कार्ल मार्क्स की आर्थिक विकास सिद्धांत | Read this article in Hindi to learn about:- 1. कार्ल मार्क्स सिद्धांत की प्रस्तावना (Introduction to Karl Marx Theory) 2. कार्ल मार्क्स सिद्धांत की इतिहास का भौतिकवादी विश्लेषण (Materialistic Interpretation of History of Karl Marx Theory) and Other Details.

Contents:

  1. कार्ल मार्क्स सिद्धांत की प्रस्तावना (Introduction to Karl Marx Theory)
  2. कार्ल मार्क्स सिद्धांत की इतिहास का भौतिकवादी विश्लेषण (Materialistic Interpretation of History of Karl Marx Theory)
  3. मार्क्स की प्रणाली: सरल पुनरुत्पादन (Marx’ System: Simple Reproduction)
  4. कार्ल मार्क्स सिद्धांत के वृद्धि एवं संकट (Growth and Crisis of Karl Marx Theory)
  5. कार्ल मार्क्स सिद्धांत की सीमाएँ (Limitation of Karl Marx Theory)

1. कार्ल मार्क्स सिद्धांत की प्रस्तावना (Introduction to Karl Marx Theory):

कार्ल मार्क्स का जन्म 1818 में ट्रायर में हुआ । उन्होंने बोन विश्वविद्यालय तथा बर्लिन विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया तथा जेना से डाकरेक्ट की उपाधि प्राप्त की । 1843 में वह पेरिस चले गये जहाँ उनकी मित्रता फेड्रिक एनजल्स से हुई जिसने उन्हें राजनीतिक अर्थशास्त्र के अध्ययन की प्रेरणा दी ।

1848 में उनका एंजल्स के साथ मिलकर लिखा ग्रंथ The Communist Manifesto प्रकाशित हुआ । 1859 में उनका ग्रंथ The Critique of Political Economy व 1845 में Das Kapital प्रकाशित हुआ । मार्क्स की मृत्यु 1883 में हुई । Das Kapital के अन्य अध्याय उनकी मृत्यु के उपरांत 1885 व 1894 में छपे ।

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प्रतिष्ठित विश्लेषण में ठीक उस समय, जबकि जे.एस. मिल का लेखन आशावादी दृष्टिकोण से समन्वित सिद्धान्त का प्रसार कर रहा था, द्वंद एवं विरोधाभास को रेखांकित करता द्वदात्मक भौतिकवाद का विश्लेषण इसके लिए चुनौती बना । यह नवीन विश्लेषण एडम स्मिथ एवं डेविड रिकार्डो के मूल्य के श्रम सिद्धान्त द्वारा विकसित था जिसे इतिहास के भौतिक विश्लेषण एवं निर्वचन से संबंधित किया गया । इसके जनक कार्ल मार्क्स थे जिन्हें आधुनिक वैज्ञानिक समाजवाद का जन्मदाता माना गया । उन्होंने पूँजीवाद के पतन एवं समाजवाद के विकास का मौलिक विश्लेषण प्रस्तुत किया ।

एडमंड विल्सन ने मार्क्स को के नाम से पुकारा । प्रो. शुम्पीटर ने अपनी पुस्तक Ten Great Economist में लिखा कि मार्क्सवाद एक धर्म है । रूढ़िवादी मार्क्सवादियों के लिए मार्क्सवादियों का विरोध बुरा ही नहीं बल्कि पाप माना गया । उनकी पुस्तक Das Kapital को समाजवाद की बाइबिल कहा गया ।

शुम्पीटर अपने ग्रंथ History of Economic Analysis (1951, P. 390) में लिखते हैं कि जहाँ तक शुद्ध सिद्धान्त का सम्बन्ध है कार्ल मार्क्स को एक प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री माना जाना चाहिए । जे.एस. मिल ने जहाँ एडम स्मिथ की परम्पराओं का अनुसरण किया वहीं मार्क्स ऐसे प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों में थे जिन्होंने रिकार्डों के उपकरणों का प्रयोग किया । मार्क्स के अनुसार- प्रतिष्ठित राजनीतिक अर्थव्यवस्था पेटी के समय में एक बुजुर्ग समाज में उत्पादन के वास्तविक संबंधी की खोजबीन करती थी ।

एडम स्मिथ एवं रिकार्डों इस स्कूल के अच्छे प्रतिनिधि थे लेकिन आधुनिक आर्थिक दशाओं का अनुभव सिद्ध अवलोकन रिकार्ड ने किया । मार्क्स के अनुसार- राजनीतिक अर्धव्यवस्था विज्ञान केवल तब तक है जब तक वर्ग संघर्ष दिखायी देते है ।


2. कार्ल मार्क्स सिद्धांत की इतिहास का भौतिकवादी विश्लेषण (Materialistic Interpretation of History of Karl Marx Theory):

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मार्क्स ने इतिहास की प्रत्येक घटना को आर्थिक आधारों पर स्पष्ट किया । उनके अनुसार- सामाजिक जीवन के विकास को इतिहास के भौतिकवादी विश्लेषण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है । सभी ऐतिहासिक घटनाएँ समाज में विभिन्न वर्गों एवं समूहों के मध्य चल रहे नियमित आर्थिक संघर्ष का परिणाम होती है । इतिहास संयोग से घटने वाली घटनाओं का एकत्रण नहीं है बल्कि यह निश्चित नियमों खा अनुसरण करता है जिससे सामाजिक जीवन के बदले हुए स्वरूपों का सृजन होता है ।

मार्क्स के अनुसार- उत्पादन की विधि वह मुख्य घटक है जो सामाजिक व्यवहार को निर्धारित करती है । मार्क्स के अनुसार- उत्पादन से संबंधित भौतिक शक्तियों में परिवर्तन होता रहता है । उत्पादन की विधि एवं उत्पादन का संबंध विचारों एवं संस्थाओं को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करते है ।

मार्क्स के अनुसार- विकास की एक निश्चित अवस्था में समाज की भौतिक उत्पादक शक्तियाँ उत्पादन के विद्यमान संबंधों के साथ द्वंद का अनुभव करती हैं परिवर्तन की इस प्रक्रिया में ‘वर्ग संघर्ष’ महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करता है ।

मार्क्स ने समाज के उदभव एवं विकास हेतु द्वंदात्मक भौतिकवाद के दर्शन का आधार लिया । समाज में चार विभिन्न अवस्थाओं का क्रम देखा जाता है प्राथमिक अवस्था प्राथमिक समाजवाद की है । तदुपरांत प्राचीन दास समाज की अवस्था आती है । प्राथमिक अवस्था में उत्पादन के साधनों पर समाज स्वामित्व होता है । श्रम विभाजन विकसित नहीं होता ।

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श्रम के प्रतिफल को समुदाय के सदस्यों द्वारा समान रूप से बाँट लिया जाता है । प्राचीन दास समाज की अवस्था में व्यक्ति द्वारा व्यक्ति का शोषण किया जाता है । दूसरी अवस्था में श्रम विभाजन को बल मिलता है तथा शहरीकरण होता है । व्यापार एवं वाणिज्य की क्रियाएं बढ़ती हैं । उत्पादन की शक्तियों के विकसित होने पर दास अवस्था सामंतशाही के रूप में उभरती है जो मार्क्स के अनुसार- विकास की तासरी अवस्था है । सामंतशाही के अधीन भूमि मुख्य उत्पादन का साधन होती है । कृषि एवं दस्तकारी लघु स्तर पर विकसित होती है तथा शहरों में गिल्ड प्रणाली फलती फूलती है ।

उत्पादन एवं व्यापार का विस्तार होने पर सामंतशाही शक्तियाँ अर्थव्यवस्था की उत्पादक शक्ति में वृद्धि हेतु अवरोध का अनुभव करती हैं । विद्यमान आर्थिक संगठन एवं सुधरी हुई उत्पादक शक्तियों के मध्य द्वंद विकसित होता है । इससे सामंतवादी प्रणाली का पतन होता है तथा एक बुजुर्ग सामाजिक प्रणाली स्थापित होती है । स्वतंत्र प्रतिस्पर्द्धा, समान अधिकार एवं उत्पादन के पूँजीवादी तरीके विकसित होते है ।

पूंजीवाद के अधीन उत्पादन से संबंधित व्यवस्थाएँ बदलती है तथा पूंजीपति व श्रमिकों के मध्य संघर्ष बढ़ता है । अंतत: श्रमजीवी या सर्वहारा द्वारा पूंजीपति वर्ग का विनाश किया जाता है तथा उद्योगों का प्रबंध अपने हाथों में लिया जाता है । मार्क्स के अनुसार- प्रगतिशील विकास के उपरांत संस्थागत परिवर्तन, पुनरुत्थान व जाति की स्थिति अपना होती है ।


3. मार्क्स की प्रणाली: सरल पुनरुत्पादन (Marx’ System: Simple Reproduction):

मार्क्स के अनुसार- श्रम अकेले मूल्य का उत्पादन करता है सर इसकी एक विशेष प्रकृति यह है कि यह अपने स्वयं के मूल्य से अधिक उत्पादन करने में समर्थ होता है । पूंजीवादी खेल के नियमों के अन्तर्गत स्वतंत्र बाजार प्रतिस्पर्द्धा वस्तुओं की कीमतों को उनकी उत्पादन लागत तक गिराती है ।

इससे वस्तुएँ अपने श्रम मूल्य पर विनिमय की जाती है, जिसका निर्धारण उन्हें उत्पादित करने में आवश्यक श्रम समय के द्वारा होता है । पूंजीवादी समाज में मानवीय श्रम को भी एक वस्तु की तरह देखे जाने की प्रवृति विद्यमान होती है । वस्तु शक्ति जिसे मार्क्स ने श्रम शक्ति कहा कि विनिमय अवश्य ही श्रम मूल्य पर होना चाहिए ।

श्रम शक्ति का श्रम मूल्य वह श्रम समय है जिसकी आवश्यकता वस्तुओं के उत्पादन हेतु होती है । इसके द्वारा श्रमिकों को जीवन निर्वाह प्रदान किया जाता है । श्रम के द्वारा उत्पादित मूल्य का अतिरेक एवं श्रम शक्ति के मूल्य के मध्य अंतर को मार्क्स ने अतिरेक ख्त के द्वारा स्पष्ट किया । इसे अतिरेक मूल्य कहा गया है जिसे पूंजीपति प्राप्त करता है जिसके पास उत्पादन के साधनों का स्वामित्व होता है । यह अतिरेक मूल्य लाभ का उदगम है ।

मार्क्स के अनुसार- किसी वस्तु का मूल्य निम्न तीन घटकों का योग होता है ।

C+V+S

जहाँ’,

C = श्रम की वह मात्रा जिसकी आवश्यकता स्थिर पूँजी को प्रतिस्थापित करने हेतु पड़ती है । यह कच्चे संसाधनों की मात्रा एवं पूँजी यंत्रों का ह्रास है जिसकी उत्पादन में आवश्यकता पड़ती है । यह स्थिर होता है, क्योंकि यह नए मूल्य को सृजित नहीं कर सकता लेकिन अपने मूल्य का भाग उस उत्पाद की ओर स्थानान्तरित करता है जिसे उत्पादित करने में इसका प्रयोग किया जा रहा है ।

V = श्रम की वह मात्रा जिसकी आवश्यकता परिवर्ती पूँजी को प्रतिस्थापित करने में पड़ती है । इसे मजदूरी वस्तुओं पर पूँजीपति के परिव्यय के द्वारा परिभाषित किया जाता है जो श्रम के अनुरक्षण की ओर प्रवाहित किया जाता है ।

S = अतिरेक मूल्य है, इसकी प्राप्ति पूँजीपति को होती है ।

मार्क्स द्वारा पूँजीपति समाज में गति के नियम की व्याख्या एक वृद्धिशील अर्थव्यवस्था में उत्पादन के सामाजिक संबंधों में परिवर्तन को स्पष्ट करती है । समाज का स्वरूप चाहे कुछ भी हो, गति की पहली दशा पुनर्रुत्पादन है ।

एक पूंजीवादी समाज में पूँजीवादी उत्पादन पूँजीवादी पुनर्रुत्पादन को समाहित करता है । पूँजीवादी उत्पादन की मुख्य प्रवृति उत्पादन के दौरान अतिरेक प्राप्त करने से संबंधित है । पूँजीवादी पुनर्रुत्थान से अभिप्राय यह है कि पूँजी जिसे अतिरेक मूल्य प्राप्त करने के उद्देश्य से लगाया जाता है ठीक इसी प्रकार उत्पादन में पुन लगा दी जाती है ।

अतिरेक मूल्य की वृद्धि जो हर अगली अवधि में पूँजीपति के आगम के रूप में प्राप्त होती है का कारण श्रम की ऐसी महत्वपूर्ण विशेषता है जिसके अधीन वह अपने स्वयं के मूल्य से अधिक उत्पादन करने की प्रवृति रखता है । यदि अतिरेक मूल्य की वृद्धि पूरी तरह पूँजीपति के द्वारा उपभोग कर ली जाये तो मार्क्स के अनुसार- यह सरल पुनर्रुत्पादन है । मार्क्स द्वारा वर्णित सरल पुनर्रुत्पादन की स्कीम वस्तुत: क्विजने के Tableau Economique का संशोधित रूप है ।

इसे स्पष्ट करने के लिए मार्क्स ने अर्थव्यवस्था को दो विभागों में बाँटा:

विभाग I- पूँजी वस्तु क्षेत्र

विभाग II- उपभोक्ता वस्तु क्षेत्र

यदि C पूँजीपति की वह आय हो जिसे उत्पादन के साधनों पर अवश्य व्यय किया जाये तब विभाग I व विभाग II में स्थिर पूँजी क्रमश: C1 व C2 के द्वारा प्रदर्शित किया जाती है ।

S अतिरेक मूल्य है या पूँजीपति की वह आय है जिसे वह स्वतंत्रतापूर्वक उपभोग पर व्यय कर सकने में समर्थ है । इस प्रकार विभाग I व विभाग II में अतिरेक मूल्य क्रमश: V1 व V2 है ।

V श्रमिक की आय या मजदूरी है जिसे उपभोग पर व्यय किया जाता है । इस प्रकार विभाग I व II में श्रमिक को प्राप्त होने वाली मजदूरी क्रमश: V1 व V2 है ।

अत: विभाग I व विभाग II के कुल उत्पादन a1 व a2 क्रमश: निम्नांकित होगा:

विभाग a1 में कुल उत्पादन a1 = C1 + V1 + S1

विभाग a2 में कुल उत्पादन a2 = C2 + V2 + S2

संतुलन की दशा में सरल पुनरूत्पादन की दशा निम्न होगी:

C1 = V1 + S1

इससे अभिप्राय है कि समग्र माँग एवं समग्र पूर्ति तब संतुलन में होगी यदि स्थिर पूँजी का मूल्य जिसे उपभोक्ता वस्तु क्षेत्र में प्रयुक्त किया जा रहा है ठीक बराबर होगा श्रमिक एवं पूँजीपति द्वारा उपयोग की जाने वाली वस्तुओं के मूल्य के । यदि यह दशा संतुष्ट होती है तो उत्पादन का पैमाना अपरिवर्तित ही रहेगा एवं शुद्ध विनियोग शून्य होगा ।

स्पष्ट है कि सरल पुनर्रुत्पादन के लिए स्थिर पूँजी की कुल उपयोग की गयी मात्रा C1 + C2 बराबर होनी चाहिए विभाग I द्वारा किए गए कुल उत्पादन C1 + V1 + S1 के । इसके साथ ही श्रमिक एवं पूँजीपतियों द्वारा किया गया कुल उपभोग बराबर होना चाहिए विभाग II द्वारा किए गए उत्पादन C2 + V2 + S2 के ।

विस्तृत पुनर्रुत्पादन (Expanded Reproduction):

विस्तृत पुनर्रुत्पादन हेतु आवश्यक है कि अतिरेक का एक भाग अधिक पूँजी वस्तुओं के उत्पादन में पुनर्विनियोजित किया जाए तथा अतिरिक्त श्रमिकों को रोजगार प्रदान किया जाए तथा इसका शेष भाग अधिक मशीनरी तथा कच्चे संसाधन के क्रय में व्यय किया जाये । इससे स्पष्ट है कि दोनों विभागों में उत्पादन एवं पुनर्रुत्पादन की क्रिया साथ-साथ चलती रहे ।

अत: सरल पुनर्रुत्पादन के अधीन पूँजीपति अपनी पूँजी को बढ़ाता है । वह अपने अतिरेक मूल्य के बहुल अनुपात को अधिक पूँजी प्राप्त करने की दिशा में लगाता है । वह प्रक्रिया जिसमें पूँजी को अधिक अतिरेक प्रदान करने हेतु लगाया जाता है जिससे अतिरेक पूंजी का सृजन हो पूँजी के संचय की प्रकिया है । इसे मार्क्स ने विस्तृत पुनर्रुत्पादन की स्कीम में व्याख्यियित किया । यह स्कीम पूर्तियों व माँग के असंबंध को सूचित करती है, जबकि शुद्ध विनियोग या पूँजी संचय धनात्मक हो ।

विस्तृत उत्पादन की दशा में अतिरेक मूल्य उत्पादक द्वारा पूर्णत: उपभोग नहीं किया जाता बल्कि यह तीन भागों में विभक्त रहता है । पहला भाग, जिसका उपभोग पूँजीपति द्वारा किया जाता है । दूसरा भाग, जो स्थिर पूँजी में वृद्धि करता है । तीसरा वह जो परिवर्ती पूँजी में वृद्धि करता है । इस प्रकार संचय को  अतिरेक मूल्य के पूँजी के रूप में हस्तांतरण दारा स्पष्ट किया जा सकता है ।

संचय के साथ अतिरेक मूल्य बढ़ता है । अत: संचय की तीव्रता और अधिक होती है । उत्पादन में और अधिक कुशल तकनीक का प्रयोग किया जाता है । मार्क्स ने विस्तृत पुनर्रुत्पादन की प्रक्रिया में पूँजी संचय एवं तकनीकी प्रगति को महत्वपूर्ण स्थान दिया । इसे वह विकास के सिद्धान्त का आधार मानते हैं ।


4. कार्ल मार्क्स सिद्धांत के वृद्धि एवं संकट (Growth and Crisis of Karl Marx Theory):

मार्क्स के अनुसार- पूँजीवादी खेल के नियमों द्वारा ही संकट उत्पन्न होते है जो कि उत्पादन की शक्तियों एवं उत्पादक संबंधों के मध्य के विरोधाभास का कारण है । मार्क्स ने पूँजीवादी उत्पादन की वास्तविक बाधा स्वयं पूँजी को माना ।

उनके अनुसार– पूँजीवादी उत्पादन में निम्न प्रकार के संकट उत्पन्न होते है:

i. गैर आनुपातिकता के कारण उत्पन्न संकट:

मार्क्स ने अपने ग्रंथ Capital द्वितीय खण्ड के तीसरे भाग में उन दशाओं की व्याख्या की है जिसके अधीन पूँजी संचय या विस्तृत पुनर्रुत्पादन एक स्थिर दर पर बिना किसी बाधा के होता रहता है । मार्क्स का विचार था कि ऐसे कई प्रभाव कार्य करते हैं जो अर्थव्यवस्था के दोनों क्षेत्रों के मध्य के संतुलन में बाधा पहुंचाते है ।

इसका कारण है उत्पादन की किसी शाखा में गैर आनुपातिक विकास होना । ऐसी स्थिति में उद्योग संकुचित होते है, क्योंकि इसके अतिरिक्त उत्पाद के लिए कोई बाजार नहीं होता । ऐसे में श्रमिकों को काम से बाहर निकाला जाता है । इसके साथ ही वस्तुओं की माँग भी कम होगी जिससे अन्य उद्योगों में संकुचन दिखायी देगा ।

ii. अर्द्ध उपभोग के संकट:

मार्क्स ने ऐसी दशा पर विचार किया, जबकि विस्तृत पुनरूत्पादन एक स्थिर दर पर नहीं बल्कि एक बढ़ती हुई दर से प्राप्त होता है । इस दशा में संकट की संभावना अर्द्ध उपभोग के कारण उत्पन्न होती है । जब किसी वर्ष शुद्ध आय के अनुपात के रूप में संचय की दर बढ़ती है तो अन्य बातों के समान रहने पर पूँजीपति अपने उपभोग में कमी करता है तथा पिछले वर्ष की तुलना में अपने अतिरेक मूल्य का अधिक अनुपात बचाता है ।

ऐसे में बचत की दर बढ़ती है तथा उपभोग गिरता है । ऐसा होने पर पूँजीपति विलासिता की वस्तुओं को पूरी तरह खपा पाने में समर्थ नहीं बन पाता । अत: उत्पादन से अतिरेक मूल्य की प्राप्ति नहीं हो पाती । इससे विनियोग की प्रक्रिया नियमित नहीं रह पाती ।

श्रमिक ऐसी वस्तुओं को खरीदने में असमर्थ रहते हैं, क्योंकि उनकी आय सीमित होती है । संक्षेप में समग्र उत्पादन की तुलना में समग्र समर्थ माँग कम हो जाती है जिससे उत्पादन के साधनों की माँग पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है । इसका कारण यह है कि उपभोक्ता वस्तु क्षेत्र में पूंजीपति अपनी पूंजी पर लाभ या अतिरेक मूल्य प्राप्त करने में असमर्थ रहता है ।

अर्द्ध उपभोग का संकट इस कारण उत्पन्न होता है, क्योंकि प्रणाली में व्यापक निर्धनता पायी जाती है तथा जनसमूह सीमित उपभोग करता है । इस प्रकार अर्द्ध उपभोग गैर आनुपातिकता की एक विशेष दशा है जिसमें एक तरफ उपभोक्ता वस्तुओं की माँग की वृद्धि एवं उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादित करने की क्षमता में वृद्धि के मध्य आनुपातिकता पूंजीवाद के असमन्वित चरित्र से उत्पन्न नहीं होती बल्कि खेल के पूँजीवादी नियमों से उत्पन्न होती है । पूँजी एवं स्वयं प्रसार के पीछे उत्पादन का लक्ष्य एवं उद्‌देश्य होता है । उत्पादन केवल पूँजी की प्राप्ति से किया जाता है ।

iii. लाभ की दर की गिरती प्रवृत्ति से उत्पन्न होने वाले संकट:

मार्क्स ने विस्तृत पुनर्रुत्पादन की व्याख्या में यह माना कि जब नया विनियोग किया जाता है तब स्थिर एवं परिवर्ती पूँजी के मध्य का अनुपात स्थिर रहता है । इस दशा के संतुष्ट होने पर होने पर ही वस्तुओं की माँग के साथ-साथ श्रम की पूर्ति भी नियमित व आनुपातिक विस्तार कर पाती है ।

बाद में मार्क्स ने Capital के खंड III में इस मान्यता को हटा दिया तथा ऐसी दशा को ध्यान में रखा जिसमें पूँजी के संचय के साथ उद्योग मैं प्रयोग की जा रही तकनीक बदलती है एवं पूँजी की कार्बनिक संरचना बढ़ती है । मार्क्स के अनुसार- अब तक नयी समस्या उत्पन्न होती है कि पूंजी की कार्बनिक संरचना के बढ़ने के साथ लाभ की दर गिरेगी तथा भविष्य में किया जाने वाला विनियोग प्रभावित होगा । यदि यह प्रवृति दीर्घकाल तक चलती रहे तब इससे पूँजी के विस्तार की प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न हो जाएँगे ।

लाभ की दर, अतिरेक मूल्य की दर एवं पूँजी की कार्बनिक संरचना के मध्य संबंध (Relationship between Rate of Profit, Rate of Surplus Value and Organic Composition of Capital):

लाभ की दर (r) अतिरेक मूल्य की दर (s) एवं पूँजी की कार्बनिक संरचना (q) के मध्य के संबंध निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है:

स्पष्ट है कि लाभ की वास्तविक दर r, अतिरेक मूल्य की दर S = S/V से संबंधित होती है । अतिरेक मूल्य की दर S के दिये होने पर लाभ की दर का निर्धारण परिवर्ती से स्थिर पूंजी के अनुपात (V/C + V) द्वारा होता है । लाभ की दर का परिकलन करने में चुँकि अतिरेक मूल्य S एवं परिवर्ती पूंजी को दिया हुआ माना गया है । अत: परिवर्ती पूंजी V से कुल पूँजी C + V के अनुपात में होने वाला कोई भी परिवर्तन मात्र स्थिर पूंजी ट में होने वाले परिवर्तन के कारण संभव होगा ।

लाभ की दर, r, स्थिर पूँजी C के विपरीत अनुपात तथा अतिरेक मूल्य की दर S के प्रत्यक्ष अनुपात में बदलती है जिसका बढ़ना या घटना श्रम की उत्पादकता से प्रत्यक्ष अनुपात तथा श्रम के मूल्य से विपरीत अनुपात रखता है । लाभ की दर में तब कमी होगी जब स्थिर पूँजी को इस सीमा तक बढ़ाया जाए कि कुल पूँजी परिवर्ती पूँजी की तुलना में एक तीव्र दर से बड़े, जबकि माना गया हो कि अतिरेक मूल्य की दर S स्थिर है ।

इन समीकरणों को ज्ञात करने में यह माना गया है कि सभी उद्योगों में पूँजी का समान मूल्य भाग निश्चित है जिसके द्वारा कीमतें, मूल्य के अनुपाती तथा लाभ अतिरेक मूल्यों के अनुपाती होती है ।

मार्क्स की व्याख्या मुख्यत:

(i) तकनीकी प्रगति से पूँजीवाद के विकास,

(ii) वास्तविक मजदूरी के जीविकोपार्जन स्तर पर स्थिर रहने, तथा

(iii) प्रतिफल की दर में कमी के मुख्य पक्षों से संबंधित रही लेकिन इनका एक समय में एक साथ होना संभव नहीं है । मार्क्स प्रतिफल की दर में होने वाली कमी के विवेचन को स्पष्ट रूप से प्रमाणित नहीं कर पाए यद्यपि उन्होंने प्रतिष्ठित विश्लेषण का तर्क लिया पर उसके मुख्य आधार जनसंख्या वृद्धि व प्रतिफल की कमी के घटकों को ध्यान में नहीं रखा ।


5. कार्ल मार्क्स सिद्धांत की सीमाएँ (Limitation of Karl Marx Theory):

मार्क्स के विश्लेषण की सीमाएँ निम्नांकित रहीं:

i. मार्क्स द्वारा पूंजीवाद के पतन एवं अंत की भविष्यवाणी अनुभव सिद्ध अवलोकन पर खरी नहीं उतरती:

मार्क्स के अनुसार- उन देशों में समाजवाद की स्थापना होगी जहाँ सुदृढ़ पूँजीवादी आधार है पर यह चीन जैसे देशों के संदर्भ में सत्य नहीं हुआ जहाँ पूँजी सापेक्षिक रूप से अल्प थी । स्पष्ट है कि समाजवाद उन देशों में आया जहाँ पूँजीवाद अपने चरम उत्कर्ष पर नहीं था ।

मार्क्स ने पूँजीवादी प्रणाली की लोचशीलता को ध्यान में नहीं रखा- सामाजिक सुरक्षा उपायों, ट्रस्ट विरोधी नियमों तथा मिश्रित अर्थव्यवस्थाओं के दृष्टान्त ने मार्क्स की इस भविष्यवाणी को झुठला दिया कि पूँजीवाद अपने विनाश के बीज स्वयं में निहित रखता है । वास्तव में पूँजीवादी देशों में मजदूरी एवं जीवन स्तर बड़ा है ।

ii. मार्क्स ने मध्यम वर्ग की उपेक्षा की:

मार्क्स के अनुसार- पूँजीवादी प्रणाली में केवल पूँजीपति एवं श्रमिक वर्ग रहेंगे तथा मध्यम वर्ग रहेंगे तथा मध्यम वर्ग समाप्त हो जाएगा । उनका यह कथन व्यावहारिक नहीं है, क्योंकि पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में मध्य वर्ग काफी बड़ा भाग रखता है ।

iii. मार्क्स का विश्लेषण अवास्तविक अतिरेक मूल्य पर आधारित है:

वास्तविक जीवन में मूल्यों की अपेक्षा वास्तविक व्यक्त कीमतों का अधिक महत्व है ।

iv. तकनीकी प्रगति रोजगार की वृद्धि में सहायक होती है:

मार्क्स का विश्वास था कि तकनीकी प्रगति के साथ रिजर्व सेना बढ़ती है । वास्तव में दीर्घकाल में तकनीकी प्रगति के परिणामस्वरूप रोजगार के अधिक अवसरों की प्राप्ति संभव है ।

विकसित देशों में इतनी अधिक बेकारी की दशा नहीं दिखाई देती है जैसा मार्क्स ने अनुमान लगाया था । मेयर एवं बाल्डविन के अनुसार- तकनीकी प्रगति का शुद्ध प्रभाव श्रम की माँग में वृद्धि का है न कि कमी करने का । इस कारण तकनीकी प्रगति के साथ संबंधित विनियोग समग्र माँग एवं आय में वृद्धि करता है ।

v. संकेन्द्रण की प्रवृति पर विचार सत्य नहीं:

मार्क्स के अनुसार-तकनीकी प्रगति से व्यापक एकाबिकारी संगठन स्थापित होते है उनका यह विश्लेषण काफी बढ़ा चढ़ा कर कहा गया प्रतीत होता है ।

vi. मार्क्स की लाभों में गिरावट की प्रवृति कुछ भी स्पष्ट नहीं करता:

मार्क्स के अनुसार- जैसे-जैसे विकास होता जाता है वैसे ही पूँजी की कार्बनिक सरंचना में वृद्धि होती जाती है, जबकि अतिरेक मूल्य की दर स्थिर रहती है । अत: लाभ की दर में कमी आती है । पाल स्वीजी के अनुसार- मार्क्स का यह विश्लेषण स्पष्ट नहीं है ।

ऐसी दशा जिसमें लाभ की दर पूँजी की कार्बनिक सरंचना के बढ़ने पर नहीं गिरती, पूँजी संचय की वृद्धि के साथ पूँजीपतियों के मध्य होने वाली प्रतिस्पर्द्धा का बढ़ना आवश्यक नहीं है तथा यह भी आवश्यक नहीं कि तकनीकी परिवर्तन अधिक बेकारी उत्पन्न करें जिससे कुल उत्पादन में मजदूरी का अंश कम हो ।

स्पष्ट है कि मार्क्स ने तकनीकी नव-प्रवर्तन अनुपात के गिरने एवं उत्पादकता में होने वाली वृद्धि से लाभ वस्तुत: मजदूरी के साथ-साथ बढ़ने की प्रवृति रखते हैं । इन्हीं कारणों से श्रीमति जोन रोबिंसन का कहना है कि मार्क्स का लाभों के गिरने संबंधी विश्लेषण कुछ भी स्पष्ट नहीं करता ।

vii. मजदूरी के अंश में कमी आवश्यक नहीं:

मार्क्स ने कहा कि पूँजी निर्माण से उपभोक्ता वस्तुओं की माँग घटती है व लाभ की दर गिरती है । उन्होंने यह ध्यान में नहीं रखा कि आर्थिक विकास के साथ-साथ समग्र आय में मजदूरी का अंश कम होना आवश्यक नहीं है । यदि ऐसा नहीं होता तब उत्पादन के साधनों की वृद्धि दर में उपभोग की वृद्धि दर का अनुपात नहीं गिरेगा तथा एक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में आर्थिक संक्रांति अधिक तीव्रता से अनुभव की जाएगी ।

मार्क्स के विश्लेषण के अनुरूप उपभोग में वृद्धि इसलिए होती है क्योंकि पूँजीपति भी अपने उपभोग में वृद्धि करते है तथा अपने संचय के एक भाग को मजदूरी में वृद्धि के लिए प्रवाहित करते है । यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि पूँजीपतियों द्वारा किया गया उपभोग उनके कुल अतिरेक मूल्य के अनुपात में गिरता हुआ होता है तथा साथ ही मजदूरी में होने वाली वृद्धि कुल संचय के अनुपात में गिरती हुई होती है । मार्क्स के अनुसार- श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी में वृद्धि नहीं होती पर यह तथ्य अनुभव सिद्ध अवलोकन पर खरा नहीं उतरता ।

viii. औद्योगिक विकास संबंधी निष्कर्ष उचित नहीं:

इरमा एडलमैन के अनुसार- मार्क्स ने औद्योगिक वृद्धि के संदर्भ में प्रस्तुत व्याख्या में एक तार्किक भूल की है । यह तो सत्य है कि वाह्य मितव्ययिताओं की संभावना एक औसत फर्म के आकार में वृद्धि को प्रोत्साहित करती है परन्तु इससे यह आशय नहीं है कि उद्योगों में केन्द्रीयकरण का अंश बढ़े । एक वृद्धिमान अर्थव्यवस्था में उद्योग का आकार एक समर्थ फर्म के विस्तार के साथ-साथ बढ़ता है । यह ध्यान रखना होगा कि एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में होने वाला प्रतिस्पर्द्धात्मक द्वन्द केन्द्रीयकरण के प्रेरक के रूप में कार्य करता है ।

प्रतियोगिता का यह द्वन्द वस्तुओं के सस्ते होने पर ही जीता जाना संभव है । यह तथ्य भी विचारणीय है कि वस्तुओं का सस्ता होना अन्य बातों के समान रहने पर श्रम की उत्पादकता पर निर्भर करता है तथा उत्पादन के पैमाने पर निर्भर करता है । पूंजी की अधिकता तथा साख प्रणाली की शक्ति भी इस प्रकार कार्य करती है कि केन्द्रीयकरण को अधिक बल मिलता है । साख प्रणाली के केन्द्रीयकरण से यह तात्पर्य है नहीं है कि छोटे पूँजीपतियों का बड़े पूँजीपतियों द्वारा शोषण किया जाए ।

ix. मार्क्स चक्रीय उच्चावचनों की अपूर्ण व्याख्या करते हैं:

मार्क्स ने सम्पूर्ण व्यापार चक्र को पूँजीवादी पद्धति का ६स्क भाग माना और भविष्यवाणी की कि यह उत्पादन में सकट का कारण बनेगा । मार्क्स ने व्यापार चक्र संबंधी प्रतिष्ठित विश्लेषण को न तो पूरी तरह स्वीकार किया और न ही नकारा । उन्होंने प्रभावपूर्ण माँग की भी सुस्पष्ट व्याख्या नहीं की । अल्पकाल में प्रतिफल की दर में होने वाली कमी की व्याख्या करते हुए मार्क्स ने प्रतिष्ठित विश्लेषण को अपनाया जिसके अनुसार बाजार के विस्तार से पूँजीनिर्माण को प्रोत्साहन मिलता है ।

अत: उत्पादन में वृद्धि होती है साथ ही बेरोजगारी बढ़ती है तथा मजदूरी की दर भी बढ़ती है । मजदूरी की दर में होने वाली वृद्धि प्रतिफल की दर एवं पूँजी निर्माण पर विपरीत प्रभाव डालेंगी जिससे कालान्तर में मजदूरी दरें गिरेंगी व बेरोजगारी फैलेगी ।

वस्तुत: मार्क्स विनियोग पूँजी को महत्वपूर्ण मानते हैं तथा माँग में होने वाली कमी पर विचार नहीं करते । वह कुल उत्पादन को परिवर्तनशील नहीं मानते तथा उत्पादन में होने वाले परिवर्तन से संकट उत्पन्न होने का तर्क देते हैं । लेकिन उपर्युक्त विचारों से व्यापार चक्र की सुस्पष्ट व्याख्या नहीं होती ।

संक्षेप में मार्क्स का विश्लेषण तकनीकी प्रगति से पूँजीवाद के विकास, वास्तविक मजदूरी दर के जीवन निर्वाह स्तर पर स्थिर रहने तथा प्रतिफल की दर में कमी के तीन मुख्य पक्षों से संबंधित है, लेकिन इनका एक समय अवधि में एक साथ होना संभव नहीं है । मार्क्स ने प्रतिफल की दर में कमी के विश्लेषण को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त नहीं कर पाए इ उन्होंने प्रतिष्ठित मान्यताओं का तर्क लिया पर उनके मुख्य आधार जनवृद्धि व प्रतिफल की कमी के घटकों को ध्यान में नहीं रखा ।

उपर्युक्त सीमाओं के बावजूद भी मार्क्स की आर्थिक विकास से संबंधित व्याख्या की महत्ता है उनकी विस्तृत पुनरूत्पादन की योजना बचत एवं विनियोग के मध्य अन्तसंबध का आधार प्रस्तुत करता है । मार्क्स ने असंतुलन प्रणालियों एवं आंतरिक रूप से सृजित वृद्धि तथा संतुलन प्रणाली व आर्थिक वृद्धिरोध के मध्य जो व्याख्या प्रस्तुत की वह अर्द्धविकास की समस्याओं को सुलझाने में मदद करती है ।

प्रो. लास्की के अनुसरण विश्व के प्रत्येक देश में जहाँ व्यक्तियों ने सामाजिक सुधार के कार्य में स्वयं को लगाया है वहाँ मार्क्स हमेशा प्रेरणा एवं अनुसार के स्रोत बने रहेंगे । मेयर एवं बाल्डविन के अनुसार- मार्क्स की संकल्पनाएँ आज भी निर्धन व समृद्ध देशों के भविष्य के लिए धार्मिक व राजनीतिक दोनों ही रूप में चुनौती देती हैं । मार्क्स के विरोधियों में कीन्स मुख्य थे लेकिन उन्होंने भी मार्क्स की संकल्पनाओं का आधार लिया । कीरके प्रतिफल की दर में कमी, औद्योगिक बेरोजगारी व अल्प उपभोग की व्याख्या में मार्क्स के विश्लेषण की छाया दिखायी देती है ।