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क्रायोप्रिजरवेशन: मतलब और तकनीकें | जैविक ऊतक का संरक्षण | Cryopreservation: Meaning and Techniques in Hindi!
Read this article in Hindi to learn about:- 1. क्रायोप्रिजरवेशन का अर्थ (Meaning of Cryopreservation) 2. क्रायोप्रिजरवेटिव तकनीक (Cryopreservation and Its Techniques) 3. अनुप्रयोग (Applications).
क्रायोप्रिजरवेशन का अर्थ (Meaning of Cryopreservation):
क्रायोप्रिजरवेशन (ग्रीक-क्रायोज अर्थात् फ्रॉस्ट) से तात्पर्य है ‘फ्रोजन स्टेट में प्रिजरवेशन’ इसका अर्थ है अत्यंत निम्न तापमान पर भण्डारण जैसे ठोस कार्बनडायऑक्साइड (-79°C), डीप फ्रीजर में (-80°C), वेपर फेस नाइट्रोजन में (-150°C) या द्रव नाइट्रोजन में (-196°C) पर ।
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पादप मटेरियल सामान्यतः द्रव माध्यम में प्रिजर्व तथा मेनटेन किया जाता है । माइक्रोबियल सेल्स के प्रिजरवेशन की कई विधियाँ होती है, जिनमें क्रायोप्रिजरवेशन भी सम्मिलित है ।
एनिमल स्टॉक सेल्स एवं सेल्स लाइन्स का प्रिजरवेशन उन्हें जेनोटिक डिफ्ट (अनुवांशिक अस्थायित्व के कारण उत्पन्न) माइक्रोबियल कन्टेमिनेशन, अन्य सेल लाइनों द्वारा क्रास कन्टेमिनेशन, इन्क्युबेटर फेलियर सेनेसेंस इत्यादि से बचाने के लिए किया जाता है ।
क्रायोप्रिजरवेट्स (Cryopreservates):
क्रायोप्रोटेक्टेंट्स कोशिकाओं में बड़े आइस क्रिस्टलों को बनने से रोकते है तथा कोशिका द्रव्य से जल हानि के करण होने वाले टोक्सिक सोल्यूशन इफेक्ट से बचाते है । DMSO सर्वाधिक उपयोग किया जाने वाला क्रायोप्रोटेक्टेट है ।
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यह धीरे-धीरे 30-60 मिनट के बाद मिलाया जाता है तथा कल्चर का तापमान 0°C के आसपास मेनटेन किया जाता है । अधिकांशत: कोशिकाओं एवं ऊतकों को फ्रीजिंग से पहले उपयुक्त रूप से प्रीकल्चर प्रीट्रीट किया जाता है । यह उन्हें दृढ़ बनाता है तथा उनके सरवाइवल में सुधार करता है ।
क्रायोप्रिजरवेटिव तकनीक (Cryopreservation and Its Techniques):
क्रायोप्रिजरवेटिव का एक मानक प्रोटोकॉल नीचे दिया गया है:
(a) मटेरियल का चयन:
प्लांट मटेरियल के चयन के लिए कई कारकों से ध्यान में रखा जाता है । सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक है- क्रायोप्रिजर्व किये जाने वाले क्रायोवियल्स/एम्प्यूल्स में कोशिकाओं की प्रकृति एवं घनत्व क्योंकि कोशिका की क्रायोएबिलिटी इन्हीं पर निर्भर करती है ।
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यंग मेरिस्टेमेटिक हाइली सायटोप्लाज्मिक तथा छोटी कोशिकाएँ, जो रिक्तिका विहीन तथा पतली भित्ती वाली होती है, वे इस उद्देश्य के लिए चयन की जाने वाली अच्छा मटेरियल होती है । क्योंकि उच्च घनत्व पर यह लंबी अवधि का सरवाइवल दर्शाती है ।
-196°C पर सरवाइव करने की एक्सप्लांट की क्षमता, उनकी आकारिकीय एवं भौतिक दशाओं की क्षमता द्वारा प्रभावित होती है । क्रायोप्रिजरवेटिव में उपयोग किये जाने वाले विभिन्न प्रकार के एक्सप्लांट, एपिकल मेरिस्टम तथा पादप अंग होते है, जैसे- ओव्यूल, परागकोष/परागकण, भ्रूण, प्रोटोप्लॉस्ट आदि ।
कई पादप प्रजातियों का लॉग फेज सस्पेंशन सफलतापूर्वक क्रायोप्रिजव किया जा चुका है । कल्चर्ड सेल्स, क्रायोप्रिजर्व किया जाने वाला आदर्श सिस्टम नहीं होती । इसके विपरीत संगठित संरचनाएँ (जैसे- शूट, पोसेज, यंग, प्लांटलेट भ्रूण) को क्रायोप्रिजरवेशन के लिए उपयोग किया जाता है ।
(b) क्रायोप्रोटेक्टर्स को मिलाना:
फ्रीज प्रिजरवेशन के दौरान दो प्रबल स्रोतों के कारण कोशिका क्षतिग्रस्त हो जाती है:
कोशिकाओं के अंदर बड़े आइस क्रिस्टलों का निर्माण हो जाता है, जो केशिकांगों को स्वयं कोशिका को कर रप्चर देते है तथा विलेयों की अंतराकोशिकीय सान्द्रता स्टोरज से पहले अथवा स्टोरेज के दौरान डीहायड्रेशन के कारण विषाक्त स्तर तक बढ़ जाती है । डायमिथायल सल्फोक्साइड (DMSO) सुक्रीज, ग्लिसरॉल एवं प्रोलीन सर्वाधिक उपयोग किये जाने वाले क्रायोप्रिजरवेण्ट है ।
DMSO निम्न कारणों से एक उत्कृष्ट क्रायोप्रोटेक्टेंट सिद्ध हो चुक है:
(i) इसका आण्विक भार कम होता है ।
(ii) विलायक के साथ यह आसानी से मिश्रित हो जाता है ।
(iii) निम्न सान्द्रता पर यह विषाक्त होता है ।
(iv) कोशिका में यह आसानी से पारगम्य है तथा आसानी से धोने योग्य है ।
प्रीजर्व किया जाने वाला मटेरियल कल्चर मीडियम में रखा जाता है तथा क्रायोप्रोटेक्ट के साथ ट्रीट किया जाता है ।
(c) फ्रीजिंग:
फ्रीजिंग इस प्रकार की जानी चाहिए कि यह अंतराकोशिकीय फ़्रीजिंग एवं क्रिस्टल फार्मेशन न करें । इस समस्या से बचने के लिए कूलिंग अथवा प्री-फ्रीजिंग की रेगुलेटेड रेट की जाती है । ऐसे फ्रीजर भी विकसित किये गए है, जिसमें वांछित दर पर यूनीफार्म तापमान कम हो जाता है । सामान्यत: न्यूनतम 1°C प्रति मिनट ।
(i) रैपिड फ्रीजिंग:
यह विधि हैण्डल करने में सरल तथा आसान है । प्लांट मटेरियल रखने के बाद क्रायोवियल्स को लिक्विड, नाइट्रोजन में रखा जाता है, जिससे तापमान में कमी होती है । फ्रीजिंग तीव्रता से की जाती है, ताकि परिवर्तन कम से कम हो तथा अंतराकोशिकीय क्रिस्टलों का निर्माण भी कम हो । अल्ट्रा कूलिंग से आइल क्रिस्टलों का निर्माण नहीं होता ।
इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए नाइट्रोजन के स्थान पर शुष्क बर्फ का उपयोग किया जा सकता है । कई प्लांट मटेरियल कई रैपिड फीजिंग की जा चुकी है, जैसे- ब्रेसिका नैपस, स्ट्राबेरी, आलू के शूट एवं सोमेटिक एम्ब्रयो ।
(ii) स्लो फ्रीजिंग:
इस विधि में फ्रीजिंग की दर धीमें होती है अर्थात् 0.1 – 10°C प्रति मिनट । इससे अंदर से बाहर जल के प्रवाह में आसानी होती है । इस कारण बाह्यकोशिकीय आइस क्रिस्टल बनते है, किंतु अंतराकोशिकीय नहीं ।
परिणामस्वरूप कोशिका का कोशिकाद्रव्य सान्द्र हो जाता है एवं निर्जलीकरण हो जाता है । इस प्रकार की निर्जलीकृत कोशिकाएं लंबी अवधि तक जीवित रहती है । सामान्यतः स्लो फ्रीजिंग, कम्प्यूटर कन्ट्रोल्ड, फ्रीजर्स के उपयोग द्वारा की जाती है । स्ट्राबेरी, कसावा, आलू की मेरीस्टेम सफलतापूर्वक क्रायोप्रिजर्व की जा चुकी है ।
(iii) स्टेप वाइस फ्रीजिंग:
इसमें पहले वर्णित दोनों विधियाँ शामिल है । इस विधि में तापमान 20-40°C कम हो जाता है । इसमें कोशिकाओं की प्रोटेक्टिव फ्रीजिंग होती है । आगे फ्रीजिंग 30 मिनट के लिए रोक दी जाती है । इसके बाद इसे -196°C प्राप्त करने के लिए लिक्विड नाइट्रोजन में शीघ्रता से फ्रीज किया जाता है ।
तापमान में ऐसी पदानुसार (स्टेपवाइज) कभी करने से बड़े क्रिस्टलों के निर्माण में वृद्धि होती है तथा अच्छे परिणाम प्राप्त होते है । इस विधि का उपयोग करके स्ट्राबेरी एवं सस्पेंशन कल्चर में उत्कृष्ट परिणाम प्राप्त होते है ।
(iv) लिक्विड नाइट्रोजन में स्टोरेज:
यदि कोशिकाओं को उपयुक्त कम तापमान पर स्टोर न किया जाए, तो कल्चर में एक अतिरिक्त इन्जरी (क्षति) हो सकती है । स्टोरेज, तापमान ऐसा होना चाहिए, जो सभी उपापचयी क्रियाओं को रोक दें तथा बायोकेमिकल इंजरी से बचा सके । फ्रोजन मटेरियल का लंबे समय तक स्टोरेज तभी संभव होता है, जब तापमान -130°C से भी कम हो ।
इसकी प्राप्ति द्रव नाइट्रोजन से होती है, जो तापमान को -196°C पर रखती है । पोपोव (1988) ने गाजर की कोशिकाओं के कल्चर की इस विधि द्वारा 5 वर्षों तक स्टोर करके रखा ।
(v) थॉइंग:
थॉइंग तापमान को 35 एवं 45°C के बीच में बढ़ाने के लिए फ्रीजन स्टेट से वियल्य युक्त कल्चर्स निकालने की प्रक्रिया है । यह शीघ्रता से किंतु ओवरहीटिंग के बिना किया जाना चाहिए । जैसे ही आखिरी आइस क्रिस्टल विलुप्त होता है । वियल्स को वाटर बाथ में स्थानांतरित किया जाता है, जिसका तापमान 20-25°C पर मेनटेन रखा गया हो ।
फ्रीजिंग एवं थॉइंग की अवधि में, कोशिका में प्रमुख जैव भौतिक परिवर्तन होते है । फ्रेशली थॉड सेल्सू को उपयुक्त पोषण की आवश्यकता होती है, क्योंकि इनके क्षतिग्रस्त होने की संभावना पाई जाती है ।
(vi) वॉशिंग एवं रीकल्चरिंग:
प्लांट मटेरियल की वांशिंग, टोक्सिक क्रायोप्रोटेक्टेंट को निकालने के लिए की जाती है । जब निम्न-टाक्सिक या नॉन टाक्सिक क्रायोप्रोटेक्टेट उपयोग किये जाते है । तब कल्चर धोया नहीं जाना चाहिए । बल्कि सरल रूप से रीकल्चर किया जाना चाहिए । वॉशिंग केवल तभी आवश्यक होती है, जब क्रायोप्रोटैक्टेंट का कोशिकाओं के विषाक्त प्रभाव हो ।
वॉशिंग के लिए निम्न प्रक्रिया अपनायी जाती है- डायल्युशन, रीसस्पेंशन सेन्ट्रीफ्यूजन एवं कोशिकाओं के हटाना (निकलना) । यह संभव है कि कुछ कोशिकाएं स्टोरेज स्ट्रेस के कारण मर जाये तथा केवल सर्वाधिक स्थायी कोशिकाएं ही जीवित रहती है । अत: ग्रोथ मीडियम पर उन्हें कल्चर उनकी वाऐबिलिटी का निर्धारण किया जाता है ।
(vii) प्लांटलेट का रीजनरेशन:
वाएबल सेल्स को प्लांटलेट में विकसित करने हेतु उन्हें नॉन स्पेसिफिक ग्रोथ मीडिया में कल्चर किया जाता है । बजाज (1987) ने सेल्स ऊतकों तथा कई पौधों के अंग कल्चर, जैसे- आलू कसावा, गन्ना, सोयाबीन, मूँगफली गाजर, रूई, सिट्रस नारियल इत्यादि के क्रायोप्रिजरवेशन के कार्यों की एक विस्तृत सूची प्रदान की ।
क्रायोप्रिजरवेशन के अनुप्रयोग (Applications of Cryopreservation):
(i) प्लांट मटेरियल्स की विभिन्न रूप, जैसे- कोशिका निलंबन क्लोन्स, कैली, ऊतक, सोमेटिक एम्ब्रियो, रूट/शूट टिप्स, प्रोपेग्यूल्स पॉलीन ग्रेन्स आदि, एक लंबे समय तक तरल नाइट्रोजन में संरक्षित किये गये है तथा इनकी जाँच इनके जीवित रहने तथा पुनवृद्धि के लिये की गयी है ।
(ii) सेल लाईन का क्रायोप्रिजरवेशन- उदाहरण को लिए, कोशिका निलंबन (सोयाबीन, तम्बाकू, धतुरा, गाजर) तथा सोमेटिक हायब्रिड प्रोटोप्लास्ट (चावल × मटर, गेहूँ × मटर) ।
(iii) पॉलेन तथा पॉलेन इम्ब्रियो का क्रायोप्रिजरवेशन- उदाहरण के लिए, फ्रूट क्रॉप्स, पेड़, सरसों, गाजर, मूँगफली आदि ।
(iv) एक्साइज्ड मेरीस्टेम का क्रायोप्रिजरवेशन- उदाहरण के लिए आलू, गन्ना, चना, मूँगफली आदि ।
(v) वर्धी प्रसारित फसलों के जर्म प्लाज्म का क्रायोप्रिजरवेशन- आलू गन्ना आदि ।
(vi) पुन: केल्सिकृत बीजो तथा एम्ब्रियो का क्रायोप्रिजरवेशन- बड़े ऊतक वाले बीज, जिनका जीवनकाल छोटा तथा अपरिपक्व होता है, आईल पॉम, नारियल, अखरोट, आम तथा कोको ।
एनिमल सेल लाईन्स का विकास महँगा तथा लम्बा समय लेने वाला होता है । सेल लाईन के इस विकास को संरक्षित रखना आवश्यक होता है, ताकि जब भी आवश्यकता हो इसका पुन: प्रयोग किया जा सके ।
निरंतर कल्चर में सेल लाईनो में परिवर्तन हो सकता है, जिसका करण अली पेसेज कल्चर, निश्चित सेल लाईन्स में आयुवृद्धि, निरंतर सेल लाईन में आनुवंशिक अस्थिरता, अशुद्धि, उपकरणों की विफलता आदि हो सकता है ।
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