आदि पुरुषा मनु की जीवनी | Biography of Aadi Purush Manu in Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. मनुस्मृति का महत्त्व ।

3. उनके विभिन्न विचार ।

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4. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

मनु विख्यात हिन्दू ऋषि तथा धर्मशास्त्रवेत्ता थे, जिन्हें मानव जाति के जनक तथा प्रथम विधिवेत्ता के रूप में वर्णित किया गया है । महाजलप्लावन के बाद सृष्टि के आदिपुरुष मनु माने जाते हैं । मनु की सन्तान ही मानव कहलाती है । मनु महाराज ने अपनी सन्तान के मार्गदर्शन के लिए ही मनुस्मृति की रचना की ।

हिन्दू मनुस्मृति का अत्यन्त ही आदर करते हैं । यह एक आर्य ग्रंथ है । मनु संहिता में 21 अध्याय हैं, जिसमें सृष्टि की उत्पत्ति तथा विकास के साथ-साथ इस पुस्तक में राजसत्ता, दण्ड विधान, धर्मशास्त्र, हिन्दू संस्कार वर्णन, दिनचर्या, वर्ण व्यवस्था तथा आश्रम व्यवस्था का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है ।

प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक नीटस ने मनुस्मृति की प्रशंसा निम्नलिखित शब्दों में की है । ”मनुस्मृति बाइबल से कहीं अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण नियमों का ग्रन्थ है ।”

2. मनुस्मृति का महत्त्व:

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मनुस्मृति में अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चार पुरुषार्थों को महान् मुक्ति का मार्ग बताया गया है । इसके अन्तर्गत वर्ण धर्म, आश्रम धर्म, वर्णाश्रम धर्म तथा समान्य धर्म के साथ-साथ धर्म के विविध रूपों का व्यापक रूप से प्रतिपादन किया गया है, जिसमें सभी प्रकार के वेद, स्मृतियों तथा ब्राह्मण धर्म की भी विशद व्याख्या है ।

इसमें 12 अध्याय हैं, जिसके मुख्य विषय हैं:

1.संसार की उत्पत्ति,

2. जाति-कर्मादि संस्कार,

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3. पच महायज्ञ, नित्य श्राद्ध विधि,

4. स्नातक {गृहस्थ} के नियम,

5. भक्ष्य तथा अभक्ष्य पदार्थ,

6. वानप्ररथ तथा संन्यास आश्रम,

7. व्यवहार के मुकदमों का निर्णय, कर ग्रहण आदि राजधर्म,

8. साक्षियों से प्रश्नविधि,

9. स्त्री तथा पुरुष के धर्म, धन आदि सम्पत्ति का विभाजन,

10. आपत्तिकाल के कर्तव्य व धर्म,

11. पाप की निवृति के लिए प्रायश्चित,

12. मोक्षप्रद आत्मज्ञान ।

मनुस्मृति के प्रथम अध्याय में संसार के प्रलयकाल के बाद सृष्टि की रचना किस प्रकार हुई तथा सृष्टि निर्माता ब्रह्मा की उत्पत्ति, जगत् के समस्त प्राणियों की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, इसका विवरण है । विराट पुरुष ब्रह्मा के शरीर के दो भाग हुए, जिनमें अर्द्धभाग से नर तथा अर्द्धभाग से नारी की उत्पत्ति हुई ।

ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, पेट के निचले भाग से वैश्य तथा पैर से शूद्र की उत्पत्ति हुई है । सृष्टि को तीन गुण-सत्व, रज और तम में बांटा गया है, जिन्हें क्रमश: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र का प्रतीक माना है । वर्ण व्यवस्था के अनुसार ही ब्राह्मण हेतु विद्या धर्म, धर्मशास्त्र का अध्ययन अध्यापन, क्षत्रिय हेतु राजकर्म, वैश्य हेतु व्यापार, शूद्र हेतु इन तीनों की सेवा करने का कार्य निश्चित किया गया है ।

ब्रह्माचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास आश्रम को हिन्दू समाज का आधार माना है । मनुस्मृति के अनुसार स्त्रियों को हमेशा पुरुषों के संरक्षण में रहना चाहिए । विवाहोपरान्त पैतृक सम्पत्ति में उनका कोई हिस्सा नहीं होगा ।

3. उनके विभिन्न विचार:

मनु ने सर्वप्रथम जाति विभाजन की दृष्टि से समाज को सन्तुलित रखने के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र का एक संगठन बनाया था । कार्य विभाजन की दृष्टि से यह करथा अत्यन्त श्रेष्ठ थी । जीवनकाल को सौ वर्षो का मानकर मनु महाराज ने 25 वर्ष ब्रहाचर्य, 25 के बाद 50 तक गृहस्थ धर्म का पालन, 75 के बाद वानप्रस्थ तथा 75 से 100 तक सन्यास आश्रम ग्रहण कर जीवन को सार्थक बनाना निर्धारित किया था, जिसमें 16 संस्कारों के साथ-साथ चार पुरुषार्थ-अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष-को भी महत्त्व दिया गया था ।

मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं: धैर्य, क्षमा, दमन, चोरी न करना, पवित्रता, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य, अक्रोध । मनु के राज्य सम्बन्धी विचारों में राजा को प्रजापालक, विद्यानुरागी, आत्मत्यागी, विद्वान्, नीतिनिपुण, गो तथा ब्राह्मणों का रक्षक तथा झूत क्रीड़ा, मदिरापान, परस्त्रीगमन की बुराइयों से दूर रहना चाहिए ।

युद्धकौशल में निपुण होने के साथ-साथ सन्धिविग्रह आदि भाव से युक्त होना चाहिए । राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि मानते हुए उसमें दैवीय गुणों का समावेश होना चाहिए । ऐसा मनु का विचार था । दुराचारी तथा प्रजावत्सल राजा यदि अपने धर्म से हटा हुआ है, तो वह नरक का अधिकारी है ।

राजा को दण्ड देने का पूर्ण अधिकार है । दण्ड न देने से राज्य का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा । दण्ड देते समय राजा को पक्ष और विपक्ष दोनों प्रमाणों को आधार मानना चाहिए । साक्षी का बयान हो या लिखित बयान हो, दोनों किसी दबाव में तो नहीं दिये गये हैं, इसकी भली-भांति जांच करवाकर तदनुसार ही दण्ड देना चाहिए ।

न्यायाधीश द्वारा दिया गया त्रुटिपूर्ण न्याय एक पापकर्म है । अधिकतर दिये गये दण्डों में आर्थिक दण्ड का उल्लेख मिलता है । राजा को अपनी धर्मसभा में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र चारों को ही योग्यतानुसार कार्य देना चाहिए । अपनी मन्त्रिपरिषद् में आठ चतुर, बुद्धिमान, न्यायप्रिय मन्त्रियों की नियुक्ति करनी चाहिए ।

मन्त्रियों की योग्यता, वंश परम्परा, शास्त्र सम्बन्धी ज्ञान, शूरता, दृढ़ संकल्पी, उच्च कुलीन आदि गुणों पर निर्धारित थी । मन्त्रियों के कार्य संचालन के लिए अर्थ विभाग, अन्तर्निवेश विभाग, सन्धि विग्रह विभाग, दण्ड विभाग गठित थे ।

राजा मन्त्रिपरिषद् के सबसे श्रेष्ठ ब्राह्मण मन्त्री से सलाह लेता था । मन्त्रणा का स्थान, समय अत्यन्त गोपनीय रखा जाता था । राजा स्वधर्म का पालन करते हुए न्याय व्यवस्था को बनाये रखता शा । धर्मसभा में सदस्य को सच बोलना चाहिए ।

यदि सभा में वह मौन रहता है या असत्य भाषण करता है, तो उससे महान् पाप लगता है, जिससे धर्म, सत्य तथा सभा का नाश भी हो सकता है । धर्मसभा के अध्यक्ष को धर्मानुसार आचरण करते हुए अर्थी, प्रत्यार्थी एवं साक्षी के कथन को ईमानदारी से सुनना चाहिए ।

सभासदों से परामर्श लेकर निर्णय लेना चाहिए तथा रोजा एवं सभासद उचित वस्त्राभूषण धारण कर उपस्थित होने चाहिए । ऐसा मनु का विचार था । परलोक में नरक भोगने का भय दिखाकर न्याय व्यवस्था को मजबूती प्रदान की गयी थी । मनुस्मृति के अनुसार-यदि कोई व्यक्ति किसी वस्तु का उपभोग निश्चित अवधि समाज होने के बाद करता है, तो वह वस्तु उसकी हो जायेगी ।

4. उपसंहार:

मनु महाराज द्वारा रचित ”मनुस्मृति” धर्मशास्त्र का प्राण है । मनु द्वारा स्थापित धार्मिक सिद्धान्तों के लिए भारतवर्ष उनको हमेशा स्मरण करेगा । धर्म सम्बन्धी व्यवस्था तथा राजनीतिक व्यवस्था में कुछ गुण उनके द्वारा रथापित किये गये । वे श्रेष्ठ हैं । वर्णाश्रम व्यवस्था भी जीवन के कल्पित सौ वर्षो के आधार पर बनाई गयी ।

उत्तम व्यवस्था मानी जा सकती है, किन्तु मनुस्मृति का सबसे बड़ा दोष यह था कि जाति व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के आधार पर जो कार्य विभाजन किया गया, वह कार्य विभाजन की दृष्टि से ठीक था । कालान्तर में इस जाति व्यवस्था के कारण समाज में निम्न शूद्र वर्ण को आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक दृष्टि से भी घोर अपमान और उपेक्षा का सामना करना पड़ा ।

मानव-मानव के बीच जाति के भेदभाव की जो खाई पैदा की गयी, उससे हिन्दू समाज सभी दृष्टियों से विश्व की तुलना में काफी पिछड़ गया । जाति व्यवस्था की अमानवीय धारणा ने वर्तमान में आरक्षण जैसी व्यवस्था को जन्म दिया । फिर भी मनुस्मृति का हिन्दू समाज में अपना अलग महत्त्व है ।

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