अंतर्राष्ट्रीय पूंजी प्रवाह | Read this article in Hindi to learn about:- 1. प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी के प्रवाह (International Capital Flows before First World War) 2. निजी ऋण एवं विनियोग प्रणाली का पतन (Downfall of Private Loans and Investment) and Other Details.

प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी के प्रवाह (International Capital Flows before First World War):

उन्नीसवीं शताब्दी में अन्तर्राष्ट्रीय निजी पूंजी के व्यापक प्रवाहों ने कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, नार्वे, स्वीडन और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका जैसे देशों के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत की । विदेशी पूंजी के अन्तर्प्रवाहों का सकल स्थिर पूंजी निर्माण एवं आयातों से अनुपात तालिका 53.1 से स्पष्ट है ।

तालिका 53.1- विदेशी पूंजी के अर्न्तप्रवाहों का सकल स्थिर पूंजी निर्माण व आयातों से अनुपात:

फ्रांस एवं जर्मनी ने अपने औद्योगीकरण के प्राथमिक चरणों में विदेशों से भारी मात्रा में कर्ज प्राप्त किया । यूरोप के विकसित देशों ने भी 19वीं शताब्दी में विकास उद्देश्यों हेतु पूंजी का व्यापक अर्न्तप्रवाह किया ।

ADVERTISEMENTS:

1850 से यूरोप एवं संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में होने वाला ब्रिटिश पूंजी का अर्न्तप्रवाह लगभग 200 मिलियन पौण्ड था । 1874 में ब्रिटेन द्वारा 1000 मिलियन पौण्ड पूँजी का बर्हिप्रवाह किया गया ।

19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में फ्रांस, जर्मनी, बेल्दियम,नीदरलैण्ड एव स्विट्‌जरलैण्ड मुख्य ऋण प्राप्तकर्त्ता देश थे । ब्रिटेन द्वारा समुद्र पार किए जाने वाले विनियोग निजी पूँजी प्रवाह के रूप में किए गए, जबकि फ्रांस और जर्मनी ने विदेशी विनियोग को अपनी विदेश नीति का एक मुख्य अंग माना जिसके द्वारा उसके विशिष्ट राष्ट्रीय उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को प्राप्त किया जाना सम्भव बनता ।

1913 में फ्रांस विश्व को साख प्रदान करने वाला मुख्य देश था । ब्रिटेन की भाँति फ्रांस ने यूरोप व अन्य समुद्र पार देशों में भारी विनियोग किया । फ्रांस द्वारा किये जाने वाले 60 प्रतिशत विदेशी विनियोग ऐसे देशों में किए गए जिनसे उनके राजनीतिक स्वार्थ पूरे होते थे । 1914 तक फ्रांसीसी विनियोगों ने विनियोजित पूंजी पर सेवा भुगतान प्राप्त किये पर इसके उपरान्त युद्ध की विभीषिका ने स्थितियों को विपरीत कर दिया ।

ADVERTISEMENTS:

जर्मनी ने 1871 से 1914 के मध्य बिस्मार्क की नीतियों के अधीन तीव्र आर्थिक विकास किया । इस अवधि में जर्मनी में घरेलू बचतों का कुशलतापूर्वक विनियोग किया जा रहा था विदेशी विनियोग की तुलना में घरेलू विनियोग पर प्रतिफल की अधिक दर प्राप्त हो रही थी ।

अत: 1914 तक जर्मनी ने अधिक विदेशी विनियोग नहीं किए पर 1914 के उपरान्त अपने राजनीतिक स्वार्थों को ध्यान में रखते हुए जर्मनी ने बाह्य विनियोग आरम्भ किए । जर्मनी द्वारा अधिकांश विनियोग दक्षिणी पूर्वी यूरोप में किए गए जिससे इस क्षेत्र में रूस के बढ़ते हुए विस्तार को सीमित किया जाना सम्भव हो । ब्रिटेन और फ्रांस की भाँति जर्मनी ने भी अपनी गतिविधियों को संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और लेटिन अमेरिका में अधिक बढ़ाया ।

(i) अन्तर्राष्ट्रीय विनियोग प्रवाहों की गति एवं दिशा को प्रभावित करने वाले घटक:

अन्तर्राष्ट्रीय विनियोग प्रवाहों की गति एवं दिशा को हालांकि राजनीतिक एवं विदेशी नीतियों ने प्रभावित किया किन्तु इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण अबन्ध नीति एवं स्वतन्त्र उपक्रम अर्थव्यवस्था के सिद्धान्त थे । ऐसी परियोजनाओं पर सर्वाधिक वित्त प्रदान किया जाना था जो वाणिज्यिक रूप से उपयोगी थे एवं अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार निर्यातों की वृद्धि कर पाने में भी सक्षम थे ।

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(ii) मुख्य ऋणदाता व ऋणी देश:

1913 तक अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी की कमी न थी । यह अनुमान लगाया गया था कि 1913 में विदेशों में निवेशित परिसम्पत्तियों 44 बिलियन डालर थीं । इनमें से 50 प्रतिशत से अधिक यूरोप व उत्तरी अमेरिका तथा 20 प्रतिशत लेटिन अमेरिका में विनियोजित थीं । ब्रिटेन मुख्य साख प्रदान करने वाला देश था जिसकी एक चौथाई राष्ट्रीय सम्पत्ति विदेशी परिसम्पत्ति के रूप में थी व जिसकी घरेलू बचतों का आधा भाग प्रतिवर्ष समुद्र पार देशों में विनियोग किया जाता था ।

अधिकांश विदेशी परिसम्पत्तियों पोर्टफोलियो विनियोग के रूप में मुख्यतः रेल, सडक, पुल, विद्युत परियोजनाओं में लगाई गयी थी । 1913 से पूर्व की समय अवधि आर्थिक साम्राज्यवाद एवं स्वतन्त्र उपक्रम के स्वर्णकाल के रूप में जानी जाती थी ।

विदेशी विनियोग के खेल के नियम स्पष्ट रूप से वर्णित थे । निजी विदेशी पूँजी आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करती थी । अन्तर्राष्ट्रीय ऋणों को पूरी तरह चुकता कर दिया जाता था ।

(iii) उपनिवेशों की दशा:

साम्राज्यवादी विस्तार की नीति में उपनिवेशों में भी उपयुक्त नियम लागू हुए । 1880 में ब्रिटिश सरकार द्वारा उपनिवेशों को प्रदान किए गए कुल ऋण 3,50,000 पौण्ड थे जिनमें से 2,50,000 पौण्ड प्रशासन हेतु अनुदान सहायता के रूप में प्रदान किए गए थे । 1875 से 1915 के मध्य यातायात एवं अन्तर्संरचनात्मक सुधार हेतु ब्रिटिश सरकार द्वारा 14 मिलियन पौण्ड की धनराशि अपने उपनिवेशों में विनियोग की गई ।

(iv) निजी पूँजी प्रवाहों की प्रवृति:

प्रथम विश्व युद्ध तक की अवधि में किए जाने वाले अन्तर्राष्ट्रीय पूँजी प्रवाह मुख्यत: निजी पूँजी प्रवाह थे जिनमें से 2/3 से 3/4 भाग सरकारी बौंड के रूप में होता था । इसे प्रत्यक्ष विनियोग की संज्ञा भी दी गई । 19वीं शताब्दी में अन्तर्राष्ट्रीय पूँजी प्रवाह से लाभ प्राप्त करने वाले देशों में मुख्यतः कनाडा आस्ट्रेलिया, नार्वे, स्वीडन और संयुक्त राज्य अमेरिका थे ।

इन सभी देशों में इनकी प्रचुर प्राकृतिक सम्पदा के अनुपात में जनसंख्या का आकार सीमित था । औद्योगिक क्रान्ति आरम्भ होने पर इंग्लैण्ड एक ऐसा देश था जो आर्थिक विकास हेतु ऋण पर आधारित नहीं रहा । दूसरा देश नीदरलैण्ड था जिसने अपने औद्योगीकरण के प्राथमिक चरण को पूर्णत घरेलू बचतों के द्वारा सम्भव बनाया था । जापान ने सन् 1900 से पूंजी उधार देना आरम्भ किया ।

(v) निजी पूँजी प्रवाहों की अधिकता के कारण:

प्रथम विश्व युद्ध की अवधि तक अन्तर्राष्ट्रीय निजी पूंजी प्रवाहों को आकर्षित करने के मुख्य कारण निम्न थे:

(a) विकास कर रहे औद्योगिक देशों में बहुल प्राकृतिक संसाधनों का अधिक शोषण हो रहा था । जनसंख्या का अधिक दबाव होने से खाद्यान्नों की अधिक आवश्यकता अनुभव की जा रही थी । श्रम के प्रवास एवं तकनीकी ज्ञान के प्रसार से विदेशी निजी ऋण व विनियोग प्रोत्साहित हुए जिससे निजी पूंजी के अर्न्तप्रवाहों में वृद्धि हुई ।

(b) ऋण प्राप्तकर्त्ता उद्यमियों, कम्पनियों एवं बाह्य पूंजी का विनियोग कर रहे देश की सरकार द्वारा निजी विदेशी पूँजी की सुरक्षित वापसी का आश्वासन दिया गया था । उपनिवेशों में किया जाने वाला निजी पूँजी का प्रवाह औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा सुरक्षित था ।

(c) ऋणदाता व विनियोगकर्त्ता देश द्वारा ब्याज एवं लाभांश के भुगतान पर किसी प्रकार की रोक नहीं लगाई जाती थी ।

(d) विदेशियों को ब्याज एवं लाभांश के भुगतान से, ऋणी देश को भुगतान सन्तुलन की कठिनाई उत्पन्न नहीं होती थी, क्योंकि विदेशी ऋण एवं विनियोग सामान्यत: खाद्यान्नों एवं कच्चे संसाधनों के निर्यात योग्य उत्पादन को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से उत्प्रेरित करते थे ।

निजी ऋण एवं विनियोग प्रणाली का पतन (Downfall of Private Loans and Investment):

19वीं शताब्दी में निजी ऋण एवं प्रत्यक्ष विनियोग की प्रणाली पर गतिरोध मुख्यतः प्रथम विश्वयुद्ध की अवधि पर लगा । 1920 तक अन्तर्राष्ट्रीय पूँजी बाजार पूर्णत: असुरक्षित हो चुका था पर अब यह लन्दन से हटकर न्यूयार्क में स्थापित हुआ ।

अन्तर्राष्ट्रीय निजी ऋण एवं निजी विनियोग की प्रणाली का पतन मुख्य रूप से तीसा की महामन्दी के समय हुआ जब ऋण प्राप्तकर्त्ता देश अपने अन्तर्राष्ट्रीय दायित्वों का निर्वाह करने में असमर्थ हो गए ।

इसके परिणामस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय निजी दीर्घकालीन ऋण एवं प्रत्यक्ष विनियोग प्रदान किए जाने की परिपाटी समाप्त हो गई । द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त उपनिवेश स्वतन्त्र हुए और उन्होंने निजी विदेशी विनियोगों पर प्रतिबन्ध लगाए. तब से 1960 के उपरान्त विदेशी निजी विनियोग पुन: प्रोत्साहित हुए पर फिर भी इनकी मात्रा अत्यधिक सीमित रही ।

युद्ध की समय अवधि में पूंजी (Capital Flows during War Period):

प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध की समय अवधि में मुख्यतः निम्न तीन सन्दर्भ अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी प्रवाहों के स्वरूप को समझने हेतु आवश्यक है:

(i) संयुक्त राष्ट्र अमेरिका प्रमुख ऋणदाता देश के रूप में ।

(ii) यूरोपीय ऋणदाता देशों में युद्ध का प्रभाव ।

(iii) ऋणों की वापसी में अस्वीकृति ।

(i) संयुक्त राष्ट्र अमेरिका प्रमुख ऋणदाता देश के रूप में:

1914 से 1919 की समय अवधि में अमेरिका के विदेशी दायित्वों में भारी कमी हुई । यूरोपीय देशों ने अमेरिकी बाजारों से काफी अधिक ऋण लिया । 1915 से 1917 के मध्य जब अमेरिका ने युद्ध में प्रवेश किया, तब उसने 2.4 बिलियन डालर के अल्पकालीन एवं 303 मिलियन डालर के दीर्घकालीन ऋण प्रदान किए ।

इन ऋणों के कारण अमेरिका के विदेश व्यापार में भारी वृद्धि हुई वस्तु मदों का निर्यात युद्ध के प्रथम तीन वर्षों में तेजी से बढा । युद्ध ने अमेरिका को प्रमुख साख प्रदान करने वाले देश के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया । अब विश्व का वित्तीय केन्द्र लन्दन नहीं बल्कि न्यूयार्क हो गया ।

अमेरिका की वित्तीय दशा में होने वाले सुधार के साथ उसकी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार दशा में भी परिवर्तन हुआ । दूसरी तरफ यूरोप की अर्थव्यवस्था संक्रान्ति का अनुभव कर रही थी जहां अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार तेजी के साथ घटने लगा था तथा युद्ध से जर्जर अर्थव्यवस्था में आर्थिक पुर्ननिर्माण की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी ।

यूरोप के संरचनात्मक पुनरुत्थान हेतु आवश्यक था कि अन्तर्राष्ट्रीय पूँजी बाजार का पुन: नियमित संचालन हो तथा दीर्घकालीन उधार की सुविधा प्राप्त हो । ऐसे समय में यूरोप में अमेरिकी विनियोग भारी मात्रा में हुए । पूंजी बाजार में कोषों के प्रवाह की दिशा निर्धारित करने के लिए सरकारी नियन्त्रणों की आवश्यकता प्रतीत हुई ।

यह सुनिश्चित किया गया कि कोष ऐसे क्षेत्रों एवं ऐसी क्रियाओं की ओर गतिशील किए जाएँ जहाँ इनकी तीव्र आवश्यकता है । युद्ध से पूर्व कोष सम्बन्धी व्यवहार में भी परिवर्तन देखा गया । सबसे महत्वपूर्ण लक्षण यह देखा गया कि अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी बाजार में अबन्य नीति की समाप्ति हो गई ।

ऐसे देश जो वित्तीय एवं आर्थिक सहायता चाहते थे उन्होंने बाह्य संरक्षण एवं नियन्त्रण की आवश्यकता अनुभव की आपस में ऐसी सहमति हुई जिसमें घरेलू करेन्सियों को स्थायित्व प्रदान करना तथा बजट का सन्तुलन बनाए रखना आवश्यक समझा गया ।

युद्ध की समय अवधि में विनियोग के प्रकार में भी परिवर्तन देखा गया । अमेरिका के विदेश विनियोग का अधिकांश भाग पोर्टफोलियों विनियोग था जो कुल विनियोग का 30 प्रतिशत था । दूसरी तरफ अमेरिकी प्रत्यक्ष विनियोग कनाडा और लेटिन अमेरिकी देशों में किए गए जहाँ इनका संकेन्द्रण वाणिज्य, यातायात, पेट्रोलियम विनिर्माण एवं खनन में था ।

(ii) यूरोपीय ऋणदाता देशों में युद्ध का प्रभाव:

पहले विश्वयुद्ध के उपरान्त यूरोपीय अन्तर्राष्ट्रीय विनियोग एवं पूंजी प्रवाहों में महत्वपूर्ण परिवर्तन देखा गया । युद्ध से पूर्व ब्रिटेन विश्व का प्रमुख ऋणदाता देश था, परन्तु 1914 से 1917 के मध्य उसने अपनी विदेशी परिसम्पत्तियों को तरल करने की आवश्यकता अनुभव की, क्योंकि खाद्यान्नों एवं युद्ध सामग्री के लिए अधिक कोष चाहिएं थे ।

ब्रिटेन ने न केवल अपने अमेरिकी विनियोगों का लगभग 70 प्रतिशत भाग बेच दिया बल्कि अमेरिकी सरकार से ऋण भी लिया । जब युद्ध समाप्त हुआ तब ब्रिटेन न केवल अपनी साख खो बैठा था बल्कि ऋणी देश बन चुका था । अब वह विदेशी लेनदारों व देनदारों के लिए एक महत्वपूर्ण बाजार भी नहीं रह गया था ।

युद्ध जनित परिस्थितियों के परिणामस्वरूप एक तरफ ब्रिटेन द्वारा किये जा रहे समुद्र पार विनियोगों में कमी होती गई तो दूसरी तरफ युद्ध के पश्चात् ब्रिटेन के सामने उद्योगों की पुर्नसंरचना एवं पुनर्गठन की समस्या बलवती हुई । इस हेतु अधिकांश पूंजी घरेलू बाजार से उधार ली गई ।

फ्रांस ने भी अपने विदेशी विनियोग का पचास प्रतिशत गवाया । फ्रांस में भुगतान सन्तुलन के घाटे की समस्या, असन्तुलित बजट व बढती हुई ऋणग्रस्तता की मुख्य समस्याएँ बलवती हो गई । अन्य यूरोपीय देशों ने भी युद्ध की बढ़ती आवश्यकताओं के कारण अपनी विदेशी परिसम्पत्तियों को तरल रूप प्रदान किया । इनमें जर्मनी की दशा सबसे अधिक शोचनीय बन गई ।

अन्तर्राष्ट्रीय पूँजी बाजारों के लिए तीसा की महामन्दी सर्वाधिक कष्टप्रद समय अवधि थी । 1932 के उपरान्त समुद्र पार देशों में विनियोगों का प्रवाह रूक गया । महामन्दी से विश्व व्यापार में भारी कमी हुई । 1935 में विश्व व्यापार का परिमाण 1929 का तीन-चौथाई रह गया ।

ऐसे ऋणी देश सर्वाधिक प्रभावित हुए जो मात्र कुछ फसलों के उत्पादन एवं निर्यात पर निर्भर थे । 1929 से 1934 के मध्य कृषि पदार्थों एवं खनिज संसाधनों की कीमतें छ: प्रतिशत गिर गई । इसके साथ ही मुख्य औद्योगिक देशों ने अपने उद्योगों को संरक्षित करने के लिए उच्च प्रशुल्क दरें एवं अन्य व्यापारिक बाधाएँ लगाई जिससे घरेलू उद्योग सुरक्षित रह सकें ।

(iii) ऋणों की वापसी में अस्वीकृति:

युद्ध अवधि में दायित्वों के भुगतान से इंकार किया जाना मुख्य प्रवृत्ति बन गई ।

ऐसी निम्न स्थितियाँ दिखाई दीं:

(i) पुराने ऋणों की वापसी में उन सरकारों ने अस्वीकृति दी जो राष्ट्रवादी चिन्तन से प्रभावित थी ।

(ii) ऋणी देश इस योग्य नहीं रह गए थे कि वह अपने विदेशी दायित्वों का निबटारा करने के लिए आवश्यक मुद्रा कमा सकें ।

(iii) कई ऋणी देश दिवालिए हो गए थे ।

ऋणों की वापसी में अस्वीकृति प्रदान करने वाले देश लेटिन अमेरिका, बोलीविया, पीरू, चिली, ब्राजील थे । यूरोप में भी विदेशी दायित्वों को सरकार की कठोर विनिमय नियन्त्रण नीतियों के कारण चुकाया जाना सम्भव नहीं बना । सबसे अधिक अमेरिकी ऋण प्रभावित हुए ।

युद्ध के उपरान्त पूंजी के प्रवाह (Capital Flows After War):

युद्ध के उपरान्त पूंजी के प्रवाह की गतिविधियों को निम्न भागों के अधीन स्पष्ट किया गया है:

(i) यूरोप में पुर्नसंरचना एवं पुनरूत्थान-मार्शल योजना

(ii) संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा प्रदान की गयी सैन्य सहायता ।

(i) यूरोप में पुर्नसंरचना एवं पुनरूथान:

द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त विभिन्न अर्थव्यवस्थाएँ जर्जर हो रही थी । समूचा यूरोप इस संक्रान्ति की चपेट में आ गया था । पूँजीगत स्टाक का अधिकांश भाग अवशोषित ही रह गया था । कृषिगत उत्पादन सीमित था । प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप भी बढ़ा ।

राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हो गयी थी । ऐसे समय में यूरोप की पुर्नसंरचना एवं पुनरुत्थान की तीव्रता का अनुभव किया जा रहा था । अधिकांश यूरोपीय अर्थव्यवस्थाएँ इस स्थिति में न थीं कि वह पूंजी के अनुकूल अप्रवाहों से यथोचित सुधार कर पातीं ।

यूरोप में पुर्नसंरचना व सहायता का भार पुन संयुक्त राज्य अमेरिका ने उठाया । युद्ध से अमेरिका की आर्थिक एवं वित्तीय स्थिति सुदृढ हुई थी । वह व्यापार एवं मौद्रिक क्षेत्र में अभी भी शीर्ष स्थान पर था । अतः युद्ध से जर्जर व ध्वस्त देशों में उसने सहायता के अन्तर्सरकारी कार्यक्रम सयोजित किए ।

1947 के प्रारम्भ से ही यूरोप की राजनीतिक एवं आर्थिक दशाएँ तेजी से विगलित होने लगीं ।

24 फरवरी, 1947 को ब्रिटेन ने अमेरिका को सूचित किया कि वित्तीय साधनों में होने वाले ह्रास के कारण अब वह ग्रीस व तुर्की में सैन्य सहायता को जारी नहीं रख पाएगा । इसका लाभ सोवियत संघ ने उठाया जिसने ग्रीस व तुर्की में साम्यवादी विचारों का प्रसार आरम्भ कर दिया । तत्कालीन राष्ट्रपति ट्रूमैन ने इन गतिविधियों को अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गम्भीर संकट के रूप में लिया ।

8 मई, 1947 को यूरोप की पुर्नसंरचना एवं उत्थान हेतु यह तय किया गया कि:

(a) संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का हित यूरोप और स्वतन्त्र विश्व से गहन रूप से जुड़ा है ।

(b) यूरोप में एक कठिन आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक सकट उत्पन्न हो रहा है जिसे दूर करना आवश्यक है ।

(c) यूरोप के समूचे आर्थिक पुनरुत्थान के लिए जर्मनी की पुर्नसंरचना आवश्यक है ।

(d) यूरोप की पुर्नसंरचना हेतु आवश्यक प्लान्ट, मशीन और संयन्त्रों की आपूर्ति अमेरिका द्वारा की जाएगी ।

मार्शल योजना:

यूरोपीय पुनरुत्थान कार्यक्रम को मार्शल योजना के नाम से भी जाना जाता है जो क्षेत्रीय आधार पर पुर्नसंरचना पर आधारित थी । पुनरुत्थान कार्यक्रम में निम्न बिन्दुओं पर सर्वाधिक ध्यान दिया गया था ।

(i) कृषि, शक्ति एवं ऊर्जा में एक तीव्र उत्पादन प्रभाव को उत्पन्न करना । यातायात एवं यन्त्रों का आधुनिकीकरण करना ।

(ii) आन्तरिक वित्तीय स्थायित्व के अनुरक्षण एवं विकास हेतु प्रयास करना ।

(iii) सहयोगी देशों में आर्थिक सहयोग की वृद्धि करना ।

(iv) डालर क्षेत्रों में निर्यातों की वृद्धि द्वारा डालर घाटे की समस्या को सुलझाने के उपाय करना ।

उपर्युक्त कार्यक्रमों को चार वर्षों में 22 बिलियन डालर की लागत द्वारा पूरा किया जाना तय हुआ । अनुदानों की राशि व्यक्तिगत देशों को बहुपक्षीय आधार पर प्रदान की गई । मार्शल योजना के अधीन प्रदान की जाने वाली अनुदान राशि ने यूरोप में आर्थिक पुनरुत्थान हेतु महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया ।

इसने सहायता प्राप्तकर्ता देशों के समग्र राष्ट्रीय उत्पादन में 20 प्रतिशत की औसत विनियोग दर को बनाए रखने में सहायता प्रदान की । इसके परिणामस्वरूप औद्योगिक् उत्पादन युद्ध से पूर्व स्तर से 35 प्रतिशत तथा कृषिगत उत्पादन 10 प्रतिशत बढ़ा । घरेलू मुद्रा प्रसार की दर में काफी कमी हुई और आन्तरिक वित्तीय स्थायित्व प्राप्त करना सम्भव बना ।

मार्शल योजना का चमत्कारिक प्रभाव यह पडा कि अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी बाजार की गतिशीलता बढी । यूरोप के अपने पैरों पर खडे होने से अन्तर्राष्ट्रीय विनियोग की तीव्र वृद्धि हुई । 1955 तक कुछ यूरोपीय देश पुन: पूँजी के शुद्ध निर्यातक बनने में सफल हुए ।

(ii) संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा प्रदान की गई सैन्य सहायता:

मार्शल योजना में सोवियत संघ ने सहभागिता नहीं की । इससे पूर्व पश्चिम के सम्बन्धों में कटुता बढ़ने लगी । अक्तूबर 1947 में पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देशों के नेताओं ने पोलैण्ड में गोष्ठी आयोजित की तथा मार्शल योजना के प्रत्युत्तर में साम्यवादी सूचना ब्यूरो COMINFORM की स्थापना की ।

इसकी गतिविधियों से पश्चिमी यूरोप के देशों में असुरक्षा की भावना उत्पन्न हुई व अन्तर्राष्ट्रीय साम्यवाद के विरूद्ध उन्होंने सामूहिक सुरक्षा व संगठित प्रयासों के अनुरक्षण पर बल दिया ।

यूरोप में सैन्य सहायता के पुन: शस्त्रीकरण को ध्यान में रखते हुए 4 अप्रैल, 1949 को संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क, फ्रांस, ब्रिटेन, आइसलैण्ड, इटली, लक्जमबर्ग, नीदरलैण्ड, नार्वे और पुर्तगाल ने नाटो सन्धि पर हस्ताक्षर किये ।

इसकी शर्तों के अधीन संयुक्त राज्य अमेरिका ने सदस्य देशों को बीस वर्षों तक सहायता देने का वचन दिया । 1948 से 1952 की समय अवधि में यूरोप तथा अन्य युद्ध जर्जर देशों के पुर्ननिर्माण हेतु आर्थिक सहायता के लिए मार्शल योजना में कुल विदेशी सहायता कार्यक्रम का 92 प्रतिशत भाग प्रदान किया गया ।

कोरियाई युद्ध की समाप्ति के पश्चात् पुर्नसंरचना एवं पुनरुत्थान की गतिविधियों को अधिक प्रभावशाली बनाया गया । 1952 के पश्चात अमेरिका ने यूरोपीय मित्र देशों को आर्थिक पुर्ननिर्माण हेतु और अधिक सहायता प्रदान की । सैन्य सहायता और उपकरणों, यन्त्रों पर प्रदान की जाने वाली सहायता का अनुपात 1950 के 26 प्रतिशत से बढकर 1954 में 95 प्रतिशत हो गया ।

साठ के दशक से सहायता की, दिशा में परिवर्तन होना प्रारम्भ हुआ । सोवियत यूनियन ने निर्धन देशों में अधिक रुचि ली । इसके प्रत्युत्तर में संयुक्त राज्य अमेरिका ने निर्धन देशों के दीर्घकालीन स्थायित्व एवं विकास हेतु अधिक कार्यक्रम संचालित किये ।

यह सहायता विशेष रूप से एशिया में प्रदान की गई जहाँ साम्यवाद के प्रसार का सर्वाधिक सकट था । अल्प समय में ही अमेरिका ने अपनी गतिविधियों को तीसरी दुनिया के देशों में तेजी से लागू किया । 1962 में तीसरी दुनिया में विकास सम्बन्धी आर्थिक कार्यक्रमों में अमेरिका ने अपनी कुल विदेशी सहायता का 67 प्रतिशत व्यय किया ।

वित्तीय प्रवाह एवं विदेश नीति (Financial Flow and Foreign Policy):

अन्तर्राष्ट्रीय सार्वजनिक वित्तीय प्रवाहों की प्रकृति निजी पूंजी के प्रवाहों में सन्निहित उद्देश्यों से भिन्न रही । जर्मनी एवं फ्रांस ने इसे विदेश नीति के एक परम्परागत यन्त्र के रूप में स्वीकार किया । तदन्तर राजनीतिक सैन्य और कूटनीतिक आधारों ने इनके प्रवाहों को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत की ।

1913 तक अन्तर्राष्ट्रीय पूँजी बाजार पूर्ण रूप से विकसित हो चुका था एवं पूंजीगत प्रवाहों की गतिशीलता विद्यमान थी । इस समय पुराने देश ऋणदाता तथा नए देश ऋण प्राप्तकर्त्ता थे । परन्तु प्रथम विश्व युद्ध ने इस स्थिति को पूर्ण रूप से परिवर्तित कर दिया था । अब यूरोपीय ऋणदाता देश ऋणी बन गए व अमेरिका विश्व का मुख्य साख प्रदान करने वाला देश बन गया ।

अपनी सुदृढ भूमिका से अमेरिका ने जो लाभ प्राप्त करने चाहे उसमें दो मुख्य अंतर्सम्बन्धित घटक प्रभावशाली बन गए । पहला तो यह कि अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी बाजारों में पूंजी का प्रवाह संकुचित होता चला गया था । अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार गतिविधियों में सुधार से बाजार पुन: खुले एवं पूंजी के प्रवाह अब विशिष्ट गतिविधियाँ की ओर होने लगे ।

दूसरा यूरोप की अर्थव्यवस्थाओं को पुर्नव्यवस्थित होने की आवश्यकता थी । विश्व व्यापार में गतिशीलता हेतु उनकी करेन्सियों में स्थायित्व लाना आवश्यक था जिससे कि वह युद्ध से पूर्व की स्थितियों में व्यापार एवं वित्त की क्रियाओं को जारी रख सकें ।

अमेरिका की नीतियों ने यूरोप के आर्थिक पुनरुत्थान को प्रोत्साहित करने के साथ-साथ वित्तीय अकुशलता करेन्सी के अंर्तपणन एवं तीव्र मुद्रा प्रसार की स्थितियों को उत्पन्न किया । इससे वित्तीय पूँजीगत बाजारों पर बुरा प्रभाव पड़ा । पूँजीगत विनियोग प्रवाहों को बाजार हस्तक्षेप व सरकारी प्रोत्साहन का प्रत्युत्तर नहीं मिला । परिणामस्वरूप सम्पूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संरचना ‘वाल स्ट्रीट’ संकट के समय पतनोन्मुख हो गयी ।

द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की विदेश नीति मुख्यतया यूरोप की पुनर्संरचना एवं उत्थान से सम्बन्धित रहीं ।

इसके पार्श्व में निम्न नीतियाँ रही:

(i) यूरोप में आर्थिंक पुनरोत्थान हेतु वित्तीय गतिशीलता स्थापित करने हेतु सुदृढ वैचारिक व कूटनीतिक आधार था जिसका उद्देश्य स्वतन्त्र व्यापार प्रोत्साहन व यूरोप में अन्तर्राष्ट्रीय साम्यवाद के प्रचार को रोकना था ।

(ii) पुनरुत्थान सम्बन्धी कार्यक्रम जो क्षेत्रीय आधार पर संगठित एवं सुनियोजित किए गए थे ।

(iii) पुनरुत्थान सम्बन्धी कार्यक्रमों को मुख्यतः अनुदानों द्वारा वित्त प्रदान किया गया जिससे विदेशी ऋण भार की समस्या उत्पन्न नहीं हुई ।

मार्शल योजना की सफलता से एक विशिष्ट विचारधारा प्रोत्साहित हुई जो कूटनीतिक एवं सैन्य उद्देश्यों हेतु वित्तीय प्रवाह आवश्यक समझती थी । अमेरिकी सहायता कार्यक्रमों की दिशा एवं प्रवृति इसी पर आधारित थी ।

यह कार्यक्रम सर्वप्रथम उन संवदेनशील क्षेत्रों में लागू किए गए जो अमेरिका के सैन्य एवं व्यूह नीति उद्देश्यों हेतु महत्त्वपूर्ण थे । कोष उन देशों को भी प्रवाहित किए गए जहाँ साम्यवादी विचारधारा के प्रसार का भय था । वित्तीय प्रवाह वस्तुतः का समन्वयीकृत एवं संस्थागत पक्ष बन गया ।

कम विकसित देशों में व्यापार एवं पूंजी के प्रवाह पर प्रो॰ गुन्नार मिर्डल की व्याख्या:

प्रो॰ गुन्नार मिरडल के अनुसार विकसित देशों ने इस संकल्पना का आश्रय लिया कि उन्हें कम विकसित देशों के आर्थिक विकास में अधिक रुचि लेनी चाहिए एवं सहायता देने की जिम्मेदारी का अनुभव करना चाहिए ।

कम विकसित देशों में व्यापार एवं पूंजी के प्रवाह का विवेचन करते हुए मिरडल ने निम्न पक्षों पर अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया:

(i) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सिद्धान्त का पूर्वाग्रह-ग्रस्त दृष्टिकोण:

मिरडल के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सिद्धान्त को विकास की कमी के यथार्थ एवं विकास की आवश्यकता को स्पष्ट करने के लिए तैयार नहीं किया गया । मिरडल के अनुसार अमूर्ततार्किकता के इस प्रभावशाली ढाँचे का प्रायः विपरीत उद्देश्य था और वह था अन्तर्राष्ट्रीय समानता की समस्या को टाल जाना ।

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के प्रचलित सिद्धान्त की आलोचना करते हुए इसका पूर्वाग्रह ग्रस्त दृष्टिकोण- अव्यावहारिक स्थिर सन्तुलन की धारणा के रूप में प्रकट होता है । इसके साथ ही सामाजिक व राजनीतिक घटकों की उपस्थिति को ध्यान में न रखते हुए भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का विश्लेषण करना सम्भव माना गया ।

इसके साथ ही वही परम्परागत विचारधारा अपनाई गई जिसे आर्थिक सिद्धान्त स्वीकार किया जा रहा था । इससे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सिद्धान्त में अपने लिए विशेष रूप से स्थान बनाया । ये प्रवृत्तियाँ थीं हितों की समानता, स्वतन्त्र व्यापार एवं अबन्ध नीति को अपनाया जाना

(ii) आय की बढ़ती हुई असमानता:

अन्तर्राष्ट्रीय विकास स्थितियों के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि वर्तमान विश्व में आय की असमानताएं बढती जा रही है । अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का सिद्धान्त इस संकल्पना पर जोर देता था कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार विभिन्न देशों के मध्य धीरे-धीरे आय की समानता लाने की प्रवृत्ति रखता है पर इसके साथ ही जो मान्यताएँ जुडी थीं वह अव्यावहारिक एवं अनुभव के विपरीत थीं ।

मिरडल के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार एवं पूँजी का प्रवाह सामान्यतः असमानता को जन्म देगा एवं इसके पीछे मुख्यतः बाजार की अनियन्त्रित शक्तियाँ होंगी जो ऐसे सन्तुलन की ओर जाने के लिए कार्य नहीं करेंगी ।

जिनकी प्रवृति आय में समानता स्थापित करने की हो । जब तक बाजार शक्तियाँ स्वतन्त्र रूप से विकसित एवं कार्यरत रहेंगी, तब तक घनी देश और अधिक घनी तथा निर्धन देश और अधिक निर्धन बनते रहेंगे ।

प्रो॰ रोल प्रेबिश ने स्पष्ट किया कि विकास को प्रत्येक केन्द्र से इसके आस-पास के अन्य देश पर प्रत्यावर्तन सम्बन्धी प्रभाव पड़ते है । जब किसी देश में आय व शिक्षा का स्तर निम्न होता है, तब यह कुचक्र और तेजी के साथ बढ़ता है तथा प्रसार प्रभाव शक्तिशाली नहीं बन पाते ।

दूसरी तरफ विकसित देशों में यह अन्तर कम होते जाते है, क्योंकि जीवन-स्तर के उच्च होने पर प्रसार प्रभाव अधिक शक्तिशाली हो जाते है एवं प्रत्यावर्तन प्रभाव दुर्बल पड जाते हैं ।

(iii) औपनिवेशिक स्वार्थ:

सामान्यतः विकसित देशों का निर्मित माल सस्ता होता है और यह कम विकसित देशों की पुरानी दस्तकारी व परम्परागत उद्योग से निर्मित माल को प्रतिस्पर्द्धा में टिकने नहीं देता । कम विकसित देशों के निर्मित माल के लिए नए बाजार की व्यवस्था नहीं हो पाती ।

अन्तर्राष्ट्रीय असमानता को दूर करने के लिए पूंजी के प्रवाह पर भी निर्भर नहीं रहा जा सकता, क्योंकि कम विकसित देशों में पूंजी की कमी की मुख्य समस्या थी । सामाज्यवादी विस्तार की नीति के अधीन रेल, बन्दरगाह व अन्य सार्वजनिक सुविधाओं के निर्माण में पूंजी व्यय की गई पर इसका उद्देश्य अन्तर्संरचनात्मक ढाँचे का निर्माण नहीं बल्कि साधनों के अपने हित में प्रयोग हेतु सुदृढ आधार को तैयार करना था ।

पूंजी उन विशाल उद्योगों में लगाई गई जो निर्यात के लिए प्राथमिक वस्तुओं के उत्पादन में विशिष्टता रखते थे । इन उद्योगों ने अलग-अलग समूहों को बनाने की प्रवृत्ति दिखाई यह अपने चारों ओर की अर्थव्यवस्था से अलग और कटे हुए रहे । लेकिन इसका उस विकसित देश की अर्थव्यवस्था से घनिष्ठ सम्पर्क रहा जिससे पूंजी और प्रबन्धकीय सुविधा प्राप्त होती थी ।

औपनिवेशिक शासन के अधीन घरेलू अर्थव्यवस्था से आर्थिक सम्बन्ध सामान्यत अकुशल मजदूरों को रोजगार प्रदान करने तक ही सीमित रहा । उपनिवेश युग में आर्थिक उद्यमों में गतिशीलता का अभाव रहा क्योंकि जातीय अन्तरों, सांस्कृतिक अन्तराल तथा रहन-सहन के निज स्तरों ने अलगाव की प्रवृत्ति को और अधिक उभारा ।

अतः अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का कम विकसित देशों पर यह प्रभाव पडा कि वह निर्यात हेतु प्राथमिक एवं कच्चे माल पर ही निर्भर बने रह गए । वस्तु स्थिति तो यह है कि आज भी अधिकांश कम विकसित अर्थव्यवस्थाओं का यही रूप है ।

विदेशी व्यापारियों और सरकारों ने बाजार की शक्तियों की इस क्रियाशीलता का व्यापारिक लाभ उठाया एवं ऐसा तब तक करते रहे जब तक उनके हित पूरे होते रहे । यह भी उल्लेखनीय था कि बाजार की शक्तियों स्वतन्त्र प्रतियोगिता के अधीन कार्यरत नहीं थीं । इनमें एकाधिकार के अनेक तत्व निहित थे जो सदा उपनिवेशी देश के व्यापार के हित से संचालित होते थे ।

(iv) निर्भरता:

स्वाधीनता प्राप्त करने के उपरान्त कम विकसित देशों को यह अवसर प्राप्त हुए कि वह अपने विकास के हित की दृष्टि से बाजार की शक्तियों के संचालन में हस्तक्षेप करेंगे । कम विकसित देशों ने राष्ट्रीय नियोजन की नीति के द्वारा आर्थिक निर्भरता एवं निर्धनता से मुक्त होने के प्रयास किए है ।

दुर्भाग्य से कम विकसित देशों की अर्थव्यवस्था शेष संसार पर बहुत अधिक निर्भर है । विशेषतः यह विकसित देश की बाजार परिस्थितियों एवं नीतियों पर बहुत अधिक निर्भर है जो विश्वकायी वित्त व्यवस्था एवं वाणिज्य पर छाए हुए है ।

(v) निर्यातों का स्वरूप एवं दिशा:

कम विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं में निर्यात होने वाले सामान के स्वरूप एवं दिशा में पर्याप्त परिवर्तन नहीं हुआ है । निर्मित माल के निर्यात के क्षेत्र में प्रवेश करने के प्रयासों में अत्यधिक विकसित व उद्योगों में उन्नत देशों से प्रतिस्पर्द्धा की कठिनाई सामने आती है ।

औद्योगिक प्रतिष्ठानों ने बाजार पर नियन्त्रण किया है । इनके व्यापार के सुदृढ सम्पर्क सूत्र है । व्यापार एवं विविध औद्योगिक आधार एवं उत्पादन व वस्तु की गुणवता में सुधार के लिए अनुसन्धान एवं विकास के द्वारा वह आन्तरिक व बाह्य मितव्ययिताएँ प्राप्त करने में भी सफल बने है ।

इन्हें बाजारों में अपना माल बेचने की सुविधाएँ भी प्राप्त हैं एवं यह जानकारी भी कि इनके उपभोक्ताओं की क्या आवश्यकता एवं प्राथमिकताएँ हैं व इनमें किस प्रकार परिवर्तन हो सकता है ? ऐसी कम्पनियों से स्वदेशी बाजारों में कम विकसित देशों द्वारा प्रतिस्पर्द्धा करना कठिन होता है ।

कुशल प्रबन्धकों, तकनीकी कर्मचारियों तथा श्रमिकों की कमी, पूंजी व व्यापारिक क्षमता का अभाव, उच्च कोटि के मानक माल के उत्पादन की अनुभवहीनता कम विकसित देशों के उद्योगों में विशेष रूप से दिखाई देती है ।

सामान्यतः कम विकसित देशों के कुछ क्षेत्रों में सस्ता श्रम उत्पादन की लागत को कम करने में सहायक है, परन्तु श्रमिकों एवं प्रबन्धकों की कार्य कुशलता में कमी एवं विशिष्ट सहायक सुविधाओं का अभाव प्रति इकाई उत्पादन की दृष्टि से श्रम लागत में वृद्धि कर देता है ।

(vi) संरक्षण:

अधिकांश कम विकसित देशों ने आयात पर जो प्रतिबन्ध लगाया है वह विदेशी मुद्रा की कठिनाइयों के कारण बाध्य होकर लगाना पड़ा है । इससे उन उद्योगों को संरक्षण मिलता है जो आयात होने वाली वस्तुओं के स्थान पर देश ही के आन्तरिक बाजार के लिए वस्तु का उत्पादन कर रहे हैं । गुन्नार मिरडल के अनुसार यह संरक्षण अनियोजित हैं, क्योंकि सबसे कम आवश्यक वस्तुओं के उत्पादकों को सबसे अधिक संरक्षण प्रदान किया जाता है ।

(vii) पूंजी का प्रवाह:

कम विकसित देशों में प्राथमिक वस्तुओं की तुलना में निर्मित वस्तुओं का निर्यात बढ़ रहा है पर यह वृद्धि उतनी अधिक नहीं हुई है जितनी विकसित देशों के निर्यात में हुई है । अनेक कारणों से कम विकसित देशों के निर्यात में होने वाली वृद्धि का लाभ इन देशों की विकास सम्भावनाओं के लिए महत्त्वपूर्ण सिद्ध नहीं हुआ है ।

इसका कारण यह है कि कम विकसित देशों से निर्यात होने वाला अधिकांश निर्मित सामान वस्त्र, खाद्य पदार्थ लकड़ी व चमडे का सामान व ऐसी अन्य वस्तुएँ जिनके उत्पादन की विधियाँ प्राथमिक स्तर के उत्पादन से थोडी ही अधिक परिष्कृत हैं ।

इससे औद्योगिक विकास भी अधिक प्रोत्साहित नहीं हुआ है । कम विकसित देशों में आयात दो कारणों से बढ़ा है-पहला जनसंख्या में होने वाली तीन वृद्धि एवं दूसरा द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त होने वाले विकास के प्रयास ।

कम विकसित देशों में आयात की आवश्यकताओं एवं निर्यात से प्राप्त होने वाले लाभों के बीच का अन्तर तेजी से बढ़ा है । अतः भुगतान सन्तुलन में संरचनात्मक असमायोजन उत्पन्न हुआ है । भुगतान सन्तुलन में असमायोजन को दूर करने हेतु विकसित देशों एवं संस्थाओं से वित्तीय सहायता का प्रवाह आवश्यक समझा गया ।

विकसित देशों में भी वित्तीय सहायता एक प्रकार का पूंजी आगमन है । मिरडल के अनुसार शनै:शनै: सहायता की राशि में होने वाली वृद्धि कम हो गई है । इसके अतिरिक्त सहायता की अधिकाधिक मात्रा ऋणों के रूप में प्राप्त होती है ।

जिसके परिणास्वरूप भविष्य में ब्याज व ऋणों की वापसी के रूप में पूंजी का बर्हिप्रवाह होने लगता है । यह भी देखा गया है कि ब्याज की औसत अवधि एवं इस अवधि में छूट देने के समय में भी कमी हुई है ।

कम विकसित देशों में निजी कोषों के रूप में पूंजी का आगमन होता है । किन्तु यह अल्प अवधि के लिए प्रदान किए जाते है । इन पर ब्याज की अधिक दर भी ली जाती है । वस्तुतः कम विकसित देशों पर ऋणों का भार तेजी से बढा है ।

कम विकसित देशों में पूँजी का प्रवाह उनके विदेश व्यापार विशेषतः निर्यात से सम्बन्धित होता है । ऋणों का विस्फोट या ऋण के निरन्तर बढते भार से यह समस्या और अधिक जटिल हुई है कि कम विकसित देशों के व्यापार की स्थिति में किस प्रकार सुधार लाया जाये ?

कम विकसित देशों की व्यापार परिस्थितियों में जो प्रवृत्तियाँ दिखाई दी हैं । वह मुख्यतः बघार की शक्तियों की प्रकिया एवं प्रभाव का परिणाम है । इन शक्तियों को विभिन्न एकाधिकारी तत्त्वों से बल मिला है और यह हमेशा कम विकसित देशों के लिए लाभकारी नहीं रही है ।

मिरडल के अनुसार यह प्रवृत्तियों उन्हीं बातों को जारी रखती है जिनका प्रारम्भ औपनिवेशिक युग में हो गया था । औपनिवेशिक युग की भाँति विकसित देशों की वाणिज्यिक नीतियों में कम विकसित देशों के प्रति अनेक तरीकों से और अधिक भेदभाव बरता जा रहा है ।

उपनिवेशों की समाप्ति के पश्चात् विकसित देशों की वह नीतियाँ जो कम विकसित देशों के विकास के हितों के विपरीत है और अधिक कटु एवं उपेक्षापूर्ण बन गई है ।

सार संक्षेप : पूंजी प्रवाह एवं विकास:

विकास की प्रक्रिया में पूंजी प्रवाहों की महत्वपूर्ण भूमिका है । विदेशी पूंजी के प्रवाह केवल अस्थाई प्रकृति ही समाहित नहीं करते बल्कि यह अन्तर्सरकारी गतिविधियों में एक सुदृढ़ नीतिगत यन्त्र की भूमिका का निर्वाह भी करते हैं ।

(a) पूँजीगत प्रवाहों में ऋणदाता देशों के कार्यक्रम वास्तव में क्षेत्रीय कार्यकमों एवं व्यक्तिगत परियोजनाओं की शृंखलाओं से सम्बन्धित रहे जिनका उद्देश्य विविध अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन लक्ष्यों की प्राप्ति था ।

विकासशील देश एक ओर तो विकास उद्देश्यों के लिए दीर्घकालीन पूंजी के काफी अन्तर्प्रवाहों की आवश्यकता रखते थे, वहीं दूसरी ओर विकसित देश अधिक विशिष्ट अल्पकालीन उद्देश्यों को प्राप्त करने से सम्बन्धित थे ।

(b) विभिन्न उद्देश्यों एवं स्वार्थों से अभिप्रेरित होकर विकसित देशों ने विकासशील देशों को द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त सामाजिक एवं आर्थिक विकास हेतु काफी साधन ध्यान किए ।

मुख्यतः यह साधन दो उद्देश्यों की पूर्ति करते थे- पहला तो यह कि वह विकास हेतु उपलब्ध कोषों की कुल मात्रा में वृद्धि करना चाहते थे । विकासशील देशों के सन्दर्भ में पूंजी की पूर्ति अत्यन्त सीमित रही । यदि अतिरिक्त बाह्य पूंजी साधनों की प्राप्ति सम्भव बनती तो विकास की प्रक्रिया अधिक तीव्र गति से बढती । दूसरा, यह कि बाह्य साधन अतिरिक्त घरेलू बचतों को सृजित करने के लिए उत्प्रेरक का कार्य करते जिससे आर्थिक वृद्धि की दर में वृद्धि होती ।

जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था का विकास होता, विदेशी दायित्वों के भुगतान हेतु अतिरिक्त विदेशी दायित्वों की पूर्ति की जानी आवश्यक होती । विदेशी पूँजी पर निर्भरता केवल उस दशा में सीमित होती जब देश आत्मप्रेरित वृद्धि की दशा में पहुंच जाता ।

(c) सहायता के संस्थानीकरण ने अधिक आशामप्रद विकास स्थितियाँ उत्पन्न नहीं की हैं । कुछ देशों में सहायता प्रवाह में वृद्धि दर तीव्र हुई तो दूसरी तरफ ऐसे देश भी है जो अधिक सहायता प्राप्त कर पाने में असमर्थ बने रहे ।

विकास की प्रक्रिया में विदेशी पूंजी प्रवाहों के योगदान के सन्दर्भ में यह प्रश्न मुख्य बन जाता है कि क्या पूंजी प्रवाह घरेलू बचतों को गतिशील करने में सहायक है ? कुछ अर्थशास्त्रियों के अनुसार विदेशी पूंजी न तो विकास हेतु उपलब्ध कुल साधनों की पूरक है और न ही विकास उद्देश्यों हेतु अतिरिक्त घरेलू बचतों में वृद्धि करती है ।

यह कहा जाता है कि इससे घरेलू बचतों का योगदान सीमित हो जाता है एवं उसे विदेश में विनियोजित करने का प्रयास किया जाता है या विनियोग को अनुत्पादक क्षेत्रों में प्रवाहित किया जाता है ।

इससे विकास की प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । यह तर्क भी दिया जाता है कि विदेशी सहायता उपभोग के चालू स्तरों में वृद्धि करती है । विदेशी पूंजी के प्रवाह से वर्ग संघर्ष एवं आय वितरण की विषमता बढ़ती है ।

(d) विकास की प्रक्रिया में विदेशी पूंजी का योगदान लंबे समय से विवादास्पद रहा है । सामान्यतः विदेशी पूँजी विकासशील देशों के लिए काफी समस्याएँ उत्पन्न करती है जिससे विकास प्रयासों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । विदेशी ऋण काफी उच्च ब्याज दरों पर प्राप्त होते हैं । इनका प्रभाव दीर्घकालीन सामाजिक एवं आर्थिक अन्तर्संरचना के निर्माण व पूँजीगत परियोजना पर पडता है । ऐसी दशा में ऋण प्राप्तकर्त्ता देशों के सामने कटु आर्थिक व वित्तीय समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं ।

(e) विश्व के धनी एवं निर्धन देशों के मध्य अन्तर निरपेक्ष रूप से बढ़ रहा है । विकसित देशों द्वारा कम विकसित देशों को प्रदान की जा रही सहायता के वायदे पूरी तरह निबाहे नहीं जा रहे है । विदेशी ऋण की समस्या बढ़ रही है ।

विकासशील देश वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक प्रणाली से सन्तुष्ट नहीं हैं । अत: उन्होंने एक नवीन अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को स्थापित करने की माँग की है जिसके अर्न्तगत समृद्ध देशों से निर्धन देशों की ओर विश्व सम्पत्ति का पुर्नवितरण सम्भव बने ।

(f) नवीन प्रवृत्तियां – एलविन टाफलर के अनुसार जैसे-जैसे विश्व अर्थव्यवस्था का विकास हुआ व्यापार व पूंजी के संकेन्द्रण की दृष्टि से वित्तीय बाजार स्थानों में ध्रुवीकरण की प्रवृत्तियाँ समय-समय पर बदलती रही हैं । द्वितीय विश्वयुद्ध से पूर्व मौद्रिक शक्ति जहाँ यूरोप में केन्द्रित थीं, युद्ध के उपरान्त वही उत्तरी अमेरिका तथा विशेष रूप से मनहटन द्वीप पर संकेन्द्रित हुई ।

तदुपरान्त तीन दशकों तक व्यापार एवं पूँजी के प्रवाहों पर अमेरिका का वर्चस्व बना रहा । 1970 के दशक के मध्य से ओपेक कार्टेल समूह ने यूरोप, उत्तरी अमेरिका व शेष विश्व से पूंजी का अवशोषण किया तथा मध्य पूर्व के देशों में पूंजी का अर्न्तप्रवाह बढता गया । डालर के मूल्य में होने वाली कमी से इसके व्यापार की प्रवृत्ति बदली व पूँजी का प्रवाह टोक्यो (जापान) की ओर अधिक होने लगा ।

पूंजी के प्रवाहों में होने वाले परिवर्तनों से विश्व एवं क्षेत्रीय स्तरों पर शक्ति का तत्सम्बन्धी पुर्नवितरण हुआ । पेट्रो डालर के मध्य पूर्व में बढते प्रवाह से अरब देशों ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अपनी बढती हुई शक्ति का प्रदर्शन किया । 1980 के दशक के आरम्भ में ओपेक समूह की एकता भंग हुई । तेल की कीमतें गिरीं तो ध्रुवीकरण की प्रवृतियाँ भी बदलीं ।

विश्व के पूंजी बाजार में अकबर 1987 व अक्तूबर 1989 में होने वाली घटनाओं ने यह सकेत दिया कि पुरानी प्रणाली अब नियन्त्रण से बाहर होती जा रही है । सापेक्षिक रूप से बन्द राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं में वित्तीय स्थायित्व को बनाए रखने वाले समायोजन के तरीके अप्रासंगिक सिद्ध होने लगे ।

विश्व उत्पादन एवं व्यापार हेतु यह आवश्यक समझा जाने लगा कि पूंजी आसानी से राष्ट्रीय सीमाओं से बाहर जा सके । इसके लिए आवश्यक था कि उन पुराने वित्तीय प्रबन्धों व बाधाओं को हटाया जाये जिससे अर्थव्यवस्थाओं को संरक्षित किया जाता था । इन प्रयासों से अधिक-से-अधिक पूंजी की उपलब्धता विद्यमान होने के सकेत भी दिखाई देने लगे ।

विकास एवं व्यापार की उदार प्रणाली से जहाँ वित्तीय प्रणाली अधिक लोचशील बनी यह खतरा भी उत्पन्न हुआ कि इस अर्न्तनिर्भर प्रणाली में यदि एक देश किसी भयावह संकट में फँस जाए तो इसके खतरे दूसरे देश की ओर भी प्रसारित होने लगेंगे ।

यह बात 1998 में दक्षिण एशिया में छायी व्यापार मन्दी की दशाओं से सिद्ध होती है । साथ ही औद्योगिक युग की एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्था केन्द्रीय बैंक की शक्ति को भी खतरा पहुँचेगा । 2007 से आरंभ यू॰ एस॰ ए॰ की मंदी का प्रभाव विकासशील देशों पर पड़ा है ।

फ्यूचर शौक थर्ड वेव पुस्तकों के रचयिता एलविन टाफलर अपनी पुस्तक Power Shift में तर्क देते है कि विश्व स्तर पर शक्ति के सन्तुलन में तेजी से बदलाव के सकेत दिख रहे है । इसने व्यापार, वाणिज्य, व्यवसाय, सुपर बाजार, बैंकिंग गतिविधियों इत्यादि को प्रभावित किया है ।

शक्ति के सन्तुलन के परिवर्तन से वित्त, राजनीति व संचार माध्यमों पर भी तीव्र व आकस्मिक प्रभाव पडा है । टाफलर के अनुसार वर्तमान की इन नवीन प्रवृत्तियों के आधार पर विश्व स्तर पर सम्पत्ति सृजन की जो नई प्रणाली विकसित होगी वह व्यक्तिवाद, नवप्रवर्तन एवं सूचनाओं पर आधारित होगी ।