रेशमी का कीड़ा: मतलब, महत्व और प्रकार | Silkworm: Meaning, Importance & Kinds in Hindi!

Read this article in Hindi to learn about:- 1. रेशमी का कीड़ा का अर्थ (Meaning of Silkworm) 2. रेशम कीट का आर्थिक महत्व (Economic Importance of Silkworm) 3. प्रकार (Kinds) 4. जीवन इतिहास (Life History) 5. विसंक्रमण (Disinfection).

Contents:

  1. रेशमी का कीड़ा का अर्थ (Meaning of Silkworm)
  2. रेशमी का कीड़ा का आर्थिक महत्व (Economic Importance of Silkworm)
  3. रेशमी का कीड़ा के प्रकार (Kinds of Silkworm)
  4. रेशमी का कीड़ा का जीवन इतिहास (Life History of Silkworm)
  5. रेशमी का कीड़ा की विसंक्रमण (Disinfection of Silkworm)

1. रेशम कीट का अर्थ (Meaning of Silkworm):

रेशम कीट लेपिडोप्टेरा गण व बाम्बीसाइडी कुल का कीट है । इसका वैज्ञानिक नाम बोम्बीक्त मोराई है । रेशम के कीट का पालन कुछ विशेष प्रकार के पौधों की सहायता से किया जाता है । इन कीटों का पालन उनके द्वारा उत्पन्न होने वाले ककून या कोए को प्राप्त कर उनसे रेशम के धागे अलग करना ही, रेशम उद्योग कहलाता है ।

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वर्तमान समय में रेशम का उद्योग, जापान, चीन, इटली, भारत, म्यामार में बहुतायात से प्रचलित हैं रेशम का कीट एक लार्वा है जो खूपीकरण हेतु पूर्ण रूप से बढ जाने के उपरान्त अपने मुँह से एक प्रकार का स्राव निकालता है जो हवा के सम्पर्क में आने के पश्चात् कड़ा हो जाता है ।

इस क्रिया के अन्तर्गत रेशम का धागा उसके चारों ओर लिपट जाता है और प्यूपावरण का स्वरूप ग्रहण कर लेता है । ककून से रेशम के ध ले पृथक कर लिये जाते हैं एवं फिर कपडा बुना जाता है ।


2. रेशम कीट का

आर्थिक महत्व (Economic Importance of Silkworm):

मधुमक्खी के पश्चात् रेशम कीट ऐसा दूसरा लाभदायक कीट है जिससे मानव को काफी लाभ होता है । प्राचीन काल में चीन में सोने के तौल के बराबर रेशम कीट को बेचा जाता था । आज के समय में भी इसका आर्थिक महत्व बरकरार है । कपड़े के अतिरिक्त रेशम का उपयोग पैराशूट बनाने में व टसर सिल्क माथ के प्यूपा से प्राप्त तेल का उपयोग औषधि के रूप में किया जाता है ।

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रेशम (Silk):

रेशम कीट के लार्वा जब पूर्ण रूप से विकसित हो जाते हैं तो वे अपने शरीर के चारों ओर रेशमी कोया बनाकर प्यूपावस्था में बदल जाते हैं । ये रेशमी ककून एक ही धागे से बनता है इस एक धागे को अलग कर इससे डोरा बनाया जाता है व उससे कपड़े आदि बुन जाते है ।


3. रेशम कीट के प्रकार (

Kinds of Silkworm):

i. शहतूत रेशम कीट (Mulberry Milk Worm):

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ये अधिकतर रेशम उद्योग में पाले जाते हैं । इसका वैज्ञानिक नाम बोम्बीक्स मोराई लगाए है । इस कीट के वयस्क शलभ सफेद रंग के होते हैं । इनके शरीर की लम्बाई 2.5 से.मी. से 32 से.मी. होती है तथा ये काफी मोटे होते हैं ।

ये पंखयुक्त होते है मगर ये पंख कमजोर होते हैं । इसी कारण से ये भली प्रकार से उड़ नहीं पाते हैं । इनके सिर पर एक जोड़ी संयुक्त नेत्र, एक जोड़ी द्विकंधाकार शृंगिकाएँ पायी जाती हैं । मुखांग अवशेषी होते हैं । वयस्क का जीवन काल 2-3 दिनों का होता है ।

ii. टसर रेशम कीट (Anthrae Mylitta):

ये एक प्रकार का जंगली रेशम कीट खात है जो वनों में साल, अर्जुन व बेर की पत्तियों को खाता है । इसका कृत्रिम रूप से पालन अभी तक संभव नहीं हो पाया है । इसे जंगलों से आदिवासी एकत्र करते है । इनसे जो रेशम प्राप्त होता है वह ताम्र रंग का होता है ।

iii. मूंगा रेशम कीट (Antreraea Assainia):

यह भी वनों में पाये जाने वाला रेशम कीट है जो सम व स्वालू की पत्तियाँ खाता है । इस रेशम कीट के कोये प्रायः पीलें रंग के होते हैं । ये भी कृत्रिम रूप से अभी पाला नहीं जा सकता है । बिहार, बंगाल व उड़ीसा में मुख्यतः इस प्रकार का रेशम प्राप्त होता है ।

iv. एरी रेशम कीट (Attacus Ricini):

ये रेशम कीट अरंडी की पत्तियों को खाता है व इसका अधिकतर पालन असम में होता है । इनके कोये से प्राप्त रेशम को अण्डी कहते हैं ।


4. रेशम कीट का जीवन इतिहास (Life History of Silkworm):

वयस्क मादा कीट शहतूत की पत्तियों के ऊपर समूह में सफेद रंग के गोलाकार अण्डे देती है । अण्डे जब पूर्ण रूप से विकसित हो जाते हैं तो इनका रंग काला हो जाता हे । अण्डे से निकली प्रथम अवस्था की लार्वी 0.6 से.मी. होती है । अण्डे से 6-10 दिनों में लार्वा निकल आता हैं इनके उदर के आठवें खण्ड के पृष्ठ भाग में एक पृष्ठीय शूल पाया जाता है ।

वक्षीय भाग में तीन जोड़ी व उदरीय भाग में चार जोड़ी पाद पाये जाते हैं । लार्वा अपने जीवन काल में 5 बार निर्मोचन करता है और प्रत्येक निर्मोचन 5-6 दिनों पश्चात् होता है । लार्वा 30-35 दिनों में पूर्ण विकसित हो जाते हैं । पूर्ण विकसित लार्वा 24 घंटों में कोया या प्यूपा का रूप ग्रहण कर लेती हैं । प्यूपाकाल 6-8 दिनों का होता है । वयस्क कीट सफेद या मक्खन रंग का होता है तथा ये 2-3 दिनों तक ही जीवित रहता है । इसका जीवन चक्र 40-45 दिनों में पूर्ण हो जाता है ।

शहतूत रेशम कीट के तीन विभेद निम्नलिखित रूप से पाये जाते हैं:

(अ) यूनीवोल्टाइन

(ब) बाईवोल्टाइन

(स) मल्टीवोल्टाइन

यूनीवोल्टाइन रेशम कीटों से प्रतिवर्ष रेशम का उत्पादन केवल एक ही बार सम्भव है क्योंकि इनकी वर्ष में एक ही पीढ़ी होती है । बाईवोल्टाइन रेशम कीटों की वर्ष में दो पीढ़ियाँ पायी जाती हैं । इससे वर्ष में दो बार रेशम उत्पादन होता है । मल्टीवोल्टाइन रेशम कीटों की वर्ष में दो से अधिक पीढियां होती हैं ।


5. रेशम कीट की विसंक्रमण (Disinfection of Silkworm):

रेशम कीट पालन में विसंक्रमण एक प्रमुख प्रक्रिया है । अतः प्रभावी रूप से इसको कार्यान्वित करने की जरूरत है । कीटपालन कमरों को 2 प्रतिशत फार्मेलीन घोल से 3 दिन के अंतराल पर 2 बार विसंक्रमित करना चाहिए । कीटपालन कमरों को विसंक्रणम करने के बाद 24 घंटों से अधिक समय तक बंद रखना चाहिए ।

उष्मायन व कूर्चन:

अंडों के उष्मायन के लिए आदर्श तापमान व आर्द्रता दशाएँ क्रमशः लगभग 25 से. तथा 80 प्रतिशत होनी चाहिए । अंडों को संभावित शुष्कता से बचाने के लिए खासतौर से यह जरूरी है कि ऊष्मायन की आपेक्षित आर्द्रता लगभग 80 प्रतिशत रहे ।

एकरूप प्रस्कूटन के लिए अंडों को काले डिब्बों में रखना चाहिए । अंडा भेदन के बाद रूर्चन को प्रातः 9.00 से 10.00 बजे के बीच किया जाता है । प्रस्फुटित अंडों के ऊपर समुचित आकार में काट कर शहतूत की पत्तियों (0.5 × 0.5 सेमी.) को समान रूप से फैला देते हैं ।

कीट पालन:

रेशम कीट की वृद्धि एवं स्वास्थ्य पर वायुमण्डलीय ताप व आर्द्रता का बहुत अधिक असर पड़ता है । आदर्श तापमान व आर्द्रता दशाएँ जिसके अंतर्गत रेशम कीट अच्छी तरह बढ़ता है 24 से. से 27 से. तथा आपेक्षित आर्द्रता 70 प्रतिशत से 90 प्रतिशत है । कीट पालन के प्रारंभिक चरणों (चौकी कीट पालन) के दौरान थोड़ा ज्यादा ताप व आर्द्रता रखी जानी चाहिए ।

पत्ती देना:

रेशम कीट पालन के लिए प्रत्येक दिन में 4 बार पत्ती देनी चाहिए वर्षा ऋतु में 3 तथा ग्रीष्म में 5 बार पत्तियाँ दी जानी चाहियें । शहतूत की पत्तियों की कुल मात्रा में अधिक वृद्धि या कमी न हो । कीड़ो को पत्ती प्रातः 5.00 बजे 11.00 बजे (पूर्वाह्न), 4.00 बजे दोपहर तथा 10.00 बजे रात को देनी चाहिए ।

संस्तर सफाई:

कीट पालन संस्तर की सफाई रखने पर विशेष ध्यान देना चाहिए तथा चौथी व पाँचवीं अवस्था में प्रतिदिन सफाई करनी चाहिए । अपेक्षाकृत अधिक कीड़ों का पालन, पत्ती की अपर्याप्त खपत, कमजोर वृद्धि, बीमारी के खतरे तथा कम कोया उत्पादन का कारण बनता है । अत्यधिक अन्तराल से बेकार जाने वाली पत्ती की कोया का ठीक अनुपात रखा जा सकता है ।

रेशम कीट रोग:

रेशम कीट विभिन्न रोगों के प्रति संवेदी है इसलिए सम्पूर्ण कीट पालन अवधि में स्वस्थ्य परिस्थितियों बनाए रखने की जरूरत है । एक बार रोग आ जाने पर रेशम कीटों को बचाना मुश्किल हो जाता है । कीट पालन के दौरान खासतौर से दो प्रमुख रोग नामतः मस्कारडिन (फफूंद जनित रोग) तथा ग्रैसरी (विषाणु रोग) रेशम कीटों को प्रभावित करते हैं । मस्कारडिन को कम से कम करने के लिए डाईथेन (1.2 ग्रा.) या केओलिन (98-99 ग्रा.) का अनुप्रयोग करना तथा ग्रैसरी के नियंत्रण के लिए रेशम कीट पालन की अवस्था पर निर्भर करते हुए रेशम कीट औषधि (3.5 ग्रा/वर्ग फुट) का अनुप्रयोग किया जाना चाहिए ।

प्रतिस्थापेय (माउन्टेज):

कीट पालन की उन्नत पद्धति के अंतर्गत कीटों को समान रूप से बढ़ाना तथा निर्मोचन करना चाहिए । अबाधित कताई करने के लिए प्रतिस्थापन या आरोपण हवादार कमरे में या खुली जगह पर छाया में करना चाहिए । परिपक्व कीड़ों को 40-50 कीट प्रति वर्ग फुट की दर से चन्द्रिका में रखना चाहिए ताकि द्विकोया निर्माण से बचा जा सके । सामान्य प्रतिस्थापन या आरोपण बाँस की चन्द्रिका है जो सभी क्षेत्रों में उपलब्ध है ।

रेशम कीट प्रजातियाँ:

विभिन्न प्रयोगों के आधार पर होसा मैसूर × एन बी4 डी2 तथा एम वाई1 × बी4 डी2 संयोजन को अन्य संयोजनों की अपेक्षा श्रेष्ठ पाया गया है । अतः वर्षा ऋतु में फसल लेने के लिए बहु × द्विप्रज संयोजन का प्रयोग किया जाना चाहिए । इसी प्रकार बसन्त व शरद ऋतु में के.ए. × एन. बी4 डी2 तथा एन. बी4 डी2 × के. ए. के द्वि × द्विप्रज संयोजन का प्रयोग किया जा सकता है । व्यावसायिक स्तर पर बहु × द्विप्रज संयोजन प्रति 100 रोग मुक्त चकता 35-45 कि. ग्रा. कोया का उत्पादन करता है जबकि द्वि × द्विप्रज संयोजन प्रति 100 रोग मुक्त चकता लगभग 45-50 कि. ग्रा. कोया का उत्पादन करता है ।

कोया प्राप्ति:

कोया के निर्माण के छठे-सातवें दिन कोया प्राप्ति करनी चाहिए तथा कोया प्राप्ति के समय मृत कीटों और झीने (फिल्म-सी) कोयों को अलग कर लेना चाहिए ।


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