प्रेमचंद की जीवनी | Biography of Premchand in Hindi!

1. प्रस्तावना ।

2. व्यक्तित्व एवं कृतित्व ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

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हिन्दी कथा साहित्य में प्रेमचन्दजी का नाम सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार एवं कहानीकार के रूप में अग्रगण्य है । युग प्रवर्तक प्रेमचन्द ने अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से भारतीय समाज की समस्त स्थितियों का अत्यन्त मनोवैज्ञानिक, यथार्थ चित्रण किया है ।

उनका सम्पूर्ण साहित्य तत्कालीन भारतीय जनजीवन का महाकाव्य कहा जा सकता है । उनकी रचनाओं में भारतीय किसान की ऋणग्रस्त स्थिति, भारतीय नारियों की जीवन व नियति की ऐसी कथा समाहित है, जो उसकी कारुणिक त्रासदीपूर्ण स्थितियों को अत्यन्त मर्मस्पर्शी एवं संवेदनात्मक स्तर पर चित्रित करती है ।

पूंजीपतियों और जमींदारों का अमानवीयतापूर्ण क्रूर शोषण व आतंक उनके कथा साहित्य में उनकी भाषा के साथ जीवन्त हो उठता है । तत्कालीन समाज की कुप्रथाओं, कुरीतियों का जो बेबाक एवं सत्यता भरा चित्रण प्रेमचन्द की रचनाओं में मिलता है, वह बड़ा मर्मस्पर्शी है । अपनी आदर्शवादी और यथार्थवादी रचनाओं में पराधीनता से मुक्ति का संकल्प भी राष्ट्रीय भावना के साथ व्यक्त होता है ।

2. व्यक्तित्व एवं कृतित्व:

हिन्दी के महान कथा शिल्पी जनवादी लेखक मुंशी प्रेमचन्दजी का जन्म 31 जुलाई, 1880 को बनारस से 6 किलोमीटर दूर लमही नामक ग्राम में हुआ था । बचपन में ही मां का प्यार छिन गया । सौतेली मां की निर्दयता, पिता की कड़ी फटकार और आर्थिक विपन्नता ने प्रेमचन्दजी को जीवन के अप्रिय मोड़ों से गुजरने पर बाध्य किया ।

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बी॰ए॰ तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने सबडिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ स्वाऊल्स तथा नार्मल स्वाऊल के अध्यापक के रूप में कार्य किया । उन्होंने हंस, जमाना, जागरण नामक मासिक पत्रिका का सम्पादन भी किया । उनकी प्रारम्भिक रचनाए नवाबराय के नाम से उर्दू में लिखी गयीं । उन्होंने जीवन के अन्तिम समय में फिल्म कम्पनियों के लिए भी कहानी लेखन किया ।

उन्होंने लगभग 300 से भी अधिक कहानियां लिखीं और 14 उपन्यास भी लिखे । उनकी प्रमुख कहानियों में कफन, नमक का दरोगा, पूस की रात, ईदगाह, बूढ़ी काकी, पंच परमेश्वर, कजाकी, सवा सेर गेहूं ठाकुर का कुआ, परीक्षा, मन्त्र, दो बैलों की कथा तथा उपन्यासों में गोदान, गबन, रंगभूमि, कर्मभूमि, सेवा सदन, निर्मला, प्रेमा और वरदान और प्रतिज्ञा प्रमुख हैं ।

”कफन” कहानी में घीसू और माधव के माध्यम से भूख की पीड़ा से व्यक्ति की भावना और संवेदनशीलता के शून्य हो जाने का मनोवैज्ञानिक चित्रण है । ”पूस की रात” में किसान की दरिद्रतापूर्ण पीड़ा की गहराई

है । ”गोदान” में भारतीय किसान की शोषण-भरी व्यथा-कथा के साथ उसकी परिश्रमी छवि का चित्रण है ।

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गोबर युवा पीढ़ी के विद्रोह की अभिव्यक्ति है । महाजनी सभ्यता में पूंजीवादी मनोवृति को दर्शाया गया है । मन्त्र कहानी में निस्वार्थ भावना की अभिव्यक्ति है, तो दूसरी, मन्त्र कहानी में अछूतों के प्रति पण्डित लीलाधर चौबे की मानवीय भावना का चित्रण है । सवा सेर गेहूं में पूंजीवादी शोषण का यथार्थ रूप वर्णित है । प्रेमचन्द ने अपने व्यक्तिगत जीवन में कभी अपने सिद्धान्तों से समझौता नहीं किया ।

उन्होंने समाजिकता की परवाह नहीं की । उनके व्यक्तिगत जीवन की कहानी उनके आत्मसंघर्ष की कहानी है । उनके जीवन की शैली साहित्य की शैली है । बनावटीपन से कोसों दूर रहने वाले प्रेमचन्दजी ने स्वयं को कभी किसी मजदूर से ऊंचा नहीं समझा ।

उनका व्यक्तित्व हर दृष्टि से महान् साहित्यकार का व्यक्तित्व है । उनके सामाजिक व्यक्तित्व एवं साहित्यिक व्यक्तित्व में कोई अन्तर्विरोध नहीं है । यह कहना बिलकुल ठीक होगा कि वे जैसा लिखते थे, वैसा ही जीने की कोशिश करते थे । जीवन व लेखकीय मूल्यों के साथ उन्होंने कभी भी समझौता नहीं किया ।

लेखन के लिए उनका जीवन उत्सर्जित था । वह जीने के लिए लिखना नहीं, लिखने के लिए जीना अपना आदर्श मानते थे । उनकी प्रतिबद्धता जनता के साथ थी । वे सच्चे अर्थो में जनसाधारण के लेखक थे । उनकी कथावस्तु भाषा-शैली जनता के लिए थी । उनकी रचना का ध्येय जनता को सीख व आत्मबल देना था ।

3. उपसंहार:

प्रेमचन्दजी ने ”हंस” की भूमिका में यह लिखा था कि “मनुष्य में जो कुछ सुन्दर, विशाल और आदरणीय है, वहीं साहित्य है । साहित्य में निराश्रितों, पतितों और आहतों की पीड़ा का चित्रण होना चाहिए; क्योंकि सब प्रकार के आघातों को सहन करने के बाद भी उनमें धर्म और मनुष्यता की असीम क्षमता होती है ।

एक सचाई भरा सेवाभाव, जीवन मूल्यों का आदर्श इनमें होता है । शोषकों से कहीं अधिक मानवीयता उनमें है । वे लांछित होकर भी सुसंस्कृत है । निःसन्देह प्रेमचन्दजी एक जनवादी, क्रान्तिकारी, सामाजिक,

यथार्थवादी, आदर्शवादी, सत्याग्रही, राष्ट्रीयता के पोषक, सर्वहारा प्रतिनिधि साहित्यकार थे । 8 अक्तूबर, 1936 को प्रेमचन्दजी हिन्दी साहित्य जगत् को सुना कर चले गये ।

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