सिनेमा  और  समाज  पर निबंध! Here is an essay on ‘Impact of Cinema on Society’ in Hindi language.

सिनेमा जनसंचार मनोरंजन का एक लोकप्रिय माध्यम है । जिस तरह साहित्य समाज का दर्पण होता है, उसी तरह सिनेमा भी समाज को प्रतिबिम्बित करता है । भारतीय युवाओं में प्रेम के प्रति आकर्षण उत्पन्न करने की बात हो या सिनेमा के कलाकारों के पहनावे के अनुरूप फैशन का प्रचलन, ये सभी समाज पर सिनेमा के ही प्रभाव हैं ।

सिनेमा अर्थात् चलचित्र का आविष्कार उन्नीसवीं शताब्दी के उतरार्द्ध में हुआ था । चित्रों को संयोजित कर उन्हें दिखाने को ही चलचित्र कहते हैं । इसके लिए प्रयास तो 1870 ई. के आस-पास ही शुरू हो गए थे, किन्तु इस स्वप्न को साकार करने में विश्वविख्यात वैज्ञानिक एडीसन एवं फ्रांस के ल्यूमिर बन्धुओं का योगदान प्रमुख था ।

ल्यूमिर बन्धुओं ने 1895 ई. में एडीसन के सिनेमैटोग्राफ्री पर आधारित एक यन्त्र की सहायता से चित्रों को चलते हुए प्रदर्शित करने में सफलता पाई और इस तरह सिनेमा का आविष्कार हुआ । अपने आविष्कार के बाद लगभग तीन दशकों तक सिनेमा मूक बना रहा । वर्ष 1927 में वार्नर ब्रदर्स ने आंशिक रूप से सवाक् फिल्म ‘जाज सिंगर’ बनाने में सफलता पाई ।

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इसके बाद वर्ष 1928 में पहली पूर्ण सवाक् फिल्म ‘लाइट्‌स ऑफ न्यूयॉर्क’ का निर्माण हुआ । सिनेमा के आविष्कार के बाद से इसमें कई परिवर्तन होते रहे और इसमें नवीन तकनीकों का प्रयोग होता रहा । अब फिल्म निर्माण तकनीक अत्यधिक विकसित हो चुकी है, इसलिए आधुनिक समय में निर्मित सिनेमा के दृश्य एवं ध्वनि बिल्कुल स्पष्ट होते हैं ।

सिनेमा की शुरूआत से ही इसका समाज के साथ गहरा सम्बनध रहा है । प्रारम्भ में इसका उद्देश्य मात्र लोगों का मनोरंजन करना भर था । अभी भी अधिकतर फिल्में इसी उद्देश्य को लेकर बनाई जाती हैं, इसके बावजूद सिनेमा का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है ।

कुछ लोगों का मानना है कि सिनेमा समाज के लिए अहितकर है एवं इसके कारण अपसंस्कृति को बढ़ावा मिलता है । समाज में फिल्मों के प्रभाव से फैली अश्लीलता एवं फैशन के नाम पर नंगेपन को इसके उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, किन्तु सिनेमा के बारे में यह कहना कि यह केवल बुराई फैलाता है, सिनेमा के साथ अन्याय करने के तुल्य होगा ।

सिनेमा का प्रभाव समाज पर कैसा पड़ता है, यह समाज की मानसिकता पर निर्भर करता है । सिनेमा में प्रायः अच्छे एवं बुरे दोनों पहलुओं को दर्शाया जाता है । समाज यदि बुरे पहलुओं को आत्मसात करे, तो इसमें भला सिनमा का क्या दोष है ।

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विवेकानन्द ने कहा था- ”संसार की प्रत्येक चीज अच्छी है, पवित्र है और सुन्दर है यदि आपको कुछ बुरा दिखाई देता है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह चीज बुरी है । इसका अर्थ यह है कि आपने उसे सही रोशनी में नहीं देखा ।” द्वितीय विश्वयुद्ध के समय ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ, जो युद्ध की त्रासदी को प्रदर्शित करने में सक्षम थीं; ऐसी फिल्मों से समाज को सार्थक सन्देश मिलता है ।

सामाजिक बुराइयों को दूर करने में सिनेमा सक्षम है । दहेज प्रथा और इस जैसी अन्य सामाजिक समस्याओं का फिल्मों में चित्रण कर कई बार परम्परागत बुराइयों का विरोध किया गया है । समसामयिक विषयों को लेकर भी सिनेमा निर्माण सामान्यतया होता रहा है ।

भारत की पहली फिल्म ‘राजा हीरश्चन्द्र’ थी । दादा साहब फाल्के द्वारा यह मूक वर्ष 1913 में बनाई गई थी । उन दिनों फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं समझा जाता था, तब महिला किरदार भी पुरुष ही निभाते थे जब फाल्के र्जा से कोई यह अता कि आप क्या करते हैं, तब वे कहते थे – ”एक हरिश्चन्द्र की फैक्ट्री है, हम उसी में काम करते है ।”

उन्होंने फिल्म में काम करने वाले सभी पुरुषकर्मियों को भी यही कहने की सलाह दे रखी थी, किन्तु धीरे-धीरे फिल्मों का समाज पर सकारात्मक प्रभाव देख इनके प्रति लोगों का दृष्टिकोण भी सकारात्मक होता गया । भारत में इम्पीरियल फिल्म कम्पनी द्वारा आर्देशिर ईरानी के निर्देशन में वर्ष 1931 में पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ बनाई गई ।

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प्रारम्भिक दौर में भारत में पौराणिक एवं ऐतिहासिक फिल्मों का बोल-बाला रहा, किन्तु समय बीतने के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक एवं साहित्यिक फिल्मों का भी बडी संख्या में निर्माण किया जाने लगा । छत्रपति शिवाजी, झाँसी की रानी, मुगले आजम, मदर इण्डिया आदि फिल्मों ने समाज पर अपना गहरा प्रभाव डाला ।

उन्नीसवीं सदी के साठ-सत्तर एवं उसके बाद के कुछ दशकों में अनेक ऐसे भारतीय फिल्मकार हुए, जिन्होंने कई सार्थक एवं समाजोपयोगी फिल्मों का निर्माण किया । सत्यजीत राय (पाथेर पाँचाली, चारुलता, शतरंज के खिलाड़ी), वी. शान्ताराम (डॉ कोटनिस की अमर कहानी, दो आँखें बारह हाथ, शकुन्तला), ऋत्विक घटक मेधा ढाके तारा), मृणाल सेन (ओकी उरी कथा), अडूर गोपाल कृष्णन (स्वयंवरम्), श्याम बेनेगल (अंकुर, निशान्त, सूरज का सातवाँ घोड़ा), बासु भट्‌टाचार्य (तीसरी कसम) गुरुदत (प्यासा, कागज के फूल, साहब, बीवी और गुलाम), विमल राय (दो बीघा जमीन, बन्दिनी, मधुमती) भारत के कुछ ऐसे ही प्रसिद्ध फिल्मकार है ।

चूँकि सिनेमा के निर्माण में निर्माता को अत्यधिक धन निवेश करना पड़ता है, इसलिए वह लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से कुछ ऐसी बातों को भी सिनेमा में जगह देना शुरू करता है, जो भले ही समाज का स्वच्छ मनोरंजन न करती हो, पर जिन्हें देखने बाले लोगों की संख्या अधिक हो ।

गीत-संगीत, नाटकीयता एवं मार-धाड़ से भरपूर फिल्मों का निर्माण भी अधिक दर्शक संख्या को ध्यान में रखकर किया जाता है । जिसे सार्थक और समाजोपयोगी सिनेमा कहा जाता है, बह आम आदमी की समझ से भी बाहर होता है एवं ऐसे सिनेमा में आम आदमी की रुचि भी नहीं होती, इसलिए समाजोपयोगी सिनेमा के निर्माण में लगे धन की वापसी की प्रायः कोई सम्भावना नहीं होती ।

इन्हीं कारणों से निर्माता ऐसी फिल्मों के निर्माण से बचते हैं । बावजूद इसके कुछ ऐसे निर्माता भी हैं, जिन्होंने समाज के खास वर्ग को ध्यान में रखकर सिनेमा का निर्माण किया, जिससे न केवल सिनेमा का, बल्कि समाज का भी भला हुआ ।

ऐसी कई फिल्मों के बारे में सत्यजीत राय कहते हैं – ”देश में प्रदर्शित किए जाने पर मेरी जो फिल्म में लागत भी नहीं वसूल पाती, उनका प्रदर्शन विदेश में किया जाता है, जिससे घाटे की भरपाई हो जाती है ।” वर्तमान समय में ऐसे फिल्म निर्माताओं में प्रकाश झा एवं मधुर भण्डारकर का नाम लिया जा सकता है । इनकी फिल्मों में भी आधुनिक समाज को भली-भाँति प्रतिबिम्बित किया जाता है ।

पिछले कुछ दशकों से भारतीय समाज में राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक भ्रष्टाचार में वृद्धि हुई है, इसका असर इस दौरान निर्मित फिल्मों पर भी दिखाई पड़ा हे । फिल्मों में आजकल सेक्स और हिंसा को कहानी का आधार बनाया जाने लगा है ।

तकनीकी दृष्टिकोण से देखा जाए, तो हिंसा एवं सेक्स को अन्य रूप में भी कहानी का हिस्सा बनाया जा सकता हो किन्तु युवा वर्ग को आकर्षित कर धन कमाने के उद्देश्य से जान-अकर सिनेमा में इस प्रकार के चित्रांकन पर जोर दिया जाता है । इसका कुप्रभाव समाज पर भी पड़ता है ।

दुर्बल चरित्र वाले लोग फिल्मों में दिखाए जाने वाले अश्लील एवं हिंसात्मक दृश्यों को देखकर व्यावहारिक दुनिया में भी ऊल-जलूल हरकत करने लगते है । इस प्रकार, नकारात्मक फिल्मों से समाज में अपराध का ग्राफ भी प्रभावित होने लगता है ।

इसलिए फिल्म निर्माता, निर्देशक एवं लेखक को हमेशा इसका ध्यान रखना चाहिए कि उनकी फिल्म में किसी भी रूप में समाज को नुकसान न पहुँचाने पाएँ, उन्हें यह भी समझना होगा कि फिल्मों में अपराध एवं हिंसा को कहानी का विषय बनाने का उद्देश्य उन दुर्गुणों की समाप्ति होती है न कि उनको बढावा देना ।

इस सन्दर्भ में फिल्म निर्देशक का दायित्व सबसे अहम् होता है, क्योंकि वह फिल्म के उद्देश्य और समाज पर पड़ने वाले उसके प्रभाव को भली-भांति जानता है । सत्यजीत राय का भी मानना है कि फिल्म की सबसे सूक्ष्म और गहरी अनुभूति केवल निर्देशक ही कर सकता है ।

वर्तमान समय में भारतीय फिल्म उद्योग विश्व में दूसरे स्थान पर है । आज हमारी फिल्मों को ऑस्कर पुरस्कार मिल रहे हैं । यह हम भारतीयों के लिए गर्व की बात है । निर्देशन, तकनीक, फिल्मांकन, लेखन, संगीत आदि सभी स्तरों पर हमारी फिल्म में विश्व स्तरीय हैं ।

आज हमारे निर्देशकों, अभिनय करने बाले कलाकारों आदि को न सिर्फ हॉलीबुड से बुलावा आ रहा है, बल्कि धीरे-धीर वे विश्व स्तर पर स्वापित भी होने लगे है । आज आम भारतीयों द्वारा फिल्मों से जुड़े लोगों को काफी महत्व दिया जाता है । अमिताभ बच्चन और ऐश्वर्या राय द्वारा पोलियो मुक्ति अभियान के अन्तर्गत कहे गए शब्दों ‘दो बूंद जिन्दगी के’ का समाज पर स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है ।

लता मंगेशकर, आशा भोंसले, मोहम्मद रफ़ी, मुकेश आदि फिल्म से जुड़े गायक-गायिकाओं के गाए गीत लोगों की जुबान पर सहज ही आ जाते हैं । स्वतन्त्रता दिबस हो, गणतन्त्र दिवस हो या फिर रक्षा बन्धन जैसे अन्य त्योहार, इन अवसरों पर भारतीय फिल्मों के गीत का बजना या गाया जाना हमारी संस्कृति का अंग बन चुका है । आज देश की सभी राजनीतिक पार्टियों में फिल्मी हस्तियों को अपनी ओर आकर्षित करने की होड़ लगी है ।

आज देश के बुद्धिजीवी वर्गों द्वारा ‘नो वन किल्ड जेसिका’, ‘नॉक आउट’, ‘पीपली लाइव’, ‘तारे जमीं पर’ जैसी फिल्में सराही जा रही है । ‘नो वन किल्ड जेसिका’ में मीडिया के प्रभाव, कानून के अन्धेपन एवं जनता की शक्ति को चित्रित किया गया, तो ‘नॉक आउट’ में विदेशों में जमा भारतीय धन का कच्चा चिल्ला खोला गया और ‘पीपली लाइव’ ने पिछले कुछ वर्षों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बढी ‘पीत पत्रकारिता’ को जीवन्त कर दिखाया ।

ऐसी फिल्मों का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है एवं लोग सिनेमा से शिक्षा ग्रहण कर समाज सुधार के लिए कटिबद्ध होते हैं । इस प्रकार, आज भारत में बनाई जाने वाली स्वस्थ व साफ-सुथरी फिल्में सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करने की दिशा में भी कारगर सिद्ध हो रही है । ऐसे में भारतीय फिल्म निर्माताओं द्वारा निर्मित की जा रही फिल्मों से देशवासियों की उम्मीदें काफी बढ़ गई हैं, जो भारतीय फिल्म उद्योग के लिए सकारात्मक भी है ।

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