Read this article in Hindi to learn about the circulatory system in insects.

अधिकांश कीटों में परिवहन या रक्त संवहन तंत्र खुले प्रकार का होता है कीटों में उच्च जीवों के समान धमनियाँ व शिराएँ नहीं पायी जाती हैं । कीटों का रक्त हीमोलिम्फ कहलाता है ये एक प्रकार का ऊतकीय द्रव होता है इसके अंदर द्रव प्लाजमा निशा तथा रक्त कोशिकाएँ होती हैं । यह देहगुहा में भरा होता है ।

रक्त (Blood):

कीटों का रक्त प्रायः हरे या पीले रंग का होता है यह उच्च प्राणियों के समान लाल नहीं होता है क्योंकि इसमें लाल रंग प्रदान करने वाले रंजक हिमोग्लोबिन एवं लाल रक्त कणिकाएँ नहीं पायी जाती हैं । यह प्रायः अम्लीय प्रकृति का होता है, मगर इसका विशिष्ट गुरुत्व पानी के समान होता है ।

रक्त में निम्नलिखित तीन प्रकार के पदार्थ पाए जाते हैं:

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i. द्रव पदार्थ

ii. ठोस पदार्थ

iii. जीवित कोशिकाएँ ।

i. द्रव पदार्थ:

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यह हिमोलिम्भ कहलाता है यह निर्जीव होता है इसमें प्रायः कुछ रंजक पदार्थ भी पाए जाते हैं रक्त का 85 प्रतिशत भाग इसी से बनता है ।

ii. ठोस पदार्थ:

रक्त में बहुत से ठोस पदार्थ जैसे प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, पोटेशियम-सोडियम लवण व सूक्ष्म मात्रा में मैग्नीशीयम, कैल्सीयम तथा फास्फोरस के यौगिक भी घुले होते हैं ।

iii. जीवित कोशिका:

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रक्त में अनेकों जीवित कोशिकाएँ पायी जाती है जो हीमोसाइट्‌स कहलाती है । यह द्रव या प्लाज्मा में तैरती रहती हैं । ये कोशिकाएँ निरन्तर विभाजन व बढवार करती रहती हैं ।

यह निम्न प्रकार की होती हैं:

a. प्रोल्यूसाइट्‌स:

यह छोटी, गोल या स्पिंडल आकार की कोशिकाएँ होती हैं जिनका केन्द्रक बड़ा होता है ।

b. फेगोसाइट्‌स:

यह आकार में बड़ी व छोटे केन्द्रक वाली कोशिकाएं होती हैं । इनका कार्य रक्त की स्वच्छता बनाए रखना, घाव में रक्त का थक्का जमाने में सहायता करना तथा मृत रक्त कोशिकाओं व हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करना है ।

c. ग्रेन्यूलोसाइट्‌स:

यह रक्त में उपस्थित दानेदार कोशिकाएँ होती हैं ।

d. ईनोसाइट्स:

यह रक्त में उपस्थित गोलाकार कोशिकाएँ होती हैं ।

रक्त के कार्य (Functions of Blood):

कीटों में रक्त के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं:

I. शरीर के विभिन्न भागों में अवशोषण संबंधित पदार्थों को संबंधित उत्तकों तक पहुँचाना ।

II. उत्सर्जन पदार्थों को विभिन्न उत्सर्जन अंगों तक पहुँचाना ।

III. श्वसन क्रिया में सहायता पहुँचाना ।

IV. शरीर में पानी की मात्रा का संतुलन बनाए रखना ।

V. शरीर में उपस्थित हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट कर, शरीर की रोगों से रक्षा करना ।

रक्त परिवहन अंग:

कीटों में रक्त हिमोसील में भरा रहता है तथा शरीर के विभिन्न अंग इसमें तैरते रहते हैं । इस प्रकार का परिवहन, खुला परिवहन तंत्र कहलाता है । हिमोसील में मांसपेशियों की बनी दो पतली झिल्ली जैसी परतें होती हैं इनमें से पहली हृदय के एकदम नीचे स्थित होती है जिसे पृष्ठ मध्य छद कहते हैं । एवं दूसरी आहार नलिका तथा तंत्रिका तंत्र के मध्य में स्थित रहती है जो प्रति पृष्ठ मध्यछद कहलाती है ।

ये दोनों डायफ्राम हीमोसील को निम्नलिखित तीन भागों में बांटते हैं:

1. पेरीकार्डियल सायनस:

यह ऊपरी कोष्ठ होता है जिसमें हृदय व महाधमनी स्थित होती है इसे सामान्य भाषा में हृदय कोटर कहते है ।

2. पेरीविसरल सायनस:

यह मध्य का भाग होता है जिसमें आहार नलिका तथा जननांग स्थित होते है ।

3. पेरीन्यूरल सायनस:

यह नीचे का कोष्ट है जिसमें तंत्रिका तंत्र होता है ।

रक्त के परिवहन के अंग निम्नलिखित हैं:

(i) पृष्ठ वाहिनी

(ii) पृष्ठ तथा प्रति पृष्टाध्य छद

(iii) सहायक स्पन्दनांग

(i) पृष्ठ वाहिनी:

यह सिर से लेकर उदर के पिछले सिरे तक मध्य रेखा पर होती है ये पुन: दो भागों में विभक्त होती है:

(अ) महाधमनी एवं

(ब) हृदय ।

(अ) महाधमनी:

पृष्ठवाहिनी का वक्षीय भाग महाधमनी कहलाता है । यह ऊपर के प्रथम खण्ड से आरंभ होकर वक्ष से होते हुए सिर तक जाती है । महाधमनी वक्ष के तीनों खंडों एवं उदर के प्रथम खंडके नीचे गुहाएँ बनाती है । इनका अन्त सिर में, एक विस्तरित रूप में होता है जो कि एक प्रतिपृष्ठ छिद्र के माध्यम से मस्तिष्क के पास खुलता है ।

(ब) हृदय:

पृष्ठवाहिनी का पिछला हिस्सा हृदय कहलाता है जो कि उदर के निम्न तल पर मध्य रेखा पर स्थित होता है । टर्गा से एलरी मांसपेशियाँ निकलकर इसमें जुड़ी रहती है ये मांसपेशियाँ ही डोरसल डायफ्राग बनाती हैं । हृदय में सात खंड होते हैं ।

जिनमें पहला कोष्ठ दूसरे उदर खंड तथा अंतिम आठवें उदर खंड में होता है प्रत्येक कोष्ठ की पार्श्व सतहों पर अर्द्धचन्द्राकार छिद्र होते हैं जिन्हें ओस्टिया कहते हैं । इन्हीं छिद्रों से रक्त हिमोसील से हृदय में घुलता है ।

इन छिद्रों के किनारे हृदय के अंदर की ओर नलिकाकार रूप में मुड़े होते हैं इस नलिकाकार मुड़े हुए भागों को ओस्टीयल कपाट कहते हैं । जब हृदय में संकुचन नहीं होता है तो रक्त आगे की ओर जाता है क्योंकि ओस्टीयल उसे पीछे की तरफ जाने से रोकते हैं । मगर जब हृदय फैलता है तो रक्त हर दिशा में चला जाता है ।

(ii) पृष्ठीय तथा प्रतिपृष्ठीय मध्यच्छद:

पृष्ठीय मध्यच्छद मोटी एवं मजबूत मांसपेशियाँ की बनी होती हैं । रक्त के आने के लिए इसमें बहुत सारे छिद्र होते हैं । प्रतिपृष्ठीय मध्यच्छद प्रायः सभी कीटों में नहीं पायी जाती है मगर जिनमें पाई जाती हैं बहुत ही पतली झिल्ली की बनी होती हैं एवं मांसपेशियाँ नहीं होती । इस प्रकार की रचना टिड्‌डे में मिलती है जिनमें कि छोटे-छोटे छिद्र होते हैं । इन छिद्रों में रक्त पेरी-हाल साइनस से पेरीविसरल साइनस में जाता है ।

(iii) सहायक स्वन्दनांग:

यह छोटी-छोटी मांसपेशियों द्वारा संचालित अंग होते हैं जो कि सदैव स्पन्दन करते रहते हैं । यह देहगुहा, पंखों व टाँगों की गुहा के द्वार पर स्थित होती है तथा अपने लगातार स्पन्दन से टाँगों व पखों में रक्त की आपूर्ति करती रहती है ।

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