आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की जीवनी । Biography of Ram Chandra Shukla in Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. जीवन वृत एवं रचनाकर्म ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

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आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी के श्रेष्ठ समालोचक, मौलिक निबन्धकार के रूप में विख्यात है । आलोचना के तो वे सम्राट हैं । वे शुक्ल युग के प्रवर्तक एवं श्रेष्ठ निबन्धकार हैं । उनसे पूर्व हिन्दी आलोचना एक पौधे के रूप में  थीं । उन्होंने उसे एक वृक्ष का रूप प्रदान किया ।

उन्होंने अपनी प्रतिभा, विद्वता, चिन्तन एवं लोककल्याणकारी अवधारणा के वायु प्रकाश एवं जल से वृक्ष के रूप में परिणित किया । आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने लिखा है: ”शुक्लजी ने हिन्दी समीक्षा में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया । वे नये युग के विधायक थे ।”

डॉ॰ खण्डेलवाल ने शुक्लजी के विषय में लिखा है कि ”शुक्लजी को हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ मौलिक और प्रौढ़ समालोचक होने का गौरव प्राप्त है । वे तात्विक एवं ऐतिहासिक दोनों प्रकार की दृष्टि से दिग्गज आचार्य    हैं ।” उन्होंने जीवन मूल्यों के आलोक से समीक्षा को ऊंचा अर्थ व आशय प्रदान किया ।

2. जीवन वृत्त एवं रचनाकर्म:

आचार्य रामचन्द्र शुक्लजी का जन्म सन् 1884 में उ॰प्र॰ जिला-बस्ती, ग्राम-अगोना में हुआ था । उनके पिता चन्द्रबलि शुक्ल कानूनगो व सुपरवाइजर थे । शुक्लजी ने इण्टर की शिक्षा मिर्जापुर से उत्तीर्ण की थी । वे मिर्जापुर के मिशन स्कूल में द्धाइंग के शिक्षक हो गये । वे अपने लेख पत्र-पत्रिकाओं में भेजा करते थे । उनका संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू भाषा पर अच्छा अधिकार था ।

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उन्होंने एम॰ए॰ तक की पढ़ाई पूर्ण की । उन्होंने अध्यापक का कार्य भी किया । शुक्लजी ने मात्र 26 वर्ष की अवस्था में वाराणसी सभा के द्वारा हिन्दी शब्द सागर शब्दकोष का निर्माण करवाया और उसके सम्पादक नियुक्त हुए । इसके बाद वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे । 2 फरवरी, 1941 को 57 वर्ष की आयु में उनका देहान्त हो गया ।

उनके द्वारा रचित रचनाओं में हिन्दी साहित्य का इतिहास, चिन्तामणि भाग 1, 2, 3, रस मीमांसा, गोस्वामी तुलसीदास, भ्रमरगीत सार की भूमिका, जायसी यथावली की भूमिका, बुद्ध चरित्र की भूमिका प्रमुख है । आचार्य रामचन्द्र ने श्रेष्ठ मनोवैइघनिक एवं साहित्यिक निबन्ध लिखे, जिनमें क्रोध, लज्जा, ग्लानि, श्रद्धा व भक्ति, उत्साह प्रमुख है ।

आचार्य शुक्ल ने सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों प्रकार की आलोचनाएं प्रस्तुत कीं । उनकी गद्य भाषा तत्सम शब्द प्रधान, प्रौढ़ प्राजंल पुष्ट एवं प्राजंल हैं । इनमें कहीं भी व्याकरणिक दोष नहीं मिलता । उनकी भाषा में भूलकर भी पूर्वीपन या ग्रामीण भाषा के शब्दों का प्रयोग नहीं मिलता । उन्होंने भाषा को परिमार्जित रूप प्रदान किया ।

अत: उनकी भाषा में प्रौढ़ता, गम्भीरता, सामासिकता के दर्शन होते है । उनकी भाषा में कसावट है । व्यर्थ के शब्द-भण्डार नहीं हैं । उनकी भाषा विषयानुकूल है । इसमें आवश्यकतानुसार उर्दू संस्कृत, फारसी तथा अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग हुआ है । शैली: ”व्यक्ति ही शैली है, शैली ही व्यक्ति” का प्रतिरूप है ।

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उनकी शैली विचारात्मक, समीक्षात्मक, गवेषणात्मक, भावात्मक, हास्य विनोद प्रधान, मनोविश्लेषात्मक, समीक्षात्मक, उद्धरण, सामासिक, सूत्रात्मक अध्यापकीय शैली है । भाषा, भाव एवं अभिव्यंजना की दृष्टि से वे श्रेष्ठ साहित्यकार हैं । उनकी समीक्षात्मक शैली का विवेचन करने पर यह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने आलोचना के क्षेत्र में नयी उद्‌भावनाएं की हैं ।

उन्होंने आलोचना के लिए शक्ति, शील और सौन्दर्य का उच्चतम आदर्श स्थापित किया है । इसी आधार पर उन्होंने सूर, जायसी, तुलसी और कवियों की समीक्षाएं प्रस्तुत की हैं । उन्होंने भारतीय रसवाद की गम्भीर एवं व्यापक समीक्षा प्रस्तुत कर उसे भारतीय समीक्षाशास्त्र का आदर्श बनाया ।

उन्होंने रसवादी धारणाओं को परिवर्तित और परिवर्द्धित कर नवीन रूप प्रदान किया । उन्होंने रस दशा और शील दशा की अवतारणा की । इस दशा में पहुंचकर काव्य की रस दशा अपने विकार को त्यागकर जीवन के व्यापक रूप को प्राप्त करती है । उन्होंने दार्शनिक आधार पर भी समीक्षा के नये प्रतिमान रखे ।

उनमें तटस्थता एवं उदारता की कमी थी । उन्होंने नैतिकता एवं लोकमंगल का ध्यान रखा । शुक्लजी ने यूरोपीय साहित्य के जल्दी-जल्दी होने वाले परिवर्तन पर ध्यान नहीं रखा । उन्होंने गम्भीर समीक्षाएं प्रस्तुत कीं, किन्तु यंत्र-तंत्र हास्य की चोट की । जैसे: ”बिहारी की नायिका की दशा विरहाकुल दशा घड़ी की पेण्डुलम-सी हो गयी थी ।”

3. उपसंहार:

आचार्य रामचन्द्र शुक्लजी एक बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न साहित्यकार थे । वे कवि, निबन्धकार, आलोचक, सम्पादक के रूप में हमारे सामने आते हैं । उन्होंने आलोचना को नयी दिशा दी । उन्होंने चिन्तामणि के माध्यम से निबन्धकला को नयी दिशा दी ।

उन्होंने वैज्ञानिक ढंग की नयी आलोचना पद्धति को जन्म दिया । उनको ”हिन्दी साहित्य सम्मेलन” द्वारा “मांगलाप्रसाद पारितोषिक” भी प्राप्त हुआ । वे आलोचना या समीक्षक, निबन्धकार ही नहीं, सच्चे अर्था में साहित्यकार और आचार्य थे ।

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