सोमाक्लोनल विचलन: अर्थ और पृथक्करण | Read this article in Hindi to learn about:- 1. सोमाक्लोनल विचलन का अर्थ (Meaning of Somaclonal Variations) 2. सोमाक्लोनल विभेदकों का पृथक्करण (Separation of Somaclonal Variations) 3. उपयोग (Uses).

सोमाक्लोनल विचलन का अर्थ (Meaning of Somaclonal Variations):

सोमाक्लोनल विचलन शब्द का प्रयोग कोशिकाओं के इनविट्रो संवर्धन से प्राप्त होने वाली सभी प्रकार की कोशिकाओं या पौधों में पाए जाने वाली अनुवांशिक विविधता के लिये होता है । गन्ने, टमाटर, आलू आदि पौधों के ऊतक या कोशिका संवर्धन से प्राप्त पौधे मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों ही लक्षणों में अनुवांशिक विचलन दर्शाते है ।

इनविट्रो संवर्धन से पुनरुत्पादित पौधों में कुछ विभेदक लक्षण होमोजाएगस स्थिति में प्राप्त होते है, (R0 पुनरुत्पादन) लेकिन ज्यादातर विभेदक लक्षण ऊतक संवर्धन से पुनरुत्पादित पौधे की सवसंतति में प्राप्त होते हैं (R0 पुनरुत्पादित) ।

सोमाक्लोनल विभेदकों का पृथक्करण (Separation of Somaclonal Variations):

पौधों की संपूर्ण संख्या की बजाय कोशिका संवर्धन से कई गुणा के उत्परिवर्तित रूप (म्यूटेंट) आसानी से विलग किये जा सकते हैं । बीमारियों की रोकथाम पोषक गुणों में वृद्धि और विपरीत परिस्थितियों में पौधों के अनुकूल के लिये इन म्यूटेंट को प्रभावी रूप से चुना जा सकता है ।

ADVERTISEMENTS:

उदाहरण के लिये लवणीय मुद्रा, निम्न ताप, विषैली धातु (जैसे- एल्युमिनियम), हार्बिसाइड से प्रतिरोध और पौधों के चिकित्सकीय या औद्योगिक उपयोग के लिये जैव संश्लेषण बढ़ाने में ।

सोमाक्लोनल विभेदकों को अलग करने की विधियों को निम्न श्रेणियों में बाँट सकते हैं:

(i) Screening (छंटनी),

(ii) Cell Selection (कोशिका चयन) ।

ADVERTISEMENTS:

(i) छंटनी (स्क्रीनिंग):

इसमें एकल विभेदक पहचान के लिये बड़ी संख्या में कोशिकाओं या पुनरुत्पादित पौधों का अवलोकन किया जाता है । यह उत्पन्न होने वाले गुणों के म्यूटेंट्स को विलय करने की एक संभव विधि है ।

सामान्यतः पुष्टि के लिये R1 संतति विभेदक पौधों की पहचान के लिये गणना तथा R2 संतति रेखाओं का मूल्यांकन किया जाता है । निश्चित जैव रसायन की उच्च मात्रा उत्पन्न करने वाले कोशिका क्लोनों को विलग करने के लिये छंटनी का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है ।

(ii) कोशिका चयन (सेल सिलेक्शन):

ADVERTISEMENTS:

इसमें उचित चयन दाब लगाया जाता है, जो केवल विभेदक कोशिकाओं की वरीयता के क्रम में उत्तरजीविता/वृद्धि सुनिश्चित करता है ।

उदाहरण:

कोशिकाओं का चयन, विष और टर्बीसाइड्स प्रति बचाव, उच्च लवण सांद्रता ।

इसके दो प्रकार हैं:

(1) सकारात्मक- जब चयन दाब केवल न्यूटेंट कोशिकाओं को उत्तरजीवित या विभाजन की ही अनुमति देता है, तो यह सकारात्मक चयन कहलाता है ।

(2) नकारात्मक- नकारात्मक चयन में केवल उन्मत्त प्रकार की कोशिकाएँ ही सामान्यतः विभाजित होती है और इसलिए प्रति चयन एजेंट नष्ट हो जाती है । उदाहरण 5 बी य की आर या आर्सीनेट । म्यूटेंट कोशिका विभाजित नहीं हो पाती है । इसके परिणामस्वरूप वे प्रति चयन एजेंट से बची रहती हैं ।

सकारात्मक चयन उपागम को फिर चार श्रेणियों में बाँट सकते हैं:

(a) प्रत्यक्ष चयन:

चयन दाब की प्रतिरोधी कोशिकाएँ जीवित रहती हैं और विभाजित होकर समूह बना लेती हैं, जबकि उन्मत्त (वाइल्ड) प्रकार की कोशिकाएँ चयन एजेंट द्वारा नष्ट कर दी जाती है । यह सबसे ज्यादा प्रचलित चयन विधि है । यह कोशिकाओं, विष के लिये प्रतिरोध, हर्बीसाइड, उच्च लवण सांद्रण, एंटीबायोटिक, अमीनो अम्ल, एनालॉग आदि के चयन में प्रयुक्त होती है ।

(b) बचाव विधि:

वाइल्ड प्रकार की कोशिकाएँ चयन एजेंट द्वारा नष्ट हो जाती हैं, जबकि विभेदक कोशिकाएँ जिंदा रहती हैं, लेकिन सामान्यत: प्रतिकूल पर्यावरण के करण विभाजित नहीं होती है । तब विभेदक कोशिकाएं प्राप्त करने के लिये चयन एजेंट में हटा लेते हैं । इस विधि का उपयोग निम्न तापमान और एल्यूमिनियम प्रतिरोधी कोशिकाओं को प्राप्त करने के लिये किया जाता है ।

(c) क्रमिक या सीढ़ी-दर-सीढ़ी चयन:

चयन दाब या लवण सांद्रता को तुलनात्मक रूप से निम्न स्तर से धीरे-धीरे करके साइटोटाक्सिक स्तर पर बढ़ाया जा सकता है और हर स्तर पर प्रतिरोध क्लोन से अलग किया जाता है । इस विधि को ही क्रमिक चयन विधि कहते है ।

(d) दोहरा चयन:

कुछ स्थितियों में केवल इतना संभव होता है कि एक ओर तो कोशिकाओं के अस्तित्व और वृद्धि तथा दूसरी ओर चयन दाब के लिये प्रतिरोध दर्शाने वाले लक्षण का चयन किया जा सके । इसे ही दोहरा चयन कहते हैं ।

उदाहरण:

स्ट्रेप्टोमाइसिन के लिये प्रतिरोध का चयन जो संवर्धित कोशिकाओं में क्लोरोफिल के विकास को बढ़ाता है । यह चयन केवल स्ट्रेप्टोमायसिन की उपस्थिति में कोशिका के अस्तित्व और समूह निर्माण पर आधारित है । साथ ही इन समूहों में हरे रंग के विकास पर भी आधारित है ।

विभेदकों का एक विशेषीकरण:

कई चयनित क्लोन आगे छंटनी या चयन के दौरान उनका प्रतिरोध प्रदर्शित करने की कोशिश करते हैं । निश्चित रूप से ये क्लोन ग्रहणशील होते हैं और प्रतिरोधी के रूप में गलत वर्गीकृत किये गए थे (ये बचे हुए कहलाते हैं) ।

कई क्लोन वृद्धि का समय निकल जाने के बाद चयन दाब के अभाव में चयन एजेंट के प्रति अपना प्रतिरोध खो देते हैं । इन्हें अस्थिर विभेदक कहते हैं । ये जीन अभिव्यक्ति में परिवर्तन और जीन प्रवर्द्धन का परिणाम होते हैं ।

कुछ विभेदक कोशिका संवर्धन चयन के दौरान तो काफी स्थायी होते है, लेकिन जब विभेदक संवर्धन से पौधे का पुनरुत्पादन करते हैं या पुनरुत्पादित पौधे से क्रमिक रूप से पुनरुत्पादन करते हैं, तो ये विलुप्त हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में इन्हें पुनरुत्पादित पौधे कहा जाता है । ऐसे परिवर्तनों को भूतलीय परिवर्तन कहते हैं, इनके कारण ही जीन अभिव्यक्ति में स्थायी परिवर्तन होते हैं ।

उदाहरण:

कोशिका संवर्धन का हॉर्मोन अनुकूलन । बचे हुए विभेदक जो कोशिका संवर्धन के दौरान स्थित रूप से विभेदक लक्षण दर्शाते हैं और साथ ही पौधे के विभिन्न चरणों का पुनरुत्पादन करते हैं और लैंगिक पुनरुत्पादन चक्र के माध्यम से इन लक्षणों को प्रसारित करते हैं, म्यूटेंट कहलाते हैं । ये सही जीन उत्परिवर्तन या कुछ अन्य प्रकार के परिवर्तनों को दर्शा सकते हैं ।

सोमाक्लोनल विभेदन के आण्विक आधार:

आण्विक स्तर पर निम्न में से किसी एक घटना के होने पर सोमाक्लोन विभेदन हो सकता है:

1. Changes in Chromosome Number and/or Structure (क्रोमोसोम की संख्या या संरचना में परिवर्तन),

2. Gene Mutation (जीन उत्परिवर्तन),

3. Plasma Gene Mutation (प्लाज्मा जीन उत्परिवर्तन),

4. Alteration in Gene Expression (जीन अभिव्यक्ति में बदलाव),

5. Gene Amplification (जीन प्रवर्द्धन),

6. Mitotic Crossing Over (मिटोटिक क्रासिंग ओवर),

7. Transposable Element Activation (ट्रांसपॉसेबल एलीमेंट एक्टीवेशन),

8. Rearrangements in Cytoplasmic Gene (साइटोप्लाज्मिक जीन्स में पुनर्व्यवस्था) |

ट्रांसपॉसेबल तत्वों को इनविट्रो संवर्धन के दौरान सक्रिय किया जा सकता है । संवर्द्धन के दौरान क्रोमोसोम्स के संलयन और विखण्डन के कारण ए.सी. और दूसरे ट्रांसजीनिक तत्व सक्रिय हो सकते है । मिटोटिक क्रॉसिंग ओवर के कारण भी पुनरुत्पादित पौधों में अनुवांशिक विभेदन हो सकते हैं, जिनके कारण R0 में स्वयं होमोजाएगस एकल जीन उत्परिवर्तन होते हैं । कई मामलों में साइटोप्लाज्मिक अनुवांशिक उत्परिवर्तन भी खोजे गए हैं ।

स्रोत पदार्थ और संवर्धन (Source Material and Culture):

सोमाक्लोनल विभेदन के माध्यम से नई फसलों के उद्भव की कोशिशों पर जीनोटाइप, एक्सप्लांट स्रोत, संवर्धन की कालावधि और वृर्द्धक हार्मोन का गहरा प्रभाव पड़ता है ।

जीनोटाइप और एक्सप्लांट (Genotype and Explant):

जीनों टाइप पुनरुत्पादन की आवृति और सोमाक्लोनल विभेदन की आवृत्ति दोनों को प्रभावित करता है । एक्सप्लांट, सामान्यतः पत्तियों, जडों या अंडाशय के ऊतकों से निकाला जाता है । सोमाक्लोनल विभेदन में एक्सप्लांट का स्रोत निर्णायक भूमिका निभाता है ।

कोशिका संवर्धन की अवधि (Duration of Cell Culture):

बार्बियर और डुलियर ने 1980 में अनुवांशिक रूप से चिन्हित किये गए एक्टप्लांट स्रोत का उपयोग करते हुए यह प्रदर्शित किया कि संवर्धन की उम्र बढ़ने के साथ ही पहले कुछ मिटोसिस में अनुवांशिक परिवर्तन भी बढ़ते हैं ।

उसी प्रकार 1983 में स्कोक्रॉल्ट ने पाया कि संवर्धन का समय दोगुना करने पर तंबाकू के हेट्रोजाएगस से प्राप्त प्रेटोप्लास्ट में अनुवांशिक विविधता की आवृत्ति में 1.4 से 6% की वृद्धि होती है ।

वर्द्धक हार्मोन का प्रभाव (Effect of Growth Hormone):

बायलिस (1980) ने बताया कि वध्यर्क हार्मोन की मात्रा ज्यादा होने पर संवर्धित कोशिका में अनुवांशिक बदलाव आ जाते हैं । जब आलू और जौ के ऊतक संवर्धन में माध्यम में 2,4-D की मात्रा ज्यादा हो, तो इससे क्रोमोसोम में विविधता आती है ।

रोग प्रतिरोधक विभेदक:

पुनरुत्पादित पौधों की छंटनी के द्वारा बीमारियों के विरुद्ध प्रतिरोध वाले सोमाक्लोनल विभेदकों को अलग किया जा सकता है । कई पैथोजनिक बैक्टीरिया और कवक पादप कोशिकाओं के लिए विष का काम करते है । पौधों की विशिष्ट प्रजाति या प्रकार के लिए विष भी विशिष्ट या सामान्य हो सकते हैं ।

उदाहरण के लिये ओट वेरायटी और होल्मियोस्पोरियम विक्टोरिया प्रकार की मक्का द्वारा उत्पन्न विष । लेकिन बीमारी फैलाने वाले बैक्टीरिया द्वारा उत्पन्न विष सामान्यतः सभी प्रजातियों और प्रकारों के पौधों के लिये विष का ही काम करता है ।

इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह किस प्रजाति या प्रकार के बैक्टीरिया से उत्पन्न हुआ है । ऐसे विषों को अविशिष्ट या सामान्य विष कहते हैं । उदाहरण के लिये कई अल्टर नेरिया या बीमारी फैलाने वाले मृदा बैक्टीरिया से उत्पन्न होने वाला विष । लेकिन कोशिका चयन उपागम बीमारी उत्पन्न करने वाले किन्हीं कारकों तक सीमित है, जो ऐसे विष उत्पन्न करते हैं, जिनसे रोग पनपे ।

अचयनित कोशिका संवर्धन से प्राप्त सोमाक्लोन्स और इसकी R1 संतति का छंटनी करके पता लगाया जा सकता है कि किसी विशेष बीमारी के प्रतिरोध के लिये इनमें से कौन सा उपयोगी है । इस विधि के द्वारा बैक्टीरिया प्रतिरोधी टमाटर और फिजी रोग से सुरक्षित गन्ना प्राप्त किया गया था ।

आपदा प्रतिरोधक व अन्य म्यूटेंट:

इस विधि से प्राप्त होने वाली पादप कोशिकाएँ सामान्य विषैले नमक (NaCl) के विरुद्ध 4-5 गुना ज्यादा प्रतिरोध रखती हैं । इनसे पुनरुत्पादित पौधे भी लवणीय वातावरण को आसानी से सह पाते हैं ।

इस विधि का उपयोग करके उच्च लवणता वाले क्षेत्रों में उगने योग्य फसलें तैयार की जा सकती । इससे ठंडे वातावरण में उग पाने योग्य पौधे भी तैयार किये जा सकते हैं । उदाहरण के लिये मिर्चियाँ, निकोटियाना सिल्वेस्ट्रिस आदि ।

कई जगहों की मिट्टी में धात्विक आयन जैसे एल्यूमिनियम अधिकता में होते हैं जिससे फसलों का उत्पादन कम होता है । उपयुक्त कोशिका चयन द्वारा ऐसी मिट्टी में ज्यादा उत्पादन होने वाली फसलों का विकास किया जा सकता है ।

कृषि-विज्ञान के परिवर्तन के कारक:

संख्यात्मक गुणों में इनविट्रा में भिन्नताएँ पाई जाती हैं । इन भिन्नताओं को विभिन्न फसलों में वर्गित किया जा सकता है, जिनमें-तम्बाकू, मक्का, बाजरा, टमाटर, मीठा चारा, गेहूँ, गाजर, गन्ना, आलू, ब्रैसिका आदि ।

कुछ आर्थिक एवं व्यवसायिक वेरायटियों में से अलफालफा प्रकार (वेरायटी) ‘सिगमा’ को पालिक्रॉइस के रूप में विकसित किया गया था । सिग्मा में अच्छी उपज और रोगाणुओं के प्रति प्रितिरोधात्मकता पाई जाती है ।

प्रभावी पोषक उपयोग के लिये म्यूटेंट:

इनविट्रो चयन फॉस्फेट के आधिक्य वाली फसल के उत्पादन में भी उपयोगी है ।

उपयोग (Uses):

1. सोमाक्लोनल विभेदन के द्वारा एक दर्जन से ज्यादा प्रजातियाँ विकसित की जा चुकी हैं । गन्ने की ‘ओनो’ प्रजाति फिजी रोग प्रतिरोधी होती है । यह ‘पिंडार’ प्रजाति के सोमाक्लोनल विभेदन से प्राप्त की गई है । यह पिंडार से ज्यादा उत्पादन देती है ।

2. शूट टिप कल्चर के उपयोग से मीठा आलू ‘स्कारलेट’ बनाया गया है । जिस जनक आलू से इसे बनाया है उसकी बजाय इसमें ज्यादा रोगों के विरुद्ध प्रतिरोध क्षमता है । इसकी उपज भी ज्यादा होती है ।

3. केन्द्रीय औषधीय एवं सुगंधित पादप संस्थान, लखनऊ में औषधीय पौधे सिट्रोनेला जावा के सोमाक्लोनल वेरिएंट बायो-13’ का विकस किया गया है । बायो-13 से 37% ज्यादा तेल और 39% ज्यादा सिट्रोनेला मिलती है ।

लाभ (Advantages):

1. इसका प्रमुख लाभ यह है कि परंपरागत म्यूटाजेनेसिस की बजाय सोमाक्लोनल विचलन उच्च आवृत्ति पर होता है ।

2. कुछ नए एलेल्स और म्यूटेशन भी प्राप्त किये जा सकते हैं, जो जर्मेप्लास्म या म्यूटाजेनेसिस द्वारा नहीं मिल पाते हैं ।

3. म्यूटेशन या ब्रीडिंग की बजाय सोमाक्लोनल विचलन का प्रयोग करने पर नई प्रजाति के विकास में दो साल कम लगते हैं ।

4. रोग प्रतिरोध जैसे महत्वपूर्ण गुणों के लिये कोशिका स्तर पर प्रभावी चयन किया जा सकता है ।

5. जैव रासायनिक म्यूटेंट, विशेषकर ऑक्सोट्राफिक म्यूटेंट को विलग करने की यह अकेली विधि है ।

सीमाएँ (Limitations):

1. उन्हीं प्रजातियों के कोशिका संवर्धन में उपयोगी है, जिनमें पूर्ण पौधा पुनरुत्पादित होता है ।

2. चयनित कोशिका रेखाएँ अधिकांशतः कम पुनरुत्पादन क्षमता दर्शाती है । कभी-कभी तो इनमें पुनरुत्पादन क्षमता समाप्त ही हो जाती है ।

3. कई बार चयनित क्लोनों में अवांच्छित लक्षण आ जाते है जैसे उर्वरता में कमी ।

4. चयनित क्लोनों में से कई अस्थिर होते हैं । इस कारण से स्थायी/स्थिर क्लोनों की पहचान के लिये सावधानीपूर्वक विस्तृत मूल्यांकन करना पड़ता है ।

5. अधिकांशतः मृदा के गुण जैसे यील्ड क्वालिटी कोशिका स्तर पर व्यक्त नहीं की जाती है, इसलिये इनविट्रा चयन नहीं किया जा सकता ।

सोमोक्लोनल वेरिऐशन के उपयोग (Uses of Somaclonal Variations):

सोमोक्लोनल वेरिऐशन पारंपरिक ब्रीडिंग प्रोग्राम का विकल्प नहीं है । तथापि यह उत्कृष्टता के संकेत देता है तथा इसके उपयोग के लिए परिणाम प्राप्त हो रहे है ।

सोमोक्लोनल वेरिएंशन के लाभ निम्न है:

1. मौवेल वेरिएण्ट उत्पन्न हो सकते है:

प्रारंभ में सोमोक्लोनल वेरिएशंस को वेरिऐशन का नया स्रोत माना जाता था तथा वेरिएण्ट में नॉवेल परिवर्तन देखे गये, ऐसा माना गया कि ऐसे परिवर्तन जो पारंपरिक ब्रीडिंग द्वारा संभव नहीं होते, वे सोमोक्लोनल वेरिऐशन द्वारा उत्पन्न किये जा सकते है ।

2. वेरिऐशन का तीव्र स्त्रोत उपलब्ध है:

प्लांट टिशू कल्चर के माध्यम से सोमोक्लोनल वेरिऐशन, अत्याधिक विभिन्नताएँ प्रदान करता है तथा ये विभिन्नताएँ पारंपरिक ब्रीडिंग प्रोग्राम की तुलना में तीव्रता से उत्पन्न की जा सकती है । एक ही प्रजाति में, परिवर्तनों की रेंज विस्तृत हो सकती है ।

सोमोक्लोनल वेरिऐशन का यह पक्ष, विशेषतः अलैंगिक प्रोपोगेशन करने वाली फसलों जहाँ वैकल्पिक ब्रीडिंग एप्रोचेज सीमित होती है । (क्योंकि बीज उत्पादन न होने के कारण) हायब्रिडायजेशन प्रोग्राम नहीं किये जा सकते, वहाँ भी उत्कृष्ट संकेत प्रदान करता है ।

3. सोमोक्लोन्स के माध्यम से पौधों में सुधार:

पारंपरिक ब्रीडिंग प्रोग्राम की भांति ही सोमोक्लोनल वेरिऐशन से कई फसलों में पौधों के गुणों में सुधार किया जा चुका है । इम्प्रूव्ड मटेरियल को विभिन्न स्थानों पर उगाने तथा टेस्ट करने में लगभग 5 वर्षों का समय लगता है ।

सोमाक्लोनल वेरिऐशन के माध्यम से उत्पन्न कुछ किस्मों को बाजार में पहुँचाया जा चुका है जैसे अल्ट्रा क्रिस्प सेलरी तथा स्वीटर केरोट्‌स (गाजर) जो USA में DNA प्लांट टेक्नोलॉजी द्वारा बनायी गयी ।

उच्च ठोस की मात्रा वाले टमाटर परिवर्तित वर्णक स्ट्रोबेरी, लेट्‌यूस एवं मेज के वेरिएण्ट्स, सोमोक्लोनल स्नोस्टॉर्म जैसा कि नाम से प्रदर्शित है यह पाउलोविना होमेनटोसा की नयी किस्म है, जो 1988 में मार्कोट्रिगयानों एवं जगन्नाथन द्वारा सोमोक्लोनल वेरिऐशन के माध्यम से उत्पन्न की गयी ।

4. कुछ परिवर्तन उच्च आवृत्ति पर होते है:

यह सोमाक्लोनल वेरिऐशन का लाभ है कि उच्च आवृत्ति पर लक्षणों में परिवर्तन उत्पन्न करने का यह सिस्टम उपयोगी म्यूटेंट के स्रोत के रूप में उपयोग किया जा सकता है । उदाहरण के लिए सीड स्टोरेज प्रोटीन के परिवर्तित पैटर्न वाले असंख्य सोमोक्लोनस अनाजों के कल्चर्ड अपरिपक्व भ्रूणो से उत्पन्न पौधों से पहचाने जा चुके है ।

क्रोमोसोम डबलिंग की उच्च आवृत्ति पॉलीक्लोराइड पौधों को प्राप्त करने हेतु उपयोग की जा चुकी है । इसी प्रकार, क्रोमोसोम रीअरेंजमेण्ट (विशेषतः ट्रासैलाकेशन) की उच्च दर, इण्टरस्पेसिफिक एवं इण्टरजेनेटिक संथरों में इन्ट्रोमेशन प्राप्त करने के माध्यम हेतु उपयोगी की जाती है ।

5. एग्रोनोमिक लक्षण (ट्रेट) परिवर्तन हो सकते है:

सोमोक्लोनल वेरिएण्ट्स में एग्रोनोमिक ट्रेटस में कई परिवर्तन देखे जा चुके है । सोमोक्लोन्स में देखे गए उपयोगी वेरिऐशनों में रोग प्रतिरोध, हैडिंग (टिलरिंग) एवं मैचोरेशन डेट्‌स तथा ग्रेन यील्ड प्रोटीन की मात्रा तथा ग्रेन क्वालिटी में परिवर्तन सम्मिलित है ।

वातावरणीय विषमताओं जैसे- ठण्ड, पाला, लवणता, वाटर लॉगिंग एवं फ्रीजिंग इत्यादि भी फसलीय पौधों के सोमोक्लोन्स में देखी गयी है । यह तकनीक फंगल टोक्सिन लवण या शाकनाशी के लिए पौधों का चयन करने के लिए उपयोगी की जाती है, जिसमें कोशिकाओं को उन सेलेक्शन प्रेशर्स (मीडियम में समावेश करके के साथ कल्चर किया जाता है तथा रेसिस्टेंट लाइनों का चयन किया जाता है ।