हंसन की स्थिर आर्थिक विकास की सिद्धांत | Read this article in Hindi to learn about:- 1. हैनसन के सिद्धान्त की प्रस्तावना (Introduction to Hansen’s Theory) 2. पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में गतिरोध (Stagnation in Capitalist Economy) 3. सिद्धान्त का सार (The Essence of the Theory) 4. गतिरोध के घटक (Factors of Stagnation) 5. स्वायत्त विनियोग फलन (Autonomous Investment Function) 6. तार्किक प्रामाणिकता (Logical Validity) 7. आलोचना (Criticisms).

हैनसन के सिद्धान्त की प्रस्तावना (Introduction to Hansen’s Theory):

एलविन हेनसन का विश्लेषण पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं के विकास हेतु एक भिन्न विचारधारा को प्रस्तुत करता है । हैनसन के अनुसार उचित मौद्रिक एवं प्रशुल्क नीतियों की अनुपस्थिति में उन्नत पूँजीवादी देश संकटपूर्ण एवं बढ़ती हुई अर्द्धबेरोजगारी की दशा का अनुभव करेंगे । उन्होंने पूर्व प्रचलित व्यापार चक्र की धारणा के स्थान पर सरकारी हस्तक्षेप को उचित माना । हेनसन ने अबन्ध नीति की दशाओं के अधीन निजी उपक्रम की कुशलता पर सन्देह व्यक्त किया ।

पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में गतिरोध (Stagnation in Capitalist Economy):

एलविन हैनसन ने पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में गतिरोध की स्थितियों का अवलोकन किया । इससे पूर्व प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों का विश्वास था कि पूँजीवादी विकास का अन्त गतिरोध की अवस्था में होता है । कार्लमार्क्स एवं शुम्पीटर ने पूँजीवादी व्यवस्था के पूर्ण पतन की बात कही । हैरोड के विश्लेषण से स्पष्ट होता था कि बिना मुद्रा प्रसार के पूर्ण रोजगार को बनाए रखना पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के लिए अत्यन्त कठिन है ।

हैनसन ने स्थिर लेकिन बढ़ती हुई पूँजीवदी अर्थव्यवस्था का विचार प्रस्तुत किया जिसे प्राप्त करने के लिए एक अर्थव्यवस्था को उचित महिन्द्र एवं प्रशुल्क नीतियों की आवश्यकता पड़ती है ।

हैनसन के सिद्धान्त का सार (The Essence of the Theory of Hansen):

ADVERTISEMENTS:

हैनसन के विश्लेषण को आर्थिक विकास के एक सामान्य सिद्धान्त के रूप में निम्न प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है:

1. स्वायत्त (दीर्घकालीन) विनियोग के अधिक पूर्ण सिद्धान्त को प्रस्तुत करना ।

2. सम्भावित सकल राष्ट्रीय उत्पाद एवं वास्तविक सकल राष्ट्रीय उत्पाद के मध्य तीव्र एवं बढ़ते हुए अन्तराल जो स्वायत्त विनियोग को प्रभावित करने वाले आधारभूत घटकों की वृद्धि दरों के त्वरण या गैर त्वरण के कारण उत्पन्न हो सकते हैं ।

3. एक विशेष देश के सन्दर्भ में एक निश्चित समय के अधीन मॉडल का अनुभव सिद्ध मूल्यांकन करना ।

ADVERTISEMENTS:

उपर्युक्त बिन्दुओं की व्याख्या निम्न है:

समीकरण (2) उत्पादन फलन है । यहाँ L. K. Q एवम T क्रमश: श्रम, संसाधन, पूँजीयन्त्र एवं उपलब्ध तकनीक की पूर्ति है न कि उत्पादन में वास्तव में प्रयुक्त मात्राएँ । अब हम सम्बन्धों के दो समुच्चयों लिए को प्रस्तुत कर रहे है जो समय के अनुरूप परिवर्तन हो रहे है । इन समीकरणों को सरल रूप में प्रस्तुत करने के लिए माना कि बचत की सीमान्त प्रवृति तथा कर भुगतान करने की सीमान्त प्रवृति समय के अनुरूप स्थिर है तथा ऐसी कोई सरकारी क्रिया नहीं हो रही है जो इनमें परिवर्तन कर दे ।

ADVERTISEMENTS:

यदि जनसंख्या वृद्धि, संसाधन खोज एवं तकनीकी प्रगति के स्वायत्त विनियोग पर पड़ने वाले संयुक्त वृद्धि प्रभावों को G के द्वारा निरूपित किया जाये, तब समय के अनुरूप वास्तविक सकल राष्ट्रीय उत्पादन की प्रवृति निम्न होगी ।

अत: समय के साथ वास्तविक सकल राष्ट्रीय उत्पाद की प्रवृति मुख्यत: बचत की सीमान्त प्रवृति एवं कर भुगतान करने की सीमान्त प्रवृति पर निर्भर करती है । इन दोनों में यदि कोई भी अधिक होता है तब अन्य बातों के समान रहने पर आर्थिक वृद्धि की दर न्यून होती है । यह आशिक रूप प्रेरित विनियोग के स्तर पर भी निर्भर करती है लेकिन प्रेरित विनियोग राष्ट्रीय आय में वृद्धि के साथ बदलता रहता है । यदि राष्ट्रीय आय स्थिर है तो प्रेरित विनियोग उत्पन्न नहीं होगा ।

यदि राष्ट्रीय आय स्थिर है तो प्रेरित विनियोग उत्पन्न नहीं होगा । यदि राष्ट्रिय आय की वृद्धि दर स्थिर है तो प्रेरित विनियोग की दर स्थिर स्तर पर रहेगी । स्पष्ट है कि प्रेरित विनियोग एक उत्तेजक या विस्तार करने वाली शक्ति के रूप में सामने आता है । सरकारी विनियोग की मात्रा मुख्यत: एक नीतिगत निर्णय मॉडल को स्थापित करते हुए हम देखते है कि वास्तविक गतिशील या प्रावैगिक घटक स्वायत्त विनियोग है जो जनसंख्या वृद्धि की दर, संसाधन खोज की दर एवं तकनीकी प्रगति की दर पर निर्भर करता है ।

यदि इसके संयुक्त प्रभाव स्थिर रहते हैं तो स्वायत्त विनियोग भी स्थिर रहेगा । यदि सरकारी विनियोग भी स्थिर है तो सकल राष्ट्रीय उत्पाद एक स्थिर दर से बढ़ेगी तथा प्रेरित विनियोग भी स्थिर रहेगा ।

समय के अनुरूप सम्भावित उत्पादन में होने वाली वृद्धि निम्न होगी:

स्पष्ट है कि सम्भावित, उत्पादन की वृद्धि केवल उस दर पर निर्भर करती है जिस पर श्रम शक्ति का आकार ज्ञात संसाधनों की पूर्ति, पूंजी का स्टॉक एवं तकनीक का स्तर बढ़ता है ।

हेनसन द्वारा वर्णित दशाओं को स्वयं सिद्ध प्रमाण 1920 व 1930 के दशक में अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मिलता है । इस समय अबधि में जनसंख्या की वृद्धि धीमी हो गई । युद्ध के कारण राजनीतिक सीमाएँ विलुप्त हो गई । संसाधन खोज की दर मन्द पड़ गई, जबकि तकनीकी प्रगति की दर न्यूनाधिक रूप से अपरिवर्तित ही रही ।

इन दशाओं में वृद्धि घटकों के सामूहिक प्रभाव से G कम हुआ अर्थात् समीकरण 1 (a) में d2 G/dt2 ऋणात्मक हो गया । सरकारी विनियोग के साथ Ig स्थिर हो गया तथा 1929 के उपरान्त गिरने लगा । सकल राष्ट्रीय उत्पाद का वास्तविक स्तर गिरने लगा और इसके साथ ही प्रेरित विनियोग Ii ऋणात्मक होने लगा इन समस्त स्थितियों के परिणामस्वरूप अधोमुखी गतियाँ दिखाई देने लगीं ।

मन्दी के सबसे बुरे समय में पूंजी स्टॉक में वृद्धि हो रही थी एवं इसके साथ ही श्रम शक्ति, ज्ञात संसाधनों की पूर्ति एवं तकनीक के स्तर में थोड़ा सुधार दिखाई दिया था । 1929 से 1933 की अवधि में शुद्ध विनियोग गिरा लेकिन प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध के मध्य की अवधि में यह धनात्मक था । इसलिए इस सम्पूर्ण अवधि में सम्भावित उत्पादन बढ़ रहा था । इसके परिणामस्वरूप वास्तविक एवं सम्भावित सकल राष्ट्रीय उत्पाद के मध्य अन्तराल बढ़ते गये जिससे 1929 के उपरान्त बेरोजगारी एवं अतिरिक्त क्षमता में वृद्धि दिखाई दी ।

हैनसन का विचार था कि प्रेरित विनियोग में होने वाली कमी एक सामान्य चक्रीय प्रवृति है । स्वायत्त विनियोग में होने वाली कमी एक सुदीर्घकालिक प्रवृति बन जाती है ।

हैनसन के विश्लेषण के आधार पर नीति सम्बन्धी निष्कर्ष प्राप्त होते हैं । उनके अनुसार निजी विनियोग में होने वाली कमी एक सुदीर्घकालिक प्रवृति बन जाती है ।

हैनसन के विश्लेषण के आधार पर नीति सम्बन्धी निष्कर्ष प्राप्त होते हैं । उनके  अनुसार निजी विनियोग की प्रवृति के गिरने की स्थिति में राष्ट्रीय आय गिरती है व बेरोजगारी बढ़ती है अत: सरकार (1) सार्वजनिक विनियोग में वृद्धि कर सकती है । (2) सरकार करों में वृद्धि कर सकती है तथा इस प्रकार गुणक में वृद्धि करती है । (3) सरकार आय का वितरण बचत कर्त्ताओं से व्यय कर्त्ताओं तक कर सकती है । इस प्रकार वह बचत की सीमान्त प्रवृति को कम करके गुणक में वृद्धि करती है ।

अविरल वृद्धि के अनुरक्षण हेतु एक सम्पूर्ण नीति इन तीनों उपायों के उचित सम्मिश्रण पर निर्भर करती है । उपर्युक्त से स्पष्ट है कि सम्भावित वृद्धि एवं वास्तविक वृद्धि के मध्य बढ़ता हुआ सुदीर्घकालिक गतिरोध है । यह पूँजीवादी विकास की ऐसी परिपक्व अवस्था है जिसमें पूर्ण रोजगार पर बचतें बढ़ने लगती है जबकि शुद्ध विनियोग गिरने लगता है ।

गतिरोध के घटक (Factors of Stagnation):

हैनसन ने गतिरोध को प्रभावित करने वाले घटकों को बर्हिजात एवं अर्न्तजात में विभक्त किया । उन्होंने बर्हिजात घटकों को प्रमुखता देते हुए इसके अन्तर्गत तकनीकी प्रगति जनसंख्या वृद्धि नए प्रदेशों का खुलना एवं नए संसाधनों की खोज को सम्मिलित किया । अर्न्तजात घटकों में एकाधिकार एवं आर्थिक शक्ति का केन्द्रीयकरण, श्रम संघ की बढ़ती हुई शक्ति बचतों को संस्थानीकरण, पूँजीगत परिसम्पत्ति की बढ़ती हुई कीमत को सम्मिलित किया ।

1. बर्हिजात घटक – तकनीकी प्रगति:

हैनसन के अनुसार तकनीकी प्रगति धीरे-धीरे पूँजी बचत खोज का रूप लेने लगती है । हैनसन ने स्पष्ट किया कि उन्नीसवीं शताब्दी में नव-प्रवर्तन ने विशाल नए उद्योगों का रूप लिया, जैसे- रेल-रोड, लौह-इस्पात, विद्युत एवं मोटरगाड़ी इत्यादि । इन नव-प्रवर्तनों ने न केवल आर्थिक संगठनों को बल्कि निजी जीवन को भी बदल डाला ।

इसके परिणामस्वरूप सम्बन्धित क्षेत्रों में दीर्घस्तरीय पूरक विनियोग किए गए, जैसे- नए शहर, कस्बे, सिनेमा, ग्रामीण विद्युतीकरण, सड़क, राजमार्ग इत्यादि, जबकि बीसवीं शताब्दी में नव-प्रवर्तन के अधीन अधिक सुधरी व परिकत तकनीक सामने आयी जिसने नई और बेहतर टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन किया जैसे- रेडियो, टेलीविजन एअर कंडीशनर इत्यादि ।

इन नव-प्रवर्तनों ने उस प्रकार का द्वितीयक विनियोग नहीं किया जैसा विशाल नए उद्योगों द्वारा उनीसवीं शताब्दी में किया गया था । अत: तकनीकी प्रगति पर विनियोग का प्रत्युत्तर दुर्बल हुआ । एकाधिकार की वृद्धि एवं शोध के संस्थानीकरण ने नव-प्रवर्तन को प्रतिबन्धित किया ।

2. बर्हिजात घटक – जनसंख्या वृद्धि:

हैनसन के अनुसार दीर्धकलीन विनियोग एवं जनसंख्या वृद्धि में निकट का सम्बन्ध है । बढ़ती हुई जनसंख्या, बढ़ती हुई श्रम शक्ति की पूर्ति करने के साथ-साथ वस्तु व सेवाओं की बढ़ती हुई माँग प्रदान करती है । यदि जनसंख्या में होने वाली वृद्धि कम हो जाए, जैसा कि प्राय: परिपक्व अर्थव्यवस्थाओं में होता है तब विनियोग गिरने लगता है तथा आर्थिक विकास की गति मन्द पड़ जाती है ।

जनसंख्या में होने वाली कमी वस्तुओं के बाजार को संकुचित करती है । लाभ गिरते हैं व विनियोग हतोत्साहित होते है । आवास एवं सार्वजनिक उपयोगिताओं की माँग कम होती है जिनके लिए भारी विनियोग आवश्यक है । जनसंख्या वृद्धि के गिरने पर श्रम में पूँजी का अनुपात बढ़ने लगता है जिससे पूँजी की सीमान्त उत्पादकता गिरती है अत: पूँजी संचय पर विपरीत प्रभाव पड़ता है ।

3. बर्हिवात घटक – नए क्षेत्रों का संकुचन, सीमाओं का बन्द होना:

आर्थिक अवरोध नए क्षेत्रों या प्रदेशों के संकुचन से प्रभावित होता है । हैनसन ने इसे फ्रंटियर के बन्द होने के प्रभाव द्वारा स्पष्ट किया । जिससे न केवल संसाधन खोज की दर में कमी आती है बल्कि व्यापार के क्षेत्र में साहसिक कार्य करने की चेतना भी कमजोर पड़ती है ।

इतिहास साक्षी है कि जिस क्षेत्र या प्रदेश में भूमि ऊपजाऊ थी व प्रचुर खनिज संसाधन उपलब्ध थे वहाँ दूसरे क्षेत्र प्रदेश से उतने ही उपक्रमी आए और उस क्षेत्र का तीव्र विकास सम्भव बना । बीसवीं शताब्दी में नए क्षेत्रों के संकुचन से यह प्रवृति अत्यन्त धीमी पड़ गई ।

हैनसन के इस विचारकों समीकरण की सहायता से भी स्पष्ट किया जा सकता है जहाँ सीमा या फ्रंटियर का विलुप्त होना न केवल नए संसाधनों की खोज की दर K में कमी करता है बल्कि अन्य प्राचलों dla/dk एवं dla/dt एवं dla/dl में भी कमी करता है अर्थात् साधन खोज, तकनीकी प्रगति एवं जनसंख्या वृद्धि की हुई दरों में प्रत्युत्तर में कमी आती है ।

अन्तर्जात घटक:

हैनसन के अनुसार आर्थिक अवरोध उत्पन्न होने के पीछे आजात घटकों की उपस्थिति होती है ।

अर्न्तजात घटकों से अभिप्राय है:

1. एकाधिकार में वृद्धि एवं आर्थिक शक्ति का केन्द्रीयकरण ।

2. श्रम संघों की बढ़ती शक्ति, श्रम संघ लाभ में कटौती करने के कारण बनते हैं तथा विनियोग को हतोत्साहित करते है ।

3. ऐसे संस्थागत परिवर्तन जिनसे नव-प्रवर्तन हतोत्साहित होता है, क्योंकि नव-प्रवर्तन आन्तरिक बचतों के द्वारा वित्त प्राप्त करते हैं, अत: यह पूँजी बचत प्रवृति रखते है न कि पूँजी अवशोषण प्रवृति ।

4. पूँजीगत परिसम्पत्तियों की बढ़ती हुई पूर्ति कीमत ।

1. अर्न्तजात घटक – बचतों की बढ़ती प्रवृति:

हैनसन के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि यदि देश में बचत काफी अधिक की जा रही है तो इससे सुदीर्घकालिक अवरोध उत्पन्न हो सकता है । हैनसन ने माना कि नियोजित बचतों का आय के साथ बढ़ना आवश्यक है । हैनसन के अनुसार किसी एक बिन्दु पर विनियोग दीर्घकालीन वृद्धि शक्तियों के कमजोर पडड़ने के कारण गिरता है । हैनसन के अनुसार बढ़ती हुई अर्द्धबेरोजगारी की प्रवृत्ति तब और अधिक सुदृढ़ होती जाएगी जब इसके साथ ही साथ आय में बचतों का अनुपात अधिक हो ।

हैनसन ने स्पष्ट किया कि इस प्रकार की प्रकृति वास्तव में दिखाई देती है जिसका कारण बढ़ता हुआ बचतों का संस्थानीकरण है । कारपोरेशन लाभ लाभांशों में बाँटने की अपेक्षा स्वयं वित्त पर अधिक आश्रित होने लगते है । ठीक इसी समय व्यक्तिगत बचतों का बढ़ा हुआ अंश बीमा प्रीमियम व भविष्य निधि खातों की ओर प्रवाहित होने लगता है ।

इसका परिणाम यह होता है कि कुल आय में बचतों का अंश समय के साथ-साथ बढ़ता जाता है । विचार का दूसरा मुख्य बिन्दु यह भी है कि बचतें आय में अल्पकालीन उच्चावचनों के प्रति न्यून प्रत्युत्तर रखती हैं । हैनसन के अनुसार बचतों में वृद्धि से विनियोग पर भार बढ़ता है ।

यदि आय एवं उपभोग के मध्य काफी अधिक अन्तर है तो इसे भरने के लिए विनियोग की एक समान मात्रा की आवश्यकता पड़ती है । सम्पन्न देशों में विनियोग अवसरों की मात्रा में बढ़ती हुई कमी की प्रवृति देखी जाती है । अत: आय व उपभोग के अन्तराल को भरने लायक विनियोग इस कारण सम्भव नहीं होता कि वह अर्थव्यवस्था की बचतों को अवशोषित नहीं कर पाता ।

2. अर्न्तजात घटक – एकाधिकार की वृद्धि व शोध का संस्थानीकरण:

एकाधिकार की वृद्धि एवं शोध का सस्थानीकरण होने से नव-प्रवर्तन रुकावट का अनुभव करता है । शोध पर एकाधिकारात्मक नियन्त्रण होने से नव-प्रवर्तन के प्रवाह एवं नयी तकनीकों की प्रस्तावना में विपरीत प्रभाव पड़ता है । एकाधिकारी नयी तकनीक की प्रस्तावना को टालना चाहते हैं ताकि वह भूतकाल में किए गए विनियोग से अधिकाधिक प्रतिफल ले सकें ।

3. अर्न्तजात घटक – श्रम संघों का अभ्युदय:

श्रम संघों के अभ्युदय के कारण भी नयी खोजों को लागू करने वाला नया विनियोग सम्भव नहीं बन पाता । श्रम संघ तकनीकी नव-प्रवर्तन का इस कारण विरोध करते है, क्योंकि नयी विधि द्वारा उत्पादन किए जाने पर वह तकनीकी या घर्षणात्मक बेकारी के शिकार बन सकते है । श्रम संघों के अष्णुदय से लाभ की मात्रा में भी कमी होती है जिसका नये विनियोगों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है ।

4. अर्न्तजात घटक – कीमतों में वृद्धि:

उन्नत विकसित देशों में मुद्रा प्रसार की प्रवृंतियाँ तेजी से बढ़ रही हैं । उत्पादन के साधनों के मध्य प्रतिस्पर्द्धा भी बढ़ रही है जिससे उत्पादन लागत में तेजी से वृद्धि हो रही है । पूँजी परिसम्पत्तियों की पूर्ति कीमत में भी वृद्धि हो रही है जिससे पूँजी की सीमान्त क्षमता में हास की प्रवृतियाँ दिखाई दे रही है ।

उपर्युक्त अर्न्तजात घटकों से पूंजी संचय हतोत्साहित होता है । अत: विनियोग के अवसरों में कमी होती है । इन आर्थिक व संस्थानिक कारणों से अर्थव्यवस्था के परिपक्व होने पर अवरोध की स्थिति दिखाई देती है ।

स्वायत्त विनियोग फलन (Autonomous Investment Function):

हैनसन के स्वायत्त विनियोग फलन के घटक दीर्घकालीन विनियोग एवं जनसंख्या वृद्धि के मध्य सम्बन्ध को सूचित करता है । जनसंख्या की वृद्धि विनियोग को दो प्रकार से प्रभावित करती है । पहला एक बढ़ती हुई जनसंख्या बढ़ती हुई श्रम शक्ति उपलब्ध कराती है, जब तक जनसंख्या वृद्धि पूँजी संचय के साथ तादात्म्य रखती है, पूँजी की सीमान्त उत्पादकता अन्य प्रभावों की अनुपस्थिति में स्थिर रहती है लेकिन जब जनसंख्या की वृद्धि गिरती है तो पूँजी संचय भी अवश्य गिरता है लोकन पूँजी की सीमान्त उत्पादकता नहीं गिरती, जबकि अन्य प्रभावों को ध्यान में न रखा जा रहा हो । दूसरा एक बढ़ती हुई जनसंख्या वस्तु व सेवाओं की बढ़ती हुई माँग को उपलब्ध कराती है ।

हैनसन के विश्लेषण की तार्किक प्रामाणिकता (Logical Validity of the Hansen’s Thesis):

हैनसन के द्वारा प्रस्तुत विश्लेषण अर्द्धविकसित देशों में बढ़ती हुई अर्द्धबेकारी के सन्दर्भ में प्रमाणिक बनता है यदि सरकारी नीति उदासीन हो तब आर्थिक विकास की प्रवृतियाँ चित्र 1 की भाँति होगी । चित्र में वक्र Yp सम्भावित आय की प्रवृति है अर्थात् यह स्थिर कीमतों पर पूर्ण रोजगार के साथ राष्ट्रीय आय की प्रवृति है । वक्र Ya वास्तविक सकल राद्दीय आय की प्रवृतियाँ स्थिर कीमतों पर दिखाता है ।

इसके चारों ओर आर्थिक उच्चावचन होते हैं । एक बार जब स्वायत्त विनियोग द्वारा सृजित आर्थिक वृद्धि की दीर्घकालीन दर में कमी आने लगती है तब वास्तविक सकल राष्ट्रीय उत्पादन आर्थिक उच्चावचनों से प्रभावित होने लगता है तथा यह सम्भावित (पूर्ण रोजगार) सकल राष्ट्रीय उत्पाद से नीचे जाता रहता है ।

हैनसन के द्वारा मुद्रा प्रसार के बिना पूर्ण रोजगार पर राष्ट्रीय आय की प्रवृति एक सरल विचार नहीं है । यहाँ मुद्रा प्रसार से आशय सामान्य कीमत स्तर में होने वाली वृद्धि नहीं है बल्कि इसका अभिप्राय एक ऐसी वृद्धि है जो पूर्ण रोजगार के स्तर पर पहुँच जाने के पश्चात् होती है ।

मुद्रा प्रसार की यह परिभाषा काफी सरल है, लेकिन कुछ परेशानियाँ उत्पन्न करता है । यदि Yp वक्र पर स्थित बिन्दु सकल राष्ट्रीय उत्पादन के स्तर को प्रदर्शित करते हैं जहाँ पूर्ण रोजगार प्राप्त होता है । तब इस प्रवृति वक्र में सार्थक बिन्दु वहीं होंगे जो चक्रीय गति में ऊपर की ओर जाते हैं ।

यदि राष्ट्रीय आय प्रवृति वक्र में नीचे की ओर जा रही है तो पूर्ण रोजगार विद्यमान नहीं होगा । यदि Yp वक्र को पूर्ण रोजगार पर सकल राष्ट्रीय आय की प्रवृति के द्वारा परिभाषित किया गया है, जबकि कीमतें इतनी अधिक हैं कि पूर्ण रोजगार की प्राप्ति कर सकें तब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि कीमतें वस्तुत: कितनी ऊँची होंगी ।

यह भी सम्भव है कि पूर्ण रोजगार तब ही प्राप्त हो जाए, जबकि कीमतें बढ़ रही ही अर्थात् नियमित रूप से बढ़ता हुआ कीमत स्तर ही पूर्ण रोजगार को स्थापित कर सकता है । दूसरी तरफ यदि पूर्ण रोजगार की स्थिति तब आती है, जबकि कीमतें काफी अधिक स्थायी ही, जैसा कि 1929 में हुआ, तब यह सम्भव है कि पूर्ण रोजगार तब भी स्थापित हो जाये, जबकि कीमत स्तर गिर रहा हो ।

हैनसन ने पूर्ण रोजगार पर आय की प्रवृतियों के बारे में अधिक नहीं कहा । उनकी व्याख्या सम्भावित राष्ट्रीय आय की बढ़ती स्थिर या गिरती दर से अनुरूपता रखेगी, जबकि अन्तराल विद्यमान हों तथा बढ़ रहे हों । उनके अनुसार जनसंख्या वृद्धि के गिरते होने तथा क्षेत्रों व फ्रंटियर के समाप्त प्राय होने पर तकनीकी प्रगति की एक हमेशा बढ़ती हुई दर राष्ट्रीय आय को पूर्ण रोजगार से नीचे जाने से रोक सकती है तथा जनसंख्या एवं खनिज संसाधनों की पूर्ति को एक स्थिर दर पर लम्बे समय तक बढ़ाया जाना सम्भव नहीं है ।

हैनसन ने स्पष्ट किया कि उपभोग की प्रवृति को बढ़ाने के लिए सरकारी क्रियाओं की अनुपस्थिति होने पर या सार्वजनिक विनियोग के साथ अन्तराल पाने में समर्थ न होने पर जैसे-जैसे अर्धव्यवस्था परिपक्व होती जाती है वैसे-वैसे अर्द्धबेकारी बढ़ती जाती है ।

यह दशा वास्तविक गतिरोध के बिना भी उत्पन्न हो सकती है, जो या तो सम्भावित सकल राष्ट्रीय आय की प्रवृति रखती है या वास्तविक सकल राष्ट्रीय आय की, जो सरकारी हस्तक्षेप या इसकी अनुपस्थिति में सम्भव है । इसी कारण बेंजामिन हिगिन्स ने हैनसन के विश्लेषण को अवरोध के सिद्धान्त की अपेक्षा बढ़ते हुए अर्द्धविकास के सिद्धांत के नाम से सम्बोधित करना उचित समझा ।

चित्र में S बिन्दु पर अवरोध उपस्थित होने की बात कही गई है, जबकि न तो वास्तविक और न ही सम्भावित प्रवृति इस बिन्दु पर वास्तविक अवरोध को सूचित करते है । वस्तुत: यह वृद्धि की गिरती दर एवं बढ़ती हुई अर्द्धबेकारी को सूचित करता है ।

आलोचना (Criticisms):

हैनसन के सिद्धान्त की इस आधार पर आलोचना की गई कि जनसंख्या की दीर्घकालिक वृद्धि एवं उपभोग के मध्य सहसम्बन्ध इतना उन होता है कि एक दूसरे के लिए अधिक या कम प्रतिस्थापित किया जा सकता है । इसी प्रकार त्वरण के तर्क को ध्यान में रखा जा सकता है जिसके अनुसार उपयोग में होने वाली वृद्धि की दर में थोड़ी-सी कमी भी विनियोग में निरपेक्ष कमी कर सकती है । हैनसन के आलोचक भी इस बात से इन्कार नहीं करते कि एक देश जो श्रम की सीमितता के साथ विस्तार कर रहा है वहीं जनसंख्या में वृद्धि ही पूँजी संचय की अधिक तीव्र दर को सम्भव बनाती है ।

हैनसन की आलोचना इस बात को लेकर की गई कि जनसंख्या में होने वाली वृद्धि अन्तिम उत्पादों की बढ़ती हुई समर्थ माँग से किस प्रकार सम्भव है । फैलनर व टरबोध ने अनुभव सिद्ध अवलोकन के आधार पर स्पष्ट किया कि विनियोग एवं जनसंख्या वृद्धि के मध्य सम्बन्धों को अलग करना कठिन है ।

यह तर्क दिया गया कि जनसंख्या में होने वाली तीव्र वृद्धि बाजार का विस्तार नहीं करती । बाजार के विस्तार के लिए क्रय शक्ति में वृद्धि आवश्यक है । दूसरी तरफ यह भी सम्भव है, कि जनसंख्या वृद्धि की दर में कमी, प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि से जुड़ी है, ऐसे में कुल व्यय में कमी नहीं होगी ।

जनसंख्या की वृद्धि सकल आय में भी वृद्धि कर सकती है । यदि जनसंख्या अनुकूलतम स्तर से कम है तो इसमें होने वाली वृद्धि प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि कर सकती है । जब जनसंख्या का आकार उत्पादन के अन्य साधनों के सापेक्ष अल्प हो तब जनसंख्या में होने वाली तीव्र वृद्धि आय व समर्थ मांग में वृद्धि कर सकती है ।

उपभोक्ताओं की रुचि एवं अधिमान में एक बारगी परिवर्तन की सम्भावना भी विद्यमान होती है । उत्पादन की तकनीक तेजी से बदल सकती है अत: ऐसे विनियोग अवसर अर्थव्यवस्था में विद्यमान हो सकते है जो चालू बचतों को अवशोषित कर सकें । विनियोग की वृद्धि तब भी सम्मव है जब बढ़ती हुई उत्पादकता एवं पूँजी उत्पादन अनुपात पूँजीगत परिसम्पत्तियों को ऊपर लाएं ऐसे में आर्थिक अवरोध की सम्भावना क्षीण हो जाती है ।

वस्तुत: नव-प्रवर्तन की सम्भावनाओं से इन्कार नहीं किया जा सकता । व्यवसाय के नए क्षेत्रों के नए उपक्रमी नवीन कुशलता के साथ आते हैं । सरकारी हस्तक्षेप भी बढ़ता है । आर्थिक गतिरोध दूर करने में सरकार द्वारा मौद्रिक व प्रशुल्क उपायों का आश्रय लिया जाता है ।

इसके साथ ही सुदीर्घकालिड गतिरोध दूर करने में विकसित देशों से अर्द्धविकसित देशों की ओर होने वाली विदेशी पूँजी गतियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । मार्टिन ब्रोफेन ब्रेनर ने इस सन्दर्भ में कहा है कि सुदीर्घकालिक गतिरोध के स्थान पर यह सुदीर्घकालिक मुद्रा प्रसार है जिसने पश्चिम की परिपक्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं को जकड़ रखा है ।