भारत में मजदूरी नीति | Read this article in Hindi to learn about the wage policy adopted in India.

1929 में श्रम पर रायल कमीशन की नियुक्ति श्रम एवं मजदूरी नीति की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास था । 1931 में प्रस्तुत रायल कमीशन की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत का श्रमिक उचित रूप से संगठित नहीं है, वह निर्धनता से पीडित है, उनकी आवास दशाएँ असन्तोषजनक रही थीं तथा वह ऋणग्रस्त रहे हैं ।

औद्योगिक क्षेत्र में व्याप्त हड़ताल वाकआउट व तालाबन्दी की घटनाओं व उद्योगपतियों व श्रमिकों के मध्य बढते हुए तनाव से आवश्यक हो गया था कि एक उचित श्रम व मजदूरी नीति लागू की जाये ।

अतः रायल कमीशन ने श्रम संघों की सकारात्मक भूमिका, श्रम कल्याण अधिकारी की नियुक्ति, मजदूरी बोर्ड व वर्क्स कमेटी की स्थापना, सप्ताह में 54 घण्टे के कार्य, महिला श्रमिकों को मातृत्व अवकाश सुविधा व मजदूरों की आवास सुविधा पर मुख्य रूप से विचार किया गया ।

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द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त भारत में ऐसी श्रम नीति को लागू करने पर जोर दिया गया जो श्रमिकों के जीवन-स्तर को उच्च करने में तथा साथ ही औद्योगीकरण हेतु कुशल व प्रशिक्षित जनशक्ति की नियमित पूर्ति करने में सक्षम बने ।

1944 में श्रम नीति में एक महत्वपूर्ण कदम श्रम गवेषणा कमेटी की नियुक्ति रहा जिसने मजदूरी रोजगार, आवासीय जोखिम, फैक्ट्री की दशाओं की समस्या पर विचार किया । कमेटी ने 1946 में अपनी रिपोर्ट दी ।

इसने दुर्घटनाओं को रोकने के लिए सुरक्षा के उपायों तथा राज्य द्वारा बीमा करने, उद्योगों में कार्य के दौरान बीमारियों से बचाव, मातृत्व सम्बन्धी लाभ, मजदूरी के प्रमापीकरण, महँगाई भत्ते को जीवन लागत निर्देशक से सम्बन्धित करना, श्रम संघों को मान्यता व आवास की दशाओं में सुधार को मुख्य रूप से ध्यान में रखा ।

1946 में राष्ट्रीय लोकप्रिय सरकार के सत्ता में आने पर यह अनुभव किया गया कि श्रम वर्ग को सन्तुष्ट किए बिना औद्योगिक विकास सम्भव नहीं है । अतः राष्ट्रीय थम नीति के बनाए जाने को आवश्यक समझा गया ।

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तदुपरान्त श्रम मंत्रालय ने एक चार वर्षीय कार्यक्रम 1946-51 की समय अवधि में चलाया जो श्रमिकों की काम की दशाओं, स्वास्थ्य कल्याण व औद्योगिक प्रतिष्ठानों में सुरक्षा के उपायों को ध्यान में रखता ।

इस कार्यक्रम के मुख्य लक्ष्य निम्नांकित थे:

(1) बदलती हुई परिस्थितियों के अनुरूप विद्यमान श्रम विधान में सुधार करना ।

(2) बन्धुआ मजदूरी का नियन्त्रण व निवारण ।

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(3) रोजगार के अवसरों का विस्तार ।

(4) श्रमिकों को बेहतर सेवा व सुविधा प्रदान करना ।

(5) उचित मजदूरी समझौतों के अनुरूप महंगाई भत्ते की दरों को अधिक विवेकपूर्ण बनाना ।

(6) औद्योगिक स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम लागू करना ।

1946 की औद्योगिक नीति में एक मुख्य उद्देश्य यह भी रहा कि औद्योगिक श्रमिकों को उचित मजदूरी हेतु सुरक्षा प्रदान की जाये तथा उनके कार्य व जीवन की बेहतर दशा हेतु प्रयास किए जाएं ।

संविधान एवं श्रम नीति:

संविधान में श्रम नीति को राज्य नीति के निर्देशक सिद्धान्त के अधीन लेते हुए नियोजित आर्थिक विकास एवं सामाजिक न्याय की आवश्यकताओं के अनुरूप निर्मित करने पर बल दिया गया था ।

औद्योगीकरण के आरम्भिक वर्षों में श्रम नीति को मुख्यतः श्रम-शक्ति के संगठित वर्ग से सम्बन्धित किया गया था । अतः इस बात की आवश्यकता अनुभव की गयी कि असंगठित क्षेत्र में श्रमिकों के हितों पर भी ध्यान दिया जाये । संविधान के निर्देशक सिद्धान्तों में श्रम नीति के विविधीकरण के प्रसंग में बन्धुआ मजदूरी (नियमन एवं निवारण) एक्ट 1970 महत्वपूर्ण रहा । मजदूरों की प्रबन्ध में भागदारी सुनिश्चित करने के लिए संविधान के निर्देशक सिद्धान्तों के अधीन नई धारा 43-ए जोड़ी गयी ।

नियोजित विकास एवं श्रम नीति (Planned Development and Labour Policy):

पहली पंचवर्षीय योजना में औद्योगिक श्रमिक के अधिकारी को समुचित महत्व दिया गया । योजना के लक्ष्यों को पूर्ण करने में औद्योगिक श्रम की महत्ता एवं ऐसा आर्थिक संगठन बनाने पर जोर दिया गया जो सामाजिक न्याय की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में सफल हो सके । इसका लक्ष्य श्रमिकों के कल्याण स्तर में सुधार करना व देश में आर्थिक स्थायित्व व प्रगति को सुनिश्चित करना था ।

पहली योजना में श्रम की भूमिका को ध्यान में रखते हुए श्रमिक के निम्न अधिकारों को महत्वपूर्ण माना गया:

(1) भोजन, वस्त्र व आवाज की मूलभूत आवश्यकताओं का समुचित प्रबन्ध करते हुए श्रमिक को स्वस्थ एवं सम्पन्न बनाना ।

(2) श्रमिकों को बेहतर सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना ।

(3) श्रमिकों को उसके अधिकार व हितों के प्रति जागरूक बनाना ।

(4) श्रमिकों को काम के दौरान होने वाली दुर्घटनाओं से बचाना ।

योजना में नियोक्ता व कर्मचारियों के मध्य बेहतर सम्बन्धों को समुदाय के आर्थिक हितों से सम्बन्धित किया गया । यह भी कहा गया कि मजदूरी के सभी समायोजन सामाजिक नीति के व्यापक सिद्धान्तों के आधार पर निर्मित हों तथा आय की विषमताओं को काफी सीमा तक दूर किया जाये ।

न्यूनतम मजदूरी विधान का दृढता से पालन आवश्यक माना गया । पहली योजना अवधि में विशेषकर औद्योगिक क्षेत्र में लाभ व मजदूरी का निर्धारण सरकार द्वारा सीमित नियन्त्रण के अधीन रखा गया । नियन्त्रण एवं संरक्षण मुख्यतः प्रबन्ध को प्राप्त होने वाले पुरस्कार, लाभों के वितरण व बोनस शेयर के वितरण से सम्बन्धित रहे ।

इस संरक्षणों को लगाने में योजना में यह प्रस्तावित किया गया कि पूँजी को एक उचित प्रतिफल की प्राप्ति होनी चाहिए । पहली योजना में श्रमिक के योगदान एवं आर्थिक विकास में निर्वाह की गयी भूमिका के महत्व को रेखांकित अवश्य किया गया, परन्तु जिस तेजी से औद्योगिक लाभ बड़े उसके सापेक्ष मजदूरी में होने वाली वृद्धि न्यून ही रही । रोजगार के अवसरों में भी वृद्धि नहीं हो पायी ।

दूसरी योजना में समाजवादी ढाँचे के साथ श्रम नीति को अधिक महत्व दिया गया । समाजवादी समाज की पूर्व शर्त के रूप में औद्योगिक प्रजातन्त्र के सृजन को स्वीकार किया गया । दूसरी योजना में ऐसी मजदूरी नीति को लागू करने पर ध्यान दिया गया जो वास्तविक मजदूरियों की वृद्धि करें ।

इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु मजदूरी बोर्ड के गठन का प्रस्ताव किया गया । इसका मुख्य कार्य श्रमिकों के विभिन्न वर्गों को निर्धारित करना था जिससे प्रस्तावित मजदूरी नियत की जा सके । साथ ही उद्योग के लिए समूचे रूप में मजदूरी संरचना निर्मित करने पर जोर दिया गया ।

दूसरी योजना में उपक्रम विकास हेतु औद्योगिक शान्ति अपरिहार्य मानी गयी । औद्योगिक विवादों के निवारण हेतु अनुशासन संहिता 1958 में बनाई गयी । द्वितीय योजना में प्रबन्ध में श्रमिकों की भागीदारी को महत्व दिया गया । उत्पादन की उत्तरोत्तर वृद्धि के लिए उत्पादन की आदाओं व गुणवत्ता के अभाव को दूर करने के साथ ही श्रम अनुशासन स्थापित करने पर बल दिया गया ।

श्रम हित व उत्पादन लक्ष्यों की आपूर्ति हेतु सुदृढ़ श्रम संघ आन्दोलन की आवश्यकता महसूस की गयी । श्रम को उचित मजदूरी देने तथा मजदूरी की वृद्धि को उत्पादकता से संयोजित करने के उपायों को महत्व दिया गया ।

मजदूरी विवादों की रोकथाम के लिए त्रिपक्षीय मजदूरी बोर्ड का गठन किया गया । श्रम एवं श्रम कल्याण के अन्तर्गत प्रशिक्षण सुविधाओं की वृद्धि, नवीन रोजगार कार्यालयों के खोले जाने व रोजगार सेवा संगठनों की क्रियाओं के विस्तार पर भी ध्यान दिया गया, यद्यपि द्वितीय योजना के द्वारा प्रस्ताविक मजदूरी बोर्ड के अधीन टैक्सटाइल, सीमेण्ट, चीनी-जूट व चाय उद्योग में इनका गठन किया गया पर ऐसा विवेकीकरण एवं प्रमापीकरण सम्भव नहीं हुआ जिससे उच्च जीवन-स्तर की प्राप्ति हो सके । संक्षेप में, द्वितीय योजना में मजदूरी नीति वर्णित उद्देश्यों को प्राप्त करने की दृष्टि से असफल ही रही ।

तीसरी योजना में औद्योगिक शान्ति के आर्थिक व सामाजिक पक्षों को महत्वपूर्ण माना गया । यह स्वीकार किया गया कि समान लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए श्रमिक व प्रबन्ध में भागीदारी होनी चाहिए । तीसरी योजना में न्यूनतम मजदूरी निर्धारण, विषमताओं में कमी एवं मजदूरी भिन्नताओं के साथ उत्पादकता में वृद्धि को अनिवार्यतः स्वीकार किया गया ।

तीसरी योजना में मजदूरी नीति को विशेष रूप से उद्योगों एवं कार्यरत श्रमिक वर्ग द्वारा अनुभव की जा रही विशिष्ट आवश्यकताओं के साथ सम्बन्धित किया गया । योजना के प्रारूप में स्पष्ट किया गया कि आर्थिक विकास की दर इतनी अधिक अवश्य होनी चाहिए जिससे पूर्ण रोजगार के स्तर एवं इसके साथ ही व्यक्तियों के एक बढते हुए जीवन-स्तर को प्राप्त किया जाना सम्भव बन सके ।

वास्तव में तीसरी योजना मजदूरी, रोजगार व उत्पादकता की दृष्टि से असफल ही रही । औद्योगिक क्षेत्र में मौद्रिक मजदूरी में वृद्धि हुई, लेकिन वास्तविक मजदूरी मुद्रा प्रसारिक दबावों के कारण कम हुई । जीवन-निर्वाह लागतों में तेजी से वृद्धि होती गयी ।

चतुर्थ योजना में श्रम नीति के बारे में कोई विशेष ध्यान दिशा निर्देश नहीं दिया गया । श्रम व रोजगार की समस्याओं हेतु एक राष्ट्रीय कमीशन की नियुक्ति की गयी जिसने मजदूरी कार्य की दशाओं, कल्याण, श्रम संघों की गतिविधि वैसे विविधि पक्षों पर अगस्त, 1969 में अपनी संस्तुतियाँ प्रदान कीं ।

चतुर्थ योजना में अर्न्तउद्योग विभेद, व्यवसायगत विभेद, अर्न्तफर्म विभेद व श्रेत्रीय विभेदों में वृद्धि की प्रवृतियाँ विद्यमान रहीं । मौद्रिक मजदूरी के बढ़ने के बावजूद वास्तविक मजदूरियों में वृद्धि नहीं हो पायी, क्योंकि मुद्रा-प्रसार तेजी से बढ रहा था ।

पाँचवीं योजना में पूर्ववर्ती योजनाओं में वर्णित मजदूरी नीति को ही लागू किया गया । तकनीकी व प्रबन्धकीय शिक्षा को अधिक महत्व दिया गया । प्रबन्ध में व्यवसायीकरण को उत्पादकता वृद्धि हेतु क्रियान्वित करने के प्रयास किये गये ।

यह स्पष्ट किया गया कि मजदूरी में होनेवाली वृद्धि जो उत्पादकता से सम्बन्धित न हो कीमत स्थायित्व के हित को देखते हुए त्यागनी होगी । श्रम उत्पादकता को बढ़ाने का हर सम्भव प्रयास किया जाना होगा ।

छठवीं योजना में मजदूरी की नीति को आवश्यकता आधारित न्यूनतम मजदूरी वास्तविक मजदूरी में जीवन-निर्वाह लागतों में होने वाली वृद्धि के कारण नियमित सुधार किए जाने, उत्पादकता वृद्धि की प्रेरणा, कुशलता हेतु मजदूरी विभेद सम्बन्धी प्राविधान, सामाजिक सुरक्षा प्रबन्ध जैसे चिकित्सकीय देखरेख, भविष्यनिधि, ग्रेच्युटी, परिवार पेंशन आदि को महत्व दिया गया । यह प्रस्तावित किया गया कि न्यूनतम मजदूरी के स्तर में इस प्रकार वृद्धि की जाये जिससे आवश्यकता आधारित मजदूरी एक सच्चाई बन जाये ।

छठी योजना में मजदूरी नीति के मुख्य बिन्दु निम्नांकित थे:

(1) कृषि क्षेत्र में न्यूनतम मजदूरी को उचित रूप से लागू करना तथा बन्धुआ मजदूरी की समाप्ति ।

(2) राष्ट्रीय मजदूरी नीति को मजदूरी की विवेकपूर्ण प्रणाली पर आधारित करना तथा यह ध्यान रखना कि मजदूरी विभेदक आर्थिक आधार पर भी तर्क संगत है ।

(3) बोनस भुगतान व सामाजिक सुरक्षा लाभों को के अधीन लाना । रेलवे डाकतार व कुछ विभागीय उपक्रमों में उत्पादकता से शृंखलाबद्ध बोनस की प्रणाली लागू करना ।

(4) प्रबन्ध में श्रमिकों की भागीदारी को समन्वित करना ।

(5) अधिक कार्यक्षमता हेतु उपक्रमों में श्रम संघों की भूमिका को महत्व ।

सातवीं योजना- सातवीं योजना के प्रपत्र में श्रम नीति की सफलता को उत्पादकता के आधार पर देखा गया । यह स्वीकार किया गया कि तकनीकी घटक एवं तकनीक कर स्तर उत्पादकता को मुख्य रूप से निर्धारित करते है ।

लेकिन इसके साथ ही श्रमिकों का अनुशासन व कार्य को अभिवृत्तियों, उनकी कुशलता औद्योगिक सम्बन्धों की दशा, श्रम सहभागिता की समर्थता की सीमा, कार्य का वातावरण व सुरक्षा के उपाय भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है ।

रोजगार सृजन को अधिकतम करने के लिए श्रम उत्पादकता में तकनीक के समुचित फेरबदल द्वारा सुधार करने व औद्योगिक रुग्णता को ठीक करने के उपाय लागू किए जाएँ ।

सातवीं योजना में मजदूरी नीति के मुख्य पक्ष निम्नांकित रहे:

(1) उपयोग क्षमता कुशलता व उत्पादकता की अभिवृद्धि को श्रम नीति में महत्वपूर्ण स्थान देना । इसके लिए विविध योजनाओं को प्रस्तावित करने व उसके क्रियान्वयन पर बल दिया गया ।

(2) प्रबन्ध में श्रमिकों का समर्थ योगदान उत्पादकता के निर्धारण हेतु मुख्य घटक माना गया ।

(3) उद्योगों एवं खदानों में सुरक्षा के उपाय अपनाना- उद्योगों एवं खदानों में घटने वाली दुर्घटनाओं को रोकने के लिए सुरक्षा के उपायों को सुनिश्चित करना आवश्यक माना गया ।

(4) क्षमता वृद्धि द्वारा उत्पादकता में गुणात्मक सुधार करने हेतु विविध क्रियाओं में कम्प्यूटर प्रक्रिया का अधिकाधिक प्रयोग करना ।

(5) बीस सूत्री कार्यक्रम के अन्तर्गत बन्धुआ मजदूरों का पुर्नवास व कृषि में न्यूनतम मजदूरी के क्रियान्वयन हेतु उचित तन्त्र विकसित करने को प्राथमिकता देना ।

(6) बाल श्रमिकों की दशा में सुधार करना- बाल श्रम की समस्या को सुलझाने के लिए प्रस्तुत कानूनी कार्य योजना, बाल श्रमिकों के कल्याण व विकास कार्यक्रम एवं एक परियोजना आधारित कार्य योजना से सम्बन्धित रणनीति तैयार करना । कानूनी कार्य योजना में बाल श्रम एक्ट 1986, फैक्ट्रीज एक्ट 1948 एवं खनन एक्ट 1950, बागान श्रम एक्ट 1951 के अनुरूप अनुशंसाओं को कठोर रूप से लागू करना था ।

दूसरी ओर बाल श्रमिकों एवं उनके परिवार के लाभ हेतु चलाए जा रहे विकास कार्यक्रमों से इनका तालमेल बनाए रखने पर बल दिया गया जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, एकीकृत बाल विकास परियोजना व निर्धनों के लिए आय व रोजगार सृजन महत्वपूर्ण हैं ।

(7) महिला श्रमिकों पर विशेष ध्यान-मुख्य समस्या यह है कि महिलाओं को उचित मजदूरी प्राप्त नहीं होती अतः मजदूरी की समानता हेतु पुरस्कार एक्ट में संशोधन आवश्यक है । महिला श्रमिकों की दशा में सुधार हेतु स्वैच्छिक संगठनों को सहायता अनुदान दिये जाएँ ताकि वह महिला कल्याण से सम्बन्धित परियोजनाओं को संचालित कर सकें ।

(8) ग्रामीण असंगठित श्रम के अधीन भूमिहीन श्रमिक व छोटे व सीमान्त कृषक, ग्रामीण दस्तकार, वन श्रमिक, मछुआरे व स्वरोजगार में लगे व्यक्ति, जैसे- बीडी मजदूर, चमड़े के कामगार व वस्त्र उद्योग के कारीगर शामिल हैं । सातवीं योजना में इन्हें न्यूनतम मजदूरी उपलब्ध कराने पर बल दिया गया ।

(9) ग्रामीण श्रमिकों को संगठित करना-ग्रामीण श्रम के शोषण का मुख्य कारण संगठन की कमी है । ग्रामीण श्रमिकों में जागरूकता उत्पन्न करने के लिए केन्द्र द्वारा कार्यक्रम छठी योजना में चलाया गया जिसमें सातवीं योजना में सुधार किया गया ।

इसका उद्देश्य ग्रामीण असंगठित श्रमिकों के विभिन्न वर्गों व उपक्रमों को निर्दिष्ट करना था तथा उन्हें इस प्रकार शिक्षित व संगठित करना था जिससे उन्हें आर्थिक विकास के अधिक लाभ प्राप्त हो सकें । शहरी असंगठित क्षेत्र में श्रमिकों की हेतु संविदा श्रम एक्ट 1877 न्यूनतम मजदूरी एक्ट 1948 को प्रभावी रूप से लागू करने पर विचार किया गया ।

श्रम एवं कल्याण हेतु व्यावसायिक प्रशिक्षण को श्रम शक्ति की रोजगार क्षमता एवं उत्पादकता में सुथार हेतु महत्ता प्रदान की गयी । सातवीं योजना में औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान अवस्थापना का स्वरोजगार के लिए ग्रामीण युवकों का प्रशिक्षण कार्यक्रम के लिए भी उपयोग किया गया ।

उद्योगों के बदलते कौशलों की आवश्यकता को पूरा करने के लिए पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित जनशक्ति की सतत उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय व्यावसायिक प्रशिक्षण पद्धति को आधुनिक एवं अद्यतन बनाने के लिए विश्व बैंक की सहायता से एक व्यावसायिक प्रशिक्षण परियोजना आरम्भ की गयी । यह भारत में तीव्र गति से आरम्भ उन्नत प्रौद्योगिकी की आवश्यकताओं हेतु वांछित व्यावसायिक प्रशिक्षण की व्यवस्था करेगा ।

बन्धुआ श्रमिक प्रणाली उन्मूलन अधिनियम 1976 पारित होने के साथ बन्धुआ श्रमिकों की मुक्ति तथा उनके ऋणों का एक साथ परिशोधन करने पर विचार किया गया । 31 मार्च, 1991 तक मुक्त बन्धुआ मजदूरों की संख्या 2.25 लाख थी जिसमें से 2.22 लाभ मजदूरों का पुर्नवास किया गया ।

असंगठित क्षेत्र में मजदूरों की वास्तविक मजदूरी का संरक्षण न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948 के अमीन किया जाता है । 1987 में सरकार द्वारा ग्रामीण श्रम राष्ट्रीय आयोग की नियुक्ति की गयी थी जिसने 31-7-1991 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की । आयोग ने संस्तुति की कि सारे देश में खेतिहर मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी 20 रुपये प्रतिदिन से कम नहीं होनी चाहिए ।

खान मजदूर, पत्तन व गोदी मजदूर, बीड़ी मजदूर वैसे विशिष्ट वर्गों तथा ऐसे ही अन्य वर्गों के लिए गठित कल्याण बोर्ड से सम्बन्धित श्रेणी के मजदूरों के लिए कल्याण कार्यक्रम कार्यान्वित करते है । उत्प्रवास अधिनियम, 1983, ठेके के आधार पर विदेश में रोजगार के लिए भारतीय श्रमिकों के उत्प्रवासकों विनियोजित करता है व श्रमिकों के कल्याण व उनके हितों की सुरक्षा को सुनिश्चित करता है ।

महिला और बाल श्रमिकों की सुरक्षा के लिए अनेक उपाय किए बा रहे है । समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976 में एक ही काम या एक ही प्रकृति के काम के लिए पुरुष व महिला श्रमिकों के लिए समान पारिश्रमिक का भुगतान किए जाने की ओर न केवल भर्ती के मामले में बल्कि रोजगार के बाद सेवा शर्तों के सम्बन्ध में भी महिलाओं के साथ भेदभाव की रोकथाम किए जाने की व्यवस्था है ।

बाल श्रम अधिनियम, 1986 बच्चों को ऐसे रोजगार में लगाने का निषेध करता है जो उनके लिए हानिकर हैं । 1987 में राष्ट्रीय बाल श्रम नीति भी तैयार की गयी है । इस नीति में अन्य बातों के साथ अनौपचारिक शिवा, व्यावसायिक प्रशिक्षण, स्वास्थ्य रक्षा, पोषण, आदि जैसे कई उपायों के माध्यम से रोजगार से हटाए गए बच्चों के पुर्नवास के उद्देश्य से एक परियोजना आधारित कार्य योजना की परिकल्पना की गयी है ।

विविध विधानों के माध्यम से श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान की जाती है इनमें औद्योगिक दुर्धटना एवं ऐसी व्यावसायिक बीमारियों जिनसे अपंगता या मृत्यु हो जाती है के मामले में श्रमिकों को मुआवजे का भुगतान करने स्वास्थ्य बीमा, भविष्य निधि, परिवार पेंशन, जमा राशि से जुडा बीमा व उनकी परिधि में आने वाले श्रमिकों की रोजगार समाप्ति, मृत्यु या अपंगता पर ग्रेचुटी के भुगतान की व्यवस्था है ।

भारत में हड़ताल एवं लॉक आउट औद्योगिक विवाद एक्ट से निर्देशित हैं । इसके अधीन लेबर कोर्ट औद्योगिक ट्रिब्यूनल एवं राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल सम्मिलित है । यद्यपि औद्योगिक सम्बन्धों का वातावरण 1991 के उपरान्त आर्थिक सुधारों के लागू होने के बाद बेहतर होने लगा ।

इसका प्रमाण हडताल एवं लॉक आउट की संख्या में होने वाली कमी के द्वारा दिया जा सकता है 1991-92 के बाद हड़ताल एवं लॉक आउट की घटनाओं में क प्रतिशत की कमी आई है । भारतीय फर्मों में घरेलू एवं विश्व स्तर की प्रतिस्पर्द्धा के बढने एवं सरकार द्वारा बेहतर कार्यक्षमता का प्रदर्शन न कर रही फर्मों को बन्द करने की इच्छा से श्रमिकों में विवाद की स्थितियाँ काफी कम हुई है ।

आठवीं पंचवर्षीय योजना के दृष्टिकोण में संवृद्धि और न्याय के उद्देश्यों हेतु अपनायी जाने वाली कार्यनीति को महत्ता प्रदान की गयी । इसके लिए विकास पद्धतियाँ एवं प्रक्रियाओं को इस प्रकार निर्मित किए जाने पर जोर दिया गया जिससे प्रत्येक को प्रर्याप्त रोजगार, भोजन, कपडा व मकान की न्यूनतम वांछनीय आवश्यकता को पूर्ण करना व शिक्षा स्वास्थ्य शिशु देखभाल व अन्य सम्बन्ध सेवाओं तक पहुँचने लायक बनाया जा सके ।

काम के अधिकार को अधारभूत मानते हुए पूर्ण रोजगार योजना के अधीन रोजगार की गारंटी व न्यूनतम मजदूरी कानून को ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में लागू करने की बचनबद्धता प्रकट की गयी ।

नवीं पंचवर्षीय योजना में श्रम नीति:

नवीं पंचवर्षीय योजना 1997-2002 में श्रम नीति को बदलते हुए सामाजिक आकर्षक परिदृश्य के सन्दर्भ में सरल, विवेकपूर्ण एवं श्रम नियमों से तालमेल युक्त करने पर बल दिया है । इसी के साथ विद्यमान वैधानिक ढाँचे को इस प्रकार सुदृढ़ किया जाना है जिससे असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के हितों को संरक्षित किया जा सके ।

इसके लिए निम्न विशिष्ट कदम उठाए जाने की आवश्यकता महसूस की गई है:

(1) तेजी से उभर रहे श्रम बाजार के प्रसंग में रोजगार कार्यालयों की भूमिका में इस प्रकार का परिवर्तन करना है ताकि वह केवल पंजीकरण एवं अवस्थापन की एजेन्सी के संकुचित दायरे में न रहकर व्यापक बाजार सूचनाओं की सम्यक् जानकारी, स्वरोजगार के संवर्धन, कैरियर काउन्सलिंग एवं वोकेशनल निर्देशन दे पाने में समर्थ बनें ।

(2) असंगठित क्षेत्र में श्रमिकों के आर्थिक स्तर में कार्य की दशाओं में सुधार हेतु एक बहुआयामी विधि को अपनाने की आवश्यकता है जिसमें स्वैच्छिक संगठनों का समावेश हो तथा ऐसी स्कीमों को ध्यान में रखा जा सके जो असंगठित क्षेत्र के कल्याण के साथ ही अपने वैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूक रह सकें ।

(3) बन्धुआ मजदूरों को पुर्नवासित करने के लिए एक समन्वित विधि का चुनाव किया जाना आवश्यक है जिससे कई स्रोतों से उनके लिए संसाधन एकत्रित कर सहायता पहुँचाई जा सके ।

(4) बाल श्रम के निराकरण हेतु एक दीर्घ समय तक चलने वाली ऐसी नीति की आवश्यकता है जिसके अन्तर्गत बाल श्रम का निर्दिष्टीकरण किया जा सके । दूसरे स्तर पर उन्हें बाल श्रम से मुक्त करते हुए उनके विकास हेतु भावी प्रयास किए जाएँ ।

(5) महिलाओं की उत्पादकता में सुधार, रोजगार अवसरों की सुगम प्राप्ति एवं तकनीकी परिवर्तनों के परिणामस्वरूप नए व्यवसायों में संलग्नता के लिए आवश्यक माना गया कि उनकी शिक्षा-दीक्षा, प्रशिक्षण एवं कुशलता में सुधार हेतु अवसर प्रदान किए जाएँ । घरेलू श्रमिकों को सुरक्षा प्रदान करने एवं उनके हित संरक्षित करने के साथ ही जीवन-स्तर में सुधार सम्बन्धी प्रयास अत्यावश्यक होंगे ।

(6) संगठित एवं असंगठित क्षेत्रों में श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना । सामाजिक सुरक्षा की एक अर्न्तनिहित समन्वित स्कीम को लागू करना आवश्यक होगा जिसके अधीन विद्यमान सामाजिक सुरक्षा स्कीमों को एक विधान के अर्न्तगत रखा जाना सम्भव बने ।

(7) श्रमिकों की उत्पादकता में सुधार हेतु उन्हें कार्य-स्थल पर ही स्वास्थ्य सुधार एवं सुरक्षा के साधन उपलब्ध कराये जाने आवश्यक हैं ।

(8) शिक्षा एवं प्रशिक्षण को श्रम बाजार में होने वाले परिवर्तन की दृष्टि से इस प्रकार सुधारना होगा जिससे वांछित कुशलता कौशल की समय पर आपूर्ति सम्भव हो सके । प्रशिक्षण सम्बन्धी प्रणालियों में लोचशीलता बनाए रखना आवश्यक है जिससे नए उपक्रमों को कौशल युक्त श्रम की पूर्ति हो सके ।

(9) उद्योगों की बदलती हुई कौशल आवश्यकताओं के प्रत्युतर में प्रशिक्षण संस्थाओं को फलनात्मक स्वायत्तता देनी आवश्यक है । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रशिक्षण, पाठ्‌यक्रम, यन्त्र उपकरण एवं अन्तर्संरचना को सुधारना होगा ।

(10) महिलाओं के आई॰ टी॰ आई॰ एवं क्षेत्रीय वोकेशनल एवं प्रशिक्षण संस्थानों का विस्तार एवं सुद्रढ़ीकरण आवश्यक है ।

दसवीं योजना में उच्च आर्थिक वृद्धि के साथ समानता एवं सामाजिक न्याय प्राप्त करने हेतु तीन पक्षीय रणनीति पर आश्रित रहा गया:

1. कृषि विकास का ग्रामीण निर्धन वर्ग पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है । इसलिए दसवीं योजना में कृषि सुधारों को ध्यान में रखा जाएगा ।

2. उन क्षेत्रों का तीव्र विकास जो रोजगार की अधिक सम्भावनाएँ प्रदर्शित करते है । इनमें कृषि, पर्यटन, परिवहन, लघु उद्योग, खुदरा व्यापार, निर्माण, संचार क्षेत्र से सम्बन्धित सेवाएँ तथा ऐसी समस्त नवीन सम्भावना वाली सेवाएँ है जिनको समुचित प्रोत्साहन द्वारा आकर्षक रोजगार प्रदान करने में सक्षम बनाया जा सकता है ।

3. उस विशिष्ट लक्ष्य वर्ग हेतु विशेष कार्यक्रम व नीतियाँ निर्मित करना जिसे सामान्य विकास योजनाओं से समुचित लाभ नहीं मिल पाता ।

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