रंती देव की जीवनी | Biography of Ranti Dev in Hindi!

1. प्रस्तावना ।

2. रंतिदेव का दान ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

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हमारी भारतभूमि ऐसे दानवीरों की भूमि रही है, जिन्होने परोपकार के लिए ही नहीं, अपितु ईश्वर द्वारा ली गयी परीक्षा के लिए अपना सर्वस्व दान कर दिया । ऐसे दानवीरों में राजा शिवि, महाबली राजा बलि, सत्यवीर हरिश्चन्द्र, दानवीर कर्ण का नाम आता है। राजा रंतिदेव का नाम भी बड़े आदर और श्रद्धा के साथ लिया जाता है ।

राजा रंतिदेव सकृति नामक राजा के पुत्र थे । वे बड़े ही प्रतापी और दयालु थे । रंतिदेव जब भी किसी गरीब को कष्ट में देखते थे, अपना सर्वस्व दान कर देते थे । यहां तक कि उन्हें जो कुछ भी मिलता, वे उसे भी दान कर देते थे । एक बार राज्य में अकाल पड़ा । राजा ने अपना सब कुछ दान कर दिया ।

2. रंतिदेव का दान:

ऐसे दानवीर रंतिदेव पूरे अड़तालीस दिनों तक भूखे-प्यासे रहे । भूख-प्यास से पीड़ित शक्तिहीन राजा का शरीर कांपने लगा । उन्हें उनचासवें दिन कहीं से भोजन प्राप्त हुआ । वे भोजन ग्रहण करना ही चाहते थे कि एक ब्राह्मण अतिथि उनके सामने आ खड़ा हुआ । भूखे पेट अन्नदान करना महादान होता है ।

रंतिदेव ने श्रद्धापूर्वक उस ब्राह्मण को अन्न दान में दिया । शेष बचा हुआ अन्न वे अपने परिवार को बांटकर ग्रहण करना चाहते थे कि एक शूद्र अतिथि याचक उनके द्वार पर आ खड़ा हुआ । राजा ने उसे अन्नदान दिया ही था कि वह बोला: ”मेरे साथ मेरा कुत्ता भी भूखा है । उसके लिए भी अन्न चाहिए ।”

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राजा रंतिदेव ने बचा हुआ अन्न उस शूद्र अतिथि और उसके कुत्ते को दे दिया । तत्पश्चात् उसे प्रणाम किया । अब उनके पास एक मनुष्य की प्यास बुझे इतना ही जल रखा हुआ था । राजा उस जल को पीना ही चाहते थे कि अकस्मात् एक चाण्डाल आकर रंतिदेव से कहने लगा: ”महाराज ! मैं बहुत अधिक थका हुआ हूं । मुझ अपवित्र नीच को पीने के लिए थोड़ा-सा जल चाहिए ।”

उस चाण्डाल की दीन-करुण याचना सुनकर राजा रंतिदेव ने अपने हाथ का पानी भरा प्याला उस चाण्डाल को दिया और उससे कहा: ”मैं आठों सिद्धियों की कामना नहीं करता । केवल इतना ही चाहता हूं कि मैं ही सब प्राणियों के अन्तःकरण में स्थित होकर उनके दु:खों को दूर करूं, जिससे वे दुःखरहित हो जायें ।

एक दीन प्राणी को, जिसके प्राण जल बिना निकल रहे थे, मैंने उसे जीवन रूपी जल दिया । इससे तो मेरी भूख-प्यास, कष्ट, दीनता, शोक, विषाद सब कुछ मिट गये ।” राजा रंतिदेव ने अपने ऐसे उद्‌गार व्यक्त किये ही थे कि भगवान् ब्रह्मा, विष्णु महेश भी महाराज रंतिदेव की परीक्षा लेने हेतु मायावी रूप धरकर ब्राह्यण का वेश धारण कर पृथ्वीलोक पर आ पहुंचे । उन्होंने भी राजा रंतिदेव की परीक्षा ली ।

इन परीक्षाओं में रंतिदेव के संयम, धैर्य, ईमानदारी, परोपकारिता आदि को देखकर ब्रह्मा, विष्णु महेश अत्यन्त प्रसन्न हुए । उन्होंने अपने ब्राह्मण के वेश का त्याग करके यथार्थ रूप धारण किया । राजा रंतिदेव ने उनके प्रत्यक्ष दर्शन कर, उन्हें श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया ।

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तीनों देवताओं के कहने पर भी राजा ने अपने लिए कोई वर नहीं मांगा; क्योंकि उन्होंने तो अपनी तृष्णाओं को जीतकर परम शक्ति की वह दशा प्राप्त कर ली थी, जहां पर कोई इच्छा शेष नहीं रह जाती है । इच्छा होती भी है, तो वह परम शक्ति के दर्शन मात्र की ।

परमात्म शक्ति के दर्शन हो जाने पर उनकी सारी इच्छाएं शान्त हो चुकी थीं । एक दानवीर, परोपकारी, दयालु राजा के रूप में राज-काज करते हुए महाराज रंतिदेव के परिवार के अन्य लोग भी उनके प्रभाव से परमगति को प्राप्त हुए ।

3. उपसंहार:

राजा रंतिदेव का जीवन चरित्र हम सभी को इस बात का सन्देश देता है कि ईश्वर अपने सच्चे भक्तों की बार-बार कठिन परीक्षा लेते हैं । ईश्वर को हमेशा अपने सच्चे भक्त की तलाश होती है । एक साधक एवं भक्त को भी ईश्वर की तलाश होती है ।

ईश्वर द्वारा ली गयी परीक्षाओं में जो खरा उतरता है, अपना धैर्य एवं संयम नहीं खोता है, वही परीक्षा में सफल होता है । यह भी सच है कि परोपकारी एवं दानी व्यक्ति पूरी दुनिया पर अपना राज कायम कर सकता है ।

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