आलू खेती के लिए मृदा पोषक तत्व | Read this article in Hindi to learn about the soil nutrients required for potato cultivation.

किसी भी फसल को समुचित वृद्धि विकास एवं जीवनचक्र पूरा करने के लिए सोलह पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है । जिन्हें हम आवश्यक पोषक तत्व कहते हैं । सामान्यतः किसी भी पौधे का 94.0 से 99.5 प्रतिशत भाग कार्बन हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन से मिलकर बनता है तथा ये पोषक तत्व पौधों को जल एवं वायु से प्राप्त होते हैं ।

शेष तेरह तत्व पौधे को मिट्‌टी से प्राप्त होते हैं जिन्हें हम आवश्यकता के आधार पर तीन श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं:

(i) प्रथम:

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मुख्य पोषक तत्व जिसमें नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश आते हैं व इन तत्वों की पौधों को अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है ।

(ii) द्वितीय:

गौण पोषक तत्व जिसमें कैल्शियम, मैग्नीशियम एवं सल्फर आते हैं तथा इन पोषक तत्वों की आवश्यकता मुख्य पोषक तत्वों की अपेक्षा कम मात्रा में होती है ।

(iii) तृतीय:

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सूक्ष्म पोषक तत्व, इसमें लोहा (आयरन), मेंगनीज, बोरोन, मोलीब्ड़ेनम, तांबा (कॉपर), जिंक, क्लोरीन एवं कोबाल्ट (दलहनी फसलों के लिये) आते हैं जिनकी सूक्ष्म मात्रा की ही आवश्यकता होती है । सभी आवश्यक पोषक तत्वों का हमारे खेत की मिट्‌टी में प्रचुर एवं संतुलित मात्रा में उपलब्ध होना अति आवश्यक है ।

देश में गंगा के मैदानी क्षेत्रों की मिट्‌टी में नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश को छोड्‌कर लगभग सारे आवश्यक पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहते हैं । अतः आलू फसल का उत्पादन मुख्यतः उपरोक्त तीनों पोषक तत्वों (नाइट्रोजन फॉस्फोरस एवं पोटाश) पर ही निर्भर करता है । आलू की अच्छी गुणवत्ता वाली भरपुर फसल के लिए खाद एवं उर्वरकों की उचित तथा संतुलित मात्रा का उपयुक्त समय पर प्रयोग करना अति आवश्यक है ।

1. नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश उर्वरक:

i. नाइट्रोजन:

नाइट्रोजन आलू फसल की वानस्पतिक वृद्धि एवं विकास में सबसे अधिक योगदान नाइट्रोजन का होता है । नाइट्रोजन तत्व की कमी से पौधों की वृद्धि एवं विकास कम तथा धीमा होता है । फसल समय से पहले परिपक्व हो जाती है । इस कारण फसल से उचित उपज प्राप्त नहीं हो पाती है ।

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साथ ही आवश्यकता से अधिक मात्रा में नाइट्रोजन का प्रयोग करने पर पौधों की वानस्पतिक वृद्धि एवं विकास अधिक व देर तक चलते रहते हैं जबकि कन्द बनने की प्रक्रिया देर से आरंभ होती है । कंदों का आकार छोटा रह जाता है तथा फसल देर से परिपक्व होती है । नाइट्रोजन की अधिकता वाली फसल देखने में बहुत अच्छी लगती है परन्तु उसमें कंदों की उपज कम मिलती है ।

एक अच्छी फसल जिससे हमें 300 क्विंटल कंद प्रति हेक्टेयर की उपज मिलती हैं-वह मिट्‌टी से लगभग 150 कि॰ग्रा॰ नाइट्रोजन का अवशोषण करती है । फसल में नाइट्रोजन की कितनी मात्रा डालनी चाहिए, यह आलू की प्रजाति, फसल चक्र, मिट्‌टी का प्रकार, सिंचाई, उर्वरक का प्रकार, प्रयोग करने के समय एवं विधि पर निर्भर करती है ।

लम्बी अवधि में परिपक्व होने वाली प्रजातियों जैसे कुफरी बादशाह, कुफरी चिप्सोना-1 एवं कुफरी चिप्सोना-3 (110-120 दिन) मध्यम समय (90-100 दिन) में तैयार होने वाली प्रजातियों जैसे- कुफरी बहार, कुफरी सूर्या आदि एवं न्यूनतम समय (85-90) दिन में तैयार होने वाली प्रजातियों जैसे कुफरी अशोका, कुफरी चन्द्रमुखी आदि की तुलना में अधिक नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है ।

यूरिया की तुलना में अमोनियम सल्फेट तथा कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट उर्वरक अधिक उपयोगी साबित हुए हैं । बुआई के समय यूरिया की अधिक मात्रा का प्रयोग करने से कल्लै स्याउट मर सकते हैं जिससे अंकुरण खराब होता है । अतः यूरिया का प्रयोग बुआई से एक या दो दिन पहले ही कर देना चाहिए ।

भारी मिट्‌टी (चिकनी मिट्टी) की अपेक्षा हल्की मिट्‌टी (रेतीली मिट्‌टी) में नाइट्रोजन युक्त उर्वरक की आवश्यकता अधिक होती है । प्रजाति एवं मिट्‌टी के आधार पर भारत के मैदानी क्षेत्रों में आलू की अच्छी भोज्य फसल लेने के लिए 180-220 कि॰ग्रा॰ नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर एवं अच्छी प्रसंस्करण फसल के लिए 270 कि॰ग्रा॰ नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है ।

बीज आलू फसल में नाइट्रोजन का प्रयोग कम मात्रा में करने की सलाह दी जाती है । नाइट्रोजन का प्रयोग अधिक मात्रा में करने से फसल पर विषाणुजनित रोगों के लक्षण उजागर नहीं होते । अत: बीज आलू फसल में 180 कि॰ग्रा॰ नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने की सलाह दी जाती है ।

उर्वरकों के साथ-साथ हम कार्बनिक खाद (हरी खाद या गोबर की खाद) का प्रयोग भी कर सकते हैं । ये खादें न सिर्फ मिट्‌टी में पोषक तत्वों की आपूर्ति करती है अपितु ये मिट्‌टी को भुरभुरा बनाती है मिट्‌टी में वायु का आवागमन बढ़ाती है तथा मिट्‌टी की जलग्रहण करने की क्षमता भी बढ़ाती है ।

ढैंचा की हरी खाद से हमें 20-30 कि॰ग्रा॰ नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है तथा जमीन की निचली सतह में विद्यमान पोषक तत्व उपर की सतह में आकर पौधों की प्राप्त होते हैं । 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद का प्रयोग करने से हमें फसल के आवश्यकता की आधी मात्रा फॉस्फोरस व पोटाश 25-30 कि॰ग्रा॰ नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर तथा गौण एवं सूक्ष्म पोषक तत्व प्राप्त होते हैं ।

नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों के प्रयोग के बाद नाइट्रोजन की कुछ मात्रा का निक्षालन होना एक सामान्य प्रक्रिया है जिससे नाइट्रोजन की यह मात्रा बहकर नष्ट हो जाती है । निक्षालन हानि को न्यूनतम करने एवं अधिक से अधिक मात्रा को पौधों के उपयोग में लाने के लिए नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों का प्रयोग दो बार में (बुआई के समय एवं मिट्‌टी चढ़ाते समय) पौधों की जड़ों के नजदीक लाइन में करना चाहिए तथा बिखेरकर प्रयोग करने से बचना चाहिए ।

नाइट्रोजन के उपयोग से आलू के पौधों की विकास एवं वृद्धि होती पत्तियों का आकार बढ़ता है । इसके साथ-साथ आलू के कंदों की संख्या व उनका आकार भी बढ़ता है । इसकी कमी से नीचे वाली पत्तियों का रंग पीला पड़ जाता है तथा पौधे की वृद्धि रूक जाती है और अन्त में उत्पादन पर प्रतिकूल असर पड़ता है ।

अधिक मात्रा में नत्रजन का उपयोग आलू बनने की प्रक्रिया तथा फसल पकने में विलम्ब करता है । नाइट्रोजन उर्वरक से आलू का पौधा केवल 40-45 प्रतिशत नाइट्रोजन ग्रहण करता है और यह मात्रा से अधिक होती है । आलू के पौधे को इसकी सबसे अधिक आवश्यकता 40 से 60 दिन के बीच में होती है ।

इसलिए बेहतर यही है कि नाइट्रोजन की सारी मात्रा बुआई के समय न डालकर अलग-अलग समय पर डाली जाय । सिंचित अवस्थाओं में नाइट्रोजन को दो भागों में अर्थात् आधी मात्रा बुआई के समय व शेष मिट्‌टी चढ़ाते समय डालने से नाइट्रोजन (नाइट्रेट) का जल के साथ रिसाव की समस्या का काफी हद तक समाधान हो जाता है ।

ii. फास्फोरस:

आलू की फसल में कोशिका विभाजन में फास्फोरस का विशेष योगदान रहता है । नाइट्रोजन के विपरीत यह तत्व कंद बनने की प्रक्रिया को जल्द प्रारंभ करता है । अधिक संख्या में कंद बनने में सहायता करता है तथा फसल को परिपक्व करता है । फास्पोरस, पौधे के पूर्ण विकास में योगदान करता है ।

इसकी उचित मात्रा उपलब्ध होने पर पौधे की जड़ों की वृद्धि एवं विकास अच्छा होता है. जिसके फलस्वरूप तनों की संख्या, पत्तियों की संख्या, तनों की लम्बाई एवं मोटाई में वृद्धि होती है । फास्फारस पौधा में विषाणुओं के संक्रमण को कम करता है एवं कंदों की गुणवता का सुधारता है ।

एक अच्छी फसल जिससे हमें 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की उपज मिलती है, मृदा से लगभग 40-50 कि॰ग्रा॰ फास्फोरस प्रति हेक्टेयर का अवशोषण करती है । उर्वरकों द्वारा फास्फारस की कितनी मात्रा का प्रयोग किया जाय । यह मिट्‌टी की किस्म, फसल उगाने का उद्देश्य, फसल चक्र एवं प्रयोग करने की विधि पर निर्भर करता है ।

मिट्‌टी की किस्म फास्फोरस की उपलब्धता की बहुत प्रभावित करती है । काली मिट्‌टी में फास्फोरस की उपलब्धता सबसे अधिक होती है जबकि पहाड़ी अम्लीय मिट्‌टी में उपलब्धता सबसे कम होती है । गंगा के मैदानों की जलोढ़ मिट्‌टी में फास्फोरस की उपलब्धता मध्यम होती है ।

फसल पर फास्फोरस की कमी के स्पष्ट लक्षण दिखायी नहीं देते हैं । इस तत्व की कमी से पौधों की बढ़वार कम होती है । आवश्यकता से अधिक फास्फोरस का लगातार प्रयोग करने से मिट्‌टी में पर्याप्त मात्रा में जिंक, आयरन व मेंगनीज होते हुए भी पौधों की उपलब्ध नहीं हो पाते हैं ।

अत: फास्फोरस का आवश्यकता से अधिक प्रयोग भी हानि पहुँचाता है । गंगा के मैदानी भागों में अच्छी भोज्य आलू फसल लेने के लिए फास्फोरस की 60-80 कि॰ग्रा॰ मात्रा प्रति हेक्टेयर तथा बीज एवं प्रसंस्करण फसल के लिए 80 कि॰ग्रा॰ मात्रा का प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए ।

फास्फोरस की मिट्‌टी में गतिशीलता कम होने की वजह से फास्फोरसयुक्त उर्वरकों का प्रयोग छिड़क कर न करें । बुआई के समय या एक दी दिन पहले कतारों में इस प्रकार अनुप्रयोग कर कि उर्वरक पौधों की जड़ों के नजदीक रहे । फास्फोरस की सारी मात्रा का प्रयोग फसल की बुआई के समय ही कर देना चाहिए ।

फास्फोरस आलू की उपज में एक विशेष स्थान रखता है । इसके उपयोग से पौधे की जड़ों का विस्तार तेजी से होता है । फसल जल्दी तैयार हो जाती है और पौधे पिछेती झूलसा से भी बचते हैं । मध्यम आकार के कंदों की संख्या बढ़ती है । इस कारण बीज आलू उत्पादन में फास्फोरस का विशेष महत्व है ।

इस तत्व की कमी से आलू की पत्तियों का रंग गहरा हरा तथा पत्तियां सामान्य रूप से खुल नहीं पाती है । अधिक कमी से पत्तियों पर बैंगनी रंग के धब्बे दिखाई दंत हैं और पौधा का विस्तार रूक जाता है । उर्वरकों से केवल 10-15 प्रतिशत फास्फोरस ही ग्रहण कर पाता है । इसका मुख्य कारण यह है कि उर्वरक द्वारा दिये गये फास्फेट का 80 प्रतिशत भाग बुआई के समय डालने के दो सप्ताह के अन्दर ही यह मिट्‌टी में स्थिरीकरण हो जाता है और समुचित उपयोग नहीं कर पाती है ।

देश की अधिकतर मृदाओं में इस तत्व की बहुत कमी है । प्रयोगों द्वारा देखा गया है कि फास्फेट उर्वरक की सारी मात्रा बुआई के समय आलू की पंक्ति में कंद बीज के पास डालने से इसकी ग्रहण क्षमता 10-15 प्रतिशत बढ़ जाती है जबकि खेत में बिखेरने से इसकी ग्रहण क्षमता में सार्थक कमी आती है ।

iii. पोटाश:

पोटाश तत्व नाइट्रोजन के दक्षतापूर्ण उपयोग में सहायता कर पत्तियों का आकार एवं कार्यावधि बढ़ाता है, जिसके फलस्वरूप कंद बनने की प्रक्रिया की अवधि बढ़ती है । इससे बड़े आकार के कंदों का उत्पादन होता है व अधिक उपज प्राप्त होती है । नाइट्रोजन एवं फास्फोरस के बीज संतुलन बनाने का महत्वपूर्ण कार्य भी पोटाश करता है । पोटाश पौधों में कार्बोहाइड्रेट का निर्माण एवं उसका कंदों तक स्थानांतरण करने में सहायक होता है ।

यह तत्व पौधों को पानी की कमी तथा बीमारियों से बचाने के साथ-साथ अधिक सर्दी में फसल को पीले से भी सुरक्षा करता है । अतः आलू उत्पादक प्रदेशों में पोटाश का महत्व और भी बढ़ जाता है । आलू कंद की गुणवत्ता बनाये रखने में पोटाश तत्व का सबसे अधिक योगदान होता है ।

इस तत्व के प्रयोग से कंदों की भण्डारण क्षमता में सुधार होता है तथा शुष्क पदार्थ में थोडी-सी कमी आती है । पोटाश तत्व की कमी से पहले तो पत्तियों का रंग गहरा हरा या नीला ही जाता है तथा अधिक कमी से पत्तियों का रंग जस्ते जैसा हो जाता है जिससे फसल झुलसी हुई दिखाई देती है ।

इसकी कमी से कंदों का आकार छोटा रह जाता है जिससे उपज में काफी कमी आती है । आलू की फसल जमीन से 250-300 कि॰ग्रा॰ पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करती है जिसके कुछ भाग की आपूर्ति मिट्‌टी से व शेष भाग की आपूति उर्वरक द्वारा करनी होती है ।

अन्य तत्वों की तरह पोटाश की आवश्यकता भी मिट्‌टी की किस्म आलू की प्रजाति फसल उद्देश्य व फसल चक्र पर निर्भर करती है । रेतीली मृदाओं की अपेक्षा दोमट मृदाओं में पोटाश तत्व की उपलब्धता अधिक होती है व सबसे अधिक उपलब्धता काली मृदाओं में होती है ।

सामान्यतः जल्दी तैयार होने वाली प्रजातियों पर देर से तैयार होने वाली प्रजातियों की अपेक्षा पोटाश तत्व का अधिक प्रभाव देखा गया है । खेत में आलू की फसल से पहले धान गेहूँ ज्वार या बाजरा की फसल उगाने पर पोटाश युक्त उर्वरकों की आवश्यकता अधिक मात्रा में होती है । ज्वार की फसल के बाद आलू की फसल लेने पर सभी तत्वों की सर्वाधिक आवश्यकता होती है ।

सामान्यतः म्यूरेट ऑफ पोटाश तथा सल्फेट ऑफ पोटाश का आलू की उपज पर एक जैसा प्रभाव होता है परन्तु सल्फर की कमी वाली मृदाओं में सल्फेट ऑफ पोटाश के अच्छे परिणाम मिले हैं । भोज्य फसल की अपेक्षा प्रसंस्करण के लिए उगायी गई फसल में पोटाश की आवश्यकता अधिक होती है ।

सामान्यतः पोटाशयुक्त उर्वरकों की सारी मात्रा का प्रयोग बुआई के समय कतारों में करने की सलाह दी जाती है. परन्तु विशेष परिस्थिति में इन उर्वरकों का प्रयोग मिट्‌टी चढ़ाते समय भी किया जा सकता है । ध्यान रहे कि उर्वरक का प्रयोग कतार में पौधों की जड़ों के समीप ही किया जाय ।

मैदानी भागों में आलू की अच्छी भोज्य फसल के लिए 100-150 कि॰ग्रा॰ तथा प्रसंस्करण फसल के लिए 160-180 कि॰ग्रा॰ जबकि बीज फसल के लिए सिर्फ 100 कि॰ग्रा॰ पोटाश प्रति हेक्टेयर उर्वरकों के माध्यम से देने की आवश्यकता होती है ।

पोटेशियम उर्वरक से पौधा 45 से 55 प्रतिशत ही पोटेशियम ग्रहण करता है तथा शेष भाग मिट्‌टी में स्थिरीकरण होता है या मिट्‌टी में जल के साथ रिसाव हो जाता है । 40 से 60 दिन के दौरान सिंचित क्षेत्रों में तथा वर्षा पर आधारित असिंचित क्षेत्रों में 65 से 85 दिन के दौरान कंद का तेजी से विकास होता है, इस तत्व की सर्वाधिक आवश्यकता होती है ।

प्रयोगों से पता चला है कि पोटेशियम उर्वरक का आलू की पंक्तियों में बीज कंद के पास डालने की विधि जैसे कंद बीज के नीचे व बगल में डालना सर्वोत्तम है । भोज्य फसल में 2/3 भाग बुआई के समय तथा शेष 1/3 भाग मिट्‌टी चढ़ाने के समय देना लाभदायक पाया गया है । बीज फसल के लिए पोटेशियम उर्वरक की सारी मात्रा बुआई के समय देना चाहिए ।

2. सूक्ष्म पोषक तत्व:

आलू उत्पादन में सूक्ष्म तत्व का भी विशेष स्थान है । आलू के पौधे द्वारा इनका ग्रहण केवल बहुत कम मात्रा में होता है परन्तु इनमें से एक की कमी भी पौधे की सुचारू रूप से विकसित हीन में रूकावट पैदा कर सकती है । यह तत्व पौधों के उपरी भाग में बनाये भोज्य पदार्थ को कंदों तक पहुंचाने व अन्य कई प्रक्रियाओं में सहायक होते हैं ।

आजकल के संदर्भ में गोबर के खाद में कमी, वर्ष में अधिक फसल लेना तथा उच्च मात्रा में अधिक रासायनिक उर्वरकों का अधिक प्रयोग सूक्ष्म तत्व की कमी में सहायक होता है । सूक्ष्म तत्वों का उपयोग मिट्‌टी जाँच में इनकी कमी होने पर ही किया जाना चाहिए । अच्छी फसल के लिए प्रति हेक्टेयर 90 कि॰ग्रा॰ कैल्शियम आक्साइड तथा 30 कि॰ग्रा॰ मैग्नीशियम आक्साईड की आवश्यकता होती है ।

इन तत्वों की आपूर्ति हम कैल्शियम अमानियम नाइट्रेट नामक उर्वरक से कर सकते हैं, जिसमें 8-8.1 प्रतिशत कैल्शियम एवं 45 प्रतिशत मैग्नीशियम पाया जाता है । सिंगल सुपर फास्फेट से भी कैल्शियम (19.5 प्रतिशत) व सल्फर (10- 12 प्रतिशत) की आपूर्ति की जा सकती है ।

आलू उत्पादन में सल्फर का विशेष योगदान नहीं होता है । जिंक की कमी वाले क्षत्रों में 20 कि॰ग्रा॰ जिंक सल्फेट (21 प्रतिशत) प्रति हेक्टेयर देना उपयुक्त है । उसी प्रकार सल्फर एवं बोरान कमी वाले क्षेत्रों में क्रमश: 20 कि॰ग्रा॰ जिप्सम (18 प्रतिशत सल्फर) तथा 10 कि॰ग्रा॰ बोरेक्स या सुहागा (11 प्रतिशत बोरान) प्रति हेक्टेयर का प्रयोग खत की अंतिम जुताई के समय करना चाहिए । परन्तु ध्यान रहे कि जिंक सल्फेट का प्रयोग अन्य उर्वरकों से 2-4 दिन पहले या बाद में करना चाहिए ।

आजकल किसान सूक्ष्म पौषक तत्वों का प्रयग भी खूब करने लगे हैं, जो शत्-प्रतिशत उचित नहीं है । सूक्ष्म पोषक तत्वों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर ही करना उचित रहता है । सामान्यत: हमारी मृदाओं में सूक्ष्म पोषक तत्व आवश्यक मात्रा में उपलब्ध रहते हैं तथा अधिकतर सूक्ष्म तत्वों का दूसरे पोषक तत्वों के साथ अच्छा या बूरा संबंध होता है ।

जैसे फास्पोरस का प्रयोग आवश्यकता से अधिक मात्रा में करने पर पौधे, जिंक, आयरन व मेंगनीज का भरपूर अवशोषण नहीं कर पाते है व पौधों पर इन तत्वों की कमी के लक्षण प्रकट हो जाते हैं । अतः हमें सूक्ष्म पोषक तत्वों का प्रयोग बहुत ही सावधानीपूर्वक करना चाहिए । मिट्‌टी में प्रयोग करने की अपेक्षा सूक्ष्म पौषक तत्वों का फसल की प्रारंभिक अवस्था में स्प्रे छिड़काव करना अधिक लाभप्रद रहता है ।

i. मृदा विश्लेषण और उर्वरक दक्षता:

समय की मांग है कि जितने पौषक तत्वों की मात्रा भूमि में फसल लेती है तो उतनी ही उसे वापस कर दी जाय जिससे भूमि की उर्वराशक्ति व उचित पैदावार बनी रहे । यह तभी संभव है जब उर्वरकों के द्वारा दी जाने वाली मात्रा मिट्‌टी की जाँच के आधार पर दी गई उवर्रकों की मात्रा से फसल में उपयुक्त बढ़ोतरी के कारण पोषक तत्वों का परिणाम अच्छा मिलता हैं ।

जैविक कार्बन का आलू की फसल में महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि मिट्‌टी में पौषक तत्वों व नमी की उपलब्धि जैविक कार्बन की मात्रा पर निर्भर करती है । प्रयोगों द्वारा देखा गया है कि जैविक कार्बन 0.60 प्रतिशत से कम है तो उसमें फॉस्फोरस व पोटेशियम दोनों की कमी है ।

मिट्‌टी में नाइट्रोजन की उपलब्धता तापमान कार्बन-नाइट्रोजन का अनुपात और नमी से प्रभावित होती है. इसलिए नाइट्रोजन की मात्रा उर्वरकों के द्वारा देन के लिए मिट्‌टी की जाँच द्वारा सही मात्रा में बता पाना कठिन है ।

ii. पौध परीक्षण और उर्वरक:

तत्व विशेष की कमी के अभाव में पौधों में छिपी भूख के कारण आलू की उपज में असर पड़ता है । यह भूख पत्तियों पर लक्षण के रूप में दिखाई देती है जैसे नाइट्रोजन की कमी में नीचे से पत्तियां पीली दिखाई देती है ।

इसी तरह पत्तियों का गहरा हरा एवं नीला होना क्रमश: फास्फोरस एवं पोटाश का अभाव बतलाता है । प्रयोगों से पता चला है कि पोषक तत्वों (नाइट्रोजन व पोटेशियम) की कमी में पर्ण या पर्णवृन्त परीक्षण का उत्तम समय 25-35 दिन की अवधि के फसल उपयुक्त होता है ।

जाँच द्वारा इन तत्वों की कमी के आधार पर मिट्टी चढ़ाते समय इनकी पूर्ति उर्वरक द्वारा करके इनकी कमी को पूरा किया जा सकता है । वर्तमान समय में नाइट्रोजन फास्फोरस व पोटाश का तरल के रूप में भी बाजार में उपलब्ध है, जिनका फसलों पर पर्णीय छिड़काव कर पौषक तत्वों की पूर्ती किया जा सकता है ।

इसी प्रकार सूक्ष्म तत्वों (जिंक, बोरान व सल्फर) की कमी की पुष्टि होने पर इन तत्वों का घोल बनाकर एक सप्ताह के अन्तराल पर दो पर्णीय छिड़काव कर देन से सुधार हो जाता है ।

iii. अकार्बनिक स्रोत का आलू में स्थान:

गोबर की खाद 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की मात्रा से आलू की फसल को दी जाय तो यह इन फसलों की फास्फोरस व पोटेशियम की मांग पूरी करती है । किसानों के खेतों में किए गये प्रयोगों से पता चला है कि बुआई के समय 50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर गौबर की सड़ी खाद के साथ फास्फोरस एवं पोटाश उर्वरक में मिलाकर आलू की पक्तियों में डालने से इन उर्वरकों में 25 प्रतिशत की अनुशंसित मात्रा से बचत की जा सकती है ।

गोबर की खाद का लगातार उपयोग भूमि में जैविक कार्बन बढ़ाता है तथा सूक्ष्म तत्वों की मात्रा उचित स्तर पर बनाये रखता है । ढैंचा अथवा सनई की हरी फसल उत्पादन में फास्फेट एवं पोटाश की मात्रा में क्रमशः 75 और 40-45 किलोग्राम तक बचत कर सकती है । इसी फसल को एक अन्य लाभ मिट्टी के नीचे की सतह से पोषक तत्वों को उपर लाकर उनकी उपलब्धता बढाना ।

 

iv. फसल-चक्र में उर्वरकों का उपयोग:

आलू-गेहूँ-मक्का फसल चक्र में आलू को दी गई निर्धारित नाइट्रोजन उर्वरक की मात्रा को 50 प्रतिशत कम कर देता है । इसका मुख्य कारण गेहूँ जैसी फसल की गहरी संरचना है जो निचली मिट्‌टी की सतह से नाइट्रोजन का दोहन करने में सक्षम है । इसी प्रकार आलू-सूर्यमूखी-धान फसल चक्र में सूर्यमूखी को नाइट्रोजन की आवश्यकता नहीं के बराबर होती है क्योंकि आलू को दिये गये नाइट्रोजन का अवशेष सूर्यमूखी के लिए काफी है ।

फसल चक्र में गौबर की खाद या हरी खाद का सबसे अधिक लाभ भी आलू की फसल लेन में सक्षम होता हैं तथा इनके अवशेष से बाद वाली फसलें लाभान्वित होती है । देश के मैदानी क्षेत्रों में फास्फोरस एवं पोटेशियम की मात्रा 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद द्वारा न केवल आलू की फसल में इन तत्वों की पूर्ति होती है, अपितु आलू में ली जाने वाली दलहनी फसलें व धान की फसल के भी पर्याप्त है ।

v. अर्न्तवर्ती फसलों में उर्वरकों का उपयोग:

देश में खासकर बिहार में आलू के साथ मक्का की अर्न्तवर्ती खेती काफी लोकप्रिय सिद्ध हुई है, क्योंकि किसान के प्रति इकाई क्षेत्रफल से एक ही मौसम में अधिक उत्पादन लागत मूल्य प्राप्त हो जाता है ।

साथ-साथ उर्वरक की भी बचत होती है ।

आलू के साथ मक्का की खेती में रसायनिक उर्वरक की अनुशंसित मात्रा के नाइट्रोजन 9 फास्पोरस एवं पोटाश का क्रमश: 270:165:160 कि॰ग्रा॰ प्रति हेक्टेयर है । आलू के साथ मूली, गाजर, गेहूँ एवं सौफ की अर्न्तवती खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है और इन फसलों के लिए अतिरिक्त उर्वरक की आवश्यकता नहीं पडती है ।

vi. जीवाणु खाद का उपयोग:

जैविक खादों में एजोटोबैक्टर या पी॰एस॰वी॰ या वाम की 5 कि॰ग्रा॰ प्रति हेक्टेयर की दर से आलू की खेती में प्रयोग किया जाता है ।

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