केशव दास की जीवनी | Keshav Das Kee Jeevanee | Biography of Keshav Das in Hindi!

1. प्रस्तावना ।

2. जीवन वृत्त एवं रचनाकर्म ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

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रीतिकालीन कवियों में कवि केशवदास का अत्यन्त शीर्ष स्थान है । वे आचार्यत्व के साथ-साथ कवित्व की दृष्टि से भी सम्पन्न हैं । उन्होंने हिन्दी काव्य को अपने शब्द भण्डार से समृद्ध किया है । याद्दापि उनकी कठिन काव्य कला के आधार पर उन्हें ”कठिन काव्य का प्रेत” आचार्य कवि कहा जाता है, तथापि हिन्दी को संस्कृत के समान ही चमत्कारपूर्ण एवं अर्थमयी बनाने में उनका काफी योगदान रहा है ।

कविता में क्लिष्टत्व का दोष होते हुए चमत्कार उत्पन्न होने से वह विशिष्ट बन पड़ी है । उनका काव्य जनसाधारण से कहीं अधिक उत्कृष्ट काव्य-कला, कौशल से समृद्ध है । काव्य भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार है ।

2. जीवन वृत्त एवं रचनाकर्म:

रीतिकाल के प्रथम आचार्य कवि केशवदासजी का जन्म संवत 1612 को हुआ था । वे जाति के सनाढ्‌य ब्राह्मण थे । उनके पिता का नाम काशीनाथ था । उन्होंने ओरछा में अपना काफी समय बिताया था । वहां उन्हें इन्द्रजीत की ओर से जागीर भी मिली थी उनके वंश में सभी संस्कृत के ज्ञाता थे, अत: इसका लाभ उन्हें मिला ।

उन्होंने रामचन्द्रिका विज्ञानगीता, रसिक प्रिया. कविप्रिया, जहांगीर जस चन्द्रिका, वीरसिंह दैवचरित्र नामक  ग्रन्थों की रचना की । कहा जाता है कि गोस्वामी तुलसीदासजी को दिखाने के लिए उन्होंने एक रात में ही ”रामचन्द्रिका” लिख डाली । उनकी कविता की क्लिष्टता के विषय में कहा जाता है:

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कवि को दैन न चहै बिदाई ।

पूछै केशव की कविताई ।।

वे बड़े रसिक प्रवृति के थे । रसिकप्रिया के 16 भागों में  श्रुंगार के भेदों के साथ-साथ नायक और नायिका के मिलन स्थलों हाव-भावों का अवस्थानुसार चित्रण है । वहीं उनकी विरह एवं काम दशाओं का रीति निरूपण अलंकार युक्त भाषा में उन्होंने किया । कविप्रिया में कवि ने अपने आश्रयदाता इन्द्रसिंह की प्रशस्ति लिखी है ।

इसमें कोरा शब्दाडम्बर है । उपमानों एवं मार्मिक प्रसंगों की अवहेलना की गयी है । रामचन्द्रिका को महाकाव्यात्मक शैली में लिखा है । रामकथा के बहाने उन्होंने इसे छन्दों का अजायबघर ही बना डाला । अलंकारों के बोझ के तले उनकी काव्य-कामिनी दब सी गयी है । वनगमन तथा लक्ष्मण के मूचिछर्त होने जैसे मार्मिक वर्णनों में भी वे पाण्डित्य का चमत्कार ही दिखाते नजर आते हैं ।

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कविता के हृदय पक्ष को छोड़कर उसके कलापक्ष की ओर ही उनका ध्यान रहा है । उनका प्रकृति वर्णन भी राजमहल के बगीचों तक सीमित रहा । उनकी भाषा संस्कृत गर्भित ब्रजभाषा है । अलंकारों के बोझ के कारण प्रभावहीन बन गयी है । विज्ञान गीता में भी दर्शन की बात करते हुए भी वे एक पण्डित ही नजर आते हैं ।

3. उपसंहार:

यह सत्य है कि केशवदासजी रीतिकाल के आचार्यत्व कवि हैं । वे महान कवि इसीलिए नहीं बन सके; क्योंकि उन्हें आचार्यत्व भरा मस्तिष्क मिला था । सहृदय हृदय के भावों को उन्होंने उतना स्थान नहीं दिया, जितना कि उन्हें देना चाहिए था । वे मार्मिक अनुभूतियों में रमे नहीं । उनका सम्पूर्ण ध्यान अपने पाण्डित्य प्रदर्शन में था । कुल मिलाकर यह कहना होगा कि वह कवि थे, किन्तु कठोर व क्लिष्ट कल्पना के कवि थे ।

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