बैंक राष्ट्रीयकरण की समस्याएं (सुझावों के साथ) | Read this article in Hindi to learn about the problems of bank nationalization with suggestions.

राष्ट्रीयकरण एक अमिश्रित वरदान नहीं है । जहाँ राष्ट्रीयकरण से बैंक शाखाओं में प्रसार हुआ है तथा प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को लगभग एक-तिहाई ऋण प्राप्त हुए हैं वहीं दूसरी ओर अनेक समस्याएं भी उत्पन्न हुई हैं ।

राष्ट्रीयकरण से समस्याओं (Problems of Bank Nationalization):

राष्ट्रीयकरण से उत्पन्न होने वाली समस्याओं में कुछ प्रमुख निम्न प्रकार हैं:

(1) नौकरशाही का प्रभुत्व:

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अन्य शासकीय कार्यालयों के समान ही बैंकिंग सेवाओं में भी नौकरशाही का दुर्गुण व्याप्त हो गया है । शासकीय निर्णयों के समान ही लाल फीताशाही अब बैंकों में भी घर कर गई है । प्रायः ऐसा कहा जाता है कि राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों के अधिकारियों एवं कर्मचारियों में अनुशासन और नैतिकता का स्तर बहुत नीचे गिर गया, जिससे बैंकिंग सेवाओं के स्तर में बहुत गिरावट आई है ।

बैंकिंग कागजातों को पहुँचने में अत्यधिक विलम्ब के कारण व्यापारियों को बहुत हानि उठानी पड़ती है । बैंकिंग कर्मचारियों का दृष्टिकोण सेवा-भाव का नहीं रहा, जिससे जमाकर्ताओं एवं ऋण लेने वाले व्यक्तियों को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ।

(2) क्षेत्रीय संकीर्णता:

राष्ट्रीयकृत बैंकों के संचालक मण्डलों में राज्य सरकारों का कितना प्रतिनिधित्व हो एवं जमा राशियों के अनुसार ऋणों का आबंटन जैसी क्षेत्रीय संकीर्णता से ओत प्रोत समस्या भी देखने में आई है । कुछ राज्यों ने तो यह माँग करना आरम्भ कर दिया है कि बैंकों द्वारा उनके क्षेत्र से संग्रहित राशि का उनके राज्यों में ही विनियोजन किया जाना चाहिए । यदि इस प्रकार की क्षेत्रीय भावनाओं को बल मिला तो आसाम, बिहार, उड़ीसा एवं जम्मू कश्मीर जैसे पिछड़े राज्यों के विकास में बाधा उत्पन्न होगी ।

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(3) राजनैतिक प्रभुत्व:

राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों के संगठन एवं प्रशासन में राजनैतिक प्रभुत्व बड़ा है और कोई भी बड़ा-छोटा निर्णय लेने में राजनीतिज्ञ खुलकर अपना प्रभाव डालते है । भारत में सहकारिता आन्दोलन की असफलता एवं राष्ट्रीयकृत उद्योगों की बदतर स्थिति राजनीतिज्ञों के प्रभाव के करण ही हुई है । यदि यह स्थिति चालू रही तो व्यापारिक बैंक भी राजनीति के अड्डे बन जायेंगे जिससे वांछित लोगों को वित्तीय सहायता नहीं मिल पायेगी एवं व्यापार पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा ।

(4) कर्मचारी आन्दोलन:

राष्ट्रीयकरण के बाद कर्मचारियों में ट्रेड यूनियन की भावना को बल मिला है । बैंक की व्यवस्था एवं कार्य प्रणाली पर इन ट्रेड यूनियनों का अच्छा प्रभाव तो बहुत सीमित रहा, किन्तु दूषित प्रभाव बहुत अधिक पड़ा अनेक बार कर्मचारी आन्दोलन से व्यापार एवं व्यवसाय में भारी कठिनाई हुई ।

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(5) साधनों का निजी बैंकिंग संस्थाओं एवं विदेशी बैंकों की ओर प्रवाहित होना:

राजनैतिक हस्तक्षेप से दूर रहने एवं कुशल सेवा प्राप्त करने के उद्देश्य से अनेक जमाकर्ता अपनी राशि को निजी बैंकिंग संस्थाओं एवं विदेशी बैंकों में जमा कराना अच्छा समझने लगे हैं । पिछले वर्ष एक प्रमुख विदेशी बैंक ने जमाओं को आकर्षित करने के लिए एक ”साझेदारी प्रमाण पत्र” नामक नवीन योजना प्रारम्भ की । इसी प्रकार व्यापारियों के समूह भी अपनी ऋण आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सहकारी बैंकों का निर्माण करने में रुचि ले रहे हैं ।

(6) विशाल आकांक्षाओं की पूर्ति सम्भव नहीं:

राष्ट्रीयकरण के बाद यद्यपि अनेक ऐसी योजनाएं क्रियान्वित की गई जिससे वास्तविकता में गरीब एवं छोटे व्यापारियों, स्वरोजगार के इच्छुक बेरोजगार व्यक्तियों एवं लघु सीमान्त कृषकों के एक बहुत छोटे भाग को ही सहायता प्राप्त हुई है, किन्तु प्रचार-प्रसार इतनी जोर-शोर से किया गया है कि इस वर्ग में नई आकांक्षा पैदा हुई है ।

उन्हें बैंक के दरवाजे पर पहुँचते ही घोर निराशा का सामना करना पड़ता है । बैंक ऋण देने में राजनीति की गंध भी आने लगी है जिससे ऋण की रकम अवांछनीय तत्वों को मिलने लगी है । यह वर्ग समस्त कागजी कार्यवाही पूर्ण करता है तथा मध्यस्थ बन कर अपना कमीशन प्राप्त करता है ।

(7) जमा राशियों में वांछित वृद्धि नहीं हुई:

बैंक राष्ट्रीयकरण का एक उद्देश्य यह भी था कि नई शाखाओं के विस्तार से बैंकों की बचत राशि में तेजी से वृद्धि होगी किन्तु राष्ट्रीयकृत बैंकें इस महत्वपूर्ण उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल नहीं हुई । पंजाब एवं हरियाणा जैसे राज्यों में जहाँ आय में तेजी से वृद्धि हुई है, बचत स्तर उस स्तर से नहीं बड़ा है ।

(8) लाभात्मकता में गिरावट:

यह बात सुनिश्चित है कि राष्ट्रीयकरण का कदम सरकार को लाभात्मक नहीं रहा । सन् 1969 से सन् 1974 की अवधि में बैंकों का लाभात्मक अनुपात अर्थात् जमा राशियों के रूप में उनका शुद्ध लाभ 0.18 से घटकर 0.12 रह गया है ।

(9) योजनाओं के लिए वित्त:

बैंक राष्ट्रीयकरण के समय एक उद्देश्य यह भी था कि इससे देश की योजनाओं को धन प्राप्त होगा । किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि इस सन्दर्भ में कोई महत्वपूर्ण प्रगति नहीं हुई ।

(10) मूल्य वृद्धि रोकने में असफल:

राष्ट्रीयकरण के पूर्व यह कहा जाता था कि बैंक साख का निर्माण तेजी से कर रही है और परिणामस्वरूप मूल्यों में वृद्धि हो रही है । राष्ट्रीयकरण के बाद भी मूल्य वृद्धि में कोई कमी नहीं आई है, वरन् इसमें वृद्धि ही हुई है । कुछ अर्थशास्त्रियों का मत है कि राष्ट्रीयकृत बैंकें मूल्य वृद्धि में सहयोग दे रही हैं ।

(11) ऋण वास्तविक व्यक्तियों को नहीं:

प्रो. वी. के. आर. वी. राव ने 26 अगस्त, सन् 1979 को बम्बई की एक मीटिंग में कहा था कि राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों में घूँसखोरी बड़े पैमाने पर बढ़ गई है । जिससे ऋण वास्तविक व्यक्तियों के स्थान पर अवांछित एवं घूँसखोरों को प्राप्त हो जाता है ।

बैंक राष्ट्रीयकरण को सफल बनाने के सुझाव (Suggestions to Make Bank Nationalization Successful):

अप्रैल, सन् 1980 में 6 बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके यह बात स्पष्ट है कि सरकार वित्त तंत्र को जन-आकांक्षाओं के अनुकूल एवं विकासोन्मुख बनाना चाहती है । यह एक चुनौती है जिसे प्राप्त करने में ही सरकार, व्यापारियों एवं जन साधारण का हित है ।

इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु कुछ प्रमुख सुझाव निम्न प्रकार हैं:

(1) बैंक अधिकारियों एवं कर्मचारियों की मनोवृत्ति में परिवर्तन:

बैंकिंग व्यवसाय एक सेवा मूलक प्रक्रिया है व इसमें पारस्परिक सद्‌भाव की अत्यधिक आवश्यकता है । राष्ट्रीयकरण के बाद प्रायः यह देखा जाता है कि बैंक के कर्मचारी सेवक के स्थान पर अधिकारी बन गये है । जिससे ग्राहकों के प्रति उनका व्यवहार बदल गया है । बैंक कर्मचारियों को ”ग्राहक ही राजा है” सूक्ति को ध्यान में रखकर कार्य करना चाहिए । अतः कर्मचारियों को समुचित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये जिससे जन सेवा की भावना को बढ़ाया जा सके ।

(2) बचत संग्रह में वृद्धि:

आर्थिक विकास में बचतों के संकलन का विशेष महत्व है । राष्ट्रीयकरण के समय यह आशा कई गई थी कि बैंक ग्रामीण बचतों को संकलित करके उन्हें विकास कार्यों में लगायेंगे । फलतः यह आवश्यक है कि इस संदर्भ में ध्यान दिया जावे । प्रयास ऐसा होना चाहिए कि ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों की लोकप्रियता बढे और ग्रामवासी अपनी आय का एक भाग बैंकों में जमा कराये ।

(3) बैंकों की मनोवृत्तियों में परिवर्तन:

बैंकिंग केवल लाभदायक व्यवसाय ही नहीं है वरन् विकास का माध्यम एवं जन-साधारण को ऊँचा उठाने का एक महत्वपूर्ण साधन है । अतः बैंकों की कार्य विधि में ऐसे परिवर्तन आवश्यक है जो इस व्यवसाय को जन-साधारण तक पहुँचाये ।

ग्रामों में शाखाएँ खोलने का मानदण्ड जमा प्राप्त करना ही नहीं होना चाहिये वरन् उस क्षेत्र विशेष की वित्तीय आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिये । वस्तुतः राष्ट्रीयकृत बैंकों को अपनी साख नीति में जन-हित, विकास एवं साख शोधन क्षमता तीनों का ही सामंजस्य करना चाहिये ।

(4) बैंक सेवाओं में कुशलता:

प्रायः कहा जाता है कि राष्ट्रीयकरण के बाद बैंक सेवाओं में गिरावट आई है, जो कि निन्दनीय एवं इस व्यवसाय के लिए अधिक हानिकारक है । फलतः यह आवश्यक है कि इसमें तेजी से सुधार लाया जाये । कर्मचारियों की चयन विधि, प्रशिक्षण, देख-रेख एवं कानून के द्वारा कर्मचारियों द्वारा की जाने वाली सेवाओं के स्तर में सुधार लाया जाना चाहिये ।

(5) संगठन एवं प्रबन्ध में सुधार:

बैंकों के संगठन एवं प्रबन्ध में वैज्ञानिक बनाया जाना चाहिये तथा नौकरशाही, राजनैतिक हस्तक्षेप एवं लालफीताशाही जैसी कुप्रवृत्तियों से इन्हें मुक्त रखा जाना चाहिए ।

(6) लागत में कमी:

न्यूनतम लागत में सर्वश्रेष्ठ सेवाएँ प्रदान करना ही बैंकों का लक्ष्य होना चाहिये । बैंक शाखाओं की भीड़ में कमी, परस्पर प्रतियोगिता की समाप्ति, कर्मचारियों के कार्य करने के ढंग में सुधार, वैज्ञानिक प्रबन्ध आदि के द्वारा बैंकों की लागत में कमी की जानी चाहिये ।

(7) बैंकों में परस्पर समन्वय एवं सहयोग:

अब देश में 27 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक है जिसमें से राष्ट्रीयकृत एवं 6 स्टेट बैंक तथा उसकी सहायक बैंकें हैं जो कुल बैंकिंग क्षेत्र का 95 प्रतिशत भाग का संचालन करती हैं । फलतः यह आवश्यक है कि इन बैंकों एवं इनकी शाखाओं में परस्पर समन्वय एवं सहयोग हो । दूसरे शब्दों में विभिन्न वित्तीय संस्थाओं के बीच अस्वस्थ्य प्रतियोगिता का अन्त करके परस्पर सहयोग, सम्पर्क एवं समन्वय से कार्य किया जाना चाहिये ।

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