बिग पुश थ्योरी: अर्थ और प्रक्रिया | Read this article in Hindi to learn about:- 1. बड़े धक्के के सिद्धान्त का प्रस्तावना (Introduction to Theory of Big Push) 2. बड़े धक्के के सिद्धान्त का आशय (Meaning of Big Push Theory) 3. वाह्य मितव्ययिताएँ (External Economies) and Other Details.

Contents:

  1. बड़े धक्के के सिद्धान्त का प्रस्तावना (Introduction to Big Push Theory)
  2. बड़े धक्के के सिद्धान्त का आशय (Meaning of Big Push Theory)
  3. बड़े धक्के के सिद्धान्त का वाह्य मितव्ययिताएँ (External Economies of Big Push Theory)
  4. बड़े धक्के के सिद्धान्त की आवश्यकताएँ (Requirements of Big Push Theory)
  5. बड़े धक्के के सिद्धान्त द्वारा विकास की प्रक्रिया (Process of Development by Using Big Push Theory)
  6. बड़े धक्के के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विश्लेषण (Critical Evaluation of Big Push Theory)

1. बड़े धक्के के सिद्धान्त का प्रस्तावना (Introduction to Big Push Theory):

बड़े धक्के के सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रो.पी.एन. रोजेन्सटीन रोडान द्वारा अर्द्धविकसित देशों की समस्याओं के सन्दर्भ में किया गया । रोडान के अनुसार विकास की प्रक्रिया नियमित सतत् एवं बाधारहित नहीं होती बल्कि असतत् छलांगों की शृंखलाओं से सम्बन्धित होती है । आर्थिक वृद्धि के कारक जो एक दूसरे से फलनात्मक रूप से सम्बन्धित होते है, असतताओं एवं मार-चढ़ाव का प्रदर्शन करते हैं ।

ADVERTISEMENTS:

इन स्थितियों में यदि ऐसी विकास नीतियों को लागू किया जाए जो क्रमिक एवं धीमी वृद्धि हेतु उपयुक्त हैं तो उनसे अर्द्धविकसित देशों की समस्याएँ सुलझ नहीं पाएँगी । आवश्यकता इस बात की है कि इन देशों के विकास को ‘व्यापक परिवर्तनों’ से सम्बन्धित किया जाए ।


2. बड़े धक्के के सिद्धान्त का आशय (Meaning of Big Push Theory):

रोजेन्सटीन रोडान के अनुसार अर्द्धविकसित देश दीर्घकालीन स्थिरता में फँसे रहते है जिसे दूर करने के लिए बड़े धक्के की आवश्यकता होती है । यदि विकास के लिए अल्प प्रयत्न एवं प्रयास किए जाएँ तो सफलता प्राप्त नहीं होगी । बड़े धक्के से अभिप्राय है बड़े पैमाने पर किया गया विनियोग ।

अत: अर्द्धविकसित देशों के विकास की बाधाओं को दूर करने के लिए उच्च स्तर के विनियोग कार्यक्रमों का लागू किया जाना आवश्यक है । विकास कार्यक्रमों को सफल बनाने के लिए साधनों की एक न्यूनतम मात्रा आवश्यक है जो उसमें लगायी जानी चाहिए । छोटे-छोटे प्रयास आपस में जुड़ते नहीं और एक अकेले कुल प्रयास के रूप में प्रभाव नहीं छोड़ते, अत: विकास की एक न्यूनतम मात्रा आवश्यक है पर यह भी सफलता की समर्थ दशा नहीं है ।

देश में आत्मप्रेरित विकास प्राप्त करना हवाई जहाज को जमीन से ऊपर ले जाने जैसा ही है । हवाई जहाज की जमीन पर एक न्यूनतम गति होती है जिसे प्राप्त करना आवश्यक है और इसके उपरान्त ही हवाई जहाज उड़ता है ।

ADVERTISEMENTS:

बड़े धक्के अथवा प्रबल प्रयास सिद्धान्त का समर्थन करते हुए प्रो. मेयर एवं बाल्डविन का कथन है कि एक विकास कार्यक्रम कम-से-कम एक न्यूनतम व निश्चित आकार का होना चाहिए ताकि व्यवस्था में अविभाज्यता व अनिरन्तरता को हटाया जा सके ।

एक बार विकास आरम्भ हो जाने पर पैमाने की अनियमितताओं को दूर करने, मूल्यों को प्रभावित करने एवं धीमे विकास से उत्पन्न अन्य शक्तियों को दूर करने के लिए आवश्यक हो जाता है कि बड़े धक्के के सिद्धान्त पर आश्रित रहा जाए ।

प्रो. गुन्नार मिरडल के अनुसार निर्धनता एवं पिछड़ापन एक देश के लिए बड़ी योजना के निमित पर्याप्त साधनों को गतिशील करने में कठिनाई उत्पन्न करते है परन्तु यह ही कारण विश्राम को आरम्भ करने के लिए एक बड़ी योजना को आवश्यक भी बनाते हैं, क्योंकि बाजार शक्तियाँ इस कार्य को पूर्ण नहीं कर सकती । प्रबल प्रयास सिद्धान्त का यही सार है ।

जब तक अर्थव्यवस्था आवश्यक प्रारम्भिक गति प्राप्त नहीं कर लेती तब तक वह स्वयं उत्पन्न होने वाली एवं संचयी वृद्धि को प्राप्त नहीं करती । यदि धीमी गति पर ही आधारित रहा जाए तो अर्थव्यवस्था के सामने उत्पन्न होने वाली बाधाओं को दूर किया जाना सम्भव नहीं ।

ADVERTISEMENTS:

अर्थव्यवस्था में अनुभव की जा रही विविध असतताओं एवं अविभाव्यताओं को दूर करने एवं पैमाने की अमितव्ययिताओं के निवारण हेतु एक निश्चित न्यूनतम आकार का विनियोग आवश्यक है । स्पष्ट है कि विकास की बाधाओं को दूर करने के लिए बड़ा धक्का आवश्यक है । यदि एक निश्चित न्यूनतम मात्रा से कम प्रयत्न किए गए तो इनसे अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकती ।


3. बड़े धक्के के सिद्धान्त का वाह्य मितव्ययिताएँ (External Economies of Big Push Theory):

बड़े धक्के का सिद्धान्त मुख्यत: बाह्य मितव्ययिताओं के विचार पर आधारित है । रोडान के अनुसार बाह्य मितव्ययिताओं या लाभ के महत्व में दिखायी देने वाले अन्तर ही एक स्थैतिक सिद्धान्त अथवा वृद्धि के सिद्धान्त के मध्य अन्तर के मुख्य बिन्दु हैं । एक स्थैतिक आवण्टन सिद्धान्त में बाह्य लाभ या मितव्ययिता को कोई महत्व नहीं दिया जाता ।

वृद्धि के सिद्धान्त में बाह्य-मितव्ययिता महत्वपूर्ण है, क्योंकि विनियोग बाजार की अपूर्णता, अपूर्ण ज्ञान एवं जोखिम, आर्थिक एवं तकनीकी बाह्य मितव्ययिताएँ सन्तुलन की ओर जाने वाले मार्ग पर बाधा युक्त प्रभावों का सृजन करती है ।

बड़े धक्के का सिद्धान्त स्पष्ट करता है कि जब तक विश्राम के मार्ग में आने वाली आरम्भिक कठिनाइयों को दूर नहीं किया जाता तब तक आपसी रूप से लाभ देने वाले उत्पादन विस्तार के लाभ प्राप्त नहीं होते । देश में विभिन्न प्रकार की अविभाव्यताएँ विद्यमान होती है जो विकास की प्रक्रिया में बाह्य मितव्ययिताओं का प्रसारण नहीं होने देतीं ।

बाह्य मितव्ययिताओं के प्रवाह के द्वारा अविभाव्यताओं के प्रत्येक समूह को दूर करते हुए यदि एक क्रमिक एवं अल्प विनियोग पर आधारित नीति का पालन किया जाए तो आर्थिक विकास की बाधाएँ दूर नहीं होंगी । आवश्यकता इस बात की है कि इन बाधाओं को दूर करने के लिए छलांग लगायी जाए । एक न्यूनतम आकार के विनियोग के रूप में बड़ा धक्का अर्थव्यवस्था को स्वयं उत्पन्न होने वाली वृद्धि के मार्ग में ले जाता है ।

अविभाज्यताएँ एवं वाह्य मितव्ययिताएँ:

रोडान के बड़े धक्के के सिद्धान्त में बाह्य मितव्ययिताओं की महत्वपूर्ण भूमिका है । बाह्य मितव्ययिताओं को ऐसी मौद्रिक या आर्थिक मितव्ययिताओं के रूप में अभिव्यक्त किया गया है जो कीमत प्रणाली के द्वारा प्रसारित होते हैं । यह एक दिए हुए उद्योग A में उत्पन्न होती है तथा A के उत्पाद की कम कीमत के रूप में दूसरे उद्योग B की ओर प्रवाहित होती है जो इनका एक आदा या उत्पादन के साधन के रूप में प्रयोग करता है ।

इससे B उद्योग के लाभ में वृद्धि होती है, क्योंकि A उद्योग द्वारा प्राप्त साधन की कीमत कम है । इससे B उद्योग, A उद्योग के साधन की अधिक माँग करता है जिससे छ उद्योग का उत्पादन एवं लाभ भी अधिक बढ़ जाता है ।

एक बाजार अर्थव्यवस्था में पूर्ण प्रतियोगिता की दशाओं के अन्तर्गत कीमतें ऐसा सकेत उपाय है जो अन्य व्यक्तियों के आर्थिक निर्णयों के बारे में प्रत्येक व्यक्ति को सूचित करती है । चूँकि अर्द्धविकसित देशों में पूर्ण प्रतियोगिता की दशाएँ नहीं पायी जातीं तथा इन देशों की अर्थव्यवस्थाएँ विकेन्द्रित तथा विविधीकृत होती है इसलिए कीमतें संकेतक-उपाय का कार्य नहीं कर पातीं । इस कारण अर्द्धविकसित देशों में केन्द्रीय विनियोग नियोजन की आवश्यकता होती है जिसके द्वारा विभिन्न उद्योगों में निरन्तर विनियोग किया जाना सम्भव बने ।

सबसे महत्वपूर्ण बाह्य मितव्ययिता विभिन्न उद्योगों की पूरकता से सम्बन्धित है जो बाजार के आकार के विस्तार को बढ़ावा देती है । विभिन्न उद्योगों में कार्यरत व्यक्ति एक-दूसरे के उत्पादों के खरीदार होते है जिससे पैमाने का विस्तार होता है । प्रबल प्रयास के द्वारा किए गए औद्योगीकरण कार्यक्रम के द्वारा कुशल एवं प्रशिक्षित श्रमिकों की पूर्ति में वृद्धि होती है जो बाह्य मितव्ययिता का दूसरा रूप है ।

दीर्घकालीन विश्राम की दृष्टि से बाह्य मितव्ययिता का यह रूप महत्वपूर्ण है, क्योंकि कुशल एवं प्रशिक्षित श्रम की अनुपलब्धता औद्योगीकरण कार्यक्रमों के मार्ग में बाधा का रूप ले लेती है । यदि किसी देश में एक दो उद्योग लगाए तो सामान्यत: बाह्य मितव्ययिताएँ उत्पन्न नहीं होंगी, क्योंकि श्रमिकों के प्रशिक्षण एवं कुशलता निर्माण की सम्भावनाएँ व अवसर सीमित होंगे ।

राज्य की भूमिका (Role of the State):

प्रबल प्रयास विश्लेषण में औद्योगीकरण के व्यापक कार्यक्रम एवं भारी विनियोग के स्वरूप को देखते हुए राज्य की भूमिका महत्वपूर्ण बन जाती है । अन्तर्संरचना के निर्माण में निजी क्षेत्र की अभिरुचि सीमित है एवं वह प्रत्यक्ष रूप से उत्पादक क्रियाओं में विनियोग करने के अधिक उत्सुक होते हैं । प्रबल प्रयास सिद्धान्त में सामाजिक उपरिमद पूँजी को विशेष महत्व दिया गया है तथा विद्युत, यातायात संवादवहन एवं अन्य आधारभूत उद्योगों में किए जाने वाले विनियोगों की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है ।

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की भूमिका (Role of International Trade):

विकास की प्रक्रिया को स्वयं सृजित करने में बड़े धक्के की व्यूह नीति के साथ रोजेन्सटीन रोडान ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की सीमित भूमिका का उल्लेख किया । उनके अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार बड़े धक्के का प्रतिस्थापक नहीं हो सकता । यह सम्भव है कि कुछ आवश्यक मजदूरी वस्तुओं को आयातों के रूप में प्राप्त कर लिया जाए ।


4. बड़े धक्के के सिद्धान्त की आवश्यकताएँ (Requirements of Big Push Theory):

प्रो. रोजेन्सटीन रोडान के अनुसार अर्द्धविकसित देशों में बड़े धक्के की आवश्यकता मुख्यत: निम्न तीन अविभाज्यताओं के कारण होती है:

(i) उत्पादन फलन की अविभाज्यता

(ii) माँग की अविभाज्यता अथवा पूरकता

(iii) बचतों की पूर्ति की अविभाज्यता

(iv) मनोवैज्ञानिक अविभाज्यताएँ

इनके अतिरिक्त रोडान ने मनोवैज्ञानिक अविभाज्यताओं का भी वर्णन किया ।

(i) उत्पादन फलन की अविभाज्यता:

रोजेन्सटीन रोडान के अनुसार आदाओं, प्रक्रियाओं एवं उत्पादन की अविभाव्यताओं से बढ़ते हुए प्रतिफल की प्राप्ति होती है । उत्पादन अथवा पूर्ति के पक्ष में अविभाज्यताओं एवं पूर्ति पक्ष की सबसे महत्वपूर्ण दशा सामाजिक उपरिमद पूँज है ।

अविभाज्यता का मुख्य कारण सामाजिक उपरिमद पूँजी है । सामाजिक उपरिमद पूँजी से सम्बन्धित सेवाएँ, जैसे- यातायात, शक्ति, संवाद वहन एवं अन्य सार्वजनिक उपयोगिताएं सभी आधारभूत उद्योगों हेतु आवश्यक होती है । यह अप्रत्यक्ष रूप से अधिक उत्पादक होती है तथा दीर्घ समय अवधि तक इसके प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष लाभ प्राप्त होते है । इनका आयात किया जाना सम्भव नहीं है ।

किसी भी देश में अन्तर्संरचना के निर्माण हेतु भारी पूँजीगत विनियोगों की आवश्यकता होती है । अन्य उद्योगों की तुलना में सामाजिक उपारमद पूँजी का पूँजी उत्पादन अनुपात भी अधिक होता है । सामाजिक उपरिमद पूँजी हेतु किए गए विनियोग के लाभ एक दीर्घ समय अवधि अन्तराल उपरान्त प्राप्त होते है ।

अर्द्धविकसित अर्थव्यवस्थाओं में सामाजिक उपरिमद पूँजी का प्रबन्ध किया जाना आर्थिक विकास हेतु आवश्यक है । रोडान के अनुसार कुल विनियोग का कम-से-कम 30 से 40 प्रतिशत भाग सामाजिक उपरिमद पूँजी की ओर प्रवाहित किया जाना चाहिए ।

सामाजिक उपरिमद पूँजी का सृजन करते हुए चार प्रकार की अविभाव्यताएँ सामने आती है:

(a) समय की अविभाज्यता:

सामाजिक उपरिमद पूँजी का सृजन करते हुए अन्य प्रत्यक्ष रूप से उत्पादक उद्योगों को आगे बढ़ाने में सहायक बनता है ।

(b) टिकाऊपन की अविभाज्यता:

अन्तर्संरचना की प्रवृति सुदृढ़ अथवा टिकाऊ होती है । कम सुदृढ़ होने की स्थिति में उपरिमद पूँजी या तो तकनीकी रूप से दृश्य नहीं होती या इसकी क्षमता काफी अल्प होती है ।

(c) दीर्घ समय अवधि अन्तराल की अविभाज्यता:

सामाजिक उपरिमद पूँजी पर किए गए विनियोग अन्य प्रत्यक्ष रूप से उत्पादक क्रियाओं की अपेक्षा अधिक समय अवधि में प्रतिफल प्रदान करते हैं । अर्द्धविकसित देशों के विकास में सामाजिक उपरिमद पूँजी की पूर्ति की उपर्युक्त अविभाव्यताएँ मुख्य बाधाएँ हैं । अत: सामाजिक उपरिमद पूँजी में एक उच्च प्रारम्भिक विनियोग इस कारण महत्वपूर्ण है कि शीब्र फल प्रदान करने वाले प्रत्यक्ष उत्पादक विनियोगों का मार्ग प्रशस्त किया जा सके ।

संक्षेप में, सामाजिक उपरिव्यय पूँजी के साथ अविभाज्यताओं के प्रसंग में यह ध्यान रखना पड़ता है कि:

(I) इस व्यय का ऐतिहासिक क्रम परिवर्तित किया जाना सम्भव नहीं अर्थात् यह व्यय आरम्भिक स्तर पर ही किया जाना है ।

(II) इन व्ययों की मात्रा अधिक होती है यदि अन्तर्संरचना के निर्माण हेतु भारी विनियोग नहीं किए जाते तो इनसे प्राप्त होने वाले तकनीकी एवं अन्य लाभ प्राप्त होने सम्भव नहीं ।

(III) इन विनियोगों के द्वारा प्रतिफल लम्बे समय के उपरान्त प्राप्त होते है ।

(IV) सामाजिक एवं आर्थिक उपरिव्यय पर न्यूनतम मात्रा में व्यय आवश्यक है ।

(ii) माँग की अविभाज्यता अथवा पूरकता:

माँग की अविभाव्यताओं का उल्लेख करते हुए रोजेन्सटीन रोडान ने स्पष्ट किया कि अर्द्धविकसित देशों में बाजार का आकार लघु होता है जिसका कारण प्रति व्यक्ति आय का निम्न होना एवं सामान्य व्यक्तियों की क्रय शक्ति क्षमता का अल्प होना है ।

इन देशों में माँग की अविभाव्यताओं या पूरकता के कारण एक साथ अनेक पारस्परिक उद्योगों में विनियोगों की आवश्यकता होती है । यदि आधुनिक तकनीक का प्रयोग कर कोई व्यक्तिगत फैक्ट्री खोली भी जाए तो वह बाजार के आकार के लघु होने के कारण जोखिम वहन करेगी अर्थात् व्यक्तिगत या एकाकी विनियोजनों के सन्दर्भ में जोखिम का अंश इस कारण अधिक बढ़ जाता है कि सीमित माँग के कारण उनके द्वारा किए गए उत्पादन की गारण्टी नहीं होती ।

इस समस्या की समाधान हेतु पारस्परिक निर्भरता वाले अनेक-उद्योगों में विनियोग किया जाना आवश्यक है । इससे रोजगार के स्तर में वृद्धि होगी, व्यक्तियों की क्रय शक्ति के बढ़ने से वस्तुओं की मांग बढ़ेगी तथा विनियोग के परिणामस्वरूप बढ़े हुए उत्पादन के साथ उसकी पूर्ति भी बढ़ेगी ।

रोडान के अनुसार जब तक यह निश्चित न हो कि विनियोग पूरक होगा तब तक एकल या एकाकी विनियोग कार्यक्रम जोखिमपूर्ण ही माने जाएँगे परन्तु एक वृहत विनियोग कार्यक्रम जो एक साथ किया जाए, राष्ट्रीय आय में वृद्धि हेतु आवश्यक होता है ।

इस परिप्रेक्ष्य में रोजेन्सटीन रोडान ने एक जूता फैक्ट्री का उदाहरण लिया । उन्होंने एक बन्द अर्थव्यवस्था की परिकल्पना की जहाँ एक जूतों की फैक्ट्री स्थापित की जाती है । इस फैक्ट्री में 100 श्रमिकों को रोजगार प्रदान किया जाता है । यह श्रमिक काम मिलने से पूर्व छद्‌मबेरोजगारी का अनुभव कर रहे थे । अब काम मिलने पर उन्हें प्राप्त होने वाली मजदूरी एक अतिरिक्त आय के रूप में सामने आएगी ।

यदि नया रोजगार पाए श्रमिक अपनी अतिरिक्त आय को उत्पादित होने वाले जूतों पर व्यय करें तो जूता फैक्ट्री को अच्छा बाजार मिलेगा तथा वह चल निकलेगी लेकिन यह स्थिति असम्भव है कि सभी श्रमिक अपनी समस्त आय को जूता खरीदने में लगाएँ । यदि श्रमिक अपनी आय के एक अल्प अंश को जूता खरीद पर व्यय करें तो प्रश्न यह है कि शेष उत्पादन की बिक्री कहाँ होगी ? शेष उत्पादन की बिक्री हेतु बाजार न मिल पाने से विनियोग की प्रेरणा सीमित होगी अथवा जूता फैक्ट्री उत्पादन बढ़ाने में सफल नहीं होगी ।

अब यदि केवल एक फैक्टी में विनियोग करने की अपेक्षा देश एक हजार फैक्ट्रियों एवं फर्मों में दस हजार श्रमिकों को रोजगार सुविधा प्रदान करें तब विविध प्रकार की उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन भी सम्भव होगा तथा श्रमिक प्राप्त आय को उनके उपभोग पर व्यय करेंगे । ऐसी स्थिति में नए उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुएँ एक-दूसरे के द्वारा क्रय की जाएँगी तथा नई वस्तुओं के लिए सीमित मांग अथवा सीमित बाजार की समस्या उत्पन्न नहीं होगी ।

उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि अनेक उद्योगों में एक साथ विनियोग करने से माँग की अविभाज्यता व परिपूरकता के कारण वस्तु की बिक्री न हो पाने की समस्या उत्पन्न नहीं होगी । इसके साथ ही विनियोग जोखिमपूर्ण भी नहीं रहेगा । संक्षेप में, एक अर्द्धविकसित देश में आर्थिक विकास की गति को बढ़ाने के लिए कई उद्योगों में विनियोग किया जाना आवश्यक हो जाता है । बाजार के आकार में वृद्धि हेतु अर्न्तनिर्भर उद्योगों में विनियोग की उच्च न्यूनतम मात्रा के विनियोग की आवश्यकता होती है ।

चित्र 1 में प्लांट की लागतों को ATC एवं MC रेखाओं के द्वारा प्रदर्शित किया गया है तो प्लांट के अनुकूलतम आकार से थोड़ी कम है । जूता फैक्ट्री के औसत आगम एवं सीमान्त लागत रेखाओं को AR1 व MR1 द्वारा प्रदर्शित किया गया है, जबकि विनियोग केवल इसी फैक्ट्री में किया गया है ।

 

विनियोग के परिणामस्वरूप फैक्ट्री 10,000 जूतों का उत्पादन करती है जिसे OQ मात्रा द्वारा दिखाया गया है । उत्पादित इकाइयों को OP कीमत पर बेचा जाता है । चित्र से स्पष्ट है कि यह कीमत औसत कुल लागत ATC से अल्प है, ऐसी स्थिति में फैक्ट्री को PRST हानि होती है ।

अब यदि विभिन्न उद्योगों में एक साथ विनियोग किया जाए तब बाजार का विस्तार होगा । माना जूतों की माँग बढ़कर AR हो जाती है व मात्रा OQ1 होती है । चित्र से स्पष्ट है कि अब जूता फैक्ट्री P1R’S’T1 के बराबर लाभ प्राप्त करती है । ठीक इसी प्रकार अन्य उद्योग भी लाभ प्राप्त करेंगे ।

(iii) बचतों की पूर्ति की अविभाज्यता:

रोडान के अनुसार कई उद्योगों में एक साथ भारी विनियोग करने के लिए आवश्यक है कि बचतों का स्तर काफी अधिक है । अर्द्धविकसित देशों में यह इस कारण सम्भव नहीं, क्योंकि आय का स्तर न्यून होता है । बचत एवं विनियोग के उच्च स्तर हेतु आपका उच्च स्तर एक आवश्यक पूर्व शर्त है ।

यह भी आवश्यक है कि विनियोग करने के उपरान्त अब आय में वृद्धि हो तब बचत की सीमान्त दर को बचत की औसत दर से ऊँचा रखा जाए । रोडान के अनुसार न्यूनतम विनियोग की उच्च मात्रा हेतु बचत की मात्रा भी अधिक होनी चाहिए । इसे निम्न आय स्तर वाले अल्प विकसित देशों में प्राप्त करना कठिन होता है । इस दुश्चक्र से निकलने के लिए आवश्यक है कि सर्वप्रथम आय में वृद्धि हो तथा दूसरा, बचत की सीमान्त दर बचत की औसत दर से अधिक रहे ।

प्रो. रोडान के विश्लेषण में बचत की उच्च आय लोच तीसरी अविभाज्यता के रूप में वर्णित है । बचतों की अविभाज्यता को देखते हुए रोडान ने अविकसित देशों में विदेशी सहायता को उचित माना क्योंकि इसके द्वारा बचतों की कमी को किसी सीमा तक दूर किया जा सकता है तथा विदेशी सहायता का विनियोग कर आय में वृद्धि सम्भव होती है जिससे बचत बढ़ेगी ।

(iv) मनोवैज्ञानिक अविभाज्यताएँ:

प्रो. रोजेन्सटीन रोडान ने मनोवैज्ञानिक अविभाज्यताओं की ओर भी ध्यान आकर्षित किया । उन्होंने स्पष्ट किया कि छोटे एवं पृथक् प्रयास वृद्धि पर समर्थ प्रभाव नहीं डाल पाते । विकास हेतु अनुकूल वातावरण उतना ही आवश्यक है जितना विनियोग की न्यूनतम गति अथवा आकार का होना ।

 


5. बड़े धक्के के सिद्धान्त द्वारा विकास की प्रक्रिया (Process of Development Using Big Push Theory):

बड़े धक्के अथवा प्रबल प्रयास के आरम्भिक प्रयोग द्वारा जब विकास की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है तब इसके अगले क्रय सन्तुलित वृद्धि सम्बन्धों के निम्न तीन समुच्चयों से प्रभावित होते हैं:

(i) सामाजिक उपरिमद पूँजी एवं प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं के मध्य सन्तुलन

(ii) पूँजी वस्तु उद्योगों (जिनमें मध्यवर्ती वस्तुएँ भी सम्मिलित हैं) एवं उपभोक्ता वस्तु उद्योगों के मध्य क्षैतिज सन्तुलन इस सन्तुलन की आवश्यकता तकनीकी पूरकताओं के कारण उत्पन्न होती है जो उद्योगों के मध्य उत्पादन की समान अवस्थाओं में विद्यमान नहीं होता परन्तु यह उत्पादन की विभिन्न अवस्थाओं में कार्य कर रहे उद्योगों के समूहों के मध्य बाह्य मितव्ययिताएँ प्राप्त करने का महत्वपूर्ण स्रोत है ।

(iii) उपभोक्ता माँग की पूरकताओं के कारण विभिन्न उपभोक्ता वस्तुओं के मध्य एक उर्ध्व सन्तुलन ।

सेडान के प्रबल प्रयास सिद्धान्त में विश्लेषित रणनीति के दो महत्वपूर्ण पक्ष हैं:

पहला- बाह्य मितव्ययिताओं का तर्क, एवं

दूसरा- विस्तृत प्रायोजना जिसके लिए नियोजन की सबल केन्द्रीय इकाई का गठन किया जाना आवश्यक है ।

मीड ने केन्द्रीय नियोजन, विनियोग कार्यक्रमों में राज्य के दिशा-निर्देश एवं हस्तक्षेप की सुदृढ़ नीतियों को प्रबल प्रयास की रणनीति या बड़े धक्के हेतु आवश्यक माना । मीड परम्परागत स्थैतिक आबण्टन सिद्धान्त के स्थान पर अविभाज्यताओं की अधिक वास्तविक मान्यता पर आधारित है । इस अविभाज्यताओं को दूर करते हुए बाह्य मितव्ययिताएँ प्राप्त होती हैं तथा वृद्धि दर त्वरित होती है ।

प्रोत रोडान का विश्लेषण विनियोग का सिद्धान्त है तथा यह सन्तुलन के बिन्दु पर अर्थव्यवस्था की दशाओं के अध्ययन के स्थान पर विकास पथ का विश्लेषण करता है । इसके द्वारा कीमत प्रणाली की उन सीमाओं को समझा जा सकता है जिससे विनियोग हो पाना सम्भव नहीं बन पाता । यह विश्लेषण अर्द्धविकसित देशों हेतु अत्यन्त उपयोगी है, क्योंकि इन देशों में बाजार अपूर्णताएँ विद्यमान होती है ।


6. बड़े धक्के के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विश्लेषण (Critical Evaluation of Big Push Theory):

रोजेन्सटीन रोडान के प्रबल प्रयास विश्लेषण की निम्न सीमाएँ हैं:

(i) कृषि क्षेत्र पर ध्यान नहीं:

प्रबल प्रयास विश्लेषण में औद्योगीकरण के बृहत कार्यक्रम की रणनीति मुख्य है । प्राथमिक क्षेत्र के विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है । अर्द्धविकसित देश प्राय: कृषि प्रधान आर्थिक स्वरूप एवं श्रम अतिरेक की दशा को सूचित करते है । जब तक इन देशों में कृषि क्षेत्र पिछड़ा रहेगा तब तक विकास के कार्यक्रमों की सफलता संदिग्ध रहेगी ।

रोडान ने कृषि क्षेत्र के विकास को महत्व नहीं दिया, जबकि कृषि में किया जाने वाला भारी विनियोग, सिचाई सुविधाओं का विस्तार, आधुनिक तकनीक की प्रस्तावना अच्छे सुधरे किस्म के बीच, उर्वरक एवं कीटनाशकों के प्रयोग से कृषि क्षेत्र का उत्पादन बढ़ाकर औद्योगिक क्षेत्र को प्रेरणा दी जानी सम्भव है । यह इस कारण भी आवश्यक है कि कृषि क्षेत्र का उत्पादन औद्योगिक क्षेत्र हेतु आदा का कार्य करता है ।

(ii) प्रशासनिक एवं संस्थागत कठिनाइयाँ:

प्रबल प्रयास सिद्धान्त मुख्यत: राज्य के हस्तक्षेप एवं केन्द्रीय नियोजन पर आधारित है । अर्द्धविकसित देशों में बाजार अपूर्ण रूप से विकसित होते है । इसके साथ ही साथ इन अर्थव्यवस्थाओं में प्रशासनिक व संस्थागत मशीनरी भी दुर्बल एवं असमर्थ होती है ।

विभिन्न परियोजनाओं के निर्माण के साथ ही उनके क्रियान्वयन की कठिनाइयाँ सामने आती है । सांख्यिकीय सूचनाओं, तकनीकी जानकारी, कुशल व प्रशिक्षित व्यक्तियों के अभाव एवं विभिन्न विभागों के मध्य तालमेल के अभाव से व्यापक विनियोग कार्यक्रमों को सुचारू रूप से क्रियान्वित किया जाना सम्भव नहीं बन पाता । अधिकांश अर्द्धविकसित अर्थव्यवस्थाएँ मिश्रित अर्थव्यवस्थाएँ है जहाँ निजी व सार्वजनिक क्षेत्र पूरक होने के बजाय प्रतिस्पर्द्धी होते है । इससे आपसी संशय एवं दुर्भावना उत्पन्न होती है जो देश की सन्तुलित वृद्धि हेतु बाधाकारक हैं ।

(iii) अविभाज्यताओं को आवश्यकता से अधिक महत्व प्रदान किया जाना:

सैल्सो फरटाडो के अनुसार प्रबल प्रयास के सिद्धान्त में अविभाज्यताओं को आवश्यकता से अधिक महत्व प्रदान किया गया है । इस कारण सामाजिक सुधार के अपेक्षाकृत विस्तृत पक्ष की अवहेलना होती है ।

(iv) कम विनियोग से अधिक उत्पादन सम्भव:

प्रो. जोन एडलर ने अपने अध्ययन World Economic Growth Retrospect and Prospect (1956) में स्पष्ट किया कि विनियोग की सापेक्षिक रूप से अल्प मात्रा द्वारा भी उत्पादन में अतिरिक्त वृद्धि सम्भव है । एडलर का यह निष्कर्ष भारत, पाकिस्तान व कई एशियाई व लेटिन अमेरिकी देशों के पूँजी उत्पादन अनुपात के अध्ययन के उपरान्त दिया गया ।

(v) तकनीक को कम महत्व:

सेल्सो फरटाडो के अनुसार प्रबल प्रयास के सिद्धान्त में पूँजी निर्माण को अधिक महत्व प्रदान किया गया है तथा तकनीक के महत्व को नकारा गया है । व्यावहारिक रूप से विकास के अन्तर्गत उत्पादन की प्रक्रिया में प्रत्यक्ष पूँजी निर्माण से अधिक तकनीक का महत्व है ।

(vi) मुद्रा स्फीतिक दबावों का उत्पन्न होना:

सामाजिक उपरिमदों पर आवश्यक मात्रा में किया जाने वाला विनियोग दीर्घ समय अवधि अन्तराल के उपरान्त प्रतिफल देने की प्रवृति रखता है अर्थात् इस लेवी अवधि में उत्पादन में तो प्रत्यक्ष वृद्धि नहीं होती पर उत्पादन के साधनों को पुरस्कार के रूप में लाभ आय व मजदूरी बढ़ जाती है । ऐसी स्थिति में मुद्रा स्फीतिक दबावों का अनुभव किया जाता है ।

चूँकि इस सिद्धान्त में कृषि क्षेत्र को समुचित महत्व नहीं दिया गया है । अत: खाद्यान्नों की कीमतें भी बढ़ने की प्रवृत्ति रखती है । मुद्रा स्फीतिक दबावों का उत्पन्न होना मुख्यत: उपभोक्ता वस्तुओं की सीमितता से सम्बन्धित है । विकास की प्रक्रिया में मुद्रा स्फीतिक दबाव अर्द्धविकसित देशों के लिए अनेक समस्याएँ उत्पन्न कर देते है ।

(vii) ऐतिहासिक अवलोकन द्वारा सत्यापित नहीं:

सेल्सो फरटाडो के अनुसार बड़े धक्के के सिद्धान्त की यह व्याख्या कि जब पूँजी निर्माण की प्रक्रिया पर एक व्यापक स्तरीय प्रभाव पड़ता है तब एक स्थिर अर्थव्यवस्था विकास करती है, इतिहास द्वारा प्रमाणित नहीं होता । बोलिविया का उदाहरण देते हुए फरटाडो ने स्पष्ट किया कि सामाजिक उपरिमद पूँजी में भारी विनियोग के बावजूद यहाँ की अर्थव्यवस्था स्थिर नहीं तथा प्रति व्यक्ति आय के न्यून स्तरों को प्रदर्शित करती रही ।

प्रो. हेगन ने अपनी पुस्तक On the Theory of Social Change में स्पष्ट किया कि प्रबल प्रयास या बड़े धक्के की उपस्थिति या अनुपस्थिति कहीं भी वृद्धि की एक महत्वपूर्ण प्रवृति के रूप में परिलक्षित नहीं हुई ।

(viii) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार अधिक बाह्य मितव्ययिता ध्यान कर सकता है:

प्रो. जैकोब वाइनर ने यह प्रदर्शित किया कि घरेलू विनियोग के सापेक्ष अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार अधिक बाह्य मितव्ययिताओं को प्रदान करने में समर्थ होता है । विकासशील देश जो मुख्यत: प्राथमिक वस्तु उत्पादक देश हैं, अपने निर्यातों व सीमान्त आयात प्रतिस्थापनों में कुल विनियोग का अधिक भाग प्रवाहित करते हैं ।

ऐसे में वह क्षेत्र जिनसे बाह्य मितव्ययिता प्राप्त हो, काफी संकुचित ही रह जाता है । हॉवर्ड एस. एलिस के अनुसार प्रबल प्रयास विश्लेषण बाह्य मितव्ययिताओं की उपलब्धि हेतु समर्थन की गम्भीरता को कम कर देता है ।

प्रो. हॉवर्ड एस. एलिस ने रोजेन्सटीन रोडान के प्रबल प्रयास सिद्धान्त या बड़े धक्के के व्यावहारिक क्रियान्वयन के सन्दर्भ में अपनी पुस्तक Economic Development for Latin America, London (1961) में निम्न समस्याओं का उल्लेख किया:

(a) अर्द्धविकसित देश प्राथमिक वस्तुओं का उत्पादन करते हैं । इन देशों में बाह्य मितव्ययिताओं के बढ़ने के बाद भी प्राथमिक वस्तुओं के उत्पादन में कोई परिवर्तन नहीं आता ।

(b) यह सिद्धान्त अर्द्धविकसित देशों में बचत की समस्या पर विचार नहीं करता ।

(c) अर्द्धविकसित देश प्राय: अपनी राष्ट्रीय आय का दो-तिहाई भाग कृषि क्षेत्र से प्राप्त करते है । अत: यह कहना कि विकास मात्र औद्योगीकरण द्वारा होगा, इन देशों के सन्दर्भ में सत्य नहीं ।

(d) ऐतिहासिक प्रमाणों से पुष्ट होता है कि विकसित देशों का विकास प्रबल प्रयास के आधार पर होता है ।

उपर्युक्त व्याख्या से स्पष्ट है कि प्रबल प्रयास का सिद्धान्त एक व्यापक सभी कुछ या बिलकुल नहीं विकास कार्यक्रम पर आधारित है जिससे अर्द्धविकसित देशों के विषम निर्धनता दुश्चक्र को खण्डित किया जा सके । प्रो. रोडान का विश्लेषण निम्न क्रय शक्ति, बाजार के आकार के सीमित होने, अविभाज्यता एवं पूँजी विनियोगों की अन्तर्निर्भरता पर आधारित है । विनियोगों की एक उच्च आवश्यक न्यूनतम मात्रा पर्याप्त मानी गयी जिससे विनियोगों की पूरकता के परिणास्वरूप आन्तरिक एवं बाह्य मितव्ययिताएँ प्राप्त हो सकें ।