घाटे के वित्तपोषण के उद्देश्य: 3 उद्देश्य | Read this article in Hindi to learn about the three main objectives of deficit financing. The objectives are:- 1. अर्थव्यवस्था को मन्दी की स्थिति से (To Overcome the Economy from Depression) 2. युद्ध वित्त संसाधन एकत्रित करना (Collection of Resources for War Finance) and 3. आर्थिक विकास का उद्देश्य (Objectives of Economic Development).

न्यून वित्त प्रबन्ध के मुख्य उद्देश्य निम्न है:

(1) अर्थव्यवस्था को मन्दी की स्थिति से बचाना ।

(2) युद्ध वित्त हेतु संसाधन एकत्र करना ।

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(3) आर्थिक विकास हेतु अतिरिक्त संसाधनों की आवश्यकता ।

(1) अर्थव्यवस्था को मन्दी की स्थिति से (To Overcome the Economy from Depression):

एक विकसित अर्थव्यवस्था में मन्दी की स्थिति विद्यमान होने पर न्यून वित्त प्रबन्ध की नीति उपयुक्त मानी जाती है । मन्दी की दशा में देश के व्यय में काफी कमी आ जाती है, जबकि उत्पादन के संसाधन विद्यमान होते हैं पर उनका समुचित विदोहन नहीं हो पाता ।

विनियोग की प्रेरणाएँ अनुपस्थित होती हैं । जोखिम एवं अनिश्चितता की स्थिति में विनियोगी विनियोग हेतु प्रयास नहीं करते । मन्दी की स्थिति से छुटकारा पाने के लिए कीन्ज ने सार्वजनिक विनियोगों में वृद्धि को महत्वपूर्ण उपाय माना ।

सार्वजनिक निर्माण कार्यों में सार्वजनिक व्यय की वृद्धि से रोजगार के अवसर बढते है जिनसे क्रय शक्ति भी बढ़ती है । क्रयशक्ति की वृद्धि माँग में वृद्धि करती है जिससे उत्पादकता के स्तर में अनुकूल प्रोत्साहन प्राप्त होता है । उत्पादकता की वृद्धि संसाधनों के अधिक प्रयोग एवं रोजगार के स्तर में वृद्धि को जन्म देती

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मन्दी के निवारण हेतु सार्वजनिक विनियोग में वृद्धि के तीन तरीके हैं:

(i) करारोपण,

(ii) सार्वजनिक ऋण एवं

(iii) न्यून वित्त प्रलय ।

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इनमें न्यून वित्त प्रबन्ध को इस कारण श्रेष्ठ समझा जाता है कि इससे अतिरिक्त मुद्रा पूर्ति होती है व व्यर्थ पडे संसाधनों को काम पर लगाया जा सकता है । करारोपण से क्रयशक्ति नागरिकों के हाथ से हटकर सरकार के पास आ जाती है और नवीन व्यय नहीं होता ।

सार्वजनिक क्या द्वारा सार्वजनिक व्यय में वृद्धि तो होती है पर सरकार को ऋण प्राप्त करने में ब्याज की उच्च दरें चुकानी पडती हैं । किंज व उनके अनुयायी न्यून वित्त प्रबन्ध को उस दशा में उपयुक्त मानते हैं जब अर्थव्यवस्था में संसाधनों का विदोहन न हो पा रहा हो ।

मन्दी काल में न्यून वित्त प्रबन्ध के द्वारा आर्थिक पुनरुत्थान प्राप्त करने को समुत्थान प्रोत्साहन कहा गया । इससे अभिप्राय यह है सार्वजनिक निर्माण एवं अन्य क्रियाओं में किया गया ऐसा भारी व्यय जिसका उद्देश्य रोजगार व क्रय शक्ति को बढ़ाना है ।

सार्वजनिक परिव्यय में होने वाली वृद्धि से रोजगार बढता है । जिससे अर्थव्यवस्था में उपभोग बढता है, अधिक वस्तुओं की माँग होती है । फलतः उत्पादन में तदनरूपी वृद्धि होती है । सार्वजनिक व्यय की आरम्भिक वृद्धि से निजी विनियोग में होने वाली वृद्धि आय में गुणक प्रभाव उत्पन्न करती है । यह विधि आर्थिक पुनरुत्थान करने एवं निजी विनियोग की प्रक्रिया को बढ़ाने के लिए उपयुक्त मानी जाती है ।

विकसित देश न्यून वित्त प्रबन्ध को केवल मन्त्री के समय आर्थिक पुनरुत्थान हेतु ही उपयुक्त नहीं मानते वरन इसके द्वारा व्यापार चक्रों की गहनता तथा सतत् वृद्धिरोध की समस्या को भी सुलझाया जा सकता है ।

(2) युद्ध वित्त संसाधन एकत्रित करना (Collection of Resources for War Finance):

युद्ध वित्त हेतु संसाधन एकत्रित करने में करारोपण व सार्वजनिक ऋणों की सीमा है । करारोपण में वृद्धि करने पर प्रायः जन विरोध होता है तो सार्वजनिक ऋणों पर सरकार को ब्याज की निर्धारित दरें चुकानी पड़ती है । इस कारण युद्ध वित्त हेतु मौद्रिक पूर्ति में वृद्धि के लिए न्यून वित्त प्रबन्ध को उपयुक्त समझा जाता है, लेकिन इसकी कुछ सीमाएँ भी है ।

न्यून वित्त प्रबन्ध से क्रय शक्ति में वृद्धि होती है लेकिन देश के वास्तविक संसाधनों का प्रयोग उपभोक्ता वस्तु उत्पादन में नहीं बल्कि युद्ध की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु किया जाता है ।

स्पष्ट है कि उपभोक्ता की क्रय शक्ति में वृद्धि होने एवं उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि न होने से मुद्रा प्रसार का संकट बढ जाता है । युद्ध से अर्थव्यवस्था में विद्यमान पूंजीगत परिसम्पत्तियाँ विनिष्ट होती हैं ।

(3) आर्थिक विकास का उद्देश्य (Objectives of Economic Development):

विकासशील देशों की मुख्य समस्या यह है कि वह बचतों को किस प्रकार गतिशील करें तथा पूंजी निर्माण की दर में वृद्धि कैसे हो ? इन देशों में आय के न्यून स्तरों के कारण स्वैच्छिक बचतें भी न्यून होती है । करारोपण के द्वारा भी अधिक आगम एकत्र नहीं हो पाता ।

व्यक्तियों की आय के न्यून होने व सीमान्त उपभोग प्रवृति के उच्च होने से सार्वजनिक ऋण भी सीमित मात्रा में प्राप्त हो पाते हैं । अतः मुख्य समस्या यह बनी रहती है कि स्वैच्छिक बचतों के स्तर के साथ सरकार द्वारा एकत्रित करों, सार्वजनिक ऋण व बाह्य वित्त की मात्रा उनकी विनियोग आवश्यकताओं को देखते हुए बहुत कम होती है । अतः परिव्यय व आगम के मध्य के अन्तर को न्यून वित्त प्रबन्ध द्वारा पूरा किया जाता है ।

अधिकांश विकासशील देशों में सरकारी ने विनियोग उद्देश्य हेतु संसाधन एकत्र करने में न्यून वित्त प्रबन्ध को महत्वपूर्ण यन्त्र माना ।

विकास साधनों को गतिशील करने में न्यून वित्त प्रबन्ध का योगदान निम्न बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है:

(i) विकासशील देशों में निर्धनता के दुश्चक्र के कारण पूंजी निर्माण की दरें अल्प होती हैं । न्यूनता वित्त प्रबन्ध द्वारा वास्तविक साधनों को गतिशील किया जाता है ।

इसके द्वारा आर्थिक व सामाजिक उपरिमदों का सृजन किया जाता है जिनमें सडक व रेलवे, विद्युत, जल आपूर्ति, शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य मुख्य है । सरकार न्यून वित्त प्रबन्ध द्वारा सृजित मुद्रा से वास्तविक संसाधनों, जैसे-श्रम, कच्चे माल को खरीदती है तथा अन्तर्संरचना का निर्माण करती है ।

(ii) विकासशील देशों में करारोपण व सार्वजनिक उधार द्वारा विनियोग उद्देश्यों हेतु वास्तविक बचतों को गतिशील कर पाने में सफलता नहीं मिल पाती । अतः न्यून प्रबन्ध बलात् बचतों के द्वारा मौद्रिक पूर्ति में वृद्धि करता है जिससे सामान्य कीमतों में वृद्धि होती है तथा मुद्रा के मूल्य में कमी आती है ।

व्यक्ति कीमतों में वृद्धि होने के कारण अधिक उपभोग नहीं कर पाते । अत: इन वस्तुओं के उत्पादन में लगे संसाधनों का उपयोग सरकार द्वारा वास्तविक पूंजीगत वस्तुओं के सृजन में किया जाता है ।

(iii) विकासशील देशों में श्रम एवं अन्य वास्तविक संसाधनों की काफी अधिक मात्राएँ व्यर्थ पडी रहती हैं । सरकार इन वास्तविक संसाधनों को सृजित मुद्रा के माध्यम से गतिशील करती है तथा पूंजीगत परिसम्पत्ति का निर्माण करती है ।

(iv) ऐसी अर्थव्यवस्था में जहाँ एक ओर बेरोजगारी विद्यमान हो तथा उपभोक्ता वस्तु क्षेत्र में अतिरिक्त क्षमता विद्यमान हो, तब उपभोग में एक वृद्धि के साथ विनियोग में वृद्धि सम्भव हो सकती है । ऐसे में बेकार पड़े साधनों का प्रयोग किया जा सकता है ।

इन स्थितियों में सार्वजनिक विनियोग की एक अतिरिक्त मात्रा को यदि बजट घाटे के द्वारा गतिशील किया जाये तो उपभोग में होने वाले कुल व्यय में वृद्धि होती है तथा उपभोग वस्तुओं का उत्पादन भी बढ़ता है ।

ऐसी स्थिति में जब उपभोक्ता वस्तु क्षेत्र की अतिरेक क्षमता इतनी अधिक हो जाये कि वह बेरोजगार श्रम को पूर्णत: अवशोषित कीमतों में कोई वृद्धि नहीं होती । पूर्ण रोजगार की दशा प्राप्त होने पर अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों या कुछ अवस्थाओं में पूर्ण क्षमता उत्पन्न होती है व कीमतों में वृद्धि जारी रहती है, तब इस प्रक्रिया को तब तक चलाया जा सकता है जब तक मजदूरी की दर को स्थिर रखा जा सके । किंज ने इसी तर्क के आधार पर न्यूनता वित्त प्रबन्ध का समर्थन किया ।

(v) एक ऐसी अर्थव्यवस्था जहाँ अतिरेक श्रम तो हो पर पूँजीगत संसाधनों में अतिरेक क्षमता न हो वहां न्यून वित्त प्रबन्ध की नीति दो प्रकार से अपनायी जा सकती है- (a) अर्थव्यवस्था में अतिरेक क्षमता का सृजन करना अर्थात् विनियोगों को नयी पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन में लगा देना । इससे कीमतें नहीं बढेगी, परन्तु बेकारी की समस्या विद्यमान रहेगी । (b) अर्थव्यवस्था में रोजगार की मात्रा में वृद्धि जिससे चालू उपभोग बढे व न्यून वित्त प्रबन्ध के द्वारा विनियोगों को गतिशील किया जाये । इससे रोजगार बढेगा, लेकिन साथ ही कीमतें भी बढ़ेगी ।