ठाकर बापा की जीवनी | Biography of Thakkar Bapa in Hindi!

1. प्रस्तावना ।

2. जन्म परिचय ।

3. उनके कार्य व विचार ।

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4. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

संसार की सबसे बड़ी सेवा मानव सेवा ही है । ऐसा आदर्श हमें सेवा की प्रतिमूर्ति ठक्करबापा के जीवन से मिलता है । उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी व्यक्ति किस तरह अपने कार्यो से महान् बन जाता है, यह ठक्करबापा का जीवन हमें बताता है ।

2. जन्म परिचय:

ठक्करबापा का जन्म 29 नवम्बर सन् 1869 में भावनगर गुजरात के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था । उनका पूरा नाम अमृतलाल विट्ठलदास ठक्कर था । उन्होंने हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की । सन् 1891 में इंजीनियरिंग पास कर बी॰जी॰जे॰पी॰ रेलवे में इंजीनियर हो गये ।

उनके पिता विट्ठलबापा भी धर्मनिष्ठ और सेवाव्रती व्यक्ति थे । उनकी पत्नी की मृत्यु हो जाने के उपरान्त ठक्करबापा के जीवन का संघर्ष प्रारम्भ हो गया । जब वे 1895 से 1900 तक पोरबन्दर में थे, तो उस समय भीषण अकाल पड़ा था ।

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अकाल पीड़ितों पर से मिट्टी हटाते समय जब उन्होंने मरणासन्न अवस्था में पड़े मजदूर पति-पत्नी को जीवन के अन्तिम क्षणों में अपने तीन जीवित बच्चों को मिट्टी में गाड़ने का दुःखद दृश्य देखा, तो वे कांपकर रह गये ।

उन्होंने मिट्टी में गड़े हुए उन तीनों बच्चों को बाहर निकाला और उसके बाद तो उन्होंने मानव सेवा का जैसे सँकल्प ही ले लिया । ठक्करबापा ने गुजरात के अकाल-पीड़ितों के लिए न केवल धन एकत्र किया, वरन् एक भोजनालय भी खोल दिया, जिसमें 600-700 लोग प्रतिदिन भोजन करते थे ।

ठक्करबापा प्रतिदिन सुबह उठकर पूजा-पाठ से निवृत होकर भोजनालय पहुंच जाते । वे सब लोगों के भोजनोपरान्त ही भोजन करते । गांव-गांव जाकर कम्बल तथा वस्त्रों का वितरण करते । उन्होंने पाया कि शंकरपुरा गांव में तो लोग खाने-पीने तो क्या, कपड़ों आदि के लिए भी मोहताज थे ।

एक महिला झोपड़ी से इसीलिए बाहर नहीं आ रही थी; क्योंकि उसके तन पर एक भी वस्त्र नहीं था । भूख से पीड़ित उस महिला को देखकर ठक्करबापा का हृदय रो पड़ा । उन्होंने ”भील सेवा संघ” की स्थापना      की । जहां आदिवासियों के लिए स्कूल, आश्रम खोले ।

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सन् 1932 में वे झालौद की सीमा पर बसे एक आदिवासी ग्राम बारिया में 22 मील पैदल चलते इसलिए पहुंचे थे क्योंकि वहां के आदिवासी अपनी सारी जमा पूंजी शराब पीने में बरबाद कर देते थे । वहां जाकर उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं और विद्यार्थियों के साथ शराबबन्दी तथा अन्य सामाजिक बुराइयों का विरोध किया ।

तख्तियों पर उन्होंने लिख रखा था: ”शराब मत पियो, शराब पीने से बरबादी आयेगी, रोज नहाओ, रोज नहाने से शरीर साफ रहेगा, दाद, खुजली और नहरू नहीं निकलेंगे, जादू-टोना करने वाले ओझाओं से मत डरो, वे लुटेरे हैं, तुम्हें ठग लेंगे ।” इस तरह के नारों को देखकर निकल रही राजा की सवारी ने ठक्करबापा का विरोध किया ।

उन्हें रातों-रहात राज्य छोड़ने का हुक्म दिया । आधी रात को वे कैसे जाते क्योंकि उनके साथ अन्य लोग भी थे । भील सेवा सघ का कार्य करते हुए बापा ने हर बालक आश्रम के सामने जमा बड़े-करकट को स्वयं साफ किया । यह देखकर अन्य भी उनके पीछे-पीछे हो लिये थे ।

टीलो के रूप में जमे हुए चूने के ढेर को खुद-बखुद साफ किया । एक बार बाढ़ के समय अनाज बांटते ठक्करवापा ने 5 मील का रास्ता 7 घण्टे पैदल चलकर तय किया । 1943-44 के अकाल में तो कई गांवों में मुरदे जलाने के लिए भी लोग नहीं थे । बापा ने वहा जाकर भी भोजन, वस्त्र तथा दवाइयों का प्रबन्ध किया ।

रात-रात जागकर कार्य किया । नोआखली में हरिजनों के मकानों को अंग्रेजों ने जला दिया था । बापा ने वहां जाकर दीन-दुखियों की सहायता की । हरिजन सेवक संघ में गांधीजी के साथ सेवाकार्य में जुटे रहे । एक बार तो वे मैले कपड़ों का गट्ठर लिये बाजार से धोबी के घर तक ले आये । उनका कहना था कि सेवाकार्य में किसी भी प्रकार की हिचक नहीं होनी चाहिए ।

3. उनके कार्य व विचार:

ठक्करबापाजी में ईमानदारी बाल्यकाल से ही कूट-कूटकर भरी थी । जब वे हाईस्कूल में पढ़ते थे, तो उनके आगे-पीछे बैठने वाले विद्यार्थी उन्हें प्रश्नों के उत्तर पूछ-पूछकर परेशान कर डालते थे । वे उसके उत्तर हाशिये पर लिखकर बताते थे । जब उनकी कॉपी अध्यापक के सामने इस रूप में आयी, तो उन्हें फटकार गिली । उन्होंने सचाई से स्वीकार कर लिया ।

इंजीनियरिंग के पद पर रहते हुए कई लोगों ने अपनी जमीन बचाने के चक्कर में उन्हें थैली पार-भरकर रुपयों का लालच देना चाहा, परन्तु वे रुपये लेना पाप समझते थे । अधिकारियों द्वारा परेशान करने पर उन्होंने इस सेवा से त्यागपत्र दे दिया, परन्तु रिश्वत लेना मंजूर नहीं किया । जब वे लोकनिर्माण विभाग में इंजीनियर थे, तो वहां पर मी उन पर रिश्वत लेने का दबाव पड़ा । उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र देना उचित समझा ।

4. उपसंहार:

ठक्करबापा त्याग, सेवा, बलिदान तथा करुणा के साक्षात् पर्याय थे । उनका सम्पूर्ण जीवन पीड़ित मानवता की सेवा के लिए ही समर्पित था । अपने सेवाभाव के कारण वे उन सन्तों की श्रेणियों में आ गये, जिन्होंने मानव कल्याण के लिए जीवन ग्रहण किया था । 81 वर्ष की अवस्था तक भी कार्य करते हुए 19 जनवरी, 1951 को इस महान् इंसान ने अपना शरीर ईश्वर को समर्पित किया ।

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