एक लेखा परीक्षक द्वारा तैयार की जाने वाली रिपोर्ट | Read this article in Hindi to learn about the various reports to be prepared by an auditor.

भारतीय बैंकिंग अधिनियम 1944 की धारा 30 के अनुसार – ”प्रत्येक भारतीय बैंक का समुचित योग्यता प्राप्त अंकेक्षक द्वारा अंकेक्षण होना चाहिए ।”

इसी धारा में आगे यह कहा गया है कि एक बैंक के अंकेक्षक को निम्नलिखित तथ्यों के सम्बन्ध में रिपोर्ट देनी चाहिए:

(1) उसे बैंक से प्राप्त सूचना तथा स्पष्टीकरण से सन्तोष है अथवा नहीं ।

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(2) बैंक द्वारा किया गया व्यवसाय उसके अधिकार-क्षेत्र के बाहर तो नहीं है ।

(3) अंकेक्षण की दृष्टि से शाखाओं से प्राप्त सूचना यथेष्ट है या नहीं ।

(4) क्या लाभ-हानि खाता सम्बन्धित समय के लाभ-हानि का उचित विवरण प्रस्तुत करता है ।

(5) अन्य कोई विशेष तथ्य जिसे अंकेक्षक अंशधारियों की जानकारी में लाना उचित समझे ।

(1) सूचना प्राप्ति:

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अंकेक्षक को बैंकिंग कम्पनी अधिनियम का अच्छी प्रकार अध्ययन करने के पश्चात् बैंक से निम्नलिखित तथ्यों की जाँच करनी चाहिए:

(a) नकद राशि (Cash Reserves):

अंकेक्षक को सर्वप्रथम् बैंक की रोकड़ बाकी तथा रोकड़ियों के पास जमा रकम का मिलान करना चाहिए कि वह ठीक है या नहीं । इसके पश्चात् अंकेक्षक को देख लेना चाहिए कि अंकेक्षण के समय बैंक के निक्षेपों का वांछित संचय रिजर्व बैंक के पास जमा करवाया हुआ है अथवा नहीं ।

(b) तरल सम्पत्ति (Liquid Assets):

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अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि बैंक अपने पास यथेष्ट तरल सम्पत्ति रखता है या नहीं । बैंकिंग कम्पनी अधिनियम की धारा 24 के अनुसार – ”प्रत्येक अनुशूचित बैंक को अपने कुल दायित्वों का कम से कम 25 प्रतिशत तरल रूप में रखना चाहिए । रिजर्व बैंक इस प्रतिशत को समय-समय पर घटा-बढा सकता है । अतः अंकेक्षण के समय कितने प्रतिशत सम्पत्ति तरल होना आवश्यक है, यह देखना चाहिए ।”

अंकेक्षक को बैंक की तरल सम्पत्ति के अतिरिक्त याचना राशि (Call Money) तथा सरकारी प्रतिभूतियों की भी जाँच करनी चाहिए । भारत में याचना राशि केवल बैंकों को दी जाती है । अतः यदि किसी अन्य व्यक्ति अथवा व्यापारी को इस मद के अन्तर्गत ऋण दिया गया है तो उसने क्या जमानत दी है, उस जमानत की तरलता तथा मूल्य का आकलन कर देखना चाहिए कि वह यथोचित है या नहीं ।

(c) बैंक के विनियोग (Investments):

बैंकर द्वारा जिन अंशों अथवा ऋणपत्रों में पूंजी लगायी हुई है, अंकेक्षक द्वारा उन प्रलेखों अथवा विलेखों की भौतिक जाँच कर लेनी चाहिए कि वह बैंक के वास्तविक अधिकार में हैं या नहीं । तदुपरान्त अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि उन विनियोगों के लिखित तथा बाजार मूल्य में क्या भिन्नता है ।

लेखापालन के साधारण सिद्धान्तों के अनुसार बैंकर द्वारा अपनी पुस्तकों में विनियोगों कार वह मूल्य (बाजार मूल्य अथवा लिखित मूल्य में से) दिखलाना चाहिए, जो कम हो । अतः अंकेक्षक को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यदि कुछ विनियोगों के बाजार मूल्य कम हो गये है तो बैंक के खातों में उनके मूल्य ह्रास (Depreciation) की व्यवस्था की गयी है या नहीं ।

उपर्युक्त तथ्यों के अतिरिक्त अंकेक्षक का यह कर्तव्य है कि वह बैंकर को अपने विनियोगों तथा लिखित मूल्य दोनों ही स्थिति विवरण में प्रदर्शित में ताकि अंशधारियों को किसी प्रकार का धोखा न हो सके ।

(d) बिल (Bills):

अंकेक्षक को इस तथ्य की जाँच कर लेनी चाहिए कि बैंकर के पास प्राप्य बिल है अथवा नहीं जिनकी बैंक ने कटौती की है, वह श्रेष्ठ बिल हैं या नहीं, उनकी कटौती उचित दरों पर की गयी है और उनकी छूट (Rebate) के लिए व्यवस्था कर ली गयी है ।

(e) ऋण (Loans):

अंकेक्षक को ऋणों के सम्बन्ध में निम्न तथ्यों का निश्चय कर लेना चाहिए:

I. ऋणों का अधिक भाग दीर्घकालीन तो नहीं है ।

II. कोई ऋण ऐसे तो नहीं है जो वर्षों से चले आ रहे हैं और बैंकर उनका प्रतिवर्ष नवीनीकरण कर देता है । यदि ऐसा है, तो यह किसी भी दृष्टि से श्रेष्ठ विनियोग नीति नहीं कही जा सकती ।

III. ऋण यथेष्ट रूप में सुरक्षित हैं या नहीं । अंकेक्षक को ग्राहक द्वारा प्रस्तुत जमानतों का अच्छी तरह निरीक्षण कर लेना चाहिए कि उनमें से कौन-सी जमानते अच्छी हैं, कौन-सी घटिया हैं, उनका वर्तमान मूल्य क्या है तथा ऋणों पर उचित सीमान्तर (Margin) रखा गया है अथवा नहीं ।

IV. ऋणों के सम्बन्ध में अंकेक्षक को ऋण तथा अग्रिम सम्बन्धी विशेष विवरण के अंकों की जाँच कर लेनी चाहिए कि वह शुद्ध है अथवा नहीं । यदि उनमें से कोई भी तथ्य तोड़-मरोड़कर अथवा अशुद्ध रूप में दिये गये हों तो अंकेक्षक द्वारा अपनी रिपोर्ट में इसका जिक्र कर देना आवश्यक है ।

V. गारण्टियों की जाँच:

यदि बैंकर द्वारा कुछ ऋण गारण्टी पर दिये गये हैं तो अंकेक्षक द्वारा गारण्टीनामे तथा उससे सम्बन्धित अन्य शर्तों की भली प्रकार जाँच कर लेनी चाहिए कि वह बैंक के हितों के विरुद्ध तो नहीं है और इनमें किसी व्यक्ति के साथ अनुचित पक्षपात तो नहीं किया गया है ।

यदि बैंकर द्वारा गारण्टी दी गयी हो अथवा ग्राहकों के बिल, आदि स्वीकृत किये गये हों तो उनकी भली प्रकार जांच करना आवश्यक है ।

(f) खातों की बाकी (Ledger Balances):

अंकेक्षक द्वारा खातों में की गयी कुछ प्रविष्टियों की दैव निदर्शन (at Random) द्वारा जाँच कर लेनी चाहिए कि बैंकर ने उनमें कहीं अनुचित परिवर्तन तो नहीं किया है । इस सम्बन्ध में बैंक के कार्यालय में पड़ी हुई पासबुकों से खातों का मिलान करके भी देख लेना चाहिए । अन्त में कुल खातों की बाकी (Balances) के योग का बैंक के आँकड़े में दिये गये निक्षेपों के योग से मिलान कर लेना चाहिए ।

(g) ऋणों पर ब्याज:

यद्यपि यह अंकेक्षक का वैधानिक कर्तव्य नहीं है कि वह बैंक की सामान्य नीतियों की जाँच करे किन्तु यदि अंकेक्षक यह देखता है कि बैंक ग्राहकों से बहुत कम ब्याज ले रहा है और उसकी ब्याज देने की दरें अन्य बैंकों की तुलना में अधिक हैं तो उसे इस बात का अपनी रिपोर्ट में अवश्य उल्लेख कर देना चाहिए ।

(h) प्रमाणकों की जांच:

अंकेक्षक का बैंक द्वारा किये गये व्यय से सम्बन्धित सब रसीदों तथा प्रमाणकों की यथेष्ट जांच कर लेनी चाहिए और देख लेना चाहिए कि सम्बन्धित खर्चों के प्रमाणकों पर किसी उचित अधिकारी की स्वीकृति तथा हस्ताक्षर हैं या नहीं । इसके अतिरिक्त, जो व्यय किये गये हैं, उनके सम्बन्ध में बैंक के प्रबन्ध संचालक, प्रबन्धक, सचिव अथवा शाखा प्रबन्धक के क्या अधिकार हैं और उन अधिकारों का अतिक्रमण तो नहीं किया गया है, इत्यादि तथ्यों की यथोचित जाँच कर लेनी चाहिए ।

(i) सम्पत्ति में वृद्धि:

यदि बैंक द्वारा किसी नगर में कोई नवीन सम्पत्ति निर्मित की गई है या खरीदी गयी है तो अंकेक्षक को उस सम्पत्ति के निर्माण अथवा क्रय सम्बन्धी अधिकार का निश्चय कर लेना चाहिए कि वह अधिकार संचालक मण्डल के प्रस्ताव द्वारा दिया गया है अथवा बैंक के अन्तर्नियमों (Articles) द्वारा प्रबन्ध संचालक को प्राप्त है ।

(j) प्रस्तावों की प्रतियां:

अंकेक्षक द्वारा बैंक के संचालक मण्डल द्वारा विनियोग, ऋण अथवा निर्माण सम्बन्धी जो भी कार्य किये गये हों, उनसे सम्बन्धित सब प्रस्तावों में कही संचालक मण्डल ने बैंक के सीमानियम तथा अन्तर्नियमों का उल्लंघन तो नहीं किया है ।

(2) व्यवसाय का अधिकार:

अंकेक्षक द्वारा दूसरी महत्वपूर्ण बात यह देखी जानी चाहिए कि बैंक किसी ऐसे व्यवसाय में तो पूंजी नहीं लगा रहा है जो उसके सीमा तथा अन्तर्नियमों द्वारा वर्जित है अथवा बैंकिंग नियमन अधिनियम की अवहेलना कर रहा है ।

उदाहरणस्वरूप, बैंकिंग नियमन अधिनियम, की धारा 8 के अन्तर्गत भारत स्थित कोई भी बैंक किसी भी प्रकार का क्रय-विक्रय व्यवसाय नहीं कर सकता है और न ही वर्जित सम्पत्ति (भूमि, भवन, आदि) व्यापारिक दृष्टि से रख सकता है । यदि कोई बैंक ऐसा कर रहा हो तो अंकेक्षक रिपोर्ट में इसका उल्लेख कर देना आवश्यक है ।

(3) लाभ-हानि खाता:

कभी-कभी बैंकर अपने बैंक की साख ऊंची दिखलाने के लिए अपनी सम्पत्ति का अभिविन्यसन (Window-Dressing) करते है और लाभ न होने पर भी लाभ प्रदर्शित करते रहते हैं । पलाई सेंट्रल बैंक में ऐसा ही कई वर्ष तक होता रहा है और बैंक पूजी में से लाभांश बाटता रहा । फलतः एक दिन बैंक बन्द हो गया ।

इस दृष्टि में अंकेक्षक द्वारा इस प्रकार की अनियमितताओं का स्पष्ट उल्लेख करना आवश्यक है । वस्तुतः अंकेक्षक की नियुक्ति ही इस कार्य के लिए होती है कि वह अंशधारियों के हित की यथोचित रक्षा करे और उन्हें बैंक की वास्तविक स्थिति के सम्बन्ध में सम्पूर्ण सूचना देता रहे ।

(4) प्रबन्ध, पूंजी आदि:

यद्यपि अंकेक्षक का कार्य बैंक की वित्तीय कार्यवाहियों की जांच करना है किन्तु यदि उसे पूंजी, प्रबन्ध, सुरक्षित कोष अथवा अन्य किसी तत्व से सम्बन्धित अनियमितता का पता चले तो उसकी ठीक सूचना रिपोर्ट में देना श्रेयस्कर है ।

(5) विविध:

उपर्युक्त बातों की जांच के अतिरिक्त अंकेक्षक द्वारा कुछ अन्य बातों के सम्बन्ध में करना आवश्यक है ।

जो निम्न हैं:

(i) बैंक की शाखाओं का अंकेक्षण हुआ या नहीं (कम्पनी अधिनियम, धारा 228) ।

(ii) बैंक के अन्तिम लेखे बैंकिंग अधिनियम में निश्चित प्रारूप के अनुसार बनाये गये हैं या नहीं ।

(iii) बैंक के अन्तिम लेखों की प्रतियाँ कम्पनियों के पंजीकर तथा रिजर्व बैंक को भेज दी गयी है या नहीं ।

(iv) बैंक की शाखाओं का नियमित रूप में निरीक्षण होता है या नहीं ।

(v) बैंक की शाखाओं में उचित आन्तरिक जांच की व्यवस्था है या नहीं ।

(vi) बैंक में नकद तथा उधार सौदों के यथेष्ट रिकार्ड तथा फाइलें रखी जा रही हैं या नहीं ।

उपर्युक्त सभी बातों से सम्बन्धित जांच करके अंकेक्षक को बैंक की आर्थिक स्थिति के बारे में रिपोर्ट दे देना चाहिए । यदि वह जान-बूझकर किसी तथ्य को छिपाने की चेष्टा करेगा तो बैंकिंग नियमन अधिनियम, की धारा 46(1) के अनुसार, उसे 3 वर्ष की जेल तथा आर्थिक जुर्माने का दण्ड दिया जा सकता है ।

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