Read this article in Hindi to learn about:- 1. धार्मिक परम्पराएं व अंधविश्वास में महिलाओं की स्थिति (Status of Women in Religious Traditions and Superstition) 2. भारतीय राजनीति में महिलाओं की भूमिका (Role of Women in Indian Politics) and Other Details.

भारतीय समाज में पुरुषों व महिलाओं के बीच कर, समानता का मान्यता दिया गया है, परन्तु निर्विवाद रूप से स्त्रियों की भूमिका व क्रिया क्षेत्रों में भेद स्वीकार करता है ।

संविधान गत समानता की व्यवस्था के पश्चात् महिलाओं की स्थिति संवैधानिक दृष्टि से तो सुदृढ़ हो गई किन्तु वास्तविक रूप से आज भी महिलाएं शोषण एवं उत्पीड़न की शिकार बनी हुई हैं ।

परिवर्तनशील समाज में महिलाओं की स्थिति को निम्नलिखित आधारों पर विश्लेषित किया जा सकता है:

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स्त्रियों की सामाजिक रुपरेखा को समझना उनकी स्थिति का मूल्यांकन करने के लिये अति आवश्यक है । सामाजिक संरचनाएं, सांस्कृतिक प्रतिमान तथा मूल्य प्रणालियां पुरुषों और स्त्रियों दोनों की व्यवहार संबंधी सामाजिक प्रत्याशाओं पर प्रभाव डालती हैं और किसी हद तक समाज में स्त्रियों की भूमिकाएं व स्थिति निर्धारित करती हैं ।

इन संस्थाओं में से सबसे अधिक महत्वपूर्ण वंशक्रम प्रणालियां परिवार और संगोत्रता, विवाह और धार्मिक परम्पराएं हैं । ये पुरुषों व स्त्रियों को उनके अधिकारों और कर्तव्यों की धारणाओं के प्रति विचारधारा और नैतिक आधार प्रदान करते हैं ।

आदर्शक मानक उसी गति से नहीं बदलते जिस गति से औद्योगिक और शैक्षिक विकास, नगरीगकरण, बढ़ती हुई आबादी, परिवर्तनशील कीमतें, जीवन स्तर में परिवर्तन जैसे कारणों से अन्य सामाजिक अभिवृतियों पर अपेक्षित प्रभाव डालने के मामले में विधि और शैक्षिक नीतियां जो अक्सर असफलताएं प्राप्त करती है, इस दरार को देखों के बाद उनका स्पष्टीकरण मिल जाता है ।

भारतीय महिलाओं की सामाजिक स्थिति को संविधान और विधि द्वारा प्रदत्त स्थिति और भूमिकाओं तथा सामाजिक परम्पराओं द्वारा थोपी गई स्थिति और भूमिकाओं के बीच की इस दरार का एक विशिष्ट उदाहरण माना जा सकता है । स्त्रियों के लिये जो कुछ भी सैद्धान्तिक में सम्भव है वह उन पर कभी-कभी ही पहुंच पाता है ।

धार्मिक परम्पराएं व अंधविश्वास में महिलाओं की स्थिति (Status of Women in Religious Traditions and Superstition):

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भारतीय समाज में स्त्रियों को हिन्दु धर्म में निकृष्ट व अपमानजनक स्थिति प्रदान की गई है । शूद्रों की ही भांति उसे भी वेदपाठ तथा विभिन्न धार्मिक क्रिया-कलापों से वंचित रखा गया । स्त्री का परमधर्म व कर्तव्य बचपन में पिता की, युवावस्था में पति की तथा वृद्धावस्था में पुत्र की सेवा को ही समझा गया ।

उसकी आदर्श भूमिका एक माता व पत्नी के रूप में ही मानी गई । यह माना गया कि स्त्री प्राकृतिक दृष्टि से पुरुष से निकृष्ट है, अत: उनका परम कर्तव्य पुरुष की सेवा तथा आज्ञा में निष्ठापूर्वक अपना जीवन व्यतीत करने में ही है ।

उसके द्वारा पुत्र को जन्म दिया जाना अत्यन्त गौरव की बात समझा गया तथा पुत्र के जन्म न होने पर उसे अपमानित व तिरस्कृत किया गया क्योंकि पुत्र ही वंश को बढ़ाने वाला तथा मरणोपरान्त अंतिम संस्कार करने वाला होता है ।

वैध्व्य को दुर्भाग्य से संबंधित किया गया । विधवाओं को किसी भी धार्मिक व सामाजिक कार्य में भाग लेने की अनुमति नहीं दी गई ताकि वह अन्य व्यक्तियों के दुर्भाग्य की संवाहिका न बन जाए ।

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1856 में पुनर्विवाह को कानून द्वारा विधिका मान्यता प्राप्त हो जाने पर भी आज तक समाज में विधवाओं को पुनर्विवाह की अनुमति नहीं दी गई है जबकि हिन्दू पुरुष इस प्रकार के प्रतिबन्धों व शर्तों से परे हैं । विधुर को अशुभ नहीं माना जाता है । यहां तक कि स्त्री के मरने पर उसकी अन्त्येष्टि के समय ही उसके पति का विवाह पुन: तय कर दिया जाता है ।

यद्यपि बौद्ध, जैन, वैष्णव, वीर, शैव ओर सिक्स धर्मों जैसी शाखाओं ने स्त्रियों की स्थिति मैं विशेष रूप से उनके धार्मिक और आध्यात्मिक कार्यकलापों से संबद्ध स्थिति में कुछ सुधार लाने का प्रयत्न किया किन्तु इन सबके बावजूद इन धर्मों में भी स्त्री को मुख्यतः माता व पत्नी के रूप में ही माना जाता रहा है ।

समाज में महिलाओं को पुरुषों से नीचे की कोटि में ही स्थान मिला । बौद्ध धर्म के भिक्षुणी से उच्च स्तर का भिक्षु को माना जाता है । जैन धर्म में सामुदायिक जीवन में स्त्रियों को उनका उचित स्थान दिया जाता है किन्तु धार्मिक उपदेशों में स्त्री जाति की भारी निन्दा की जाती है ।

वीर शैव धर्म में विवाह-विच्छेद और पुनर्विवाह दोनों ही स्वीकृत हैं । भक्ति आंदोलन में स्त्रियों को मध्यस्थों के बिना स्वतंत्र रूप से आध्यात्मिक शांति प्राप्त करने की स्वीकृति देकर तथा धार्मिक सिद्धान्तों को जनता के लिए लोक भाषाओं में उपलब्ध कराकर भी स्त्रियों के लिए निश्चित निम्न स्थिति में महत्वपूर्ण सुधार लाने में से आंदोलन असफल रहे ।

आग चलकर इस्लाम, ईसाई और पारसी जैसे धर्म अपने साथ स्त्रियों के बारे में एक विशेष दृष्टिकोण लेकर आए, किन्तु कालान्तर में उन्होंने भी प्रचलित रीतियों और प्रथाओं के अनुसार अपने आप को भारतीयता के रंग में रंग लिया । इस्लाम में कुरान शरीफ में पुरुष और स्त्री को एक समान समझा गया है और वह स्त्रियों को धर्म के मार्ग में बाधक नहीं मानता ।

हालांकि कुरान ने उस समय के परिस्थिति देखते हुए स्त्रियों को काफी ऊंची स्थिति प्रदान की, तथापि शताब्दियों में कुरान की आयतों के विभिन्न व्याख्याओं ने उन्हें निम्न स्थान दे दिया जिसमें उस काल के सांस्कृतिक प्रतिमान प्रतिबिम्बित होते हैं ।

महिलाओं को मुल्ला या इमाम बनाने का, मस्जिदों में नमाज पढ़ने का, मजहबी संगठनों व कानूनी मामलों में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है । पर्दा-प्रथा को सामाजिक प्रतीक माना गया तथा पति को बहु विवाह और विवाह-विच्छेद का एक पक्षीय अधिकार दिया गया । इस्लाम धर्म में विवाह के लिए वधू की अनुमति का अधिकार दिया गया किन्तु यह केवल एक औपचारिकता है ।

स्त्री को विधवा हो जाने पर पुनर्विवाह व विवाह-विच्छेद की इजाजत है, विधवा होने पर स्त्रियों को संपत्ति की वसीयत प्राप्त करने का तथा विवाह-विच्छेद के विरूद्ध मेहर का अधिकार है लेकिन समाज द्वारा इसे व्यवहार में अच्छा न समझे जाने के कारण इन अधिकारों को कोई समर्थन नहीं मिल पाता ।

ईसाई धर्म में स्त्रियों को चर्चा के संगठन संबंधी दायित्वों में भाग लेने का अधिकार प्राप्त है । लेकिन उन्हें धार्मिक उत्सवों में भाग लेने का अधिकार प्राप्त है । बाईबल में स्त्री को एक लुभाने वाली, पथभ्रष्ट करने वाली नारी के रूप में चित्रित किया गया है ।

उसकी वजह से पत्नी और उसकी संपत्ति पर नियंत्रण रखने का पति का अधिकार मजबूत हो गया किन्तु फिर भी पति और पत्नी के बीच परस्पर कर्तव्य-निष्ठ और सम्मानजन्य संबंधों पर बल दिये जाने के फलस्वरूप परिवार के मुखिया व विस्तृत परिवार के प्रभुत्व को कमजोर करने में सहायता मिली है और इस प्रकार परिवार के केन्द्रीय संगठन के माध्यम से स्त्री को अपेक्षित रूप से उच्च स्थिति प्राप्त हुई है ।

विवाह को एक ऐसा टिकाऊ कारक माना गया है जिसमें विवाह-विच्छेद के लिए कोई स्थान नहीं है । ईसाई धर्म में स्त्री के विवाह को ही उसकी एक मात्र नियति नहीं माना जाता । उसका अपना एक स्वतंत्र नैतिक अस्तित्व और दायित्व होता है ।

इसी परम्परा के कारण अध्यापिकाओं, नर्सों, डॉक्टरों के रूप में शिक्षा जैसे और अन्य कार्य क्षेत्रों में ईसाई महिलाओं ने सबसे पहले प्रवेश किया । हालांकि ईसाई धर्म में स्त्रियों पर कम प्रतिबंध है फिर भी पुरुषों की अपेक्षा उनकी हीन होने की दुनिया की संकल्पना विवाद से परे है ।

पारसी धर्म समाज और परिवार के अनुसार स्त्रियां संपत्ति, धार्मिक तथा धर्मेतर शिक्षा की अधिकारी भी होती है और उन्हें विवाह-विच्छेद और पुनर्विवाह का अधिकार प्राप्त होता है ।

पारसी धर्म में यदि एक पुरुष किसी गैर पारसी से निकाह कर ले तो उसे कलंक नहीं माना जाता तथा उसके बच्चों को पारसी मान लिया जाता है । किन्तु जो गैर पारसी से विवाह कर लेते हैं उस वस्ती को यही अधिकार प्राप्त नहीं है ।

कंबायली धर्म में परिवार और दल की धार्मिक क्रियाओं में स्त्रियां अपनी भूमिका निभाती है परन्तु जनजातीय देवताओं की विशेष पूजा में वे भाग नहीं ले सकती । मातृवंशीय जनजातियों में स्त्रियां पूर्वज देवताओं की उपासना करती हैं ।

आर्थिक क्रियाओं में उनके योगदान से उन्हें सामाजिक व्यवहार में पर्याप्त स्वतंत्रता मिली हुई है, परन्तु सामुदायिक अनुशासन और सार्वजनिक नैतिकता के प्रवर्तन में वे कोई भूमिका नहीं निभातीं । ऊपर दिये वर्णन के द्वारा यह स्पष्ट होता है कि सभी धर्मों द्वारा स्त्रियों को दिए गये स्थान में कोई खास अन्तर नहीं है ।

19वीं व 20वीं शताब्दी में हिन्दुओं में ब्रह्म-समाज, आर्य-समाज या प्रार्थना-समाज जैसे सुधार आन्दोलनों ने तथा अन्य समुदायों के इसी प्रकार के आन्दोलनों ने बाल-विवाह और विधवाओं के साथ दुर्व्यवहार की प्रथाओं पर प्रहार किया और स्त्रियों की शिक्षा तथा उनके संपत्ति के अधिकारों की वकालत की ।

इन आन्दोलनों के प्रवर्तकों ने सामाजिक सुधारों और धार्मिक सुधारों को अलग-अलग रखने की बात को स्वीकार नहीं किया, फिर भी सभी धर्मों में सुधार करने का उनका उद्देश्य कार्यान्वित नहीं हो सका क्योंकि उस समय के शासन तंत्र और सभी समुदायों की धार्मिक कट्‌टरपंथीता ने इस प्रयास का विरोध किया ।

परिणामतः इन आन्दोलनों का कार्य क्षेत्र सामान्यतया दो प्रकार से प्रतिबंधित हो गया:

(क) संपूर्ण समाज में परिवर्तन लाने के लिए एक सम्मिलित आंदोलन बन जाने के बजाय वे केवल अपने-अपने धर्म के सीमित दायरे में ही विकसित होते रहे, और

(ख) उनका उद्देश्य स्त्रियों की स्थिति को घरेलू दायरे के अंदर ही बदलना और केवल परिवार में ही उन्हें प्रतिष्ठा और सम्मान दिलाना भर रह गया ।

फिर भी शहरी मध्य वर्ग पर इन आंदोलनों का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा और इनके उद्देश्य भारतीय समाज के इसी वर्ग की सामान्य सांस्कृतिक विरासत का एक अंग बन गए । सुधार को केवल उच्च वर्ग की महिलाओं की योग्यताओं को दूर करने की चिन्ता अधिक थी ।

अत: उन्होंने न तो समाज में सभी स्त्रियों को अधीनस्थ स्थिति से उत्पन्न उनके सार्वभौमिक दमन को चुनौती दी और न ही स्त्रियों द्वारा विस्तृत सामाजिक प्रक्रिया में भाग लेने की समस्या और आवश्यकता पर विचार ही किया, अत: कमजोर वर्गों को दबाने वाली असमानता को दूर करने के लिए प्रारम्भ किए गये बड़े आन्दोलन के एक अंग के रूप में स्त्रियों की मुक्ति हेतु सही परिप्रेक्ष्य में आंदोलन को नेतृत्व प्रदान करने का काम महात्मा गाँधी व स्वतंत्रता आंदोलन पर छोड़ दिया गया ।

भारतीय राजनीति में महिलाओं की भूमिका (Role of Women in Indian Politics):

स्त्रियों की राजनीतिक स्थिति का पता इस बात में चल सकता है कि सत्ता के स्वरूप निर्धारण और उसके भाग लेने के मामले में उन्हें कितनी समानता और आजादी प्राप्त है और इस संदर्भ में उनके योग को समाज कितना महत्व देता है ।

भारतीय संविधान में स्त्रियों की राजनीतिक सत्ता को मान्यता दिया जाना न केवल परम्परागत भारतीय समाज से विरासत में प्राप्त प्रतिमानों की अपेक्षा एक बिल्कुल नया कदम था ।

अपितु उस समय के सर्वाधिक उन्नत देशों के राजनीतिक आदर्शों से भी बढ़कर था (समाजवादी देशों को छोड़कर संसार में किसी अन्य राज्य ने स्त्रियों की समता को स्वाभाविक रूप से स्वीकार नहीं किया) स्त्रियों की राजनीतिक समता की प्राप्ति में मुख्य रूप से दो प्रमुख शक्तियां राष्ट्रीय आन्दोलन तथा महात्मा गाँधी का नेतृत्व उत्प्रेरकों का काम किया था ।

19वीं शताब्दी के सुधार आंदोलनों के प्रयत्न परम्परागत पारिवारिक ढांचे में ही स्त्रियों की स्थिति सुधारने तक सीमित थे । किन्तु 19वीं और 20वीं शताब्दी के संधि स्थल पर स्त्रियों का एक छोटा वर्ग अपने घरों से बाहर समाज कल्याण की गतिविधियों में विशेषत: स्त्री शिक्षा समाज में दुर्बल वर्गों के कल्याण और संकटग्रस्त लोगों की सहायता से कार्य में स्वेच्छा से भाग लेने लगा ।

इससे भी छोटे एक समूह ने क्रान्तिकारी आंदोलन में भाग लिया, 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में महिला संगठनों का प्रादुर्भाव हुआ और उन्होंने राजनीतिक अधिकारी की मांग शुरू की, 1917 में श्रीमती सरोजनी नायडू के नेतृत्व में भारतीय महिलाओं की एक प्रतिनिधि मंडल ने ब्रिटिश संसद में पुरुषों के साथ समता के आधार पर स्त्रियों के मताधिकार दान के लिए मांग पेश की ।

1921 के सुधार अधिनियम ने केवल उन गृहिणियों को मताधिकार दिया जो संपन्न तथा शिक्षित थी । विदेशी शासकों को यह विश्वास ही नहीं होता था कि भारतीय समाज भी कभी स्त्रियों को पुरुषों का बराबर का साझीदार मानेगा ।

वे स्वयं भी स्त्रियों को एक अलग राजनीतिक शक्ति नहीं मानते थे । महात्मा गाँधी का दृष्टिकोण इन सभी दृष्टिकोणों से अलग से अलग था । उन्होंने स्वयं को स्त्रियों के अधिकारी के मामले में किसी तरह का समझौता न करने वाला घोषित कर दिया था ।

उनका विश्वास था कि समाज के पुनर्निर्माण में स्त्रियों को एक सुनिश्चित भूमिका अदा करनी है और सामाजिक न्याय पाने के लिए उनकी समता के अधिकार को मान्यता देना एक अनिवार्य कदम है । स्त्रियों के मताधिकार दान को भी उन्होंने अपना सतत् और संपूर्ण समर्थन दिया था ।

स्वतंत्रता आंदोलन में स्त्रियों के भारी संख्या में भाग लेने के साथ मिलकर गांधीजी के इस प्रयास ने राजनीतिक और सामाजिक संभ्रान्त वर्ग पर जिसमें इन वर्गों की स्त्रियां भी सम्मिलित थीं, प्रत्यक्ष प्रभाव डाला । 1930 में प्रतिनिधि महिला संगठनों की एक बैठक में स्त्री-पुरुष के भेद भाव के बिना वयस्क मताधिकार की तत्काल स्वीकृति की मांग की ।

हालांकि सरकार ने इस मांग को ठुकरा दिया किन्तु 1931 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसी करांची अधिवेशन ने इसे मान लिया और स्त्रियों की राजनीतिक समता के लिए उनकी स्थित और योग्यताओं का विचार किए बिना प्रयत्न करने का बीड़ा उठाया ।

यह वचन स्वतंत्रता के बाद पूरा हुआ जब संविधान ने राष्ट्रों को समता के सिद्धान्तों का पालन करने और व्यक्ति की प्रतिष्ठा का आदर करने का वचन दिया तथा राजनीतिक एवं विधिक समता के बारे में स्त्रियों के मौलिक अधिकारों की घोषणा की और सरकार के अधीन रोजगार और कार्यालयों में भेट भाव का व्यवहार न होने देने का विश्वास दिलाया । भारत की आजादी के बाद के वर्षों में भी इन अधिकारी को स्थिति व अवसरों की सामान्य समता तथा सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय प्राप्त करने का साधन माना गया ।

स्त्रियों की राजनीतिक स्थिति का निर्धारण करने के लिए तीन मुख्य कसौटियां अपनाई जा सकती हैं:

(i) चुनावों में मतदाताओं और उम्मीदवारों की हैसियत से राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेना ।

(ii) राजनीति में सजगता, वचनबद्धता और सक्रिय सहभागिता जैसे राजनीतिक दृष्टिकोण को अपनाना तथा राजनीतिक कार्यवाही और व्यवहार में स्वायत्तता का निर्वाह करना ।

(iii) राजनीतिक प्रक्रिया पर उनका प्रभाव जानना ।

निर्णय निर्माण प्रक्रिया की दृष्टि से महिलाओं की भागीदारी के संदर्भ में विकासशील राष्ट्र विकसित राष्ट्रों से आगे है । कितने ही विकसित कहलाए जाने वाले राष्ट्रों में महिलाओं को मताधिकार की प्राप्ति आसानी से नहीं हुई है ।

उदाहरण के तौर पर, न्यूजीलैण्ड में 1983 में महिलाओं को पूर्ण मताधिकार दिया गया, 1902 में आस्ट्रेलिया में, फिनलैण्ड में 1966 में और नार्वे में यह अधिकार 1913 में प्रदान किया गया ।

प्राचीनतम प्रजातांत्रिक देश इंग्लैण्ड में बहुत लम्बे संघर्ष के पश्चात् ही महिलाओं को यह अधिकार प्राप्त हुआ । 1918 में पुरुषों के मताधिकार की आयु 21 वर्ष तथा महिलाओं की 30 वर्ष थी । 1928 में यह आयु सबके लिए 21 वर्ष कर दी गई ।

कल्पना शर्मा के अध्ययन के अनुसार प्रथम विश्व के राष्ट्र विशेषतया अमेरिका में विभिन्न राजनीतिक कार्यालयों (अधिकतर राज्य तथा नगरपालिका स्तर पर) में से केवल 15% कार्यालयों में ही महिलायें कार्य करती हैं । वहां की कांग्रेस में 535 सीटो में से केवल 47% प्रतिनिधित्व ही महिलाओं का है तथा 100 में से केवल दो सीनेटर ही महिलाएं हैं ।

महिलाओं का शैक्षिक परिदृश्य (Women’s Educational Scenario):

मानव जीवन में शिक्षा के माध्यम से वे सभी रास्ता खुल जाते हैं, जो सामाजिक दृष्टिकोण से आवश्यक है । महिलाओं की शिक्षा का स्तर देश में महिलाओं की वर्तमान व भावी स्थिति को समझने हेतु महत्वपूर्ण घटक हैं ।

मानव जाति के इतिहास से विदित होता है कि एक समय में जीवन इतना साधारण था कि किसी को लिखने-पढ़ने व सीखने की आवश्यकता ही नहीं थी । किन्तु जैसे-जैसे मानवीय क्रिया-कलापों में जीवन की जटिलताएं बढ़ी ज्ञान-विज्ञान की उन्नति हुई और मानव आज विज्ञान की उन्नति के शिखर पर पहुंच गया, शिक्षा आवश्यकता बलवती हो गई ।

किन्तु ज्यादातर महिलायें इस प्रक्रिया में लाभ प्राप्त न कर सकी । शहरी व ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में निर्धन वर्ग की महिलाएं इस प्रक्रिया में काफी पीछे रह गईं । यही कारण था कि वे पूर्णतः पुरूषाधीन तथा जीवन के प्रत्येक क्षत्र यथा आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक क्षेत्र में शोषण व अत्याचारों का शिकार हुईं ।

वैदिक युग की गार्गी मैत्रेयी के समान उच्च-स्तरीय ज्ञान-विज्ञान की विदूषियां घर की चार दीवारी में कैद होकर रह गईं । किन्तु यदि गहराई से इस शोषण, दमन व अत्याचार के कारणों का विश्लेषण किया जाए तो समाज में महिलाओं की शैक्षिक स्थिति ही इसके लिए जिम्मेदार है ।

महिलाओं में शिक्षा के अभाव का तात्पर्य उसमें आत्म-निर्भरता तथा आत्म-विश्वास की कमी है जिसके कारण वह अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं नहीं कर पाती है । महिलाओं का शिक्षित होना अति आवश्यक है क्योंकि वह परिवार को शिक्षित करती है ।

गांधीजी ने कहा था कि एक लड़की को शिक्षा एक लड़के की शिक्षा की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हैं क्योंकि लड़के को शिक्षित करने पर वह अकेला शिक्षित होता है किन्तु लड़की की शिक्षा से पूरा परिवार शिक्षित हो जाता है । किन्तु वर्तमान समय में भी भारत में शिक्षा के क्षेत्र में पुरुष व महिलाओं के बीच भेदभाव किया जाता है ।

पुरुष की शिक्षा-दीक्षा को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है, उनकी शिक्षा पर गर्व किया जाता है तथा उन्हें शिक्षा ग्रहण करने हेतु सुविधाएं प्रदान ही जाती हैं जबकि यदि कोई महिला बिना किसी विशेष सुविधा के भी शिक्षा ग्रहण करना चाहे तो उसे प्रताड़ित किया जाता है ।

उसे पढ़ने के लिये समय नहीं दिया जाता, उसकी शिक्षा को व्यर्थ समझा जाता है । अधिकांश लोग शिक्षा को चूंकि नौकरी प्राप्त करने का साधन मात्र समझते हैं ।

अत: वे लड़की के शिक्षा प्राप्त करने को सामाजिक दृष्टि से हेय समझने लगते हैं । अधिक शिक्षित होने पर विवाह तथा दहेज संबंधी समस्याएं उपस्थित होने के भय से भी लोग लड़कियों को शिक्षा देना उचित नहीं समझते हैं ।

ग्रामीण व निर्धन क्षेत्रों में पर्याप्त मात्रा में आय न होने कारण परिवार के सभी सदस्यों को दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आर्थिक क्रियाओं में संलग्न होना पड़ता है, अत: या तो छोटी लड़कियां अपनी माता के काम पर जाने के पश्चात् परिवार की देखभाल करती हैं अथवा आर्थिक क्रियाओं में भागीदार बनकर परिवार में भरण-पोषण में सहायता करती है ।

अत: उनका विद्यालय जाना परिवार के हित में नहीं होता । यही कारण है कि निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था होने पर भी वे साक्षर तक नहीं हो पातीं और यदि शिक्षा की दृष्टि से परिवार में कभी विचार किया भी जाता है तो प्रथम अवसर लड़की को ही दिया जाता है और महिला अभ्यर्थी इच्छुक होते हुए भी शिक्षा से वंचित रह जाती है ।

शिक्षा की दृष्टि से महिलाओं की स्थिति को नीचे दिये गये तीन निर्धारकों के द्वारा नापा जा सकता है:

(i) साक्षरता दर (Literacy Rate):

विश्व में निरक्षरों की संख्या का अनुमान 850 मिलियन लगाया गया है जिसका 50 प्रतिशत भारत में निवास करता है और यदि महिलाओं की साक्षरता दर की बात करें तो स्थिति निश्चित रूप से चुनौतीपूर्ण है । दुनियां के प्रत्येक तीन निरक्षरों में से दो महिलाएं हैं ।

1981 की संगणना के अनुसार भारत में पुरुषों की साक्षरता दर 56.37 प्रतिशत व महिलाओं की केवल 29.75 प्रतिशत तथा 1991 में पुरुषों की साक्षरता दर 63.86 प्रतिशत व महिलाओं साक्षरता दर 39.42 प्रतिशत है ।

कुछ क्षेत्रों में यह दर 5 प्रतिशत से भी नीचे है । 6 से 14 वर्ष की आयु के लगभग 50 मिलियन बच्चों ने अभी स्कूल में भी कदम नहीं रखा है जिसमें से लगभग 71 प्रतिशत लड़कियां हैं । एक अनुसंधान द्वारा विदित हुआ है कि जो बच्चे प्रथम कक्षा में प्रवेश पाते हैं उनमें से 64 प्रतिशत प्राथमिक शिक्षा पूरी होने से पहले ही विद्यालय छोड़ देते हैं तथा 77 प्रतिशत विद्यार्थी उच्च प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने से पहले ही विद्यालय छोड़ देते हैं ।

एक तरफ जहां साक्षरता दर वाद रही है वही एक तरफ महिलाओं की निरक्षता दर भी बढ़ रही है । भारत में 1951 में 158.7 मिलियन महिलाएं निरक्षर थीं जबकि 1981 में यह संख्या 241.7 मिलियन (असम को छोड़कर) हो गई जो 1981 में कुल निरक्षरों की जनसंख्या का 57 प्रतिशत है जिसमें से 70 प्रतिशत लड़कियां ऐसी हैं जिनका कभी विद्यालय में प्रवेश ही नहीं कराया गया ।

महिलाओं व पुरुषों के मध्य साक्षरता दर का अंतर 1951 में 17 प्रतिशत से बढ़कर 1991 में 18.4 प्रतिशत हो गया । भारत के विभिन्न राज्यों में साक्षरता दरों की स्थिति में बहुत अधिक विषमताएँ दिखाई देती है ।

जहां एक ओर वर्ष 1991 की संगणना के अनुसार केरल राज्य में साक्षरता दर का अनुपात सर्वाधिक 90.59 प्रतिशत पाया गया है वहीं न्यूनतम साक्षरता दर (38.54 प्रतिशत) वाला राज्य विहार है । राजस्थान में यह दर 38.81 प्रतिशत पायी गई है ।

महिला साक्षरता दर की स्थिति पर दृष्टिपात करने पर विदित होता है कि केरल में यह दर सर्वाधिक 86.93 प्रतिशत है जबकि न्यूनतम महिला साक्षरता दर राजस्थान राज्य में 20.84 प्रतिशत हैं ।

कुछ एशियाई देशों जैसे पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल आदि की स्थिति को देखा जाये तो हम पाएंगे कि भारत यद्यपि महिलाओं की साक्षरता दर में उनसे बेहतर स्थिति का दावा कर सकता है तथापि 1970 व 1985 के मध्य एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिणी अमेरिका के अनेक देशों में महिला साक्षरता दर में भारत की अपेक्षा अत्यधिक तीव्र गति से वृद्धि हुई है ।

यह दर भारत में 20 प्रतिशत से बढ़कर 29 प्रतिशत हो गई जबकि अन्य देशों जैसे ईरान, ईराक, तंजानिया, केमरून, घाना लीबिया कांगो, कन्या, अल्जीरिया तथा एशिया व अफ्रीका महाद्वीप के अन्य अनेक देशों में 1970 में यह दर भारत की अपेक्षा अधिक बढ़ी है । लेकिन अमेरिका के अधिकांश देश जहां महिला साक्षरता दर पहले ही काफी ऊंची थी अपनी स्थिति को और अधिक मजबूत बनाने के प्रयास लगे हुए है ।

(ii) सकल पंजीकरण अनुपात (Gross Registration Ratio):

प्रायः बच्चे कई आर्थिक व सामाजिक कारणों से प्राथमिक शिक्षा भी ग्रहण नहीं कर पाते और प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करना तो दूर, अधिकांशतः गांवों में तो बच्चों का विद्यालय में पंजीकरण भी नहीं हो पाता ।

आंकड़ों से पता चलता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से 6 से 11 वर्ष की आयु के तीन बच्चों में से केवल एक अर्थात् कुल बच्चों की संख्या का 1/3 भाग तथा 11-14 वर्ष की आयु के 11 में से केवल अर्थात् कुल संख्या का 1/11 भाग ही विद्यालय में अपना पंजीकरण करवा पाता था ।

1981 में प्राथमिक स्तर पर 6-11 वर्ष की आयु में 83% बच्चों का (73 मिलियन) पंजीकरण कराया गया तथा 11-14 की आयु के 40% बच्चों (19.8 मिलियन) का उच्च प्राथमिक स्तर पर पंजीकरण करवाया गया, जिसमें से लड़कियां क्रमशः 28.58 मिलियन (65.9%) तथा 7.084 मिलियन (29.10%) ही है ।

1984-85 में प्राथमिक स्तर पर कुल (83.93 मिलियन), उच्च प्राथमिक स्तर पर 50.6% (26.15 प्रतिशत) बच्चों का पंजीकरण किया गया जिसमें से लड़कियों का प्रतिशत क्रमश: 76.7% (33.19 मिलियन) तथा 36.3% (90.68 मिलियन) था ।

सैकण्डरी स्तर पर इस वर्ष में 49.37% लड़कियों का पंजीकरण हुआ जिसका लड़कों की संख्या से अनुपात 100:44 था । देश के विद्यालयों की संख्या में पंजीकरण में वृद्धि के परिणामस्वरूप वृद्धि हुई है ।

फलत: आजकल लगभग 98% बच्चों को उनके निवास स्थान के समीप ही कोई न कोई प्राथमिक विद्यालय पंजीकरण की सुविधा हेतु उपलब्ध हो जाता हे तथा दो तिहाई बच्चों को उनके निवास के समीप ही उच्च प्राथमिक स्तर पर पंजीकरण की सुविधा उपलब्ध हो जाती है ।

हालांकि विद्यालय में पंजीकरण के प्रतिशत में वृद्धि हुई है फिर भी जिन बच्चों का पंजीकरण संभव नहीं हो पाता उनमें अधिकांश लड़कियां हैं । अभी भी 6-11 वर्ष की आयु की एक तिहाई तथा 11-14 वर्ष की आयु के 89% से अधिक लड़कियां स्कूल में प्रवेश नहीं ले पाती और राजस्थान में लगभग 70 प्रतिशत बालिकाएं इस सुविधा से वंचित रहती हैं ।

ग्रामीण क्षेत्र में यह अनुपात न्यूनतम हिमाचल प्रदेश में 28 प्रतिशत तथा अधिकतम नागालैण्ड में 98 प्रतिशत है । भारत में 1983-86 में महिलाओं व पुरुषों के पंजीकरण का अनुपात 76:107 था जो कि माध्यमिक स्तर पर केवल 24:75 ही रह गया ।

महिला की प्राथमिक शिक्षा के आधार पर यदि भारत की तुलना विश्व के अन्य देशों से की जाए तो पता चलता है कि दुनियां के 131 देशों में से भारत का स्थान 84वां है ।

इस दृष्टि से भारत एशिया के अन्य विकासशील देशों जैसे कम्यूचिया, ईरान, इंडोनेशिया, टर्की, ईराक, वियतनाम, फिलीपीन्स, थाईलैण्ड, चीन, श्रीलंका तथा मलेशिया, अफ्रीका के अनेक देशों जैसे तंजानिया, नाईजीरिया, जाम्बिया, कीनिया, जिम्बाव्वे आदि तथा लेटिन अमेरिका में हैटी को छोड़ कर लगभग अन्य सभी देशों से काफी पीछे है ।

एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के कुछ देशों में तो महिलाओं के पंजीकरण का अनुपात 100 तक हो गया है । यदि अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के पंजीकरण पर ध्यान दिया जाये तो पता चलता है कि उनके पंजीकरण का अनुपात कुल पंजीकरण के अनुपात से बहुत कम है ।

यद्यपि अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या देश की कुल जनसंख्या का केवल 15 प्रतिशत तथा 8 प्रतिशत ही है । प्राथमिक स्तर पर इनके पंजीकरण का अनुपात कुल का केवल क्रमशः 11 प्रतिशत तथा 5 प्रतिशत ही है । उच्च प्राथमिक स्तर पर तो उनकी स्थिति और भी खराब है ।

इस स्तर पर यह प्रतिशत कुल का केवल 8 प्रतिशत तथा 3 प्रतिशत ही है । अनुसूचित जाति के केवल 56 प्रतिशत तथा अनुसूचित जनजाति के 78 प्रतिशत बच्चे प्राथमिक स्तर पर विद्यालय की सुविधाएं प्राप्त करते हैं जबकि उच्च प्राथमिक स्तर की सुविधाएं क्रमशः 13% तथा 21% बच्चों को ही प्राप्त ही पाता है ।

(iii) विद्यालय से निष्कासन का अनुपात (School Drop Out Ratio):

हालांकि भारत में आजादी के बाद पंजीकरण की दर में काफी वृद्धि हुई है तथापि जनसामान्य की विपरीत आर्थिक परिस्थितियों, निम्न जीवन स्तर, रूढ़िवादी विचारों तथा अनेक सामाजिक व आर्थिक समस्याओं, शिक्षा प्रणाली की प्रक्रिया, शर्तें, समानता के अवसर, पाठ्यक्रम तथा अनुदेशों की आवश्यकता आदि के कारण बच्चों का पंजीकरण होने के बावजूद उनका अध्ययन जारी नहीं रह पाता तथा उनका नियमित अध्ययन नहीं हो पाता ।

1978 के आंकड़ों से पता चलता है कि प्राथमिक स्तर पर ही लगभग 62% विद्यार्थियों को अध्ययन से वंचित रहना पड़ता है । यह दर कम नहीं हो पा रही है । माध्यमिक स्तर पर यह दर 78% पर स्थिर है । भारत की अपेक्षा चीन में प्राथमिक स्तर पर यह दर 34% पर स्थिर है ।

सन् 1971 ई. में जीतने बच्चों का पंजीकरण प्रथम कक्षा में हुआ था उनमें से मात्र 37 प्रतिशत विद्यार्थी ही पंचम कक्षा तक पहुँच पाते हैं तथा प्राथमिक स्तर पर 23% ही अध्ययनरत रह पते हैं । 1980 में प्राथमिक स्तर पर 63% विद्यार्थी तथा अन्य स्तर पर 77 प्रतिशत विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाये थे ।

वर्तमान में स्त्री शिक्षा की स्थिति की समीक्षा (Present Status of Women Education):

स्त्री शिक्षा की वर्तमान स्थिति को विभिन्न बिन्दुओं के अंतर्गत स्पष्ट किया जा सकता है ।

जिनमें से निम्नलिखित प्रमुख हैं:

1. राष्ट्रीय महिला आयोग (National Women Commission):

सन् 1990 में राष्ट्रीय महिला आयोग कानून पारित किया गया । इसमें एक अध्यक्ष, एक सचिव एवं पाँच पूर्णकालिक सदस्य थे । यह आयोग 31 जनवरी 1992 से प्रभावी हुआ ।

इस आयोग को निम्न कार्य सौंपे गये:

(i) महिलाओं को कानूनी सुरक्षा प्रदान की गयी है । उन्हें कारगर ढंग से लागू करने के उपाय सुझाना ।

(ii) महिलाओं को प्रभावित करने वाले कानूनों में कमी, अपर्याप्त या त्रुटि पर संशोधन के भी सुझाव देना ।

(iii) महिलाओं की शिकायतों पर ध्यान देना एवं जहाँ कानूनों का उल्लंघन होता है । समस्याओं को सम्बन्धित अधिकारी तक पहुँचाना ।

(iv) सुधर गृहों, जेलखानों व अन्य म्यानों पर उनके पुनर्वास तथा दशा सुधरने के बारे में सिफारिशें करना ।

(v) महिलाओं को आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए योजनाएं बनाने के लिए प्रक्रिया में भाग लेना ।

2. गोष्ठी का आयोजन (Organizing the Seminar):

सात व आठ अक्टूबर 1992 को बालिकाओं के रेप व बलात्कार के संबंध में आयोग ने एक सभा का आयोग किया जिसमें घृणित अपराध की घटनाओं की रोक-थाम के उपायों पर विचार किया गया था ।

मार्च 1993 में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए महिला परिप्रेक्ष्य पर गोष्ठी हुई जिससे समाचार पत्रों व मुद्रित सामग्री के बारे में जागरूकता पैदा करना है । स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व भारत में प्रौढ़ शिक्षा का प्रचार बहुत ही कम था ।

सन् 1921 के अधिनियम के अनुसार प्रान्तों में शिक्षा को जनप्रिय मन्त्रियों के हाथों में सौंप दिया गया परन्तु 1921 में आर्थिक संकट के कारण प्रगति न हो सकी । विभिन्न प्रान्तों में समय-समय पर साक्षरता के लिए आन्दोलन किये गये ।

इस काल में ईसाई मिशनरियों ने प्रौढ़ शिक्षा के प्रसार का कार्य बड़े साहस एवं लगन के साथ किया । स्वतन्त्रता के पूर्व ही विभिन्न प्रौढ़ शिक्षा समितियाँ बनीं, जिन्होंने इस क्षेत्र में काफी लगन के साथ कार्य किया ।

3. नामांकन में वृद्धि (Increase in Enrollment):

स्त्रियों व बालिकाओं के नामांकन में विकास करने के लक्ष्य से सरकार द्वारा विभिन्न प्रकार की योजनाएं पारित की गयी । परन्तु उनकी पूर्ण जानकारी आम जनता को न होने के कारण वह पूर्णतः इसे गति देने में असफल साबित हुई । प्राप्त आँकड़े दर्शाते हैं कि वर्ष 1978-79 में 6 से 14 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों में नामांकन न कराने वाली लड़कियों की संख्या 66 प्रतिशत थी ।

4. राष्ट्रीय समिति का गठन (Constitution of National Committee):

शिक्षा आयोग भारत सरकार द्वारा स्त्रियों की शिक्षा के लिए राष्ट्रीय समिति ने 1974 में अपनी 13वीं बैठक में निम्नलिखित मुख्य सिफारिशें कीं:

(i) महिला शिक्षकों के लिए शहरों और नगरों में स्टाप क्वाटर्स बनाये जाने चाहिए तथा उन्हें पूरी सुरक्षा प्रदान किये जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए ।

(ii) लड़कियों के नामांकन में वृद्धि हेतु विशेष सुविधाएं उपलब्ध करायी जाएं ।

(iii) स्थानीय महिलाओं को शिक्षक के रूप में कार्य करने हेतु प्रेरित करने का प्रयास किया जाए ।

(iv) महिलाओं को शिक्षण प्रशिक्षण कण्डेन्स कोर्स के द्वारा प्रदान किया जाए ।

(v) ऐसी बालिकाओं के लिए जो बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़ देती हैं ऐसा पाठ्यक्रम तैयार करना चाहिए जिसे वे अनौपचारिक शिक्षा के रूप में ग्रहण कर सकें ।

(vi) केन्द्र द्वारा राज्य सरकारों तथा स्वायत्त सेवी संस्थाओं को अनुदान के रूप में स्त्री शिक्षा के विकास हेतु विशेष धनराशि प्रदान की जाए ।

यह बहुत खुशी की बात है कि केन्द्र सरकार स्त्रियों की परेशानियों को देखा और पाया है कि ज्यादातर स्त्रियाँ आज भी शैक्षिक और आर्थिक विषमताओं से प्रभावित हैं लेकिन यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि स्त्री शिक्षा के लिये बनायी गयी योजनाएं ठीक प्रकार से लागू न हो पायीं और कोई भी सकारात्मक विकास महिलाओं के जीवन एवं शिक्षा में न हो पायी ।

18 मई 1975 को भारतीय महिलाओं के सामाजिक स्तर सम्बन्धी समिति की रिपोर्ट राज्य सभा के पटल पर रखी गयी । इस पर बोलते हुए तत्कालीन शिक्षा मंत्री नुरूल हसन ने कहा कि- ”पिछले 28 वर्षों में स्त्रियों की दशा में व्यापक सुधार आया है । उन्हें संविधान ने पूरी सुरक्षा के साथ-साथ कई शैक्षिक योजना में भी सहभागी बनाया है तथा कानूनी मापदण्ड भी उनकी प्रगति में सहायक हुए हैं ।”

भारत की भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के शब्दों में किसी वर्ग समाज का स्तर वहां के स्त्रियों से पता लगाया जा सकता है । आज की पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियां अपना जीवन-यापन कर रही है । उन्हें जन्म लेकर जीवनपर्यन्त हर क्षेत्र में इस मानसिकता से गुजरना पड़ता है ।

चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो अथवा समाज में रहने की बात । महिलाओं का निम्न स्तर अथवा उन्हें विकास की कम सुविधाएं उपलब्ध कराना समाज को विकलांग बना देता है । संसद में स्त्रियों की दशा की सही तस्वीर प्रस्तुत करते हुए राजा देशपाण्डे ने कहा कि यह वर्ष महिला वर्ष है ।

मैं जानना चाहूंगी कि सरकार महिलाओं के बारे में क्या सोच रही है । यदि आपका उत्तर यह है कि आप उन्हें पुरुषों के समान ही स्तर प्रदान कर रहे हैं तो मैं आपके प्रति आभारी हूँ । मैंने देखा है कि बहुत से स्थानों पर ऐसे स्कूल तथा होस्टल हैं ।

जहां बालिकाएं स्वयं रहकर पढ़-लिख सकती हैं । परन्तु यदि गाँवों में जाकर हम बालिकाओं की शिक्षा के बारे में देखें तो स्थिति पूर्णतः विपरीत है । वहाँ बालिकाओं का विद्यालय भेजना किसी पर उपकार समझने हैं ।

हमें यह स्थिति बदलनी होगी । ऐसे में हमें विद्यालय तथा छात्रावासों की संख्या को बढ़ाना चाहिए जहाँ बालिकाओं को ऐसी सुविधाएँ उपलब्ध हों । विशेष रूप से इस महिला वर्ष में हमें बालिकाओं की शिक्षा पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है ।

5. साक्षरता में वृद्धि (Increase in Literacy):

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद प्रौढ़ शिक्षा के नाम को बदलकर समाज शिक्षा कर दिया गया । इसका उद्देश्य साक्षर बढ़ाना ही नहीं वरन् नागरिकता में इनमें लगातार वृद्धि हुई फिर भी अपने देश में आज भी प्राथमिक शिक्षा जिस दुर्दशा को प्राप्त है वह चिन्ताजनक है ।

ऊपर दिये गये सूची से यह स्पष्ट होता है कि 1951 में 17% आबादी पढ़ी लिखी थी और 50 साल बाद अर्थात 2001 में मात्रा 65% आबादी ही साक्षर वन सकी अर्थात् आज भी अत्यधिक लोग अनपढ़ है । जिसमें महिलाओं की स्थिति तो और भी असन्तोषजनक है । विश्व बैंक ने भारत की प्राथमिक शिक्षा योजना को पर्याप्त सफल माना है ।

महिलाओं का स्वास्थ्य (Women’s Health):

महिलाओं की स्थिति की सच्चाई को जानने के लिए उनकी स्वास्थ्य संबंधी दृष्टिकोण को जानना अत्यंत महत्वपूर्ण है ।

स्वास्थ्य संबंधी दृष्टिकोण के तहत निम्नलिखित तथ्यों को समाविष्ट किया जाता है:

i. पोषाहार (Nutrition):

भारत की कुछ जनसंख्या का लगभग 40 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे अपना जीवन व्यतीत कर रहे है । ऐसी स्थिति में निर्धनता की रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाली जनसंख्या के लिए दोनों वक्त की रोटी जुटा पाना भी मुश्किल होता है ।

जो लोग दोनों वक्त का खाना जुटा भी पाते हैं, उनके समक्ष जीवन की अनेक ऐसी अनिवार्यताएं मुंह बाए खड़ी होती है जिन्हें पूरा करना पोषाहार की तुलना में अधिक आवश्यक होता है । अत: हमारे देश की जनसंख्या का अधिकांश भाग कुपोषण का शिकार है ।

यही कारण है कि देश की लगभग 50 प्रतिशत लड़कियां व 20 प्रतिशत लड़के 1 से 5 वर्ष की आयु में ही कुपोषित हो जाते हैं । पुरुष व स्त्री के आहार में भिन्नता का पाया जाना कुपोषण का सबसे अधिक प्रमुख कारण है ।

अधिकांश परिवारों में महिलाओं को जहां अत्यधिक क्रिया-कलापों का संपादन करना पड़ता है, उनकी खुराक पर पुरुषों की अपेक्षा बहुत कम ध्यान दिया जाता है । भले ही पुरुषों का क्रिया-कलाप महिलाओं की तुलना में सीमित ही क्यों न हो ।

यहां तक कि परिवार के बच्चों में भी जहां छोटी-छोटी लड़कियों से गृहस्थी के कार्यों में हाथ बंटाने, छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी सँभालना तथा अनेक परिश्रम करने वाले कार्य करने की अपेक्षा की जाती है ।

वहीं उनके भोजन में पुरुषों से बची हुई सामग्री ही सम्मिलित होती है तथा लड़कों को किसी प्रकार का परिश्रम करने पर भी यह कहकर अच्छी खुराक दी जाती है कि वे कुल दीपक हैं, उन्हें ही घर की जिम्मेदारी उठानी है तथा वे पढ़ाई-लिखाई तथा आर्थिक क्रियाओं का संपादन करके लड़कियों व महिलाओं की अपेक्षा अधिक परिश्रम करते हैं ।

अत: प्रारम्भ से ही लड़कियां कुपोषण का शिकार हो जाती है तथा मातृत्व ग्रहण करने पर यह आने वाली पीढ़ी को उत्तराधिकार मैं मिलता है जिसके कारण अनेक जानलेवा बीमारियों माता व बच्चे को हो जाती है ।

आहार में उचित मात्रा में कैलोरी, प्रोटीन, विटामिन, वसा, खनिज, लवण, आयरन तथा कार्बोहाइड्रेट न मिल पाने के कारण भी कुपोषण होता है तथा इन पौष्टिक तत्वों में से एक ही भी उचित मात्रा के अभाव में उसकी कमी के कारण बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती है ।

कुपोषण के कारण बच्चों को अनेक शारीरिक व मानसिक अयोग्यता से गुजरना पड़ता है । एक अनुमान के अनुसार 12 मिलियन बच्चे प्रतिवर्ष मानसिक बीमारियों का शिकार हो जाते हैं तथा 20,000 बच्चे विटामिन एक की कमी से अंधे हो जाते हैं ।

ग्रामीण क्षेत्रों में पाँच वर्ष की उम्र से कम में ही बच्चे को पर्याप्त कैलोरी भी मुश्किल से प्राप्त होती है । 1 से 3 व 3 से 5 वर्ष की आयु के लगभग 34 से 50 प्रतिशत बच्चे एनीमिक पाए गए हैं ।

बच्चों के आहार में 75 प्रतिशत कैल्सियम, विटामिन ए तथा बी की कमी पाई जाती है । अज्ञानता व अशिक्षा भी कुपोषण का एक महत्वपूर्ण कारण है । अधिकांश लोगों को संतुलित आहार तथा इसकी आवश्यकता के कारणों के विषय में जानकारी नहीं होती है ।

वे यह नहीं जानते कि समान राशि व्यय करने पर भी वे किन आहारों का प्रयोग कर उचित मात्रा में कैलोरी प्राप्त कर स्वयं को तथा आगे आने वाली पीढ़ी को कुपोषण व उससे उत्पन्न भयंकर बीमारियों का शिकार होने से बच सकते हैं ।

भारत में महिलाओं की पौष्टिक स्थिति (विशेष तौर पर उन महिलाओं की जो कच्ची बस्तियों जनजातीय क्षेत्र में तथा अकालग्रस्त क्षेत्रों में तथा खेतिहर मजदूरों के परिवारों में रहती हैं) अत्यधिक दयनीय है ।

ऐसा अनुमान लगाया गया है कि भारतीय महिला औसतन आठ बार मातृत्व का गौरव प्राप्त करती है, औसतन 6 से 7 तक शिशुओं को जन्म देती है जिनमें से 4 से 6 तक बच्चे ही जीवित रह पाते हैं ।

इस प्रकार वह अपने मुनरुत्पादनकालीन जीवन के 30 वर्षों में से 16 महत्वपूर्ण वर्ष केवल मातृत्व धारण करने में ही व्यतीत कर देती है । इस प्रकार भारत करीब 140 मिलियन महिलाएं कुपोषण का शिकार है ।

अधिकांशतः यह कहा जाता है कि महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा कम श्रम करना पड़ता है विभिन्न अध्ययनों के आधार पर यह धारणा सिद्ध हुई है तथा यह पाया गया कि ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुषों, महिलाओं व बच्चों के श्रम के योगदान का अनुपात 31:53:16 प्रतिशत का है ।

ग्रामीण क्षेत्रों में भी ज्यादातर महिलाएं घर के कार्यों का सम्पादन करने के पश्चात् खेती पर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करती है । किन्तु जब तक सामाजिक अवधारणाएं नहीं बदल जातीं महिलाएं इसी तरह अपने जीवन में कुपोषण का शिकार होती रहेंगी ।

ii. जनसंख्या की वार्षिक दर (Annual Rate of Population):

जनसंख्या की दृष्टिकोण से भारत विश्व का द्वितीय बड़ा राष्ट्र है और अभी भी देश की जनसंख्या में सतत् वृद्धि होती जा रही है, जिसका सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव महिलाओं के स्वास्थ्य, उनके जीवन-स्तर, उनकी सामाजिक, आर्थिक तथा मानसिक स्थिति पर पड़ रहा है ।

1971-81 की अवधि में भारत में जनसंख्या वृद्धि दर 2.24 थी जी कि 1985 में बढ़कर 2.28 हो गई जबकि लक्ष्य वृद्धि से देखा जाए तो 1985 में अनेक एशियाई देशों जैसे श्रीलंका, भूटान, इंडोनेशिया, थाइलैण्ड तथा चीन आदि की वृद्धि दर भारत की तुलना में काफी कम थी । 1981-91 में यह दर 2.11 प्रतिशत रही । यदि हमें स्वास्थ्य संबंधी लक्ष्यों को पूरा करना है तो हमें वृद्धि दर को कम करके 1.2 तक लाना होगा ।

iii. अपरिपक्व शिशु जन्म दर (Immature Infant Birth Rate):

भारत एक विकासशील देश है जिसे विकास प्रक्रिया में सम्मिलित होने के इतने वर्षों पश्चात भी आज तक महिलाओं को मानवीय पुनरुत्पादन की सुविधा प्राप्त करने की एक मशीन मात्र ही माना जाता है और उसी रूप में उसका उपयोग भी किया जाता है ।

यही कारण है कि भारत में अपरिपक्व शिशु जन्म दर बहुत अधिक है । 1921 में यह दर 33.3 प्रति हजार थी, जो 1971 में 36.9 तथा 1981 में 33.3 हो गई तथा 1991 में 30 हो गई ।

1971 में ग्रामीण क्षेत्र में यह जन्मदर 38.9 थी जो 1981 में गिरकर 34.8 तथा शहरी क्षेत्र में 1971 की 30.1 की तुलना में 1981 में 27.3 हो गई । भारत में विभिन्न राज्यों में भी अपरिपक्व शिशु जन्म दर में काफी अन्तर पाया गया ।

1985 में भारतीय की अपरिपक्व शिशु जन्म दर 33 थी जबकि लक्ष्य इस दर को 31 करने का था जो कि अनेक एशियाई देशों जैसे बर्मा, चीन, श्रीलंका, इंडोनेशिया और थाइलैण्ड की दर से कही अधिक थी । भारत में परिवार नियोजन कार्यक्रम पर 1951 से 1985 के बीच 2446.5 करोड़ रु. खर्च होने के बावजूद राजस्थान में 39.7 तथा न्यूनतम केरल में 23.3 आंकी गई ।

iv. कुल प्रजनन दर (Total Fertility Rate):

भारत में कुल प्रजनन दर सन् 1985 में 4.5 थी जो कि अन्य विकासशील राष्ट्रों बर्मा, थाईलैण्ड, चीन, श्रीलंका, इंडोनेशिया, फिलीपीन्स, टर्की तथा मलेशिया की तुलना में बहुत अधिक है । विश्व में सबसे कम प्रजनन दर जर्मनी गणराज्य की 1.4 है ।

चूंकि यह घटक महिलाओं के स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाला अत्यधिक महत्वपूर्ण घटक है, अत: हमारा लक्ष्य इस दर की तीन पर लाने का है । इस समय देश की सर्वाधिक प्रयास दर कुरल प्रजनन दर उत्तर प्रदेश में 6.2 तथा न्यूनतम केरल में 2.4 है ।

v. शिशु मृत्यु दर (Infant Mortality Rate):

महिलाओं के स्वास्थ्य व विकास की स्थिति का मापने का शिशु मृत्यु दर भी एक अत्यन्त महत्वपूर्ण घटक है । यह दर अनेक तत्वों यथा स्वास्थ्य सुविधाओं, परिवार की आर्थिक स्थिति तथा साक्षरता दर (विशेष तौर पर महिलाओं की) पर निर्भर करता है ।

यूनीसेफ द्वारा किये गये एक विश्लेषण से पता चलता है कि भारत में लगभग 50% बच्चों की मृत्यु 0-4 वर्ष की आयु में ही होती है । कुल मृतक बच्चों में से लगभग एक तिहाई की प्रथम वर्ष में, पाँचवें भाग की प्रथम माह में तथा लगभग दसवें भाग की जन्म के प्रथम सप्ताह में ही मृत्यु हो जाती है ।

शिशु मृत्यु दर के कई कारण है जैसे माताओं की देखभाल में असावधानी, मातृत्व ग्रहण करने के समय देखभाल, बच्चों के जन्म के पश्चात उनकी देखभाल तथा परिवार की सामाजिक व आर्थिक स्थिति, पोषण का स्तर आदि से है ।

यही कारण है कि विभिन्न राज्यों में उपर्युक्त घटकों की भिन्नता के कारण इस दर में अंतर पाया जाता है । भारत के विभिन्न राज्यों में वर्ष 1976-78 के आधार पर शिशु मृत्यु दरों के राज्य में कुल मृत्यु दरों से प्रतिशत में विभिन्नता पायी गई है ।

जहां एक और केरल राज्य में न्यूनतम शिशु मृत्यु दर 16.90 प्रतिशत होने का कारण वहां की साक्षरता दर है, वहीं उत्तर प्रदेश में शिशु मृत्यु दर का प्रतिशत सर्वाधिक 35.1 प्रतिशत है । शिशु मृत्यु दर का यह प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में और भी अधिक पाया गया है ।

ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में भी इसमें विभिन्नता पायी गई है । केरल में शिशु मृत्यु दर का प्रतिशत न्यूनतम होने के बावजूद ग्रामीण क्षेत्र में सर्वाधिक शिशु मृत्यु दर वाला राज्य उत्तर प्रदेश है जहां यह प्रतिशत 37.4 है । शहरी क्षेत्र में यहां शिशु मृत्यु दर का प्रतिशत 30 हीं है ।

वर्ष 1990 के अनुसार सर्वाधिक शिशु मृत्यु दर उड़ीसा में 123 शिशु प्रति हजार पायी गई है तथा न्यूनतम शिशु मृत्यु दर वाला राज्य केरल है जहां यह दर मात्र 17 शिशु प्रति हजार है जिसका कारण वहां की साक्षरता दर अधिक होने के कारण चिकित्सा सुविधाओं का अधिकाधिक उपयोग है । यह दर राजस्थान में 83 है जो भारत अपेक्षा अधिक है ।

vi. जन्म के समय जीवन की प्रत्याशा (Life Expectancy at Birth):

शताब्दी के प्रथम आठ दशकों में महिलाओं व पुरुषों की जन्म के समय जीवन की औसत प्रत्याशा में निरंतर वृद्धि हुई है । किन्तु आंकड़े दर्शाते हैं कि यह दर महिलाओं के लिए अत्यंत धीमी गति से बढ़ी है । वर्तमान समय में महिलाओं की जीवन प्रत्याशित आयु 1990 के अनुसार 59 वर्ष है जबकि फ्रांस में यह 81 वर्ष औसतन है । राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति का लक्ष्य स्त्री व पुरुष दोनों के लिए आयु 64 वर्ष करने का है ।

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