रीकॉम्बिनेण्ट डी.एन.ए. तकनीक: इतिहास और विनियमन | Read this article in Hindi to learn about:- 1. रीकॉम्बिनेण्ट डी.एन.ए. तकनीक का परिचय (Introduction to Recombinant DNA Technology) 2. रीकॉम्बिनेण्ट डी.एन.ए. तकनीक का अर्थ (Meaning of Recombinant DNA Technology) 3. इतिहास (History) and Other Details.

रीकॉम्बिनेण्ट डी.एन.ए. तकनीक का परिचय (Introduction to Recombinant DNA Technology):

न्यूक्लिक अम्ल को प्रत्यक्ष रूप से परिवर्तित करते हुए जीव (Organism) की आनुवंशिक सामग्री में ऐच्छिक रूपांतरण करने को आनुवंशिक अभियांत्रिकी या जीन क्लोनिंग अथवा जीन परिचालन कहा जाता है तथा ऐसा तो अनेक विधियों (Methods) द्वारा किया जाता है ।

जिन्हें संयुक्त रूप में rRNA (रीकॉम्बिनेण्ट DNA) टेक्नोलॉजी के नाम से जाना जाता है । रीकॉम्बिनेण्ट DNA टेक्नोलॉजी से जैविकी के अनुप्रयुक्त पहलुओं एवं शोध के नवक्षेत्र का आरम्भ हुआ है । इसीलिए यह जैव-प्रौद्योगिकी (Biotechnology) का वह भाग है जो गत वर्षों से आकर्षण बढ़ाता आ रहा है ।

रीकॉम्बिनेण्ट डी.एन.ए. तकनीक का अर्थ (Meaning of Recombinant DNA Technology):

यह जेनेटिक अभियान्त्रिकी के अन्तर्गत आता है, जिसमें किसी जीन (Gene) को कोशिका से अलग करके उसमें उपस्थित न्यूक्लियोटाइड (Nucleotide) के क्रम की जानकारी प्राप्त करते हैं तथा फिर कृत्रिम रूप से न्यूक्लियोटाइड (Nucleotide) का संश्लेषण करके उसी क्रम में व्यवस्थित करके कृत्रिम DNA के अणु का निर्माण करते हैं ।

ADVERTISEMENTS:

वह क्रिया जिसके अन्तर्गत किसी मनचाही DNA का कृत्रिम रूप से निर्माण करते हैं, DNA रीकॉम्बिनेण्ट तकनीक कहलाती है । सभी जीवधारियों में DNA मुख्य जेनेटिक पदार्थ (Genetic Material) के रूप में पाया जाता है ।

स्मिथ तथा नथन्स (1970) ने एक नये एन्जाइम (Enzyme) की खोज की जिसे रेस्ट्रिक्शन एण्डीन्यूक्लिएज कहते हैं । ये एन्जाइम (Enzyme) एक रासायनिक कैंची के रूप में कार्य करते हैं तथा DNA को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट देते हैं ।

इस तरह के दो विभिन्न DNA के टुकड़ों (Segments) को संयोजित करने से जो DNA बनता है, उसे रीकॉम्बिनेण्ट DNA कहते हैं तथा इस तरह का DNA बनाने के लिए जो विधि (Method) प्रयुक्त होती है, उसे रीकॉम्बिनेण्ट DNA टेक्नोलॉजी कहते हैं ।

यह जेनेटिक इंजीनियरिंग (Genetic Engineering) का प्रमुख साधन माना जाता है । रीकॉम्बिनेण्ट DNA (r-DNA) वास्तव में एक भिन्न जीव समुदाय के DNA तथा एक कैरियर DNA के परस्पर कोवैलेण्ट लिंकेज के द्वारा निर्मित होता है ।

ADVERTISEMENTS:

इस तकनीक (Technique) के द्वारा किसी एक जीव के ऐच्छिक DNA खण्ड में लेकर दूसरे जीव के DNA के साथ शरीर के बाहर (परखनली में) संकरण कराया जाता है और इसे किसी दूसरे इच्छित जीव में पहुँचा दिया जाता है, जिससे नये प्रकार का DNA प्राप्त हो जाता है ।

अर्थात् इस तकनीक (Technique) द्वारा नये गुणों के पैदा किया जाता है । इस तकनीक (Technique) में संकरण से प्राप्त नये DNA के पुनर्योजन DNA (Recombinant DNA) कहते हैं । इस तकनीक के जीन क्लोनिंग (Gene Cloning) भी कहते हैं, इस तकनीक (Technique) का आविष्कार सन् 1972 में किया गया इस तकनीक का विस्तृत वर्णन आगे दिया जा रहा है ।

रीकॉम्बिनेण्ट डी.एन.ए. तकनीक का इतिहास (History of Recombinant DNA Technology):

स्मिथ एवं नाथन्स तथा रॉबर्ट्स ने न्यूक्लिक अम्लों (Nucleic Acid) के संश्लेषण के समय एक एन्जाइम्स (Enzymes) के समूह की खोज की जो रेस्ट्रिक्शन-एण्डोन्यूक्लिएजेज (Restriction Endonucleases) कहलाते हैं ।

ये एन्जाइम DNA अणुओं का छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ सकते हैं । अत: रासायनिक कैंची (Chemical Scissors) कहलाते हैं । बर्ग ने दो विभिन्न प्रकार के विषाणु (Viruses) के DNA के अणुओं का संयोजन कर एक नए DNA का निर्माण किया, जिसे पुनर्योगज डी. एन. ए. (Recombinant DNA) कहते हैं ।

ADVERTISEMENTS:

वास्तव में पुनर्योगज डी. एन. ए. (DNA) एक भिन्न जीव समुदाय के DNA तथा एक वाहक DNA के सहसंयोजन के फलस्वरूप प्राप्त होते हैं और यह विधि पुनर्योगज डी. एन. ए. तकनीकी (Recombinant DNA Technology) कहलाती है । अलग जीव समुदाय से प्राप्त DNA बाहरी DNA (Foreign DNA) कहलाता है तथा वाहक DNA को वेक्टर (Vector) कहते हैं ।

इस तकनीकी द्वारा एण्डोन्यूक्लिएजेज एन्जाइम की उपस्थिति में यूकैरियोटक कोशिका के DNA अथवा बाहरी DNA (Foreign DNA) को छोटे-छोटे टुकडों में काटा जा सकता है । इसके बाद इन टुकड़ों को वेक्टर DNA के साथ जोड़कर ई. कोलाई (E. Coli) जीवाणु में असीमित मात्रा में वृद्धि अथवा क्लीनिंग (Cloning) के लिए प्रेरित करते हैं ।

जिन स्थानान्तरण एवं पुनर्योगज डी.एन.ए. (Gene Transfer and Recombinant DNA):

किसी जीवधारी के DNA से जीन्स को अलग करके किसी असम्बन्धित जीव में प्रवेश कराया जा सकता है तथा इनमें इच्छानुसार आनुवंशिकी परिवर्तन किए जा सकते हैं ।

इन परिवर्तनों में से सबसे महत्वपूर्ण तकनीक रिकम्बीनेशन DNA मानी जाती है जिसके द्वारा एक DNA अणु को बंधित स्थानों से अलग करके उसके विशेष खण्ड को अलग करके एक अन्य DNA में बाधित स्थान पर जोड़ा जाता है ।

इसके बाद प्लास्मिड तथा जीन क्लोनिंग (Gene Cloning) आदि विधियाँ अपनाई जाती हैं, जिनका वर्णन निम्न प्रकार से किया गया है:

जीन अभियान्त्रिकी अथवा डी.एन.ए. पुर्नसंयोजन तकनीक के उपकरण (Tools of Genetic Engineering or Recombinant DNA Technology):

जीन अभियान्त्रिकी (Genetic Engineering) का पहला उद्देश्य एक जीव के DNA अथवा जीन को दूसरे जीव के जीनोम (Genome) के साथ जोड़कर उसका उत्पादन करना होता है । ऐसे पदार्थ का निर्माण आनुवंशिक रूप से रुपान्तरित जीव अथवा कोशिका (Cell) द्वारा होता है ।

यह निम्नलिखित आवश्यक उपकरणों अथवा टूल्स की खोज के बाद ही सम्भव हो सका है:

(i) वाहक (Vector):

प्रत्येक कोशिकाओं (Cells) में बाह्य आनुवंशिक पदार्थ को नष्ट करने की क्षमता होती है । अत: किसी भी जीन अथवा DNA के टुकड़े को सीधे किसी कोशिका (Cell) के अन्दर प्रविष्ट नहीं करवाया जा सकता है । बल्कि पहले इसे वाहक तथा वेक्टर DNA पर जोड़ा जाता है । तत्पश्चात् इसे नये कोशिका में प्रवेश कराया जाता है ।

एक आदर्श वाहक DNA (Vector DNA) में निम्नलिखित गुण होने चाहिए:

(a) पोषक कोशिका (Host Cell) के अन्दर इसका विनिष्टिकरण (Degradation) नहीं होने चाहिए ।

(b) इसका विलगन एवं शुद्धिकरण आसान होनी चाहिए ।

(c) स्व-द्विगुणन की क्षमता होनी चाहिए ।

(d) अणुभार कम होने चाहिए ताकि इस पर बड़े DNA अथवा जीन को जोड़ा जा सके ।

कुछ सामान्य प्रकार के वाहक DNA, प्लाज्मिड, कॉस्मिड, फेज DNA आदि हैं ।

(ii) प्रतिबन्धित एण्डोन्यूक्लिएज विकर (Restriction Endonuclease Enzyme):

ये ऐसे विकर (Enzyme) हैं, जो DNA के विशिष्ट स्थानों (Specific Sequences) को पहचान कर उनको टुकड़ों में तोड़ देते हैं । अधिकांश जीवाणुओं (Bacteria) में इस प्रकार के विकर पाये जाते हैं । सामान्य रूप से ये विकर 4-6 न्यूक्लिओटाइड्स के बने DNA क्रम को पहचानते हैं ।

कुछ प्रमुख रेस्ट्रिक्शन एण्डोन्यूक्लिएज अग्रलिखित हैं:

(iii) रिवर्स ट्रान्सक्रिप्टेज (Reverse Transcriptase):

इस एन्जाइम (Enzyme) की खोज सर्वप्रथम एच. टेमिन एवं डी. बाल्टीमोर द्वारा 1970 ई. में RNA ट्‌यूमर विषाणु में किया गया । सामान्यतया DNA में RNA के निर्माण की क्षमता होती है, परन्तु इन्होंने ऐसे विकर अथवा एन्जाइम (Enzyme) की खोज की जो RNA से DNA बनाने में सक्षम थे ।

इस क्रिया को उन्होंने रिवर्स ट्रांसक्रिप्सन (Reverse Transcription) कहा । इस प्रकार से बने DNA को CDNA (Complimentary DNA) कहते हैं । ऐसे DNA का उपयोग आजकल जीन (Gene) के रूप में किया जाता है ।

(iv) DNA लाइगेजज (DNA-Ligase):

यह एक विशिष्ट प्रकार का एन्जाइम (Enzyme) है, जिसके द्वारा दो समान अथवा असमान DNA खण्डों को जोड़ा जाता है । बाह्य DNA (Foreign DNA) को वाहक (Vector) से जोड़ने में इसकी खासी उपयोगिता (Usefulness) है ।

r-DNA टेक्नोलॉजी में प्रयुक्त एन्जाइम्स (Enzymes Used in r-DNA Technology):

रीकॉम्बिनेण्ट DNA टेक्नोलॉजी तो पूर्णतः विभिन्न प्रकारों के एन्जाइम्स पर आधारित है । जीन क्लोनिंग में प्रयुक्त कुछ एन्जाइम्स (Enzymes) को दर्शाया गया है ।

 

(1) एक्जोन्यूक्लियेजेज:

ये एन्जाइम्स (Enzymes) तो जिनोम पर कार्य करते है एवं डबल स्ट्रैण्डेड DNA में गेप्स या सिंगल स्ट्रैण्डेड निक्स पर या सिंगल स्ट्रैण्डेड के 5′ या 3′ छोरों पर बेस पेयर्स (Base Pairs) को पाचन करते हैं ।

 

क्रिया की विधि के आधार पर एक्जोन्यूक्लियेज को विभिन्न प्रकारों में समूहबद्ध किया गया है:

λ-एक्जोन्यूक्लियेज:

यह एन्जाइम (Enzyme) डबल स्ट्रैण्डेड DNA के 5′ छोर से न्यूक्लियोटाइड्स को हटाता है । परिणामतः टर्मिनल ट्रांसफरेज के लिए एक उन्नत क्रियाधार बनता है । इसीलिए 5′ छोर रूपांतरण के लिए यह एन्जाइम प्रयुक्त होता है ।

इस एन्जाइम्स (Enzyme) की क्रिया की विधि निम्न है:

एक्जोन्यूक्लियेज III:

यह एन्जाइम (Enzyme) डबल स्ट्रैण्डेड DNA फ्रेग्मेण्ट के 3’ –OH छोर से न्यूक्लियोटाइड्‌स हटा देता है । परिणामतः एक उन्नत क्रियाधार निर्मित होता है, जो जीन परिचालन में प्रयुक्त होता है ।

यह एन्जाइम निम्नानुसार DNA फेग्मेण्ट (Fragment) के 3’ छोर रूपांतरण हेतु प्रयुक्त है:

 

(2) एण्डोन्यूक्लियेजेजे:

ये आनुवंशिक सामग्री पर क्रिया करते हैं एवं छोरों को छोड़कर किसी भी बिंदु पर डबल स्ट्रैण्डेड DNA को क्लीव (Cleave) करते हैं, किन्तु उनकी क्रिया तो डुप्लेक्स एक स्ट्रैण्ड पर ही होती है ।

(3) रेस्ट्रिक्शन एण्डोन्यूक्लिएज (Restriction Endonuclease):

ये एन्जाइम दोहरे तन्तुकी DNA (ds DNA) की विशिष्ट स्थलों से ही विदलित करते हैं । इस विदलन के कारण 5 फोस्फेरिल तथा हाइड्रोक्सिल टर्मिनल का निर्माण होता है ।

समस्त रेस्ट्रिक्शन एन्जाइम को दो श्रेणियों में रखा गया है:

(A) रेस्ट्रिक्शन एन्जाइम I- ये DNA की एक विशिष्ट श्रृंखला की पहचान करते हैं, लेकिन विदलन विशिष्ट स्थल पर नहीं होता है ।

(B) रेस्ट्रिक्शन एन्जाइम II- ये DNA को विशिष्ट स्थल से ही विदलित करते हैं । वर्तमान में लगभग 150 रेस्ट्रिक्शन एन्जाइमों की खोज कर ली गई है ।

रेस्ट्रिक्शन एन्जाइम I:

(1) विदलन विशिष्ट स्थल पर नहीं होता है ।

(2) MW = 300,000 ।

(3) ATP, Mg+2 तथा एडिनोसिल मेथिओनीन की सहकारकों के रूप में आवश्यकता होता है ।

(4) असमान उप ईसाइयों का बना होता है । Eg. EcoB, Eco K, Eco PI.

रेस्ट्रिक्शन एन्जाइम II:

(1) विदलन विशिष्ट स्थल पर होता है ।

(2) MW = 20,000 to 100,000 ।

(3) केवल Mg+2 की सहकारक के रूप में आवश्यकता होती है ।

(4) दो समान उप इकाइयों का बना होता है । Eg. Eco RI.

रेस्ट्रिक्शन एन्जाइम द्वारा होने वाला विदलन दो प्रकार का होता है:

(1) सम विखण्डन (Even Breaks):

इस विदलन में एन्जाइम, DNA को आमने-सामने तथा एक दूसरे के विपरीत विदलित करता है ।

जैसे:

(2) असमान विखण्डन (Uneven Breaks/Staggered Break):

इस विदलन में एन्जाइम DNA में स्टेगर्ड विदलन करते हैं, जिससे निर्मित खण्डों में कुछ न्यूक्लिओटाइड युक्त अयुग्मित श्रृंखला रह जाती है । इन अयुग्मित खण्डों को स्टिकी सिरे भी कहते हैं । इनका उपयोगों DNA की श्रृंखला क्रम का पता लगाने में भी किया जाता है ।

 

Table- Target Sites and Production of Digestion of Some Restriction Enzymes:

 

रिस्ट्रिक्शन एन्जाइम्स को ‘आण्विक कैंचियाँ’ (Molecular Scissors) कहा जाता है । ये तो रीकॉम्बिनेण्ट DNA टेक्नोलॉजी के आधारशिला की भाँति कार्य करती है । जीवाणुओं में ये एन्जाइम्स होते है एवं ‘रिस्ट्रिक्शन-मॉडिफिकेशन सिस्टम’ नामक एक प्रकार की रक्षात्मक क्रियाविधि (Mechanism) प्रदान करते है ।

इन प्रणालियों के आण्विक आधार की व्याख्या पहली बार 1965 में वेर्नर आर्बर द्वारा की गयी थी । वैसे 1970 से पहले तक DNA एन्जाइम्स के प्रयोग द्वारा DNA अणुओं की कटिंग व जॉयनिंग (Joining) से जुड़ी समझ नहीं थी ।

सन 1950 के आरंभ में उसे तब खोजा गया तब फेज λ द्वारा ई. केलाई को संक्रमित करता पाया गया, फेज DNA के कोशिका (Cell) के भीतर डिलीवर किया गया । ‘होस्ट-कण्ट्रोल रिस्ट्रिक्शन मॉडिफिकेशन सिस्टम’ द्वार ई. कोलाई की रक्षा होती है ।

जीवाणु अपने आप के निम्न द्वारा बचाता है:

(i) रिस्ट्रिक्शन क्रियाविधि, जैसे कि प्रविष्ट बाहरी DNA को पहचानना एवं रिस्ट्रिक्शन फ्रेग्मेण्ट्स नामक टुकड़ों (Segment) में काटना ।

(ii) रूपांतरण प्रणाली, जैसे कि मिथाएलेज द्वारा इसके अपने DNA के कुछ क्षारकों (बेसेस) का मिथाएलेशन । अत: फेज λ-एक्स्प्रेस्ड रिस्ट्रिक्शन एण्डोन्यूक्लिजेज उसके DNA को क्लीव (C Leave) नहीं करेगा ।

तीन विभिन्न प्रकारों को रिस्ट्रिक्शन एण्डोन्यूक्लियेज होते है- टाइप I, टाइप II व टाइप III । क्रिया की विधि द्वारा प्रत्येक एंजाइम कुछ भिन्न होता है । टाइप (Type) I व टाइप n तो बड़े मल्टी एब्यूनिट कॉम्पलेक्स है, जिनमें एण्डोन्यूक्लियेज व मिथाएलेज दोनों क्रियाशीलताएँ होती है ।

रिस्ट्रिक्शन एण्डोन्यूक्लियेजेज की संरचना, क्रिया की विधि एवं कार्य की समीक्षा युअन (1981) द्वारा की गयी है । विभिन्न जीवाणु भिन्न-भिन्न रिस्ट्रिक्शन एण्डोन्यूक्लियेजेज से बने होते हैं तथा इन्हीं के सदृश मिथाएलेजेज को भी उत्पन्न (Produce) किया जाता है ।

जीवाणुओं में ये एन्जाइम्स प्राकृतिकरूपेण रासायनिक अम्लों के रूप में पाये जाते है, जो आक्रमणकारी विषाणुओं के विरुद्ध रहते हैं व कोशिका (Cell) में कुछ बाहरी न्यूक्लियोटाइड्‌स के प्रवष्टि हो जाने पर DNA के दोनों स्ट्रैण्ड्स को काटते हैं । 3′ हायड्रॉक्सिल टर्मिनी एवं 5′ फोस्फोराइल युक्त जिंक उत्पन्न कराने के लिए ये एन्जाइम्स DNA को क्लीव करते है ।

तृतीया श्रेणी के एन्जाइम (Class III Enzymes):

ये एन्जाइम (Enzyme) DNA को एक निश्चित लम्बाई के टुकड़ों में विभक्त कर सकते हैं, किन्तु इनका न्यूक्लियोटाइड सीक्वेंस निश्चित नहीं होता । रिस्ट्रिक्शन एण्डोन्यूक्लियेजेज अधिकांश बैक्टीरिया (Bacteria) में प्राकृतिक रूप से पाये जाते हैं, जो फॉरिन DNA से इनकी रक्षा करता है ।

जब कोई फॉरिन DNA बैक्टीरिया (Bacteria) पर आक्रमण करता है, तब ये एन्जाइम उसे पहचान कर छोटे-छोटे टुकड़ों में काट देते हैं और बैक्टीरिया (Bacteria) नष्ट होने से बच जाते हैं ।

वाहक या वैक्टर:

r-DNA के निर्माण के लिए एक वाहक की आवश्यकता होती है ताकि पृथक्करण के बाद फॉरिन DNA को उससे जोड़कर होस्ट सेल (Host Cell) में स्थानान्तरित किया जा सके । इस कार्य के लिए प्लाज्मिड्‌स (Plasmids) या लेम्डा बैक्टीरियोफेज का प्रयोग किया जाता है ।

प्लाज्मिड्‌स सूक्ष्म और गोलाकार डुप्लेक्स DNA के अणु होते हैं, अधिकांश बैक्टीरिया में स्वतंत्र रूप से पाये जाते है । इनमें बैक्टीरिया के क्रोमोसोमल DNA से पृथक रूप से स्वतंत्रतापूर्वक रेप्लिकेशन करने की क्षमता होती है ।

r-DNA के निर्माण के लिए वेक्टर (Vector) में निम्नलिखित विशेषताएँ होनी चाहिए:

(i) वेक्टर (Vector) के DNA में किसी रिस्ट्रिक्शन एण्डोन्यूक्लियेजेज द्वार विशेष स्थान पर विभक्त होने की क्षमता होनी चाहिए ।

(ii) वेक्टर (Vector) DNA में फॉरेन DNA के स्वीकार करने की क्षमता होनी चाहिए ।

(iii) वेक्टर (Vector) में अवांछित फॉरेन DNA को अस्वीकार करने की क्षमता होनी चाहिए ।

टाइप IIs एन्जाइम्स (Enzyme) तो असममित लक्ष्य साइट्स की पहचान करते है, एवं 20bp दूर तक रिकॉग्निशन सिक्वेनस के एक ओर पर DNA डुप्लेक्स को क्लीव करते है ।

DNA क्लोनिंग एवं सिक्वेन्सिंग के लिए रिस्ट्रिक्शन एण्डीन्यूक्लियेजेज परमावश्यक है । ये पूर्वनिर्धारित साइट्स पर DNA पर अणुओं (Molecules) को काटने के लिए औजारों के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जो की जीन क्लोनिंग या रीकॉम्बिण्ट DNA टेक्नोलॉजी (Technology) की एक मौलिक आवश्यकता है ।

सारणी:

 

कुछ प्रतिबन्धित एन्जाइम, उनके जनक जीव तथा रिकॉग्निशन साइट क्रम (Some Restriction Enzyme, their Origin and Recognition Site Sequence):

(i) कोष्ठक में दिये गए क्षारक, जैसे (T) अपने से पहले वाले क्षारक, यानि A के स्थान पर उपस्थित हो सकते हैं । अत: लक्ष्य स्थल/CCAGG या/CCTGG हो सकता है ।

(ii) Pu, दोनों प्यूरीनों (Purines), अर्थात् एडिनीन (A) तथा गुऐनीन (G) में से कोई एक उपस्थित । N, चारों क्षारकों (A, T, G एवं C) में से कोई एक उपस्थित ।

(iii) + यह पहला प्रतिबन्ध एन्जाइम है ।

तीनों प्रकार के एन्जाइमों (Enzyme) में से टाइप-II (Type-II) प्रकार के एन्जाइम जीन क्लोनिंग के लिए सबसे महत्वपूर्ण है । इन एन्जाइमों (Enzyme) के साइट के bp क्रम रोटेशनल सिमिट्री (Rotational Symmetry) वाले पैलिण्ड्रोम (Palindrome) होते हैं ।

अधिकांश एन्जाइमों (Enzyme) के साइट के bp क्रम 4, 5 तथा 6 bp लम्बे होते हैं और ये GC बहुल होते हैं । इन एन्जाइमों (Enzyme) द्वार या तो स्टैगर्ड (Staggered) या ब्लंट (Blunt), काट (Cut) किया जाता है ।

स्टैगर्ड (Staggered) काट में DNA के अणु के दोनों स्ट्रैण्ड (Strands) अलग-अलग जगहों पर काटे (Cut) जाते हैं, जिससे बाहर निकले हुए छोर (Protruding Ends) प्राप्त होते हैं । ऐसे छोरों में एक स्ट्रैण्ड (Strand) दूसरे स्ट्रैण्ड से कुछ bp बड़ा होता है ।

साइट के bp क्रमों के पैलिंड्रोमी होने के कारण एक ही एन्जाइम द्वारा उत्पन्न प्रोट्रूडिंग छोर (Protruding Ends) एक दूसरे के पूरक (Complementary) होते हैं, अत: इन्हें स्टिकी या कोहेसिव (Cohesive) छोर कहते हैं ।

 

 

इस प्रकार के कटे हुए DNA के टुकड़े स्टिकी (Sticky) छोरों के कारण एक-दूसरे से छोर-से-छोर जुड़ जाते है ।

कुछ एन्जाइम DNA अणु के दोनों स्ट्रैण्डों (Strands) को एक ही स्थान पर काटते हैं, जिससे ब्लंट (Blunt) छोर उत्पन्न होते हैं । ये छोर आपस में जुड़ते नहीं है ।

S1 न्यूक्लियेज:

यह आसंजी छोरों वाले डबल स्ट्रैण्डेड (Stranded) DNA के सिंगल स्ट्रैण्डेड उभारों या सिंगल स्ट्रैण्डेड DNA को विघटित करता है । SI न्यूक्लियेज की क्रिया के परिणामस्वरूप आसंजी छीर भोथरे छोरों में बदल जाते हैं ।

इसीलिए SI न्यूक्लियेज का प्रयोग असंयोज्य छोरों (Ends) को हटाने में किया जाता है, अत: अतिव्यापी छोर तो DNA अणुओं के दो फ्रोग्मेण्ट्स की एनीलिंग हेतु विकसित हो सकते हैं ।

SI न्यूक्लियेज की क्रिया की विधि निम्नानुसार है:

 

Bal 31 न्यूक्लियेज:

यह एन्जाइम तो अति विशिष्ट (Specific) सिंगल-स्ट्रैण्डेड एण्डोडिऑक्सीराइबोन्यूक्लियेज है । यह तो DNA अणु के 3′ व 5′ दोनों छोरों को एक साथ विघटित करता । परिणामतः छोटे DNA फ्रेग्मेण्ट्स बनते हैं । इन फ्रेग्मेण्ट्स में दोनों टर्मिनी पर भोथरे छोर होते हैं ।

इसकी क्रियाविधि (Mechanism) निम्न है:

 

 

DNA लाएगेजेज:

पहली बार मॅट्र्ज व डेविस (1972) ने निरूपित किया कि क्लीव्ड DNA अणुओं के आसंजी टर्मिनी ई. केलाई DNA लाइगेजेज (Ligases) में सहसंयोजी रूप में सील होंगे तथा रीकॉम्बिनेण्ट DNA अणुओं के उत्पादन में सक्षम होंगे । DNA लाएगेजेज (Ligases) तो DNA में सिंगल स्ट्रैण्डेड निक्स को सील करता है ।

जिसे 5’-3’ (-OH हायड्रॉक्सिल) टर्मिनस होती हैं दो एन्जाइम्स ऐसे होते है, जो रिस्ट्रिक्शन फ्रेग्मेण्ट्स को सहसंयोजी रूप में जोड़ने में अत्यधिक प्रयोग (Use) में लाये जाते है- ई. कोलाई से लाइगेस एवं जो T4 फेज द्वारा एन्कोडेड है । DNA लाइगेज का मुख्य स्त्रोत तो T4 फेज है, जिस कारण इस एन्जाइम्स (Enzyme) का नाम T4DNA लाइगेज पड़ा ।

क्षारीय फॉस्फेटेज:

जब बाहरी DNA फ्रेग्मेण्ट को जोड़ने के लिए प्लाज्मिड वाहक को रिस्ट्रिक्शन एन्जाइम्स (Enzyme) को उपचारित किया जाता है, तो उस समय बड़ी कठिनता आ जाती है, जिस करण टूटे प्लाज्यिड्‌स के आसंतजी छोर है, बाहरी DNA से जुड़ने के बजाय समान DNA अणुओं के आसंजी छोर से जुड़ जाता है एवं रेक्यूराइज्ड हो जाता हैं इस समस्या के हल के लिए रिस्ट्रिक्टेड प्लाज्मिड (अर्थात रिस्ट्रिक्शन एन्जाइम्स (Enzyme) से उपचारित प्लाज्मिड) को एन्जाइम क्षारीय फॉस्फेटेज से उपचारित करते है, जो टर्मिनल 5 फॉस्फोराइल समूह को पाचित करता है । बाहरी DNA के जिन रिस्ट्रिक्शन फ्रेग्मेण्ट्स की क्लाने किया जाता हो, उन्हें एल्केलाइन से उपचारित नहीं करना है ।

रिवर्स ट्रान्सक्रिप्टेज (Reverse Transcriptase):

इस एन्जाइम (Enzyme) की खोज सर्वप्रथम एच. टेमिन एवं डी. बाल्टीमोर द्वारा 1970 ई. में RNA ट्यूमर विषाणु में किया गया । सामान्यतया DNA में RNA के निर्माण की क्षमता होती है, परन्तु इन्होंने ऐसे विकर अथवा एन्जाइम (Enzyme) की खोज की जो RNA से DNA बनाने में सक्षम थे ।

इस क्रिया को उन्होंने रिवर्स ट्रांसक्रिप्सन (Reverse Transcription) कहा । इस प्रकार से बने DNA को CDNA (Complimentary DNA) कहते हैं । ऐसे DNA का उपयोग आजकल जीन के रूप में किया जाता है ।

DNA लाइगेजज (DNA-Ligase):

यह एक विशिष्ट प्रकार का एन्जाइम (Enzyme) है, जिसके द्वारा दो समान अथवा असमान DNA खण्डों को जोड़ा जाता है । बाह्य DNA (Foreign DNA) को वाहक (Vector) से जोड़ने में इसकी खासी उपयोगिता (Use) है ।

DNA पॉलीमरेज:

यह एन्जाइम (Enzyme) DNA साँचे (या cDNA साँचे) पर DNA संश्लेषण का बहुलीकरण (पॉलीमेराइजेशन) करता है एवं DNA के 5’-3’ व 3’-5’ एक्टोन्यूक्लियोलाएटिक विघटन (Hydrolysis) को उत्प्रेरित भी करता है ।

पॉलीन्यूक्लियोटाइड काइनेज:

T4 पॉलीन्यूक्लियोटाइड काइनेज DNA के अथवा डिफॉस्फोराएलेटेड DNA के 5’ टर्मिनस (अर्थात् -PO4 अवशिष्ट रहित DNA) में ATP के γ22PO4 के स्थानांतरण (Transfer) को उत्प्रेरित करता है ।

जो कि निम्नानुसार होता है:

यह एन्जाइम (Enzyme) फॉस्फोराएलेशन एवं फॉस्फेटेज दोनों क्रियाशीलताएँ दर्शाता है, इसीलिए तदानुसार दो प्रकारों की अभिक्रियाओं का प्रयोग किया जा सकता है । इस एन्जाइम्स (Enzyme) को डिऑक्सी न्यूक्लियोटाइडिल ट्रांस्फरेज के रूप में भी जाना जाता है । इसे बछड़े के थाइमम से अलग व शोधित किया जा चुका है ।

इसमें डबल स्ट्रैण्डेड DNA के फ्रेगमेण्ट्स के 3 -OH छोर में ‘ऑलिगोडिऑक्सी-न्यूक्लियोटाइड टॅल’ जोड़ने का गुणधर्म होता है । इस प्रकार यह होमोपॉलीमर (Homopolymer) टन्स को विस्तार देता है तथा इस परिघटना को होमोपॉलीमर (Homopolymer) टॅलिंग कहा जाता है ।

रिकॉम्बिनेंट DNA कार्य की सुरक्षा के उपाय एवं नियमन (Regulation of Recombinant D.N.A. Work and Safety Measures):

संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान ने U.S. खोजबीनकर्ताओं के लिए कुछ दिशा-निर्देश घोषित (Declare) किये है । प्रयोगशालाओं के चार स्तरों (P1 से P4) सावधानियों के बढ़ते स्तर अनुमोदित किये गये थे । इस प्रकार प्राइमेट ऊतक व जंतु विषाणुओं के DNA संबंधी क्रियाकलापों में हानिप्रद जीन्स (Genes) होते हैं । अत: ऐसे क्रियाकलाप अल्ट्रा-सेक्योर P4 प्रयोगशालाओं में ही किये जा सकते हैं ।

रिकॉम्बिनेण्ट डीएनए अनुसंधान के लिए साधारण सुरक्षाओं की रूपरेखा नीचे हैं:

(1) असंयुग्मनशील (नॉन-कॉन्जुगेटिव) प्लाज्मिड्स का प्रयोग ‘क्लोनिंग वेक्टर्स’ के रूप में अनुमोदित किया जाता है, क्योंकि ऐसे प्लाज्मिड्स संयुग्मन द्वारा अपना स्थानांतरण नहीं कर पाते हैं ।

(2) प्रयोगशालेय सुविधाएँ इतनी उन्नत हो कि वेक्यूम लाइन्स, निकसों पर विशेष फंदों, निगेटिव प्रेशर प्रयोगशालाओं हूड्स व सूक्ष्मजैविक सुरक्षा केबिनेट्‌स द्वारा पेथोजेनिक सूक्ष्मजीवों के बच भागने की संभावना घटी रहे ।

(3) ऐसे सूक्ष्मजीवों पोषी स्ट्रैन्स का उपयोग, जो प्रयोगशालायें स्थितियों में ही जीवित रह सकते हों, जिनका प्रकृति में पाया जाना संभावित न हो, अर्थात् सुरक्षित प्रयोगशालेय स्ट्रैन्थ वांछनीय है ।

(4) टॉक्सिन्स या प्रतिजैविकों के संश्लेषण को कोड करने वाले जीन्स को बिना उपयुक्त सावधानियों के बैक्टीरिया में प्रविष्ट न किया जाये ।

(5) विशेष पारिस्थितिक निकेतों (जैसे- गर्म झरने, खारे पानी) में पाये जाने वाले सूक्ष्मजीवों के प्रयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए । यदि ये सूक्ष्मजीव भाग भी जायें, तो भी जीवनयापन में वे समर्थ नहीं हो पायेंगे ।

(6) जन्तुओं, जन्तु-विषाणुओं अथवा ट्यूमर वायरसेस के जीन्स को भी बिना उपयुक्त सावधानियों के बैक्टीरिया में न प्रवेश कराया जाये ।

(7) प्लाज्मिड क्लोनिंग वेक्टर को आनुवंशिकत: परिचालित किया जाये, क्योंकि उसका रिप्लिकेशन पोषी स्ट्रैन पर निर्भर होता है एवं अन्य सूक्ष्मजीवों में उसका संचरण उसके स्वयं के लिए प्राणघातक होता है ।

रिकॉम्बिनेण्ट डीएनए अनुसंधान के लिए सूक्ष्मजीवों (Microbes) के गति में अक्षम (लंगड़ें) करने के भी प्रयास किये जायें । ये अत्यधिक अक्षम रहते हैं, इन्हें प्रयोगशाला से निकाल दिये जाने पर ये मृत हो जाते हैं ।

पुनर्योजी DNA तकनीकी के उपयोग (Applications of Recombinant DNA Technology):

 

पुनर्योजी DNA तकनीकी सबसे विकसित क्षेत्र है, जिसका विभिन्न रसायनों, औद्योगिक प्रक्रमों, पादप प्रजनन व प्राणी प्रजनन में ट्रांसफोर्मेशन इत्यादि में अनुप्रयोग किया जाता है ।

विभिन्न क्षेत्रों में इस तकनीकी के होने वाले प्रयोग निम्नांकित है:

(i) कृषि में उपयोग (Application in Agriculture):

पुनर्योजी DNA तकनीक के द्वार बीजों का जीनोटाइप निर्मित कर लिया जाता है, जो ऊष्मा, नमी तथा विभिन्न रोगों के प्रति प्रतिरोधी गुण प्रदर्शित करता है । इस तकनीकी के द्वारा बिना उर्वरक के वातावरण से सीधे ही नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करने वाले पादप विभिन्न रोग प्रतिरोधी पादप किस्में, अधिक उत्पादन वाली फसले, अत्यधिक सूखे तथा रोगों से लड़ने की क्षमता वाले ऐसे पौधे जिनको चौपाये जानवर नहीं खाते हैं, आदि का निर्माण किया गया है । कुछ ऐसे सूक्ष्मजीव भी बनाये गये है, जो विषाक्त पदार्थों एवं औद्योगिक अपशिष्ट के शुद्धीकरण में सहायक होते है ।

(ii) औषधि में उपयोग (Application in Medicine):

इस तकनिकी के उपयोग से पादप आधारित पदार्थ तथा सूक्ष्मजीवों में रूपान्तरण करके औषधियों, मध्यम पदार्थों (Intermediate Substances) तथा वैक्सीन का निर्माण कम लागत में किया जा सकता है ।

अभी कुछ ही वर्षों पहले इंसुलिन हॉर्मोन का निर्माण गायों तथा सूअर से किया जाता था तथा इस इन्तुलिन के उपयोग से मधुमेह के रोगियों में एलर्जी का क्रिया देखने को मिलती थी ।

सर्व प्रथम 1982 में व्यापारिक स्तर पर इस तकनीकी के द्वारा इंसूलिन का उत्पादन प्रारंभ किया गया । इसी प्रकार विभिन्न प्रकार की वैक्सीन, इंटरफेरीन, एन्जाइम्स तथा अन्य प्रोटीन का संश्लेषण व्यापक रूप से किया जाने लगा ।

(iii) औद्योगिक क्षेत्र में उपयोग (Industrial Application):

पुनर्योजी DNA तकनीकी का उपयोग औद्योगिक क्षेत्रों में भी किया जाता है । इस तकनीकी द्वारा ऊर्जा फसलों का निर्माण सम्भव हो पाया है । इनका उत्पादन अत्यधिक मात्रा में होता है, जिनको प्रत्यक्ष रूप से ईंधन के रूप में अथवा एल्कोहल व अन्य पदार्थों के उत्पादन हेतु उपयोग में लिया जा सकता है ।

इनके अपशिष्ट, अवायवीय श्वसन द्वारा CH4 में परिवर्तित हो जाते है । इथाईलीन ओक्साइड, इथाईलीन ग्लाइकोल तथा एल्कोहल के उत्पादन हेतु किण्वन विधि सूक्षमजीवों में रूपान्तरण की क्रिया में अभी भी सुधार की आवश्यकता है ।