क्रोमैटोग्राफी: अर्थ, इतिहास और अन्य विवरण | Chromatography: Meaning, History and Other Details in Hindi!

Read this article in Hindi to learn about:- 1. वर्णलेखिकी का परिचय (Introduction to Chromatography) 2. वर्णलेखिकी का अर्थ (Meaning of Chromatography) 3. इतिहास (History) and Other Details.

वर्णलेखिकी का परिचय (Introduction to Chromatography):

रसायन विज्ञान सैद्धांतिक की अपेक्षा एक प्रायोगिक (Practical) विज्ञान है । रसायन-विज्ञान में धारणाओं की समझ तथा विकास सतत् प्रयोगों का परिणाम है । विश्लेषणात्मक तकनीकों के विकास ने रसायन विज्ञान की हमारी समझ तथा ज्ञान में महत्वपूर्ण योगदान दिया है ।

अत्यधिक शुद्ध पदार्थों को प्राप्त करने तथा पहचानने हेतु अनेक तरीके प्रयोग में लाये जाते हैं । रासायनिक यौगिकों के पृथक्करण (Isolation) और शुद्धीकरण हेतु अनेक भौतिक और रासायनिक तरीके प्रचलित हैं । आंशिक अवक्षेपण (Fractional Precipitation) क्रिस्टलाइजेशन (Crystallization) तथा डिस्टीलेशन (Distillation) वे भौतिक विधियाँ हैं, जिन्हें प्रायः प्रयोग में लाया जाता है ।

ADVERTISEMENTS:

कभी-कभी पृथक्करण हेतु भौतिक और रासायनिक दोनों विधियाँ प्रयोग में लायी जाती हैं । किन्तु ये विधियाँ उस समय असफल हो जाती है, जब ऐसे पदार्थों की पहचान या पृथक्करण या शुद्धीकरण करना हो, जिनके भौतिक या रासायनिक गुण अत्यधिक समान हों, जैसे विभिन्न अमीनो अम्लों के गुणों में अत्यधिक समानता होती है ।

विभिन्न अमीनो अम्लों का जटिल मिश्रण प्रोटीन बनाता है । इस प्रकार की समस्याओं को सुलझाने हेतु क्रोमेटोग्राफी की महत्वपूर्ण भूमिका है । जटिल परिस्थितियों में पृथक्करण क्रोमेटोग्राफी द्वारा बड़ी तीव्रता से कुशलतापूर्वक किया जाता है ।

वर्णलेखिकी का अर्थ (Meaning of Chromatography):

क्रोमेटोग्राफी जैवरसायन के सबसे महत्वपूर्ण तथा उपयोगी औजारों में से एक है । यह विश्लेषणात्मक तकनीक है जो मिश्रण से निकट संबंधी यौगिकों को पृथक् करती है । इसमें सम्मिलित हैं प्रोटीन पेप्टाइड, अमीनो एसिड, लिपिड कार्बोहाइड्रेट, विटामिन तथा ड्रग्स ।

क्रोमेटोग्राफी वह विधि है जिसमें विभिन्न प्रकार के पदार्थों के मिश्रण में से प्रत्येक पदार्थ को पृथक् कर पहचाना जाता है । पृथक्करण में दो फेजेज (Phases) का उपयोग होता है, एक फेज स्थिर तथा दूसरा गतिशील होता है । पदार्थों का पृथक्करण स्थिर फेज की सापेक्ष गति पर निर्भर करता है ।

ADVERTISEMENTS:

सामान्य शब्दों में, क्रोमेटोग्राफी विश्लेषण करने की वह तकनीक है जिसमें विभिन्न यौगिकों को स्थिर और गतिशील फेज के प्रति लगाव (Affinity) में अन्तर के आधार पर पृथक् किया जाता है । दो प्रावस्थाओं के मध्य साम्य वितरण द्वारा घटकों के किसी मिश्रण से विभिन्न घटकों को वैयक्तिक रूप से पृथक् करने की विधि को वर्णलेखिकी कहते हैं ।

वास्तव में यह तकनीक किसी छिद्रल (Porous) माध्यम (जिसे स्थिर प्रावस्था या Stationary Phase कहते हैं) से किसी विलायक अथवा गैस (जिसे गतिमान प्रावस्था या Moving Phase कहते हैं) के प्रभाव में किसी मिश्रण के विभिन्न घटकों के विभिन्न दर से गति करने पर आधारित है ।

क्रोमेटोग्राफी या वर्णलेखिकी के पृथक्करण विधि में निम्नलिखित चरण सम्मिलित किए गए हैं:

1. स्थिर प्रावस्था पर पदार्थ अथवा पदार्थों का अवरोधन अथवा अधिशोषण ।

ADVERTISEMENTS:

2. गतिमान प्रावस्था द्वारा अधिशोषित पदार्थों का पृथक्करण ।

3. गतिमान प्रावस्था को लगातार प्रवाहित करके पृथक् हुए पदार्थों को प्राप्त करना (इसे क्षालन (Elution) कहते हैं ।)

4. निक्षालित पदार्थों का गुणात्मक एवं मात्रात्मक विश्लेषण ।

वर्णलेखिकी का इतिहास (History of Chromatography):

क्रोमेटोग्राफी एम.स्वैट (M.Tswett) नामक वनस्पति वैज्ञानिक ने 1886 में प्रारम्भ की थी । स्वैट ने ईथर, क्लोरोफिल या पेट्रोलियम के एक्सट्रैक्ट को कैल्शियम कार्बोनेट के स्तम्भ द्वारा पृथक् किया । उसने विभिन्न रंगों के पदार्थों को पेट्रोलियम के साथ कैल्शियम कार्बोनेट भरे हुए काँच के स्तम्भ में उड़ेल दिया ।

रंगीन पदार्थ स्तम्भ के विभिन्न स्थानों पर सोख लिये गये । इस प्रकार विभिन्न रंजकों के क्षेत्र (Zones) बन गये । कैल्शियम कार्बोनेट के विभिन्न क्षेत्रों को पृथक् कर लिया गया तथा उससे विभिन्न रंजक अलग कर लिये गये ।

वर्णलेखिकी अथवा क्रोमेटोग्राफी एक प्रकार की पृथक्करण तकनीक है, जिसके द्वारा किसी मिश्रण में उपस्थित निकट सम्बन्धित यौगिकों को पृथक् किया जाता है भले ही वे सूक्ष्म, कम अथवा अधिक मात्रा में क्यों न हों । यह एक अविनाशकारी विधि है ।

इस तकनीक की खोज सर्वप्रथम पोलैण्ड के वनस्पतिशास्त्री एम. स्वेट (M.Tswett) ने 1906 में वर्मा (Warsaw) में की । इस वर्ष उन्होंने कैल्शियम कार्बोनेट के स्तम्भ अथवा कॉलम (Column) से वनस्पति अर्क (Extract) का निष्कर्षण (Percolation) करके क्लोरोफिल, जैन्थोफिल तथा अन्य रंगीन पदार्थों को पृथक् करने में सफलता प्राप्त की ।

स्वेट की इस तकनीक में कैल्शियम कार्बोनेट के कॉलम ने अधिशोषक की तरह कार्य किया जिस पर विभिन्न पदार्थ भिन्न-भिन्न प्रकार से अधिशोषित हुए । इस प्रकार के विभिन्न स्तरीय अधिशोषण के परिणामस्वरूप कॉलम में विभिन्न स्तरों पर रंगीन पट्टियाँ प्राप्त हुई ।

स्वेट ने इन रंगीन पट्टियों को क्रोमेटोग्राम (Chromatogram) तथा इस तकनीक को क्रोमेटोग्राफी (Chromatography) नाम दिया । ग्रीक भाषा में क्रोमा (Chroma) = वर्ण तथा ग्रेफॉस (Graphos) = लेखन, अत: हिन्दी भाषा में इसे वर्णलेखिकी कहा जाता है ।

लाइसैगैन्ग ने 1943 में सर्वप्रथम अवशोषक कागज का उपयोग किया तथा उसने दो प्रकार से क्रोमेटोग्राफी करने का प्रयास किया । आधुनिक समय की क्रोमेटोग्राफी तक पहुँचने में ब्रिटिश वैज्ञानिकों कॉन्सडैन (Consden), गॉर्डेन (Gorden), मार्टिन (Martin) और सिन्ज (Synge) ने 1944 में महत्वपूर्ण योगदान किया ।

मूलतः ये वैज्ञानिक अमीनो अम्लों के मिश्रणों को काउन्टरकरेन्ट एक्ट्रैक्शन (Countercurrent Extraction) विधि द्वारा विश्लेषित करना चाहते थे, किन्तु इस तरीके में दोनों विलायक इमल्सीफाइ (Emulsify) हो जाते थे तथा उन्हें पृथक् करना कठिन होता था ।

उन्होंने कागज का प्रयोग इसलिये किया, क्योंकि कागज में छिद्र होते हैं तथा उनके द्वारा विभिन्न अमीनो अम्लों को पृथक् किया जा सकता है । बार-बार प्रयोग करने के उपरान्त वे विभिन्न अमीनो अम्लों को पृथक् करने में बहुत थोड़े समय में सफल हो गये ।

वर्णलेखिकी के सिद्धान्त (Principles of Chromatography):

सभी प्रकार की वर्णलेखिकी (Chromatography) का आधार पार्टीशन अथवा वितरण गुणांक (Partition or Distribution Coefficient) या Kd होता है, जो किसी यौगिक के दो अमिश्रणीय प्रावस्थाओं के मध्य वितरण को दर्शाता है ।

समान आयतन के दो अमिश्रणीय विलायकों A तथा B के मध्य वितरित होने वाले किसी यौगिक (Compound) के लिए वितरण गुणांक (Kd) स्थिर (Constant) होता है ।

विलायक A में सान्द्रता / विलायक B में सान्द्रता = Kd

विलायक के स्थान पर दो प्रावस्थाओं के मध्य वितरण को लिया जा सकता है । अत: यदि सैलिसिक अम्ल एवं बेन्जीन के मध्य किसी पदार्थ का वितरण गुणांक 0.5 है तो इसका मतलब यह हुआ कि उस पदार्थ (Material) की सान्द्रता बेन्जीन में सैलिसिक अम्ल से दुगुनी है ।

इसी प्रकार हम प्रभावी वितरण गुणांक (Effective Distribution Coefficient) का भी आंकलन कर सकते हैं ।

प्रभावी वितरण गुणांक = A प्रावस्था में कुल मात्रा / B प्रावस्था में कुल मात्रा

अर्थात् प्रभावी वितरण गुणांक = दोनों प्रावस्थाओं के आयतन का अनुपात × Kd

उदाहरण के लिए यदि दो विलायकों A तथा B के मध्य किसी पदार्थ (Material) का वितरण गुणांक 1 है और A विलायक के 10cm3 तथा B विलायक के 1cm3 के मध्य इस पदार्थ (Material) को साम्यवस्था में लाया जाए तो दोनों विलायकों में पदार्थ की सांद्रता तो समान होगी परन्तु A विलायक में पदार्थ की कुल मात्रा B विलायक से 10 गुनी अधिक होगी ।

पेपर क्रोमेटोग्राफी के प्रकार (Types of Paper Chromatography):

पेपर क्रोमेटोग्राफी दो प्रकार की होती है:

(i) अवरोही क्रोमेटोग्राफी (Descending Chromatography):

इसमें पेपर का एक सिरा (जहाँ सैम्पल होता है) एक ट्रफ (Trough) में टैंक के टोप पर रखा जाता है और बाकी का पेपर, नीचे लटका दिया जाता है । जैसे ही विलायक नीचे उतरना प्रारंभ होता है, इसके साथ सैंपल का पृथक्करण प्रारंभ होता है ।

(ii) आरोही क्रोमेटोग्राफी (Ascending Chromatography):

इसमें पेपर का एक सिरा जहाँ सैंपल होता है । पेपर के इस सिरे को क्रोमेटोग्राफी चैम्बर में विलायक से भरे पात्र में लटका दिया जाता है । इसमें विलायक नीचे से ऊपर की तरफ चढ़ना प्रारंभ होता है । इसी के साथ सैंपल का पृथक्करण होता रहता है ।

उपरोक्त विधि को Unidirectional Paper Chromatography भी कहते हैं । पेपर क्रोमेटोग्राफी एक तरीका है, जिसमें अज्ञात पदार्थों का विश्लेषण विशेष प्रकार से निर्मित छन्ना कागज पर विलायकों के बहाव द्वारा किया जाता है । दोनों विलायकों में से एक विलायक दूसरे से अमिश्रय (Immiscible) या आंशिक रूप से मिश्रय (Miscible) होता है ।

विलायक कैपिलरी एक्शन (Capillary Action) तथा एडजॉर्प्शन (Adsorption) के कारण फिल्टर पेपर के ऊपर चढ़ जाते हैं । विभिन्न पदार्थों का मिश्रण अलग-अलग ऊंचाई तक चढ़ता है । ऊँचाई की भिन्नता भिन्न पृथक्करण गुणांक (Partition Coefficient) के कारण होती है ।

सिद्धान्त (Principle):

पेपर वर्णलेखिकी थिन-लेयर वर्णलेखिकी के सिद्धान्त पर आधारित है । सेल्यूलोज़ फिल्टर पेपर (Cellulose Filter Paper) स्थिर प्रावस्था के आधार मैट्रिक्स (Supporting Matrix) के रूप में कार्य करता है । फिल्टर पेपर जलरागित (Hydrophilic) होता है, जिस पर जल की एक पतली पर्त जम जाती है ।

स्थिर प्रावस्था के रूप में जल या फिर कोई अन्य अध्रुवी (Non Polar) पदार्थ; जैसे- सिलिकॉन या द्रव पैराफिन (Silicon or Liquid Paraffin) का प्रयोग किया जाता है ।

विभिन्न परिचालन क्षमताओं (Running Capacity):

जैसे मन्द, मध्यम अथवा तीव्र परिचालन क्षमता वाले फिल्टर पेपर का प्रयोग किया जाता है । पेपर में अम्ल से धोकर अशुद्धियों को दूर कर लिया जाता है ।

क्रोमेटोग्राफिक उपकरण (Chromatographic Apparatus):

किसी भी साइज और डाइमीटर (Diameter) की एक ट्यूब (Tube) जो कि एक अवशोषक (Adsorbent), सामान्यतया कैल्शियम कार्बोनेट (Calcium Carbonate) से भरी होती है तथा कॉलम (Column) के ऊपर एक रिजरवॉयर (Reservoir) मुख्य उपकरण होता है ।

विधि (Procedure):

पेपर क्रोमेटोग्राफी दो प्रकार से की जा सकती है:

1. पेपर पार्टीशन क्रोमेटोग्राफी (Paper Partition Chromatography):

यह विश्लेषण करने का प्रामाणिक तरीका है, जिसमें पेपर को माध्यमिक आधार (Inter Support) की भांति प्रयोग किया जाता है । इस तरीके में एक विलायक गतिशील फेज की भाँति तथा दूसरा विलायक स्थिर फेज की भांति कार्य करता है ।

2. पेपर एडजॉर्प्शन क्रोमेटोग्राफी (Paper Adsorption Chromatography):

इस विधि में पेपर को एल्युमिना या सिलिक जैसे एडजार्बेन्ट से ढँक दिया जाता है । ऐसा कागज एडजार्बेन्ट (Adsorbent) की भाँति कार्य करता है तथा केवल एक विलायक की अज्ञात पदार्थ के ऊपर बहता है ।

पेपर क्रोमेटोग्राफी की तकनीकें (Techniques of Paper Chromatography):

पेपर क्रोमेटोग्राफी एक डाइमैन्शनल या दो डाइमैन्शनल (One-Dimensional or Two Dimensional) होती है ।

एक डाइमैन्शनल में मिश्रण के विलयन की एक बूँद फिल्टर पेपर के एक सिरे पर रखी जाती है । इस धब्बे को सूखने दिया जाता है । इसके पश्चात् धब्बे युक्त कागज को उपयुक्त विलायक में रखा जाता है । विलायक धब्बे के ऊपर से निकलता है तथा निकलते समय पदार्थ को भी अपने साथ ले जाता है ।

विभिन्न पदार्थ अलग-अलग दर से गति करते हैं । यह गति पदार्थ के कणों का आकर, पदार्थ की प्रकृति, विलायक, विसरण गुणांक तथा अन्य अनेक कारकों पर निर्भर करती है । प्रक्रिया समाप्त होने के बाद प्राप्त अन्तिम पेपर (Finish Paper) क्रोमेटोग्राम (Chromatogram) कहलाता है ।

एडवांसिंग दर (Advancing Rate) आर.एफ. (Rf) मानों के द्वारा निर्धारित की जाती है । विभिन्न पदार्थों का मान अलग-अलग होता है तथा वह उपर्युक्त वर्णित कारकों पर निर्भर करता है ।

किन्तु अनेक पदार्थों को उपर्युक्त परिस्थितियों में पृथक् नहीं किया जा सकता, क्योंकि अनेक पदार्थों के मान अत्यधिक निकट या लगभग बराबर होते हैं । इस समस्या का समाधान दो-डाइमैन्शनल पेपर क्रोमेटोग्राफी द्वारा किया जाता है ।

दो-डाइमैन्शनल क्रोमेटोग्राफी में पहले एक-डाइमैन्शनल क्रोमेटोग्राम प्राप्त किया जाता है । इसके पश्चात् कागज को पहले तल के सापेक्ष 90° पर घुमा दिया जाता है । भिन्न-भिन्न विलायकों द्वारा क्रोमेटोग्राफी की जाती है । इस प्रकार से एक-दूसरे को ओवरलैंप करते हुए Rf मानों से पृथक् कर लिया जाता है ।

आर.एफ.मान (Rf Value):

Rf मान विलयशील (Solute) पदार्थ और विलायक (Solvent) की आपेक्षिक गति की दर (Relative Rate of Movement) को प्रदर्शित करता है । Rf मान वह अनुपात है, जो किसी यौगिक की अधिकतम सान्द्रता द्वारा चली गयी दूरी तथा विलायक द्वारा चली गयी दूरी के मध्य होता है । दोनों दूरियों नमूने के प्रारम्भ बिन्दु से नापी जाती हैं । अर्थात्-

Rf = प्रारम्भ बिन्दु से पदार्थ द्वारा चली गयी दूरी / प्रारम्भ बिन्दु से विलायक द्वारा चली गयी दूरी

= A / B (चित्र के अनुसार)

कुछ विलायक बहकर पेपर से भी आगे निकल जाते हैं । ऐसे पदार्थों के साथ Rs मान निकला जाता है । Rs मान पदार्थ के द्वारा तय की गयी दूरी तथा मानक पदार्थ द्वारा तय की गयी दूरी का अनुपात होता है । अर्थात-

Rs = पदार्थ द्वारा तय की गयी दूरी / मानक पदार्थ द्वारा तय की गयी दूरी

= C / D (चित्र के अनुसार)

आर.एफ. भिन्नताएं (Variations):

विभिन्न यौगिकों के Rf मान अलग-अलग होते हैं । सम्बन्धित स्थानों पर विभिन्न यौगिकों के Rf मान दिये गये हैं । Rf मानों की तुलना करके यौगिकों की पहचान की जाती है ।

एक ही पदार्थ का Rf मान अलग-अलग विलायकों में अलग-अलग होता है । Rf का मान बताते समय विलायक का उल्लेख अवश्य किया जाता है । Rf मान ताप तथा प्रयोग में लाये गये पेपर के गुण से प्रभावित होता है ।

अन्य निम्न महत्वपूर्ण कारकों पर Rf मान निर्भर करता है:

1. विलयन का हाइड्रोजन आयन सान्द्रण (pH) ।

2. वह दूरी जिससे होकर विलायक कागज पर गुजरा था ।

3. प्रयोग किये गये जल के गुण तथा प्रकार ।

4. कागज के तन्तुओं की दिशा ।

5. वह दूरी जिससे होकर धब्बा चला ।

6. पृथक् किये गये पदार्थों की सान्द्रता ।

7. रंगहीन पदार्थों के सूखने तथा देखने का तरीका ।

8. कागज पर मौजूद अशुद्धियाँ ।

9. कागज पर एडजॉर्प्शन की दर ।

10. पदार्थों के बीच रासायनिक प्रतिक्रियाएँ ।

विधि (Procedure):

कागज या शीट पर पेपर क्रोमेटोग्राफी करते समय निम्न महत्वपूर्ण बिन्दुओं का ध्यान रखना चाहिए:

 

(1) फिल्टर पेपर चुनना (Choice of Filter Paper):

क्रोमेटोग्राफी में प्रयोग किये जाने वाले कागज का मूल पदार्थ उच्च शुद्धता (98-99%) का α सेल्युलोज होता है । इसके अतिरिक्त उसमें β सेल्युलोज, ईथर में घुलने वाले पदार्थ, अमोनिया, नाइट्रोजन जैसे- पदार्थ, खनिज पदार्थ आदि पाये जाते हैं । अधिकांशतः वाटमैन फिल्टर पेपर (Whatman Filter Paper) क्रोमेटोग्राफी में प्रयोग में लाया जाता है ।

वाटमैन के फिल्टर पेपर की रासायनिक संरचना निम्न है:

 

(a) अल्फा सेल्युलोज (α-Cellulose) – 98-99%

(b) बीटा सेल्यूलोज (β-Cellulose) – 9.9-1.0%

(c) पैन्टोसन्स (Pentosans) – 0.4-0.8%

(d) राख (Ash) – 0.07-0.01%

(e) ईथर में घुलने वाला पदार्थ (Ether Soluble Matter) – 0.015-0.1%

अनेक प्रकार के फिल्टर पेपर पाये जाते हैं किन्तु सर्वाधिक उपयुक्त कागज वह है, जिसमें निम्न गुण पाये जाते हैं:

 

(i) वह कागज जिसमें सफाई के साथ सर्वाधिक पृथक्करण (Separation) क्षमता हो ।

(ii) वह कागज जिसमें धब्बे के डिफ्यूज करने की नगण्य क्षमता हो ।

(iii) कागज में विलायक के प्रचलन की अत्यधिक दर हो ।

फिल्टर पेपर मोटाई, शुद्धता, जाल की क्षमता, बहने की दर आदि को ध्यान में रखकर चुना जाता है ।

(2) कागज की आकृति बनाना (Preparation of Shape of the Paper):

कागज चुनने के पश्चात् कागज का आकार और नाप निर्धारित किया जाता है । कागज का आकर एवं नाप किये जाने वाले कार्य पर निर्भर करता है । यद्यपि वर्गाकार तथा आयताकार पेपर प्रयोग में लाये जाते हैं, किन्तु वर्गाकार आकार अधिकांशतः प्रयोग में लाया जाता है ।

(3) नमूना बनाना (Sample Preparation):

नमूना बनाने हेतु उपयुक्त विलायक का चयन किया जाता है । यह बात भी ध्यान में रखी जाती है कि गुणात्मक (Qualitative) कार्य करना है अथवा परिमाणात्मक (Qualitative) । ठोस पदार्थों हेतु वाष्पशील विलायक (Volatile Solvent) में तुला हुआ पदार्थ घोलकर संतृप्त विलयन बनाया जाता है ।

इस विलयन की न्यूनतम मात्रा कागज पर डाली जाती है । पादप तथा जन्तु ऊतकों के एक्सट्रैक्ट (Extract) विलायकों की मदद से बाहर निकाले जाते हैं तथा उन्हें कागज पर सीधा डाला जाता है ।

(4) नमूने को कागज पर डालना (Application of Sample of the Paper):

कागज पर डालने वाले नमूने की मात्रा भी क्रोमेटोग्राफी में महत्वपूर्ण कारक हैं ।

नमूने की मात्रा निम्न कारकों द्वारा निर्धारित होती है:

(i) विलायक की क्षमता,

(ii) परिमाणात्मक निर्धारण हेतु अनुकूलतम सान्द्रता,

(iii) विकसित होने के लिए आवश्यक समय ।

इन सभी बातों को ध्यान में रखकर नमूने को कागज पर डाला जाता है । नमूने को धब्बे या मोड़ों के रूप में कागज पर गिराया जाता है । कागज पर पेन्सिल से एक लाइन बनाकर उस पर बराबर-बराबर दूरी पर निशान लगा दिये जाते हैं ।

प्रत्येक बिन्दु अलग-अलग नमूनों की एक-एक बूँद प्लेटीनम छल्ले या माइक्रोसिरिज या कैपिलरी नलिका द्वारा डाली जाती है । इस बात का ध्यान रखा जाता है कि धब्बे का क्षेत्र बहुत छोटा (अधिकतम व्यास 5mm) हो । द्रव का आयतन लगभग 2µ ml होना चाहिए ।

(5) विलायक चुनना (Choice of the Solvent):

क्रोमेटोग्राफी में अनेक विलायक प्रयोग में लाये जाते हैं, किन्तु अन्तिम चयन पृथक् किये जाने वाले पदार्थों की प्रकृति पर निर्भर करता है । साधारणतः में पोलर विलायक (Polar Solvent) का उपयोग किया जाता है, जो कि कागज पर सोख लिया जाता है ।

कम पोलर विलायक (Less Polar Solvent) [जिसे मोबाइल फेज (Mobile Phase) कहते हैं ।] कैपिलरी एक्शन के द्वारा आगे बढ़ जाता है तथा डाले गये पदार्थों को पृथक् कर देता है । जल में मिश्रण (Water Miscible) विलायक जैसे- फ्यूरॉन प्रोपेनॉल (Furan Propanol) तथा सैलोसॉल्व (Cellosolve) प्रयोग किये जाते हैं ।

अधिकांशतः एन-ब्यूटेनॉल एसीटिक अम्ल (n-butanol Acetic Acid) और जल का मिश्रण विलायक की तरह प्रयोग में लाया जाता है, किन्तु एन-ब्यूटेनॉल एसीटिक अम्ल के स्थान पर कोई टर्शरी एल्कोहल (Tertiary Alcohol) का उपयोग करना बेहतर होता है ।

एन-ब्यूटेनॉल कार्बनिक अम्लों के साथ मिलकर एस्टर बनाता है । ऐसे विलायक प्रयोग में लाने चाहिए, जिनमें किसी अवयव के मिलाने पर दोनों के मध्य स्पष्ट पर्त बन जाय । विलायकों का उपयोग विशिष्ट अनुपातों में ही करना चाहिए तथा प्रयोग करने के पहले भली-भाँति हिला लेने चाहिए ।

सामान्यतः एक-फेज तन्त्र (One-Phase System) पेपर क्रोमेटोग्राफी में प्रयोग में लाया जाता है । दो-फेज तन्त्र (Two-Phase System) का प्रयोग प्रायः नहीं

करते । जहाँ तक सम्भव होता है कम से कम विलायक ही प्रयोग किये जाते हैं ।

(6) क्रोमेटोग्राम का विकसित होना (Development of Chromatogram):

क्रोमेटोग्राम विकसित करने हेतु अनेक उपकरण बनाये गये हैं ।

निम्न बिन्दुओं का ध्यान प्रायः रखा जाता है:

(i) रिजर्वायर के तले पर विलायक की उपयुक्त मात्रा होनी चाहिए ।

(ii) कागज के स्वतन्त्रतापूर्वक लटकने हेतु व्यवस्था होनी चाहिए ।

(iii) तापमान में अधिक अन्तर नहीं लेना चाहिए ।

रिजर्वायर विभिन्न प्रकार के पदार्थों का बना होता है । यह पदार्थ विलायक में अविलेय होना चाहिए । इसी कारण काँच, पॉलीथिन, स्टेनलैस स्टील आदि के रिजर्वायर प्राय: प्रयोग में लाये जाते हैं । कागज को उपयुक्त स्थिति में रखने के लिए क्लिप का प्रयोग किया जाता है । क्रोमेटोग्राम विकसित करना इस बात पर निर्भर करता है कि किन पदार्थों की जाँच करनी है ।

निम्न प्रकार के क्रोमेटोग्राम विकसित किये जाते हैं:

(a) एसेन्डिंग विकास (Ascending Development):

यह सबसे साधारण तरीके है । इस तरीके में कागज के निचले सिरे को विलायक में डुबाया जाता है तथा इसे कैपिलरी एक्शन द्वारा ऊपर चढ़ने दिया जाता है । यह तरीका अनेक पदार्थों के शीघ्र विश्लेषण करने हेतु अपनाया जाता है ।

कागज का निचला सिरा विलायक की गहराई से कुछ ऊपर रहे । कागज के दोनों सिरे एक-दूसरे को स्पर्श नहीं करने चाहिए । दोनों सिरों को क्लिप द्वारा या किसी अन्य तरीके से एक-दूसरे से दूर रखना चाहिए ।

(b) डिसेन्डिंग विकास (Descending Development):

यह क्रोमेटोग्राफी अत्यधिक प्रयोग में लायी जाती है । इस विधि में विलायक को कोष्ठ के शीर्ष पर एक ट्रफ में रखा जाता है तथा उसे नीचे पेपर में बहने दिया जाता है । द्रव गुरुत्वीय बल तथा कैपिलरी एक्शन द्वारा नीचे की ओर बहता है । इस तरीके में द्रव बहने की गति एसेन्डिंग तरीके से अधिक होती है ।

तेज बहाव के करण क्रोमेटोग्राम कम समय में पूर्ण हो जाता है । इस विधि में प्रयुक्त उपकरण अधिक नाजुक होता है । विकसित होने वाले विलायक में एक ट्रफ में कोष्ठ के शीर्ष पर एक निष्क्रिय पदार्थ की बनी ट्रफ में रखा जाता है ।

उसके पश्चात् कागज को विलायक में छोड़ दिया जाता है तथा फिर ट्रफ के शीर्ष पर ढक्कन ढक दिया जाता है । इस विधि से दो-डाइमैन्शनल क्रोमेटोग्राफी नहीं की जा सकती, क्योंकि कागज को काटकर ट्रफ में लगाया जाता है ।

जिन यौगिकों का Rf मान कम होता है उन्हें पूर्णतः एसेन्डिंग विधि (Ascending Method) द्वारा पृथक् नहीं किया जा सकता किन्तु इन्हें निम्न डिसेन्डिंग विधि द्वारा पृथक् किया जाता है:

रेडियल या चकती विकास (Radial or Disc Development):

इस विधि का बहुत कम प्रयोग किया जाता है तथा इसके द्वारा अतिविशिष्ट यौगिकों को पृथक् किया जाता है । इस विधि में एक वृत्ताकार कागज लेकर उसके किनारे से केन्द्र तक एक सीधी खाँच बना ली जाती है ।

नमूने को कागज के केन्द्र पर तथा खाँच के ऊपरी सिरे पर एकत्रित किया जाता है । इस कागज को वृत्ताकार चकती के ऊपर इस प्रकार रखा जाता है कि खाँच प्लेट के तले पर विलायक में डूबा रहे ।

द्रव खाँच में ऊपर चढ़ जाता है तथा कागज की त्रिज्याओं में बहता है । जब द्रव बहता है, तब वह अपने साथ विभिन्न यौगिकों को भी बहा ले जाता है । जैसे-जैसे विलायक आगे बहता है रेडियस पर बहने की गति धीमी हो जाती है तथा विलायक को अन्तिम वृत्त तक पहुँचने में अधिक समय लगता है ।

(7) क्रोमेटोग्राम सुखाना (Drying the Chromatogram):

उपर्युक्त किसी भी तरीके से क्रोमेटोग्राम विकसित कर लेने के पश्चात् कागज को रिजर्वायर से निकलकर विलायक फ्रन्ट की स्थिति के निशान पेन्सिल द्वारा कागज के दोनों किनारों पर लगा दिये जाते हैं ।

इसके बाद क्रोमेटोग्राम को हॉट प्लेट (Hot Plate) या ओवन (Oven) में कुछ मिनटों के लिए रखते हैं । ऐसा कागज से विलायक को पूर्णतः सुखाने हेतु करते हैं । कागज को पंखे या हेयर ड्रायर द्वारा भी सुखाया जाता है ।

(8) धब्बों की स्थिति (Location of Spots):

क्रोमेटोग्राम के विकसित होकर सूखने के पश्चात् पदार्थों की अलग-अलग स्थिति देखना अति आवश्यक है । यदि विभिन्न पदार्थ रंगीन हैं, तो उन्हें पृथक् करना आसान होता है तथा सफेद पदार्थों का पृथक्कीकरण करना ।

धब्बों की स्थिति ज्ञात करने के अनेक तरीके हैं, जिन्हें निम्न दो समूहों में विभक्त किया गया है:

(a) भौतिक तरीके (Physical Methods):

इन तरीकों का प्रयोग रासायनिक तरीकों की तुलना में अधिक किया जाता है, क्योंकि कागज पर मौजूद पदार्थ अन्य पदार्थों में परिवर्तित नहीं होते । अत: इन्हें हटाकर अध्ययन किया जा सकता है ।

(b) रासायनिक तरीके (Chemical Methods):

जब भौतिक तरीके प्रयोग में ला सकने योग्य नहीं होते उस समय रासायनिक तरीके प्रयोग में लाये जाते हैं । रंगहीन यौगिक कुछ रासायनिक प्रतिकर्मकों से प्रतिक्रिया करके रंगीन यौगिकों में परिवर्तित हो जाते हैं । ये प्रतिकर्मक लोकेटिंग रीएजेन्ट्स कहलाते हैं । ये गैस, द्रव या ठोस कोई भी हो सकते हैं किन्तु अधिकांशतः गैस या द्रव लोकेटिंग रीएजेन्ट्स (Locating Reagents) प्रयोग में लाये जाते हैं ।

अधिशोषण कॉलम वर्णलेखिकी (Adsorption Column Chromatography):

अधिशोषण जैसे सिलिका जेल (Silica Gel), एलुमिना, चारकोल पावडर तथा कैल्शियम हायड्रोक्सिएपेटाइट को काँच की नलिका में एक कॉलम (Column) में पैक किया जाता है यह स्टेशनरी फेज की तरह कार्य करता है । एक विलायक में सैम्पल मिश्रण (Sample Mixture) को इस कॉलम पर लोड किया जाता है ।

अलग-अलग घटक अधिशोषकों पर अलग-अलग अधिशोषित हो जाते हैं । इल्युशन बफर सिस्टम (मोबाइल फेज) द्वारा किया जाता है । अलग-अलग घटक कॉलम (Column) से अलग-अलग दरों पर बाहर आते हैं, जिनको पृथक् (Separate) किया जाता है । संग्रहित करके पहचान की जाती है ।

उदाहरण के लिए, अमीनो एसिड की पहचान निनहाइड्रिन कैलोरीमेट्रिक विधि (Method) द्वारा की जाती है । एक स्वचलित कॉलम क्रोमेटोग्राफी यंत्र-फ्रेक्शन का उपयोग वर्तमान में सर्वाधिक हो रहा है ।