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में मनुष्य की तीन मूलभूत आवश्यकतायें हैं- रोटी, कपडा और मकान ।

लेकिन बहुत से ऐसे परिवार हैं जिनकी ये तीनों आवश्यकतायें पूरी नहीं हैं । वैसे सरकार बेरोजगारी, अशिक्षा और गरीबी हटाने के लिए डंका पीटती रहती है, लेकिन धरातल पर इसकी तस्वीर नगण्य है । आज भारत का युवा अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और अपनी रोजी-रोटी के लिए दर-दर भटक रहा है ।

जिसका चलते ये नवयुवक पंजाब और कश्मीर तथा पूर्वोत्तर भारत में आतंकवादियों और अलगाव वादियों के बहकावे में आ रहे है और भारत की मुख्य धारा से धीरे-धीरे कट रहे हैं । इस बेरोजगार और निर्धन लोगों को जब अपने देश में काम नहीं मिलता तब इन्हें पाकिस्तान, बांग्लादेश, चीन, बर्मा आदि देशी में हथियारों का प्रशिक्षण देकर भारत के विरोध में खड़ा किया जा रहा है ।

वहीं उग्रवादी संगठनों द्वारा इन निर्धन लोगों के परिवार के पालन-पोषण के लिए मोटी रकम दी जाती है जिसके बदले में इनसे आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने तथा आत्मघाती हमला करने में भी इनका इस्तेमाल किया जा रहा है ।

आज भारत को आजाद हुए 59-60 वर्षों का लंबा समय व्यतीत हो चूका है, लेकिन निर्धनता को दूर करने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किये गये है जिससे दिन-प्रतिदिन बढती निर्धनता भारतीय सुरक्षा के लिए खतरा साबित हो रही है ।

निर्धनता के साथ ही बेरोजगारी भी एक बड़ी समस्या है जो व्यक्तिगत समस्या से उठकर कई प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न करती है । आज शिक्षित बेरोजगार युवा कुंठाग्रस्त होता जा रहा है और अधिक शिक्षित बेरोजगार युवा भी आतंकवाद की दुनिया में कदम रख रहे हैं ।

कश्मीर इसका जीता-जागता उदाहरण है जहां शिक्षित बेरोजगार युवा अपराधों में लिप्त होते जा रहे हैं । उपलब्ध आकड़ों से भारत में बढती बेरोजगारी का अनुमान लगाया जा सकता है, लेकिन सरकार सदैव बेरोजगारी को कम करने के लिए का पीटती रही है जबकि जमीनी सच्चाई कुछ और ही है ।

आज भारत शिक्षा, जनसंख्या नियंत्रण तथा सामाजिक-आर्थिक विकास में तेजी से पिछड़ता जा रहा है । भले ही अब सरकार द्वारा रोजगार गारंटी योजना कार्यक्रम के तहत काम देने की बात की गई है । इसके साथ ही शिक्षा के स्तर में भी और सुधार कर रोजगार परक शिक्षा को बढ़ावा दिया जाना चाहिये ।

अतः उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि जब तक देश के अंदर पनप रही कुरीतियों को पनाह मिलती रहेगी चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो, तब तक देश की आंतरिक सुरक्षा किसी न किसी प्रकार से असुरक्षित रहेगी; क्योंकि राष्ट्र के अन्दर आपसी मनमुटाव, वैमनस्य, तनाव देश की आंतरिक सुरक्षा को बाधित करने की प्रथम कड़ी होती है ।

देश के भीतर अमन-चैन बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि लोगों को काम मिले अन्यथा, उनका शोषण कर उनके खाली दिमाग का लाभ न जाने कितने शैतान उठाएंगे और देश के नागरिकों को ही देश का दुश्मन बना देंगे ।

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