Read this article in Hindi to learn about the theory of disguised unemployment.

अल्प विकसित देशों में मानवीय श्रम का अत्याधिक उपव्यय किया जाता है । इन देशों में अधिकांश श्रम आशिक रूप में रोजगार में होता है अत: उन्हें अल्प रोजगार की स्थिति में कहा जा सकता है । कृषि से अतिरेक श्रम को वापिस लेकर, कृषि उत्पादन को विपरीत रूप से प्रभावित किये बिना, किसी अन्य स्थान पर नियुक्त किया जा सकता है । अदृश्य बेरोजगारी आंशिक अल्प रोजगार की वह स्थिति है जब श्रम शक्ति का बड़ा भाग उत्पादन में बहुत कम योगदान करता है ।

अदृश्य बेरोजगारी दो रूपों में विद्यमान होती है:

(i) कम उत्पादक कार्यों में लोगों का रोजगार ।

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(ii) किसी कार्य को करने के लिये आवश्यकता से अधिक श्रमिकों को नियुक्त करना ।

अल्प विकसित देशों में अदृश्य बेरोजगारी का स्वरूप भिन्न होता है । पहले तो यह दीर्घकालिक होती है न कि मौसमी अथवा चक्रीय । दूसरे यह मजदूरी श्रमिकों के स्थान पर स्व-रोजगार पर अधिक दबाव डालती है । तीसरे यह पूरक साधनों के अभाव के कारण होती है न कि प्रभावी मांग की कमी के कारण ।

ए. के. सेन के विचार (A.K. Sen’s View):

ए. के. सेन अदृश्य बेरोजगारी की धारणा से सहमत नहीं है । वह यह प्रश्न करते हैं कि- ”यदि किसी विस्तृत क्षेत्र में श्रम की सीमान्त उत्पादकता शून्य है तो श्रम को बिल्कुल लगाया ही क्यों जाता है ?”

उनके अनुसार, यह बात नहीं है कि उत्पादन प्रक्रिया में इतना अधिक श्रम खर्च किया जाता है परन्तु यह है कि बहुत से श्रमिक इसे खर्च कर रहे हैं । अत: अदृश्य बेरोजगारी ‘प्रति व्यक्ति कार्य के कम घण्टों’ का रूप ले लेती है । अदृश्य बेरोजगारी की मात्रा प्रतिदिन प्रति श्रमिक कार्य के घण्टों पर भी निर्भर करती है ।

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यह इस प्रकार श्रमिक की सीमांत उत्पादकता है जो विस्तृत क्षेत्र में शून्य होती है और श्रमिक की उत्पादकता सीमा पर केवल शून्य के बराबर हो सकती है । सेन इस अनार को रेखाचित्र 4.1 की सहायता से दर्शाते हैं ।

रेखाचित्र 4.1 में जब नियुक्त श्रम OM से आगे होता है कुल वक्र क्षैतिज बना रहता है । इसका अर्थ है कि श्रम का सीमान्त उत्पाद OM श्रम घण्टों से शून्य बन जाता है और इस बिन्दु के पश्चात श्रम की नियुक्ति का कोई लाभ नहीं होता ।

कृषि कार्यों में लगे श्रमिकों की संख्या OM है तथा प्रत्येक ‘tan a’ घण्टों के लिये काम करता है, परन्तु प्रत्येक श्रमिक के लिये कार्य के घण्टे ‘tan b’ है । इस प्रकार M2 M1 अदृश्य बेरोजगार श्रमिक है । यह दर्शाता है कि श्रम की सीमांत उत्पादकता H बिन्दु पर शून्य है और श्रमिक की M2 M1 विस्तार पर शून्य है ।

नर्कस का सिद्धान्त (Nurkse’s Theory):

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नर्कस का अदृश्य बेरोजगारी का सिद्धान्त अधिक जनसंख्या वाले अल्प विकसित देशों के लिये बनाया गया है जिनमें अदृश्य बेरोजगारी पूंजी निर्माण का स्रोत हो सकती है ।

इस सम्भाव्यता का परीक्षण हिरश्चमन (Hirschman) द्वारा इस प्रकार किया गया है- “विकास दिये हुये साधनों और कारकों के अनुकूलतम मिश्रणों को खोजने पर उतना निर्भर नहीं करता जितना कि अदृश्य साधनों और योग्यताओं को आमन्त्रित करके विकास के लिये प्रेरित करता है, जोकि पहले बिखरे हुये हैं अथवा बुरे ढंग से प्रयुक्त हो रहे हैं ।”

अल्पविकसित देशों में अतिरेक जनशक्ति पूंजी निर्माण का एक महत्वपूर्ण स्रोत हो सकती है । अतिरेक श्रम शक्ति को पूंजीगत परियोजनाओं जैसे सिंचाई, नालियों, सड़कों, रेल मार्गों, गृह निर्माण, कारखानों, प्रशिक्षण योजनाओं, समाज विकास, शिक्षा एवं स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में प्रयुक्त किया जा सकता है ।

“यद्यपि अतिरेक लोगों को कृषि से निकाल कर कहीं अन्य ले जाने की सम्भावना है वह जो कुछ भी उत्पादित करेंगे वास्तविक राष्ट्रीय आय में स्पष्ट वृद्धि होगी, परन्तु पूंजी के बिना वह क्या उत्पादित कर सकते हैं? बहुत कम, तब उन्हें वास्तविक पूंजी उत्पादन के कार्य पर क्यों न लगाया जाये ? वे इस प्रकार सोचते हैं की कृषि में अतिरेक जन शक्ति एक विस्तृत बचत सम्भाव्यता को छुपाये रखती है जिसका पूंजी निर्माण को स्रोत के रूप में लाभप्रद प्रयोग किया जा सकता है ।” –नर्कस

नर्कस ने अदृश्य बेरोजगारी की समस्याओं को बचत सम्भावनाओं के रूप में गतिशील बनाने के लिये दो भागों में बांटा है:

(क) विभिन्न पूंजी परियोजनाओं की ओर स्थानान्तरित अतिरेक जनसंख्या का पोषण कैसे किया जाये ?

(ख) नये श्रमिकों को काम करने के लिये उपकरण कैसे जुटाये जायें ?

अतिरेक श्रम शक्ति का पोषण देना (Feeding Surplus Manpower):

भूमि से पूंजी निर्माण परियोजनाओं की ओर स्थानान्तरित श्रमिकों का पोषण प्रथम समस्या है । विकासशील देशों में, अनुत्पादक अतिरेक श्रमिकों का पोषण उत्पादक श्रमिकों द्वारा किया जाता है ।

”उत्पादक श्रमिक वास्तव में बचत कर रहे होते हैं, क्योंकि अपने उपयोग से अधिक उत्पादन करते हैं । परन्तु बचत व्यर्थ हो जाती है, बचत निष्फल हो जाती जब इसका उन लोगों के अनुत्पादक उपभोग द्वारा विपथन हो जाता है जिससे छुटकारा पाया जा सकता है तथा जो उत्पादन में कोई योगदान नहीं करते । जब अनुत्पादक श्रमिकों की आहार व्यवस्था उत्पादक श्रमिकों द्वारा की जाती है तब उनकी वास्तविक बचत प्रभावी बचत बन जाती है जिसे पूंजी निर्माण के स्रोत के रूप में प्रयोग किया जा सकता है । इस प्रकार अदृश्य बेरोजगारी पूंजी निर्माण का स्रोत बन जाती है ।” –नर्कस

“एक प्रभाव छोड़ा जाता कि अदृश्य बेरोजगारी वास्तव में छिपा हुआ वरदान है, न कि औद्योगिकीकरण पर एक रोक ।” -के. के कुरीहारा

अदृश्य बेरोजगारी को, पूंजी निर्माण के एक स्रोत के रूप में प्रयोग किया जा सकता है । यदि अदृश्य बचत सम्भाव्यता की गतिशीलता 100 प्रतिशत सफल होती है तो अतिरेक श्रम को पूंजी निर्माण में स्थानान्तरित करने की प्रक्रिया आत्मनिर्भर हो जाती है ।

”कृषि पर निर्वाह करने वाले किसान को केवल अधिक खाने से रोकने के लिये यह कहने का प्रश्न ही नहीं उठता कि वह पहले से कम खाये । आवश्यकता इस बात की है कि वह अपने आश्रितों की आहार व्यवस्था करता रहे जो खेती को छोड़ कर पूंजी परियोजनाओं पर काम के लिये जाते हैं तथा जो अपने निर्वाह के लिये उत्पादक किसानों पर, फार्म पर रहते हुये अपनी निर्भरता बनाये रखते हैं ।”

वह आगे इस बात पर बल देते हैं कि- ”यह सभी का प्रश्न प्रतीत होता है अथवा कुछ नहीं । या तो सारा अतिरेक आहार जो अतिरिक्त श्रमिकों को भूमि से वापिस लेने से उपलब्ध हो जाता है को अनुत्पादक श्रमिकों को दिया जाये जो नये व्यवसायों में कार्यरत है अथवा कुछ भी नहीं किया जा सकता ।” –नर्कस

इस प्रकार नर्कस द्वारा प्रस्तुत ”अदृश्य बेरोजगार के बचत सम्भाव्यता के रूप में उपयोग” के सिद्धान्त की सफलता अतिरेक आहार की दक्ष गतिशीलता पर निर्भर करती है ।

कुछ रिसावों के कारण अतिरेक आहार की गतिशीलता 100 प्रतिशत नहीं हो सकती, क्योंकि निम्नलिखित कारणों से इन रिसावों को रोका नहीं जा सकता:

(क) कृषि पर निर्वाह करने वाले किसान पहले से अधिक आहार का उपयोग कर सकते हैं क्योंकि अब उनको अधिक आहार उपलब्ध है । अतिरेक आहार की गतिशीलता के लिये आवश्यक है कि अतिरेक आहार शेष किसानों द्वारा आहार का उपभोग अतिरेक आहार को गतिशील करने में नहीं बढ़ता न बढ़े ।

(ख) पूंजी परियोजनाओं पर कार्य करने वाले श्रमिक भी अपने आहार का उपभोग बढ़ा सकते हैं क्योंकि अब वे अधिक कमाई कर रहे होते हैं और अपने जीवन स्तर को सुधारना चाहेंगे ।

(ग) खाद्य पदार्थों को खेतों से पूंजी निर्माण वाली परियोजनाओं तक ले जाने की परिवहन लागत के कारण कुछ रिसाव हो सकता है । निर्वाह कोष में कमी निवेश क्षेत्र को स्थानान्तरित श्रमिकों की आहार व्यवस्था के लिये अर्थव्यवस्था की क्षमता को कम कर देती है और अदृश्य बेरोजगारी की बचत सम्भावनाओं को कम कर देती है ।

नर्कस ने रिसाव की समस्याओं के समाधान के लिये पूरक बचतों की धारणा प्रस्तुत की है । वे कल्पना करते हैं कि यदि रिसाव की क्षतिपूर्ति के लिये पूरक बचतें व्यवस्था के बाहर से प्राप्त की जा सकें, या तो घरेलू साधनों से अथवा पूंजी आयातों से तब भी अतिरेक श्रम को पूंजी निर्माण के लिये प्रयुक्त किया जा सकता है ।

नर्कस आगे कहते हैं, वह मानते हैं कि अदृश्य रूप में बेरोजगार व्यक्तियों को शहरी क्षेत्रों में न खींचा जाये बल्कि उन्हें ग्रामीण क्षेत्रों के पास पूंजीगत परियोजनाओं में काम पर लगाया जाये, इससे अन्न को खेतों से परियोजना स्थलों तक ले जाने की यातायात लागत कम होती है ।

उपकरणों की वित्तीय व्यवस्था (Finance the Tools):

एक अन्य समस्या जो उत्पन्न होती है वह उन श्रमिकों को उपकरण और औजार आदि उपलब्ध करने की है जो पूंजी निर्माण वाली परियोजनाओं की ओर स्थानान्तरित किये गये हैं । कुछ पूंजीगत वस्तुओं का होना आवश्यक है जिसके साथ यह श्रमिक कार्य कर सकें ।

”निवेश श्रमिक, स्थिर पूंजी के किसी टुकड़े जैसे किसी सड़क का निर्माण आरम्भ करने से पहले बैठ कर विचार करने के पश्चात् अपने ही हाथों से अत्यावश्यक आरम्भिक उपकरणों का निर्माण करेंगे । आवश्यकता पड़ने पर केवल शून्य से आरम्भ करेंगे । वे अपने बेलचे, ठेले, छकड़े, उत्तोलक आदि बना सकते हैं जो सड़क निर्माण में सहायक हों । यदि देश एक बन्द अर्थव्यवस्था है तो उन्हें यह सब करना पड़ेगा । यदि किसी उन्नत क्षेत्र के साथ व्यापारिक सम्बन्ध नहीं हैं जहां अधिक दक्षता से पूंजीगत वस्तु द्वारा पूंजी वस्तुओं का निर्माण होता है न कि खाली हाथों से । वास्तविक संसार में, आज के अल्प विकसित देशों को व्यापार द्वारा पूंजीगत वस्तुएं प्राप्त करने का लाभ प्राप्त है । वे आगे कहते हैं कि विकास के आरम्भिक सोपानों पर इस प्रकार के देशों को उनकी कारक सम्पत्ति के अनुकूल अति सरल उपकरणों और साजो सामान की आवश्यकता होगी ।” –नर्कस

इससे स्पष्ट है कि विशेषतया आर्थिक विकास के आरम्भिक सोपानों पर पूंजी गहन तकनीकें अधिक वांछनीय नहीं हैं ।

इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये नर्कस कहते हैं- “अल्प विकसित देशों की स्थानीय परिस्थितियों में आयात की हुई तकनीकों को अपनाना आवश्यक है । अत्याधिक परिष्कृत साजो-सामान लाभप्रद नहीं है, विकास के आरम्भिक सोपानों पर, इस प्रकार देशों के लिये बहुत सरल उपकरण और साजो-सामान ही उचित होता है ।”

इन समस्याओं के बावजूद एम. डोब और आर. नर्कस, पूंजी निर्माण की उत्पत्ति के लिये अतिरेक श्रम शक्ति के उपयोग के सम्बन्ध में आशावादी है । यद्यपि डोब का दृढ़ विश्वास है कि अल्पविकसित देशों में आर्थिक विकास की प्राप्ति के लिये छुपी हुई बेरोजगारी का उपयोग बहुत सहायक हो सकता है ।

इसलिये उसका विचार है- ”हाथ गांवों से नये निर्माण स्थलों की ओर बढ़ेंगे, हाथों के साथ मुंह भी उस ओर बढ़ेंगे, गांवों में कम मुंह रह जाने पर खाद्य पदार्थ गांवों से निकल कर निर्माण श्रमिकों की भारी संख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे, गांवों में बचे लोगों के उपभोग में कोई गिरावट नहीं आयेगी ।”

वाकिल और ब्रह्मनन्द के विचार (Vakil and Brahmanand’s Views):

सी. एन. वाकिल और पी. आर. ब्रह्मानन्द ने नर्कस के अदृश्य बेरोजगारी के सिद्धान्त को बचत सम्भावना के रूप में आगे स्पष्ट किया है । उनका विचार है कि कृषि से अतिरेक श्रम शक्ति का पूंजी क्षेत्र की ओर स्थानान्तरण, मजदूरी वस्तुओं के अन्तराल के अस्तित्व के कारण, अपनी वित्त व्यवस्था स्वयं नहीं कर सकता ।

यह निवेश क्षेत्र में और अदृश्य रूप में बेरोजगार श्रमिकों के बीच उपभोग स्तर में अन्तर से सम्बन्धित होता है । पूंजी क्षेत्र में वास्तविक मजदूरी निर्वाह क्षेत्र से ऊंची होती है । अन्य शब्दों में, वह दर जिस पर अतिरेक श्रम शक्ति निर्वाह क्षेत्र से निवेश क्षेत्र की ओर स्थानान्तरित की जा सकती है उस दर पर निर्भर करता है जिस पर मजदूरी वस्तुओं की पूर्ति बढ़ाई जा सकती है ।

अत: निवेश क्षेत्र में अतिरेक मजदूरी वस्तुओं की मांग अनुसार कमी है जो अल्प विकसित देशों में बेरोजगारी की स्थिति की ओर ले जाती है । इसलिये, जब तक यह मजदूरी वस्तुओं के अन्तराल से भर नहीं जाता अतिरेक जन-शक्ति का श्रमिकों द्वारा उपभोग कर लिया जाता है ।

इस मजदूरी वस्तुओं के अन्तराल को कम करने के लिये सी. एन. वाकिल और पी. आर. ब्रह्मानन्द अनिवार्य बचत सम्भाव्यता का सुझाव देते हैं जो उपयोग के वास्तविक स्तर के बीच अन्तर को सुरक्षित रखता है ।

उनका विश्वास है कि- ”मजदूरी वस्तुओं के अन्तराल को सुधारने के लिये आवश्यकता है कि अल्पकाल में, मजदूरी वस्तुओं के संदर्भ में उपभोग स्तर में अनिवार्य कमी के उपाय किये जायें । अनिवार्य बचत सम्भाव्यता की परिभाषा दिये गये कार्यों को करने के लिये पूर्ण रूप में आवश्यक मजदूरी वस्तुओं की मात्रा और वह मजदूरी वस्तएं जो इस समय श्रमिकों द्वारा उपयुक्त की जा रही है के अन्तर के रूप में की जा सकती है ।”

अनिवार्य बचत द्वारा मजदूरी वस्तुओं में किसी भी वृद्धि का उस रोजगार पर गुणक प्रभाव हो जिसकी निवेश क्षेत्र में रचना की जा सकती है । अन्य शब्दों में, निवेश क्षेत्र में रोजगार में वृद्धि, उपभोग मानकों में अनिवार्य कमी से परिणामित मजदूरी वस्तुओं के मूल्य से बहुल होगी ।

यह इस कारण है कि अदृश्य बेरोजगारी के स्थानान्तरण की प्रक्रिया वस्तुओं की कुछ मात्राओं को मुक्त करेगी जिन्हें बाजार में पूंजीवादी क्षेत्र के श्रमिकों द्वारा उपभोग के लिये उपलब्ध करवाया जा सकता है ।

आओ, हम कल्पना करें कि समग्र अतिरेक आहार निवेश क्षेत्र में नये स्थानान्तरित श्रमिकों को उपलब्ध करवाया जाता है । अन्तराल को अनिवार्य बचतों से भरना होगा । इसके लिये हम कल्पना करते हैं कि निवेश क्षेत्र में एक श्रमिक का उपभोग निर्वाह क्षेत्र के श्रमिक से दुगना है ।

यदि आरम्भ में हम मजदूरी वस्तु की दो इकाइयां उपलब्ध करवाते हैं, तब एक अदृश्य रूप में बेरोजगार को निर्वाह क्षेत्र से व्यवस्थित क्षेत्र में स्थानान्तरित करना सम्भव हो सकता है ।

परिवार के फार्म पर जब वह अदृश्य बेरोजगार है वह मजदूरी वस्तुओं की एक इकाई का उपयोग करता है, तब वह एक इकाई अपने साथ लाता है और हमने पहले से एक इकाई उसके लिये रखी है ताकि मजदूरी वस्तुओं की दो इकाइयां उपलब्ध हों ।

अत: यह विश्लेषण किया जा सकता है कि यदि हम एक श्रमिक के लिये मजदूरी वस्तुओं का प्रबन्ध कर सकते हैं; तब हमारे लिए एक श्रमिक को ही नहीं बल्कि दो श्रमिकों को रोजगार उपलब्ध करवाना सम्भव होगा ।

यह दर्शाता है कि रोजगार में कुल वृद्धि, रोजगार में आरम्भिक वृद्धि से बहुल होगी । आरम्भिक रोजगार और अन्तिम रोजगार में सम्बन्ध ”उपभोग वस्तुओं के गुणक” (Consumption Goods Multiplier) द्वारा दिया गया है ।

उपभोग अथवा मजदूरी वस्तुओं में गुणक (Kw) को एक व्यवस्थित क्षेत्र में उत्पादक श्रमिक (Wp) की मजदूरी वस्तु और अदृश्य रूप में बेरोजगार उत्पादक श्रमिकों की मजदूरी वस्तुओं द्वारा विभाजित के बीच अन्तर के विपरीत रूप में परिभाषित किया जाता है अथवा रोजगार गुणक है ।

जहां:

Wp = उत्पादक श्रमिक की मजदूरी वस्तुएं

Wd = अदृश्य बेरोजगार श्रमिक की मजदूरी वस्तुएं

उपरोक्त उदाहरण में, हमारे पास है

यह दर्शाता है कि मजदूरी वस्तु गुणक का विस्तार स्पष्टतया कृषि प्रभुत्व वाले निर्वाह क्षेत्र से अतिरेक की प्रभावी मुक्ति पर निर्भर करता है । अतिरेक जितना अधिक होगा मजदूरी वस्तु गुणक उतना ही बड़ा होगा । इस प्रकार अदृश्य बेरोजगारी, अल्प विकसित देशों में पूंजी निर्माण का साधन हो सकती बशर्ते कि हम विक्रय योग्य अतिरेक बढ़ा सकें ।

आलोचना (Criticism):

नर्कस की अदृश्य बेरोजगारी की धारणा ने छुपी हुई बचत सम्भाव्यता के रूप में पर्याप्त विवाद खड़ा किया है । इसने अल्प विकसित देशों के लिये धारणा की प्रायोगिक योजना पर विचार नहीं किया है । जनसंख्या की बहुलता वाले निर्धन देशों में अदृश्य बेरोजगारी के अस्तित्व से कोई इन्कार नहीं कर सकता ।

इस धारणा के प्रायोगिक व्यवहार के मार्ग में आने वाली अड़चनों पर नीचे व्याख्या की गई है:

1. मुद्रा स्फीति की समस्या (Problem of Inflation):

अदृश्य रूप में बेरोजगार व्यक्ति की पहचान करना बहुत कठिन है । अतिरेक श्रम के पास कार्य करने के लिये पूंजी का अभाव होता है न कि स्थिर पूंजी का । इसे दूर किया जा सकता है यदि पूंजी परियोजनाओं पर काम करने के लिये उन्हें उच्च वेतन देकर आकर्षित किया जाये ।

इसके अतिरिक्त, पूंजी परियोजनाओं में अतिरेक श्रमिकों की नियुक्ति अर्थव्यवस्था मुद्रा स्फ़ीति को जन्म देती है, क्योंकि उपभोक्ता वस्तुओं के लिये उनकी मांग बढ़ेगी जब उसके अनुकूल उत्पादन की वृद्धि नहीं होगी ।

2. उत्पादन में गिरावट (Fall in Production):

शुल्ज का मानना है कि कृषि क्षेत्र से अतिरेक श्रम का पूंजी परियोजनाओं की ओर स्थानान्तरण कृषि उत्पादन पर विपरीत प्रभाव डालेगा । उनके अपने शब्दों में- ”किसी भी निर्धन देश के लिये कहीं भी ऐसा प्रमाण नहीं है जो प्रस्तावित करें कि बहुत छोटे अंश का कृषि से स्थानान्तरण, मान लो वर्तमान श्रम शक्ति के 5 प्रतिशत का अन्य वस्तुएं समान रहने पर उत्पादन घटाये बिना किया जा सकता है ।”

3. अतिरिक्त प्रशासनिक बोझ (Additional Administration Burden):

नई पूंजी परियोजनाओं का आरम्भ अल्प विकसित देशों के प्रशासनिक एवं वित्तीय भार को बढ़ाता है तथा वे इस बोझ को सहन नहीं कर पाते । नई पूंजी परियोजनाओं को उपकरणों और साजो-सामान के सुरक्षित नियन्त्रण की आवश्यकता होती है जिससे प्रशासन पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है ।

4. उपभोग की प्रवृत्ति परिवर्तनशील है (Propensity to Consume is Changing):

नर्कस का मानना है कि नये नियुक्त श्रमिकों तथा जो फार्मों पर रह गये हैं की उपभोग प्रवृत्ति स्थिर रहती है । अल्प विकसित देशों में लोगों का जीवन स्तर बहुत नीचा होता है और जब उनकी आय बढ़ती है तो वे अपनी दबी हुई मांगो को सन्तुष्ट करते हैं, इससे उनकी उपभोग प्रवृत्ति बढ़ जाती है ।

5. अदृश्य बेरोजगार को गतिशील करना कठिन (Difficult to Mobilise Disguised Unemployment):

अदृश्य रूप में बेरोजगार व्यक्ति को गतिशील करना कठिन है क्योंकि वह अपनी और अपने रिश्ते-नातेदारों से जुड़े होते हैं । वे अपने गांव छोड़ कर नये स्थानों पर काम करने के लिये तैयार नहीं होते । वे सामाजिक रीति-रिवाजों और परम्पराओं के अधीन होते हैं जो उन्हें अपने घर से जुड़े रहने के लिए प्रेरित करती हैं ।

6. अप्रशिक्षित श्रमिक अधिक स्थिर पूंजी उत्पन्न नहीं कर सकते (Unskilled Labourers Cannot Produce much Fixed Capital):

अदृश्य रूप में बेरोजगार श्रमिक आवश्यक रूप में अप्रशिक्षित और गैर-तकनीकी होता है, परन्तु पूंजी परियोजनाओं के लिये निपुण तथा तकनीकी श्रम की आवश्यकता होती है ।

7. तकनीकी निष्क्रियता की अवास्तविक मान्यता (Unrealistic Assumption of Technical Neutrality):

कुरीहारा का मत है- ”नर्कस के अदृश्य बेरोजगार के विचार में सम्मिलित तकनीकी निष्क्रियता की उपलक्षित मान्यता बचत सम्भावना के रूप में असम्भव और असहायक है ।”

एक बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था में औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया के दौरान, यदि पूंजी वस्तुओं का क्षेत्र श्रम बचत के उपकरणों को अपनाता है तो यह अर्थव्यवस्था में अदृश्य रूप में बेरोजगार लोगों की गतिशीलता को प्रतिबन्धित कर देगा और इसके लिये पूंजीगत साजो-सामान की तीव्रता से बढ़ने की आवश्यकता होती है ताकि श्रम को बढ़ती हुई उत्पादकता से लैस किया जाये ।

8. प्रजातांत्रिक राज्यों में व्यावहारिक नहीं (Not Practicable in Democratic States):

निर्वाह क्षेत्र से पूंजी क्षेत्र में अतिरेक श्रम की गतिशीलता को बल-प्रयोगी विधियों के प्रयोग की आवश्यकता पड़ सकती है । नर्कस इस कठिनाई को अनुभव करते हुये कहते हैं- ”कुछ अल्प विकसित देशों के पास पूंजी निर्माण के लिये सक्षम घरेलू साधन उपलब्ध होते हैं, परन्तु बल प्रयोग विधियों को अपनाये बिना उनको गतिशील करना अति असम्भव है ।”

9. विक्रय योग्य अतिरेक नहीं बढ़ता (Marketable Surplus Does Not Increase):

नर्कस ने कहा कि जैसे ही अदृश्य बेरोजगार श्रम को भूमि से हटाया जाता है तो ग्रामीण क्षेत्र में विक्रय योग्य अतिरेक बढ़ जाता है । काल्डोर का मानना है कि अल्प विकसित देशों में किसान अपने लिये उत्पादन करते हैं न कि लाभ के लिये और गैर-कृषि क्षेत्रों को उपलब्ध करवाई गई मात्रा औद्योगिक परियोजनाओं की आवश्यकता से प्रशासित होती है ।

क्योंकि फार्म पर कार्य करने वालों की कमी के परिणामस्वरूप औद्योगिक उत्पादों की मांग भी कम हो जाती है, सम्भव है कि अतिरिक्त श्रम शक्ति में कमी, कमी को ही आमन्त्रित करेगी न कि शहरों के लिये बिक्री योग्य अतिरेक की राशि में वृद्धि को ।

10. आहार अतिरेक के एकत्रीकरण और वितरण में अनेक समस्याएं (Collection and Distribution of Food Surplus Involves Many Problems):

नर्कस अतिरेक आहार के एकत्रीकरण और वितरण से सम्बन्धित समस्याओं का अनुमान लगाने में असफल रहे हैं जो फार्म श्रमिकों से नई पूंजी परियोजनाओं पर कार्य करने वाले श्रमिकों की ओर स्थानान्तरित करना है ।

11. पूरक बचतों की अपर्याप्तता (Inadequacy of Complementary Savings):

नर्कस का सिद्धान्त पूरक बचतों की उपलब्धता पर निर्भर करता है जो निर्वाह क्षेत्र से बाहर के क्षेत्रों में होती है । पूरक बचतों की अपर्याप्तता, अदृश्य बेरोजगार के पूंजी निर्माण के स्रोत के रूप में प्रयोग के मार्ग में अड़चन बन सकती है ।

के. एन. राज ठीक ही कहा है कि अप्रयुक्त श्रम का अस्तित्व ही अपने आप में बचत सम्भाव्यता का प्रमाण है, जो लिये जाने के लिये उपलब्ध है, अत: यह समस्या का ठीक मूल्यांकन नहीं है ।

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